Public Program

Public Program 1998-12-17

Location
Talk duration
65'
Category
Public Program
Spoken Language
Hindi

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17 दिसम्बर 1998

Public Program

New Delhi (भारत)

Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - Draft

नैतिकता और देशभक्ति दिल्ली, १८/१२/१९९८

सत्य को शोधने वाले आप सभी साधकों को हमारा नमस्कार! हम सत्य को खोज रहे हैं किंतु कौन सी जगह खोजना चाहिए? कहाँ खोजना चाहिए? कहाँ ये सत्य छुपा हुआ है? ये पहले समझ लेना चाहिए। आप देखते हैं कि परदेस से हजारों लोग हर एक देश से यहाँ आते हैं और उनसे पूछा जाये कि, 'तुम यहाँ क्यों आयें?' तो कहते हैं कि, 'हम यहाँ सत्य खोजने आयें हैं, हमारे देश में तो सत्य नहीं लेकिन भारत वर्ष में तो सत्य है। ये समझ कर के हम यहाँ आयें हैं। और इस सत्य की खोज में हम हर साल हजारों लोग इस देश में आते हैं और हजारों वर्षों से इस देश में आते हैं। आपने सुना ही होगा कि इतिहास में चायना से और भी कई देशों से लोग यहाँ आते थे। और उनको पता नहीं कैसे मालूम था कि इस देश में ही सत्य नेक है, छुपा हुआ है। और उसकी खोज में वो गिरीकंदरों में घूमते थे । हिमालय पर जाते थे। हर तरह का प्रयत्न करते थे कि किसी तरह से हम सत्य को खोज लें क्योंकि वो किसी भी धर्म का पालन करते हैं। लेकिन वो जानते थे कि इस धर्म पालन से हमें सत्य नहीं मिलने वाला है। ये एक तो मार्गदर्शक है। जैसे रास्ते पर इशारे पर लिखा जाता है कि ये रास्ता है। किंतु इससे हम पाते हैं इसलिए इस अधूरेपन से परेशान होकर के वो इस भारतवर्ष में आते थे। अब ये सत्य हमारे देश में था और है और अभी भी है । और इस सत्य को पाना अत्यन्त आवश्यक है। अपने यहाँ की प्रणाली और परदेश की प्रणाली में बहत अन्तर है । वहाँ की जो ज्ञान की प्रणाली है वो उस तरह है कि अगर कोई बात कोई आदमी कहता है तो उसको फौरन देखते लगते हैं, उसका निरिक्षण करते हैं और उसका विश्लेषण करते हैं कि ये बात कहाँ तक सही है। इसामसीह ने भी अगर कोई बात कही है तो उसका विश्लेषण हो जाता है । उस विश्लेषण से जो असलियत है वो पता नहीं लगती और उसके सब विकृत रूप सब सामने आ जाते हैं। अब ये सोचना है कि अपने देश की प्रणाली कैसी है ? एक तो इस देश में कोई तो विशेषता, पवित्रता तो है कि यहाँ इतने ऋषि-मुनि, इतने मनन करने वाले लोग यहाँ हो गये हैं। हजारों वर्षों से और वो बढ़ते - बढ़ते सोलहवी शताब्दि तक हम देखते हैं कि यहाँ गुरूनानक जैसे अनेक ऐसे साधु-सन्त हो गये हैं कि उन्होंने सत्य पर काफी कुछ लिख दिया है, काफी कुछ कहा गया है, समझाया गया है, लेकिन हमारी जो प्रणाली है वो इस तरह की है कि जो ऐसे पहुँचे हुए पुरुषों ने लिखा है, उसका हम, वह prove नहीं करते, डिस्कस नहीं करना चाहते हैं, उसको हम शास्त्रीय दृष्टि से नहीं देखना चाहते क्योंकि वो पहुँचे लोग हैं। वो ऊँची स्थिति पर है, वहाँ से उन्होंने अगर कोई बात कह दी तो उसको हम मान्य करके उस रास्ते पर चलते हैं। ये हमारी देश की विशेष, हुए विशेष तरह की एक प्रणाली है, जिसमें हम एक श्रद्धाभाव से, एक विश्वास के साथ इस चीज़ को मानते हैं कि जो बड़े पहुँचे हुए आध्यात्मिक स्तर के ऊँचे मार्ग में रहते हुए जो लोगों ने लिखा है वही बात सही है और उसमें झूठ नहीं। और उसको पड़तालने का, उसका विश्लेषण करने का हमें कोई अधिकार नहीं क्योंकि हम कोई ऐसे बद्धिमान नहीं हैं। ऐसे हम पहुँचे हुए लोग नहीं हैं। हमारे में इतने शास्त्र वगैरे का कोई ज्ञान नहीं है। ना ही हम गहराई से कोई चीज़ जानते हैं एक बार इस बात को समझ लेने पर हम श्रद्धापूर्वक उस महान तत्वों को मानते हैं जो हमारे सामने इन ऋषि-मुनियों ने रखा है। विदेश में भी मैंने देखा, कि वहाँ पर बड़े-बड़े सूफी लोग हो गये हैं और उन्होंने बिल्कुल सहज की बातें करी हैं, बिल्कुल सहज की ही बात कही हैं। लेकिन उनको कोई मानता नहीं, इन सुफियों को। इनकी मान्यता बहुत ही थोड़ी सी है, थोडे से लोग उनको मानते हैं और सिर्फ उनकी कविता पढ़कर बस मनोरंजन कर लेते हैं। पर उन्होंने जो कहा उस मार्ग पर नहीं चलते हैं। ऐसे हर एक देश में भी बड़े-बड़े सूफी हो गये हैं। इंग्लैंड जैसे देश में भी विलियम ब्लैक जैसा बड़ा भारी सन्त हो गया है। लेकिन उसकी बात कोई नहीं मानते हैं। और हमने तो | कभी कॉलेज में भी उसका नाम नहीं सुना था। लेकिन हम जानते थे कि वो है। जब लंडन गये थे तो हम पहली मरतबा हमने उनकी

किताबें खरिदी। उसका कारण ये है कि 'विलियम ब्लैक पागल है।' जितने भी सूफी थे सब पागल हैं। मतलब अपने ऋषि-मुनि भी पागल हैं इनके हिसाब-किताब से। इस तरह की जो अहंकारिता परदेस में है वो इस देश में नहीं है, नहीं थी ऐसा कहें क्योंकि अब तो हम बिल्कुल परदेसी हो रहे हैं। हमें अपने देश के बारे में कुछ मालूमात ही नहीं है। हमारे स्कूलों में बच्चों को कुछ मालूम ही नहीं। किसी बच्चे से हमने पूछा कि, 'तुम अंजता के बारे में कुछ जानते हो ?' तो कहने लगे कि, 'अजंता हिन्दुस्तान में है या बाहर ? अपनी देश की जो संपत्ति है वो इतनी ज्यादा, इतनी गहरी, इतनी अचल है कि उसको देखना, जानना हम हिन्दुस्तानी अपना कर्तव्य ही नहीं समझते। यहाँ की संस्कृति के बारे में तो हम बता ही नहीं सकते। कितनों ने तो मुझसे कहा, खास कर जितने भी हमारे परदेसी सहजयोगी थे कि, 'माँ, आप एक किताब हिन्दुस्तानियों की जो खास कर जो गहरी बाते हैं उस पर लिखें ।' सो मैंने कहा, 'कौनसी गहरी बातें ?' तो कहने लगे, 'संस्कृति। भारतीय संस्कृति पर आप एक किताब लिखो।' तो मैंने कहा कि, 'यह तो महासागर है। इस सागर में से मैं आपको क्या दे सकती हूँ। उसके लिये तो ग्रन्थ पे ग्रन्थ लिखने पड़ेंगे।' एक छोटी सी बात हम सब हिन्दुस्तानियों के लिए में बताती हैँ, एक छोटी सी मज़ाक की बात कि एक फॉरेन लेडी थी, अम्बसिडर की बिवी थी वो, वो हमारे पास आयी| गले में हार पहने हुए थे। तो मुझसे कहने लगी कि, 'मेरी समझ में वो हिन्दुस्तानी नहीं आते हैं।' तो मैंने कहा कि, 'क्या हुआ?' तो कहने लगी कि, 'मैं एक फूलों की दुकान में गयी थी और उस दुकान में बड़ा सुन्दर एक हार था, उसको खरिद कर मैंने पहन लिया। तो वो जो लड़की थी, जिसने बेचा, वो पेट पकड़-पकड़ कर हँसने लग गयी और रास्ते में सब लोग मेरे ऊपर हँस रहे हैं क्योंकि मैंने गले में हार पहन लिया। मैंने कहा अब इसको कैसे समझायें? मैंने कहा कि 'भाई, देखो, यहाँ कोई अगर आपका आदर करें तभी हार पहनाया जाता है। आप अपना ही आदर तो कर नहीं सकते। तो आप अगर खुद आदर करें अपना और हार पहन लें तो ये जो हिन्दुस्तानी संस्कृति है उसके लिए तो बड़ी हास्यास्पद चीज़ है और सबको हँसी आयेगी ही।' तो उसने कहा कि, 'ये जो हिन्दुस्तानी, भारतीय आपकी जो चीज़ है ये बड़ी गहरी है।' मैंने कहा, 'हाँ, ये तो आप कोई भी हिन्दुस्तानी होगा तो ये बात समझ जायेगा कि इस तरह से अपने को आगे बढ़ा कर रहना और इस तरह से अपने गले में हार पहनना ये चीज़ बड़ी ही निंदनीय हैं क्योंकि इसमें नम्रता नहीं है। इसमें ये समझ लें कि हम है कौन ? हम अपने को क्या समझे बैठे हैं!' लेकिन इस बात को ले कर के मैं कहूँगी कि महात्मा गाँधी ने जो आन्दोलन चलाया था वो बिल्कुल उल्टा फिर गया। जब हम गाँधिजी के साथ थे, उनके साथ रहे और उनकी बहुत सारी बातचीत और उनका ढंग जो था, वो था, हालांकि वो भी परदेस के पढ़े हुए, कि अपनी भारतीय संस्कृति को उभारना चाहिए। उसके बगैर ये संसार नहीं बच सकता। इस वक्त संसार को बचाना है तो भारतीय संस्कृति का यहाँ एक बढ़िया उदाहरण होना चाहिए, मसला होना चाहिए। जिसको देख कर लोग समझ जाएंगे कि ये भी एक जिन्दगी है, इसमें भी एक आनन्द है। और उनके यहाँ चार बजे उठने की प्रथा थी। चार बजे उठके, नहा-धो कर के और आपको प्रार्थना में जाना पड़ता था। और प्रार्थना में जाकर आप बैठिये तो वहाँ साँप भी बहुत थे, कभी-कभी आपके सामने एकाद साँप डोलता हुआ दिखाई देता है। पर कुछ कभी कोई काटा हो , किसी ने , बिच्छू ने भी तो पता नहीं। इतना वातावरण उनका शुद्ध था। और वहाँ नम्रतापूर्वक सब लोग, हर एक जाति के, हर एक धर्म के लोग बैठ कर के प्रार्थना करते थे । और प्रार्थना में संगीत आदि सब कुछ होता था। और उन्होंने भजनावली भी लिखि है, आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि मैं ये बात को जानती हूँ कि वो कितने आध्यात्मिक थे कि सारे कुण्डलिनी के ही चक्रों पर ही उन्होंने एक के बाद एक, एक के बाद एक इस तरह से सारे श्लोक लिखे पूरे। सबसे पहले उन्होंने लिखा था तो गणेश स्तुति, फिर सरस्वती की स्तुति इस तरह से करते-करते उन्होंने हर एक चक्र के जो अधिष्ठित देवता थे उनके उपर में अपनी भजनावली में लिखा था और उसी तरह से गाने का। उसके बाद बाइबल से भी 'लॉर्डस् प्रेयर' कही जाती थी। उसके बाद परांसे भी कहा जाता था | उसके बाद और भी बुद्ध धर्म के भी, जैन धर्म के भी उसमें कुछ न कुछ श्लोक होते थे। पर पहला जो हिस्सा था उसमें एक-एक चक्र पर बैठे हुए हर एक देवता को उन्होंने लिया था। इतने आध्यात्मिक दृष्टि से देखते थे, वो कुण्डलिनी के बारे में जानते थे, चक्रों के बारे में जानते थे । सब कुछ जानते हुए उन्होंने इस चीज़ को लोगों में लाने की कोशिश की, ऐसी भजनावली लिखायी जिसमें सब चीज़ों के बारे में लिखी हुई थी। और अध्यात्म के बारे में बहुत मुझसे

भी पुछते थे। उस समय मैं बहत छोटी सी थी। लेकिन तब से वो पूछा करते थे कि ' तुम बताओ।' कौन सी गहनता हमारे संस्कृति की विशेष है? अब इस संस्कृति के बारे में कहना बहुत जरूरी है क्योंकि गांधिजी को तो लोगों ने भूला दिया। गांधिजी तो बिल्कुल बेकार हो गये हैं क्योंकि उनका अध्यात्म तो कहीं दिखाई नहीं देता आज राजकारण में। अध्यात्म की कोई बात ही नहीं करता। अध्यात्म में हम हिन्दुस्तानी नहीं जाएंगे तो कौन जाएगा उसमें? कौन उसको समझेगा? आज आप देख रहे हैं यहाँ पचहत्तर देश के लोग आ कर के यहाँ बैठे हुए हैं। पचहत्तर देशों के लोग आये हुए हैं और पचहत्तर देशों में ये अध्यात्म फैल गया। और इन्होंने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया। और इन्होंने अपने संस्कृति को पकड़ा है, अमेरिकन संस्कृति क्यों नहीं, इंग्लिश संस्कृति क्यों नहीं, फ्रेंच संस्कृति क्यों नहीं? उल्टे जिस देश से वो आये हैं उस देश की संस्कृति को कहते हैं कि ये तो बिलकुल ही इन्हें पतन की ओर ले जा रही है। ये हमारे आत्मा का हनन करती है। ये हमें नैतिकता से गिराती है। इन लोगों ने समझ लिया, अब हम लोगों ने नहीं समझना चाहिए? हम लोग तो ऐसी-ऐसी चीज़ों का वरण करते हैं, ऐसी-ऐसी चीज़ों के लिए लड़ते हैं जहाँ नैतिकता का विचार है ही नहीं। और सबसे बड़ी चीज़ अपनी संस्कृति की देन है कि हम लोगों को नैतिक होना चाहिए। नैतिकता के अनेक नियम हैं, पर अपने देश में, इस संस्कृति में सबको बिलकुल पूरी तरह से स्वतन्त्रता है। पूर्णतया स्वतन्त्रता है कि आप स्वतन्त्र रहें। चाहे आप नैतिक होना चाहें, चाहे आप कुछ होना चाहे हो जाईये क्योंकि अन्तिम स्थिति में आपको पूर्णतया स्वतन्त्रता मिलती है। अब स्वतन्त्र समझना चाहिए। स्व के तन्त्र को जानना यही स्वतन्त्रता है। और 'स्व' माने क्या? 'स्व' माने आपका आत्मा। आत्मा को जानना ही स्वतन्त्रता है। शिवाजी ने कहा था, फ्यूचर के बारे में, भविष्य के बारे में कि 'स्व' का तन्त्र जानो। 'स्व' के तन्त्र को जानना होगा और वही सहजयोग है जिससे आप 'स्व' के तन्त्र को जानते हैं । और इस 'स्व' के तन्त्र को जानने के लिए सबसे सहज मार्ग जो है वो है भारतीय संस्कृति। इसकी गहराई में आप उतर ही नहीं सकते। क्योंकि अब पता नहीं कहाँ से कहाँ फेंक दिये गये हैं। एक तो गलती ये हुई कि ऐसे लोग हमारे ऊपर आ गये हैं कि जिनको भारतीय संस्कृति के बारे में कुछ मालूमात ही नहीं है। इन्होंने गांधिजी को लपेट कर के बिठा दिया एक तरफ कि आप एक तरफ बैठे रहो । और उन्होंने जो बातें सिखाना शुरू कर दी वो सारी भारतीय संस्कृति के विरोध में है। जैसे 'मैं चित्तोडगढ़ की हूँ।' वहाँ आपने सुना होगा कि पदुमिनी जो है उन्होंने जौहार किया था । उन्होंने जौहार किया था औरतों की आबरु, चॅस्टिटी के लिए। ये सबसे बड़ी शक्ति है ऐसा हम लोग मानते हैं अपनी संस्कृति में। जिस जगह औरतों की आबरु और इज्जत हट जाती है, वो जगह में राक्षस और ब्रह्म राक्षस और हर तरह के भूत आ कर रहते हैं। और ये बात आप साक्षात् देख सकते हैं अमेरिका में हो रहा है। अमेरिका में इतनी गन्दी चीज़ें हो रही हैं कि मैं तो आपके सामने बता नहीं सकती। पर यहाँ तक कि अपने ही बच्चों को माँ लोग मार डालते हैं। और इस कदर गन्दगी वहाँ है क्योंकि अब तो आप लोग वहाँ गये नहीं हैं। बाहर के ढोल सुहाने होते हैं कि वहाँ के लोगों में जरा सा भी भय नहीं है, परमात्मा का भय नहीं है। परमात्मा के शक्ति का जरा सा भी विश्वास तक है कि नहीं पता नहीं। सबकुछ पैसा, सब कुछ पैसा। किसी भी तरह से पैसा लो। हमारे एक वहाँ हैं, किसी अमेरिका के आदमी ने कहा कि, 'भाई, तुमको इतना -इतना रूपया देता हूँ, तुम फलानी औरत को मार डालोगे?' उसने कहा, 'ना, ना, मैं कभी नहीं मार सकता।' तो कहा, 'क्यों?' तो कहने लगे कि, 'नहीं, नहीं, मैं नहीं मारता किसीको, मैं मारना नहीं चाहता, क्यों मारूं।' तो कहने लगा, 'पैसे के लिए ।' तो उसने कहा कि, 'पैसे के लिए क्या, दुनिया के लिए मैं नहीं मार सकता।' उसने कहा, 'मैं तो मार दूंगा।' तो कहा, 'क्यों ?' तो कहने लगा, 'इसमें पैसा मिलता है और सबसे बड़ी चीज़ है पैसा।' फिर अपनी माँ को भी मार दो । ' पहले जब एक साहब यहाँ आये थे तो मुझसे कहने लगे कि, 'माँ, मैंने अपने माँ को भी मार डाला है।' मैंने कहा, 'अच्छा! कल तुम मुझको भी मार दोगे।' जो अपनी माँ को मार सकता है, और जिसे माँ के प्रति श्रद्धा नहीं है वो हिन्दुस्तानी नहीं हो सकता। वो भारतीय नहीं हो सकता । माँ के तो बहुत वर्णन है और माँ को तो हम शक्तिस्वरूप मानते है । और उसी शक्ति की पूजा करते हैं। सबसे पहले सारे ग्रन्थों में माँ का होता है, माँ से ही सब शुरू हुआ। और इन लोगों की जो व्यवस्था है, परदेसियों की, उसमें तो माँ का कोई स्थान ही नहीं है।

बहुत से देशों में तो देश का नाम भी बाप के नाम से होता है। जैसे हम लोग भारत-माता कहते हैं, तो वो अपने देश को कहते हैं कि ये तो पुरूष है। उसमें से एक देश है जर्मनी। आप जानते हैं जर्मनियों ने क्या किया है! अब रो रहे हैं जो कुछ भी किया है उसके लिये, पर किया तो सही। ऐसे भारत वर्ष के लोग नहीं कर सकते। अब हमारे यहाँ समझ की कितनी कमी है। एक किताब मैंने देखी जयपूर पे, अब जयपूर का कोई होगा, उसने लिखी होगी। मुझे हैरानी हुई कि वो कहता है कि, 'जो जौहार पद्मिनी ने किया था मेवाड में, उसकी जगह अच्छा था कि वो खिलजी के चरणों में चली जाती, उसकी दासी हो जाती तो ये झगड़ा ही ना खड़ा होता। बत्तीस हजार औरतों को जला दिया, ये कौनसा उन्होंने बड़ा काम किया। देखिये, अकल की कहाँ पहुँचती है। उससे अच्छा था कि सबसे आप समझौता करते, अंग्रेजों से लड़ने की क्या जरूरत थी, उससे समझौता करते। सबसे समझौता करते तो अभी तक इतने लोग नहीं मरते। और जी कर करते क्या? इतने लोग अगर जीते भी तो करते क्या? क्या उनमें चीज़ है? आज जी रहे हैं ना इतने हिन्दुस्तानी! कर क्या रहे हैं? क्या ये प्राप्त करने वाले हैं? पैसा...पैसा... पैसा... इनकी भी खोपडी में घुस गया और उसके लिए हम अपनी सारी जो मूल्य हैं उनको बेच डालें! वो सब मूल्यों का हम सत्यनाश कर लें। जिसके सहारे हम जी रहे हैं और आपको पता होना चाहिए कि सारी दुनिया आपकी तरफ आँख लगाये बैठी है कि आप कौनसे मूल्यों पर उठने वाले हैं? कौन से मूल्य आप जगने वाले हैं? कोई भी आपको बेवकूफ बना दें आप बेवकूफ बन जाते हैं। अंग्रेजों ने बेवकूफ बनाया, अब और बेवकूफ बनियें। अनैतिकता को फैलाना जिनका काम है वो भारतीय नहीं हो सकता क्योंकि नीति के सिवाय आप उठ नहीं सकते। निति के सहारे ही आप उस परम को पा सकते हैं। अगर आपके अन्दर नैतिकता नहीं बैठी हुई, तो आपका उद्धार हो नहीं सकता, आप नर्क में जाएंगे और आपका देश भी नर्क में जाएगा। जो लोग अनैतिकता को लेते हैं, जैसे देखा है हमने कि उन्होंने वहाँ हर तरह की स्वतन्त्रता देखी है, अमेरिका में। किसी तरह से पैसे कमाना, फिर औरतें अपनी इज्जत बेचें, चाहे शराब की आप गुट्टे खोलें, चाहे कुछ करिये पर किसी तरह से पैसा कमाना है। पैसा कमा कर के ये अमेरिका का देश है कहाँ ! आपको पता है सब पर कर्जा है, उस देश पर कर्जा है । हमारे यहाँ से इतने लड़के वहाँ गये, इतने पढ़े-लिखे। मैंने कहा, 'यहाँ आयें क्यों?' तो कहने लगे, 'यहाँ बड़ी तनख्वायें मिलती थी, पैसा मिलता था इसलिए आयें।' 'अच्छा, अब पैसा गया कहाँ! सब पर क्यों इतना कर्जा है?' हर एक बच्चे पर कर्जा । मैंने कहा, 'भाई ये हिन्दुस्तानी हो कर तुम्हारे ऊपर ये कर्जा क्यों हुआ? सोचने की बात है कि आप बड़े भारी इंजीनिअर्स हो गए, डॉक्टर्स हो गये, चार्टर्ड अकौन्टट हो गये और यहाँ आकर कर्जे में बैठे हो!' 'अब तुम वापस नहीं जा सकते ?' तो कहने लगे कि, 'यहाँ की जो लाइफ स्टाइल है, यहाँ की जो रहन-सहन है उसमें तो कर्जा हो ही जाता है।' बेवकूफ जैसे वो लोग भी वहाँ ऑर्डर दे कर के ये चीज़ मंगवाओ, वो चीज़ मंगवाओ, और वो कार्ड रखते है कार्ड और सब कर्जे में हैं। किसी के पास कुछ पैसा नहीं। अब गये वहाँ और वहाँ जा कर आपने कर्जा कर लिया, फायदा क्या? कुछ कमाया नहीं, कुछ नहीं और वहाँ आप कर्जे में बैठे हुए हैं। हाँ, बड़ा, बढ़िया आपके पास अलिशान सोफा होगा, कारपेट होगी, ये होगा, होगा, पर सब कर्जे से और वहाँ कर्जा करना कोई बुरी चीज़ समझी ही नहीं जाती। तो आप कर्जे पे कर्जा करते जाओ ! ऐसे संस्कृति जहाँ अनैतिकता इतनी हो वहाँ होना ही है वैसा | इसे अलक्ष्मी कहते हैं। अलक्ष्मी का कोप! दिखने को तो ऊपर से दिखाई देता है वो अन्दर कुछ नहीं, अन्दर कर्जा। और हम उनसे क्या सीख सकते हैं? वो यहाँ सीखने आते हैं और हम उनसे क्या सीख सकते हैं! इन लोगों से कुछ भी सीखने का नहीं। यह कहने में कोई भी डर की बात नहीं है कि अपने देश जैसा महान देश कोई नहीं और हमारी भारतीय संस्कृति जैसी कोई भी संसार में संस्कृति नहीं है । | वो दिन गये जब कि देश के लिए लोग लड़ते थे, सब कुछ अपना त्याग किया, हम खुद कितनी बार मार खाये इनकी, क्या- क्या किया! मैं पूछती हूँ जो आज इतना अधिकार लगा रहे हैं इनके बाप-दादाओं ने भी कुछ किया देश के लिए? इन्होंने कभी कुछ किया है देश के लिए? जब संग्राम इस देश में हुआ था, जब लड़े थे लोग, जेल में गये, लाठी खाई, मार खाया, घरद्वार मिटा दिये तब इनमें से कोई लोग थे क्या वहाँ? अब बैठ गये अधिकार जमा के कि ये नहीं होना चाहिए, वो नहीं होना चाहिए। मैं देख-देख के हैरान हूँ कि अनैतिक चीज़ें लाने में इतना झगड़ा हो रहा है। नितीवान लोग जो थे उनको खराब करो , उनसे पैसे ऐंठो, उनको शराब पिलाओ, उनको गन्दी बातें सिखाओ, पैसे ऐंठ कर के सब खा जाओ| एक चीज़ है कि आपको ये सोचना चाहिए कि अगर आप

सहज में आ रहे हैं तो आपको इस भारतीय संस्कृति को ही अपनाना होगा, फिर आप कोई भी जाति के हो, कोई भी धर्म के हो, कोई भी आपका विचार हो, उसके सिवाय नहीं हो सकता और सहज मार्ग क्या है वो भी एक समझने की बात है कि हम लोग श्रद्धापूर्वक किसी चीज़ को मानते हैं, लेकिन अभी तक उसको पाया नहीं इसलिए झूठे लोग आ गये, गड़बड़ी बहुत हो गयी। हर जगह गड़बड़ी होती है, मारामारी होती है, सब होता है। माना, लेकिन इसके लिए बताया गया है कि तुम आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करो , आप आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करो । आपके धर्म का कोई अर्थ नहीं, आपके बातचीत का कोई अर्थ नहीं जब तक आपने आत्मसाक्षात्कार नहीं पाया। बुद्धि से नहीं हो सकता। वे बुद्धि से परे चीज़ है ऐसा आईनस्टीन ने कहा है अब और कौन चाहिए आपको! ये बुद्धि से परे चीज़ है। बुद्धि से आगे है। सारे शरीर को, बुद्धि, मन को, सब को अगर तुम मानते भी हो तो ये कोई शाश्वत चीज़ नहीं है, शाश्वत चीज़ जो है वो बुद्धि से परे है जिसे परम चैतन्य कहते हैं। उसको उसने टॉर्शन एरिया कहा हुआ है, आईनस्टीन ने। वो बेचारा, वो भी एक आत्मसाक्षात्कारी था। वो कह गया, उस पर मार लगा दिया लोगों ने, कि साइन्स हर जगह। इसने कहा है टॉर्शन एरिया। तो वो कहाँ है, कैसे मिलेगा ? कैसे पायेंगे? मिल ही नहीं सकता क्योंकि ये जो टॉर्शन एरिया है ये | आत्मसाक्षात्कार के बाद ही प्राप्त हो सकता है। तो पहले आत्मसाक्षात्कार करिये। | अब उसके लिए बहुत से झूठे लोग निकल आये हैं अपने देश में। बहुत से तान्त्रिक निकल आये। वो कुछ और धन्धा कर रहे हैं, कोई हीरा दे रहे हैं, कोई कुछ कर रहे हैं। उसी में फँसे जा रहे हैं। ये आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करना सहज मार्ग से बहुत ही सुलभ हो गया, सब को बहुत आसानी से मिल गया। इसमें ऐसी कोई भी बात नहीं कि आप सर के बल खड़े हो जाओ कि आप घर-द्वार छोड़ दो, आप बाल-बच्चों को छोड़ दो, कोई करने की जरूरत नहीं। आपके ही अन्दर ये शक्ति है। ये आपके ही अन्दर त्रिकोणाकार अस्थि में ये शक्ति है। ये मैं कह रही हूँ ऐसी बात नहीं है। अनादि काल से यहाँ लोगों ने कहा है। सिर्फ जो लोग कहते थे, मुझे आश्चर्य है कि हमारे यहाँ से, इतने हजारों वर्ष पूर्व मच्छिंद्रनाथ, गोरखनाथ ये लोग कहाँ पहुँचे, तो बोलिविया। बोलिविया में पहुँचे जो कि हम लोग जा नहीं सकते, वहाँ बड़ा मुश्किल है । युक्रेन में गये, कुछ हिस्से में रशिया में भी गरये। और वहाँ जा कर के उनको बताया कि 'आपके अन्दर ये शक्ति है और ऐसे-ऐसे चक्र है, ये है, सब वहाँ बताया । और हम उन्हीं के वंशज है, उन्हीं के हम बेटे हैं, बेटियाँ हैं, और हम क्या जानते हैं? कुछ भी नहीं जानते। वो बोलिविया के लोग सब जानते हैं पर वो कहने लगे कि इसकी | जागृति हमें नहीं आती। इस कुण्डलिनी की जागृति लेकिन हमें नहीं आती, बाकी हम सब जानते हैं। हम एक बार वहाँ गये और एकदम आग लग गयी जैसे, हजारों लोग बोलिविया के पार हो गये। पर हमें तो वो ज्ञान भी नहीं, और हम जानते भी नहीं। हमारे किताबों में इस मामले में कोई लिखता भी नहीं और न कोई बताता है। मानो हमको काट दिया। उस महान संस्कृति से, उस महान ज्ञान से हमको काट दिया। और काट कर के हम अजीब एक, पता नहीं कौनसे देश के लोग बन गये। न तो अंग्रेज हैं, न तो हिन्दुस्तानी है, न धड ये हैं। पता नहीं क्या बन गये हम लोग, हमें कुछ मालूमात ही नहीं है । लोगों ने कहा, 'अच्छा, कुण्डलिनी माने, कुण्डलिनी माने, कुंडली की कुण्डलिनी माने क्या ?' किसीको मालूमात ही नहीं है। सोचिए इसमें जो सागर भरा हुआ है इस देश में, सागर भरा हुआ है। अब एक साहब मेक्सिको से आये थे। वो यहाँ पर अम्बॅसिडर हैं। तो मैंने उनसे कहा कि, 'आपके यहाँ जो है बहुत ज्यादा भूत विद्या है।' कहने लगे, 'अच्छा!' मैंने कहा, 'हाँ, मैं तो गयी थी , मैं जानती हूँ भूतविद्या बहत है।' तो कहने लगे, 'वो साइकोलॉजी से चला जाएगा।' मैंने कहा, 'आपकी साइकोलॉजी, सकायट्रि जो है वो एक बच्चे जैसी है, चाइल्ड साइन्स है। उसमें कुछ है ही नहीं। आपको जानना है तो मैं बताऊंगी। ये भूतविद्या , हमारे यहाँ जो साइकोलॉजी , सकायट्रि है वो कितनी गहन, एक-एक, एक-एक बातें उसके अन्दर लिखी हुई है। और वो मैं समझाऊंगी तुमको।' वो बेचारे बहुत ज्ञान पिपासू है, ज्ञान जानना चाहते हैं लेकिन एक बार जब टाइम होगा तो बैठ के, उनको मैं समझाऊंगी। पर आप सोचिये कि आपके देश में इतना गहन यहाँ ज्ञान का भण्डार पड़ा हुआ है और आप कहाँ भाग रहे हैं? क्या कर रहे हैं आप लोग? जो देश आपके हिसाब से ऊँचे उठ गये, बड़े अग्रसर हैं, उनको जा के देखिये ना आप लोग। आपने तो देखा नहीं , मैंने तो देखा है। वहाँ के लोग सुखी है क्या? अगर सुखी होते तो यहाँ क्यों आते ? यहाँ आनन्द को खोजने क्यों आते ? वो तो ऐसी चीज़ है कि |

आज आपको एक छोटा सा घर चाहिए, फिर मोटर चाहिए, फिर फलाना चाहिए, फिर वो चाहिए, जो मिलता है उससे आप सुखी ही नहीं। उसके बाद दूसरी चीज़ चाहिए, उसके बाद तिसरी चीज़ चाहिए। तो उसके पीछे इतने भागने की जरूरत क्या ? कोई | समाधान नहीं, कोई सन्तोष नहीं। लेकिन सहज में ये सब मिल जाता है। सहज में आपको पूर्णतया समाधान और सन्तोष मिल जाता है। पर सहज मार्ग भारतीय संस्कृति में बसा हुआ है। विदेशी संस्कृति नहीं चलेगी उसमें। जो सहज में आना चाहता है और आत्मसाक्षात्कार लेना चाहता है उसको पता होना चाहिए। अब ये औरतों को देखिए भारत से आयीं, साडी-वाडियाँ पहन के बैठी हुई हैं। इसका मतलब नहीं कि अब वे 'हरे रामा' जैसे कूदते फिरे। उसकी जरुरत नहीं। असलियत को पाना है, रियॅलिटी को पाना है तो गहराई से उतर कर के और इसमें समाना पड़ेगा। इसको समझना पड़ेगा। इसमें कोई ऐसी बात नहीं है कि जो आप नहीं कर सकते क्योंकि आप इस महान देश में पैदा हैं। ऐसा लिखा जाता है शास्त्रों में कि भारत वर्ष में पैदा होने के लिए हजारों वर्षों की पुण्य, हुए पुण्याई काम आते हैं। बताईये, हजारों वर्षों की पुण्याई के बाद मैं क्या देख रही हूँ कि कैसे लोग पैदा हुए हैं! अभी हमारी ही जिन्दगी में हमने ऐसे लोग देख लिये जिन्होंने देश के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी और अभी प्याज के लिए, क्या कहें। शर्म की बात है। पद्मिनी ने ३२ हजार औरतों को लेकर जौहार कर लिया। हमारे देश की विशेषता क्या है-हमारे मूल्य, हमारे मूल्य, पर वो सहज से जागृत होएंगे क्योंकि मैंने देखा परदेस के भी लोगों में वही मूल्य जागृत हो गये। क्योंकि ये हमारे अन्दर बैठे हुए मूल्य हैं, जो जगमगा रहे हैं अन्दर। जो अन्दर प्रज्वलित हैं, जो सूर्य के जैसे चमक रहे हैं। ये सब मूल्य हमारे अन्दर और फिर इस पृथ्वी तत्व का इतना महात्म्य है। लेकिन हमने अगर ढक दिया, अपने ही को ग्रहण लगा लिया तो ये मूल्य आपको कैसे दिखाई देंगे । ये आपके समझ में कैसे आएंगे? कोई एक तरह का पडदा हो तो बात करें। कबीरदासजी ने कहा था, बहुत सुन्दर सब कुछ लिखा है उन्होंने, सहज के बारे में, पर लोग समझ नहीं पाते, लोग नहीं समझ पाते। जैसे कि इड़ा , पिंगला, सुखमन नाड़ी। अब लोगों का क्या, इडा- पिंगला क्या है? इडा-पिंगला चीज़ क्या है? उनको नर्वस सिस्टम मालूम है, ऑटोनोमस नर्वस सिस्टम मालूम है, पर यही इडा- पिंगला और सुखमन नाड़ी जो है, वो है ये नहीं मालूम। उसके बारे में कुछ जानते ही नहीं। उन्होंने लिखा, 'सैंया निकस गये, मैं न लडी थी।' अब हमारे लखनौ में लोग रहते हैं, उनको मैं कहती हूँ कि, 'तुम दिलफेक बहादुर हो। तो वो सैंया को सोचते हैं कि सैंया माने उनका कोई तो भी लवर या कोई प्रेमी है, वो निकल गया, वो नहीं रहे। मैंने कहा, 'कबीर को ये सबसे करना क्या है? वो क्या रोमॅन्टिक थे क्या?' उन्होंने ये कहा कि, 'मेरी जिन्दगी निकल गई। मैं मृतप्राय हो गया। तो भी मैं उससे लड़ा नहीं, मृत्यू के साथ मैं लड़ा नहीं हूँ।' तो वो, आप सोचिए कि विपयास हमने कितना किया। कितना उसको बदल दिया , कितना परव्हर्ट कर दिया, जैसे 'सूरति चढ़े कमान' ये कुण्डलिनी को सुरति कहने वाले कबीर को, बिहार में सुरति कहते हैं तम्बाकू को। बिहार का तो हाल है सो देखिये। एक-एक बिहार में महान लोग हो गये, बुद्ध हो गये, महावीर हो गये इस तरह से और मेरे ख्याल से गुरू गोविंदसाहब का भी वहाँ मैंने, वहाँ देखा है। इस तरह से अनेक वहाँ पीर हो गये, कितने लोग हो गये वहाँ बिहार में। जैसे कि एक सरोवर में कमल उग जाय। अनेक कमल उग गये। अब उन्हीं का नाम ले कर के लोग कहे कि, 'साहब, हमारे देश में तो ये कमल हये थे, हमारे देश में वो कमल हये थे। आप तो किड़ेंहैं अभी उसी में, आप क्या बात करते हैं? आपको कमल होना है तो सहज में उतरो। वो सहज में उतरना कठिन नहीं है, 'सहज' है, पर सहज में रहना कठिन है। आदमी जो आदत हो गयी इधर से खाना खाने की, ऐसे ज़्यादा खाना नहीं खा सकता। सहज में आप पार हो जाएंगे, आत्मसाक्षात्कार गए आप प्राप्त कर लेंगे इस में कोई शंका नहीं। विशेष कर के, खास कर के आप अगर भारतीय हैं तो सर आँखों पर। चाहे आप कोई भी जाति के हो, मुसलमान, हिन्दू कोई हों वो प्रस्फूटित हुआ आपको फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इस आत्मा को प्राप्त करने के बाद उसमें जमना पड़ता है। जैसे बीज है , और उसमे से अंकुर निकल भी आया हो तो भी उस अंकुर को वृक्ष होना पड़ता है। वहीं हम लोग मार खा जाते हैं क्योंकि चारों तरफ वातावरण ही खराब है। सिर्फ हम लोग वातावरण उसको सोचते हैं कि जो गैसी है, जिससे गैसेस निकल रही हैं। नहीं, नहीं, विचार से भी वातावरण बहुत खराब हो जाता है। इसकी भी प्रक्रिया बहुत खराब है। चारों तरफ विचारों का आन्दोलन जो चलते रहता है, खास कर हमारे अखबार वालें जो हैं, वो तो एक कमाल के लोग हैं। पता नहीं कौनसे देश के रहने वाले हैं। मुझे तो भारतीय नहीं लगते। उनमें से किसी को भी भारतीय संस्कृति के बारे में मालूमात ही नहीं। बहुतों ने कहा कि, 'माँ, हम आपका एक सेमिनार या

भी कहिए करने वाले हैं। इसमें सब हमारे अखबार वाले आएंगे ।' मैंने कहा, 'ना, ना, ना, ना, मुझे उनसे बात नहीं करनी। उनके बस का नहीं। उनके बस का नहीं। रात - दिन इससे इसको लड़ाओ, इसे उसको लड़ाओ। इससे झगड़ा करो, उससे झगड़ा करो। इसके सिवाय वो और कुछ नहीं करते।' पर अभी तीस देशों से यहाँ आये थे। तीस देशों से यहाँ आये थे लोग, जर्नलिस्ट आये कुछ | थे और उन्होंने कहा कि, 'माँ, हम चाहते हैं कि एक मीटिंग हो और आश्चर्य की बात है कि तीस देश के जितने भी वहाँ आये हुए थे सब के सब पार हो गये। सबको आत्मसाक्षात्कार मिल गया और सबके हाथ में ठण्डक आने लगी। लेकिन दिल का दिमाग चालाकी में चलता है। जो लोग चालाकी करते हैं इधर से उधर झूठी बातें बनाते घूमाते हैं ऐसे चालाक लोगों को सहजयोग नहीं कुछ कर सकता। सहजयोग चालाकों के लिए नहीं है उसी तरह से मूर्खों के लिए भी नहीं है। जो आदमी चाहता है, हृदय से कि हमें आत्मसाक्षात्कार हो वही प्राप्त कर सकता है। फिर उसके बाद जिन्दगी बदल जाती है। उसके बाद मजा आने लगता है। उसके बाद अनेक तरह के आशीर्वाद आप पे आते हैं और आप जानते हैं कि परमात्मा आपको देख रहा है। आपकी हर एक गतीविधि को सम्भाल रहा है, आपकी हर एक मूव्हमेंट को सम्भाल रहा है। आपके साथ हर जगह खड़ा है। लोग कहते हैं कि 'हम तो रोज मन्दिरों में जाते थे और इतनी हमने पूजा करी, शिवजी हम पे खुश नहीं हुए। फलाना नहीं हुआ, ढिकाना नहीं हुआ।' सबकी शिकायतें । अरे, पर तुम्हारा तो सम्बन्ध ही नहीं हुआ उनसे। जब तक आपका सम्बन्ध नहीं हुआ। 'मस्जिदों में गये थे, हमारे घुटने फूट गये, शिवजी नहीं मिले। वहाँ पर हमको परमात्मा नहीं मिले। हमें वहाँ आशीर्वाद नहीं मिला। सकून नहीं मिला।' कैसे मिलेगा ? क्योंकि वहाँ तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं। कुराण को भी किसी ने पढ़ा नहीं है मेरे ख्याल से ठीक-ठाक से। अगर पढ़े तो समझ में आयेगा कि सारा सहजयोग ही वर्णित है उसमें। उनका खुद ही जो, जिसे कियामा कहते हैं, जिसको कहते हैं वो, किस तरह से ऊपर चढे और किस तरह से सफेद घोडे पे बैठके ऊपर चढे, कैसे सात स्तरों पे उठे, वो सारा सहजयोग है। जो सच्चे होंगे वो सच्ची ही बात लिखेंगे ना। इधर-उधर की उटपटांग बात क्यों लिखे? ये तो उन्होंने बाद में निति बना दी है कि ऐसे नहीं करो , ऐसे नहीं करो, लोगों को बचाने के लिए क्योंकि अरबस्तान के लोग, जरा उनको मालूमात नहीं थी नैतिकता की। अपने भारतीयों को मालूम है, ये चीज़ गलत है, ये चीज़ सही है। हम लोगों को पता है । एक लड़का अंग्रेजी पढ़ने गया था केंदब्रिज में। उसने बताया, 'मुझे बड़ी हैरानी होती है कि ये लोग हर एक चीज़ को सोचते हैं, ये एक बड़ा भारी आवाहन है, चैलेन्ज है।' मैंने कहा, 'कैसे ?' 'मुझे कहने लगे कि तुम ड्रग क्यों नहीं लेते हो?' मैंने कहा 'मुझे नहीं | लेना है ड्रगज। हमारे नीति में नहीं बैठता।' तो कहने लगे कि, 'अरे कहाँ की नीति निकाल रहे हो, ड्रग लो, हम लोग सब ड्रग लेते हैं। भी लो। ये तो तुम्हारे लिए चैलेन्ज है। तुम्हारी नीति के लिए चैलेन्ज है।' उसने कहा, 'मुझे नहीं ऐसा चैलेन्ज-फैलेन्ज चाहिए।' तुम तो कहने लगे कि, 'माँ, ये लोग सोचते हैं कि शराब पीना एक चैलेन्ज है । ड्रग लेना एक चैलेन्ज है। एडस् होना भी चैलेन्ज है । 'अच्छा!' नर्क जाना भी एक चैलेन्ज है इनके हिसाब से। उनकी तो सारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। मति भ्रष्ट हो गयी। और क्या कहें! अगर कोई कहें कि, 'ये बड़ी अच्छी चीज़ है।' इसे क्या कह सकते हैं? एडस् वाले लोग तो, मैंने कोशिश करी कि उनका दिमाग ठीक करें। वो तो मेरे ही सर पर चढ़ गये। कहने लगे कि, 'हमने तो एक बलिदान किया है।' पता नहीं क्या? मैंने कहा, 'काहे का बलिदान किया?' कहने लगे कि, 'देखो, हम तो एक बड़े भारी फाइटर्स है, बड़े भारी लडाका लोग है, हम फलाना ठिकाना है।' मैंने कहा, 'नमस्कार!' तुम ऐसे ही लड़ते रहो और अपनी जिन्दगी बरबाद करते रहो। और क्या कहें? तुम तो कुछ आगे जाने वाले नहीं। वो तो स्पष्ट दिखाई दे रहा है। तो इस तरह की वहाँ पर लोगों की प्रवृत्ति है! कोई भी गलत काम करना एक चैलेन्ज है। और हिन्दुस्तानियों के लिए सोचते हैं कि ये डरपोक हैं, भारतीय लोग बिलकुल बेकार हैं। और अब तो कमाल जो हो गयी हम लोगों की वो प्याज के मारे, ऐसी शर्म लगती है मुझे। अरे, ये क्या इन लोगों ने हमारी दशा कर दी कि बिलकुल ही हम लोग गये-बीते, बिल्कुल बेकार लोग हो गयें ! और इस दिल्ली शहर में कम से कम कितने ही लोग सहजयोगी हैं, हजारों। हजारों की तादाद में सहजयोगी हैं। और पता नहीं कैसे ऐसी बातें यहाँ हो गयी। अकल ही मारी गयी हैं ना! जैसे पंजाबी में कहते हैं, 'मत मारना , वो चीज़ ।' और ये चीज़ इतने जल्दी हो जाएगी ऐसी मुझे कभी सम्भावना नहीं थी । मैंने सोचा थी कि, 'ठीक है, अब थोड़े दिन मैं बाहर काम कर के आऊं फिर देखूंगी।

तो यहाँ तो हालत ही खराब हो गयी। पता नहीं कैसे लोग पैदा हो गये यहाँ पर। अब ये कह सकते हैं कि ये कलियुग है। मान लिया, लेकिन इन्सान इतना बदल नहीं सकता। और इस कलियुग में एक भ्रान्ति नाम की एक चीज़ होती है, वो दिमाग पे काम करता है। वो जब दिमाग पे आ जाए तो कुछ दिखाई ही नहीं देता कि अच्छा क्या है और बूरा क्या है? बूरी जात कौनसी है? नीति कौनसी? अनीति कौनसी? इसका तारतम्य नहीं रहता। इसका कुछ पता ही नहीं चलता कि ये लें या वो लें। इसी घोर कलियुग में ही सहज आना है। ये लिखा हुआ है। नल-दमयंति आख्यान में नल ने एक बार कली को पकड़ा, उसकी गर्दन पकड़ी कि, 'में तुझे मार डालूँगा। क्योंकि तुमने मुझे बहुत सताया। मेरी बीवी से मेरा बिछुड़ कर दिया। मैं तुमको मार डालूँगा।' तो कली ने कहा, 'अच्छा बाबा, मेरा महात्म्य तो सुन लो फिर मार ड़ालना।' तो कहने लगे कि, 'तुम्हारा क्या महात्म्य है? तुम तो दुष्ट हो।' कहने लगे, 'नहीं, मेरा एक महात्म्य है। महात्म्य ये है कि कलियुग में लोगों में भ्रान्ति हो जाएगी। भ्रान्त हो जाएंगे माने बौखला जाएंगे। और उसी वख्त हजारों लोग, जो कि खोज रहे हैं गिरी-कन्दरों में परमात्मा को, सत्य को, वो आशीर्वादित हो जाएंगे। वो लोग अपने आत्मा का अनुभव करेंगे। उनको आत्मसाक्षात्कार होगा। इसलिए कलियुग जो है बहुत जरूरी है, उसके बगैर ये होने नहीं वाला। और इसके बगैर मनुष्य इसे प्राप्त नहीं करेगा, इसको नहीं खोजेगा।' ये जब बताया गया तो नल ने उसको छोड़ दिया, 'अच्छा आने दे तेरा कलियुग।' ये घोर कलियुग आया और आपको सबको समेट रहा है। इधर ध्यान दीजिए । कौनसे चक्कर में हम घूम रहे हैं? इसका विचार करना चाहिए। सहज के मार्ग में आने के लिए आपको कुछ नहीं देना है। पैसा नहीं देना, कुछ त्यागना नहीं, कुछ नहीं । इस तरह की चीज़ है ही नहीं। सिर्फ आपके अन्दर बसी हुई कुण्डलिनी का जागरण करना है। और जब वो जागृत हो जाती है तो अपने ही आप वो | सहस्रार में समा कर के और इसका भेदन कर के और चारों तरफ फैली हुई ये सूक्ष्म चेतन शक्ति से एकाकारित कर देती है। ये सादी बात है, आपका आज तक उस सूक्ष्म शक्ति से कोई सम्बन्ध ही नहीं आया। आपने आज तक उस सूक्ष्म शक्ति को महसूस ही नहीं किया। उसको जाना ही नहीं । और बगैर जाने बगैर ही आप भगवान का नाम ले रहे हो, मन्दिरों में जा रहे हो और दनिया भर के उपद्रव कर रहे हो। मस्जिद में जाने से क्या होगा? वो दिखाई दे रहा है। किसकी अकल आयी है। सब आपस में मरे जा रहे हैं। और मन्दिरों में जा कर क्या हो रहा है? जहाँ पैसे खाये जा रहे हैं। दुनिया भर का भ्रष्टाचार आ रहा है। ये क्या, साक्षात् नहीं है कि ये गलत है। इससे कुछ न कुछ लाभ नहीं, उसके लिये कोई और चीज़ करनी चाहिए। ये सामने दिखाई दे रहा है, इसका साक्षात है। सामने साफ जो चीज़ दिखाई दे रही है उसको पहचानना चाहिए। ये रास्ते ठीक नहीं, इससे कोई फायदा नहीं। ये बेकार की चीज़ है। जो पाना है अपने अन्दर, अन्दर के अन्तरात्मा को जब तक हम प्राप्त नहीं करते तब तक इस अन्धकार में न जाने कहाँ से कहाँ हम लोग भटक जाएंगे। इसलिए पहला जरूरी चीज़ है कि आप इस अन्धकार से उठे और आत्मा के प्रकाश में क्या अच्छा, क्या बुरा इसको पहले जानो। पर आत्मा का प्रकाश जब आता है तो सिर्फ इतना ही नहीं होता, ये नहीं सिर्फ होता है कि आप 'नीर-क्षीर विवेक जिसको कहते हैं वो जान लें किंतु आपके अन्दर जो सद्सद्विवेक बुद्धि वो ही करते हैं। जो आपको नष्ट करेगा, जिसे अंग्रेजी में 'सेल्फ डिस्टरक्टिव' जिसे कहते हैं वो काम आप करेंगे ही नहीं। और सारा है वो बड़ी प्रबल हो जाती है और आप सिर्फ जो सही होगा ही काम आप अत्यन्त प्रेम से करते हैं, अत्यन्त दुलार से, प्रेम से सारी बात करते हैं। मेरे लिये भी बड़ा मुश्किल है कि कोई कठिन | शब्द कहें। आज तो मैं तय्यारी से आयी थी कि आप लोगों से कहूँ कि 'और बेवकूफी मत करो। बहुत बेवकूफी कर चुके। अब ये जो सहज के मार्ग से आप पाते हैं पहले तो अपने अन्दर शान्ति को प्राप्त करते हैं। अपना देश शान्तिप्रिय है। इस देश ने किसी भी देश पर आघाडी नहीं करी। किसी भी देश को लूटा नहीं। किसी भी देश की जमीन अपने हाथ में नहीं ली। ये शान्ति कहाँ से आयी? इतने हजारों वर्षों से हमने इतनी दुविधा उठायी तो भी ये चीज़ कहाँ से आयी? ये इस धरती की विशेषता है । जिस धरती पर आप बैठे हैं उसी धरती की विशेषता है कि हम लोग शान्तिप्रिय लोग है। अगर कोई हमारे ऊपर आक्रमण करता है, अटॅक करता है तो जरूर हम उससे लड़ेंगे। लेकिन किसी के यहाँ जा कर के हम खुराफात नहीं करते। इस तरह की व्यवस्था अभी तक अपने यहाँ नहीं है। और देशों में है अपने यहाँ नहीं। उचकायें उसको, उससे झगड़ा लगायें, वहाँ जा के बॉम्ब छोड़े ये सब हम लोग नहीं करते। ये नियन्त्रण हमारे ऊपर अपने आप आया हुआ है, स्वयं आया हुआ है। तो अन्दर की शान्ति प्रस्थापित होती है। फिर घरों में, अपने

संसार में, अपना जो छोटा सा संसार है उसमें भी शान्ति आ जाती है। बच्चों में शान्ति आ जाती है। शान्ति बहुत जरूरी है । जहाँ शान्ति नहीं होती वहाँ पेड़ नहीं उग सकते, वहाँ कुछ भी प्रगति नहीं हो सकती, एक दूसरे को काट-मारने में खतम हो जाते हैं। पर सहजयोग से जो शान्ति प्राप्त होती है उससे उन्नति होती है। अभी सहजयोग में कितने ही बच्चे हैं, जो कहाँ से कहाँ पहुँच गये। कभी वो सोचते भी नहीं थे कि हम इसे प्राप्त करेंगे, इतना हमें मिलेगा, इतना ज्ञान और इतनी समृद्धि और हर तरह से पूरे-पूरे हो गये। भर गये। तबियत भर गयी। अगर मैं किसी को एक छोटी सी भी चीज़ देना चाहूँ तो कहते हैं, 'माँ, पहले ही तुमने सब दे दिया, अब क्या दे रहे हो।' ऐसी स्थिति अन्दर में स्थापित हो जाती है। और ये जो समाधानी स्थिति है इसे पूरी तरह से आपसी रिश्तेदारी , आपसी प्यार, आपस में समायेगी। अब सबसे तो बड़ी चीज़ है कि सहजयोग ये प्यार की देन है। परमात्मा का जो प्यार हमारे अन्दर है, वो प्यार आपको मिलता है और प्यार से बढ़कर संसार में कोई चीज़ नहीं। जिसने प्यार की महिमा जानी उसके लिए और चीज़ों की कोई जरूरत नहीं। सारे मूल्य उसके स्थापित हो जाते हैं। प्यार ही वो पानी है जिससे कि अपने देश का जो ये बड़ा सुन्दर पेड़ है ये सजीव हो जाए। आपसी प्यार, आपसी दोस्ती अगर हमारे अन्दर, आपसी प्यार होता और आपसी एकता होती तो क्या मजाल है कि हमारे ऊपर किसी का राज्य हो सकता था! आपसी प्यार, आपसी दोस्ती, आपसी एकता आने के लिए सहजयोग चाहिए । इससे कलेक्टिव कॉन्शसनेस जिसे हम कहते हैं सामूहिक चेतना स्थापित होती है । दूसरा कौन है? सब एक जीव हो जाते हैं। अब देखिए इतने दूसरे-दूसरे देशों से लोग आयें हैं, अनेक धर्मों का पालन करने वाले इनमें जो एकजीवता है, इनमें जो समाधान है, एकात्मता है वो आपको कहीं नहीं मिलेगी। आप हैरान हो जाएंगे कि किस तरह से ये लोग एक हो गये। आप और किसी गुरू के वहाँ जा कर देखिए ये चीज़़ आपको कहीं नहीं मिलेगी। वो आपस में लड़ेंगे, गुरु से लड़ेंगे, पूरी समय लड़ते रहेंगे। लेकिन जब आप सहज में अपने को प्राप्त करते हैं तो ये जानते हैं कि हम भी उसी समुद्र के एक बिन्दू हैं जिसमें सब एकाकारिता है। समुद्र के आन्दोलन से हम उठते हैं, गिरते हैं, चढ़ते हैं। ऐसी सुन्दर स्थिति, ऐसी सुन्दर समाज व्यवस्था अपने आप घटित हो रही है और इस हिन्दुस्तान में होगी। जो गलत लोग घुस आयें हैं और अपने को बड़े अधिकारी समझते हैं इन्होंने कोई त्याग किये नहीं, इन्होंने देश के लिए कोई संग्राम किया नहीं मुफ्त में आकर कुर्सी पर बैठ गये। इसलिए अपने देश के प्रति भक्ति होना ये बहुत आवश्यक है। महज इसलिए नहीं कि ये हमारा देश है, हमारा जन्म हआ, क्योंकि ये बड़ा महान देश है। इसकी महानता मैं तो वर्णन नहीं कर सकती। कभी अगर मेरे पास समय मिला तो मैं थोडा बहुत लिखना चाहती हूँ कि ये देश कितना महान है । इसको जानने के लिए, समझने के लिए आप लोगों में भी सहज की कुछ न कुछ प्रकृति आनी चाहिए। तब आप समझ पाएंगे कि इस देश में कितनी- कितनी गहन बातें हमारे लिए हो गये, हमारा इतिहास हो गया, कैसी-कैसी चीज़ हो गयी। देशभक्ति ये बहुत आवश्यक चीज़ है। अगर आपके अन्दर देश में भक्ति नहीं है तो आप सहज में आ नहीं सकते। इस देश के प्रति आप ही को भक्ति नहीं , इन सब लोगों को है जो पचहत्तर देशों में सहजयोग कर रहे हैं। आपके देश के प्रति इतनी भक्ति है कि जब ये बाहर से आते हैं तो आ कर के और इस अपनी जमीन को झुक कर नमस्कार करते हैं और चूमते हैं। अब ये ही आपको सीख सकते हैं कि आप अपने देश की शक्ति को पहचाने और देश का वन्दन करें। इस पर बोलते रहे तो बोलते ही रहे हम और आज आप लोग इतनी दूर-दूर से आयें हैं, ठंडक में आये हैं, एक माँ के लिए बहुत बड़ी चीज़ है कि इतने बच्चे सामने हों तो क्या और कहें। मैं सिर्फ आपको ये आशीर्वाद देना चाहती हैं कि आप आज इसी वक्त यहाँ पर आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करें ।

New Delhi (India)

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