Sarvajanik Karyakram

Sarvajanik Karyakram 1984-11-29

Location
Talk duration
126'
Category
Public Program
Spoken Language
Marathi

Current language: Hindi, list all talks in: Hindi

The post is also available in: English, Marathi.

29 नवम्बर 1984

Public Program

मुंबई (भारत)

Talk Language: Marathi | Translation (Marathi to Hindi) - Draft

Sarvajanik Karyakram, HINDI TRANSLATION (Marathi Talk)

सत्य की खोज़ में रहने वाले आप सब लोगो को हमारा नमस्कार। आज का विषय है 'प्रपंच और सहजयोग'। सर्वप्रथम 'प्रपंच' यह क्या शब्द है ये देखते हैं । 'प्रपंच' पंच माने | हमारे में जो पंच महाभूत हैं, उनके द्वारा निर्मित स्थिति। परन्तु उससे पहले 'प्र' आने से उसका अर्थ दूसरा हो जाता है। वह है इन पंचमहाभूतों में जिन्होंने प्रकाश डाला वह 'प्रपंच' है। 'अवघाची संसार सुखाचा करीन' (समस्त संसार सुखमय बनाऊंगा) ये जो कहा है वह सुख प्रपंच में मिलना चाहिए। प्रपंच छोड़कर अन्यत्र परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। बहतों की कल्पना है कि 'योग' का बतलब है कहीं हिमालय में जाकर बैठना और ठण्डे होकर मर जाना। ये योग नहीं है, ये हठ है। हठ भी नहीं, बल्कि थोड़ी मूर्खता है। ये जो कल्पना योग के बारे में है अत्यन्त गलत है। विशेषकर महाराष्ट्र में जितने भी साधु-सन्त हो गये वे सभी गृहस्थी में रहे। उन्होंने प्रपंच किया है। केवल रामदास स्वामी ने प्रपंच नहीं किया । परन्तु 'दासबोध' (श्री रामदासस्वामी विरचित मराठी ग्रन्थ) में हर एक पन्ने पर प्रपंच बह रहा है। प्रपंच छोड़कर आप परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। यह बात उन्होंने अनेक बार कही है। प्रपंच छोड़कर परमेश्वर को प्राप्त करना, ये कल्पना अपने देश में बहुत सालों से चली आ रही है। इसका कारण है श्री गौतम बुद्ध ने प्रपंच छोड़ा और जंगल गये और उन्हें वहाँ आत्मसाक्षात्कार हुआ। परन्तु वे अगर संसार में रहते तो भी उन्हें साक्षात्कार होता। समझ लीजिए हमें दादर जाना है, तो हम सीधे मार्ग से इस जगह पहुँच सकते हैं। परन्तु अगर हम भिवंडी गए, वहाँ से पूना गये, वहाँ से और चार-पाँच जगह घूमकर दादर पहुँचे। एक रास्ता सीधा और दूसरा घूम-घामकर है। बहुत घूमकर आया हुआ मा्ग ही सच्चा है, ये बात नहीं। उस समय सुगम मार्ग नहीं था इसलिए वे दुर्गम मार्ग से गए। जो सुगम है उसे उन्होंने दुर्गम बनाया। इसलिए क्या हमें भी दुर्गम बना लेना चाहिए? अर्थात् जो सुगम है उसे सभी ने बताया है। 'सहज' है। सहज समाधि में जाना। सभी संत-साधुओं ने बताया है, 'सहज समाधी लागो'। कबीर ने विवाह किया था। गुरू नानक जी ने विवाह किया था । जनक से लेकर अब तक जितने भी बड़े-बड़े अवधूत हो गए हैं उन सभी ने विवाह किया था । और उनके बाद बहुत से आए। उन्होंने विवाह नहीं किया, परन्तु किसी ने भी विवाह संस्था को गलत नहीं कहा। और जिसे हम प्रपंच कहते हैं वह गलत है ऐसा नहीं कहा है। तो सर्वप्रथम हमें अपने दिमाग से ये कल्पना हटानी चाहिए कि अगर हमें योग मार्ग से जाना है तो हमें प्रपंच छोड़ना होगा। उलटे अगर आप प्रपंच करते हैं तो आपको सहजयोग में जरूर आना चाहिए। शुरू में इस दादर में जब हमने सहजयोग सास ठीक नहीं है, मेरा ससूर ठीक नहीं है, मेरी पत्नी ठीक नहीं है, मेरे बच्चे ठीक नहीं हैं । इस तरह सभी प्रपंच की जो छोटी-छोटी शिकायतें हैं वही लेकर सहजयोग में आते थे। शुरू में ऐसे ही होता है। हम परमात्मा के पास प्रपंच किया तो सब लोग प्रपंच की शिकायतें लेकर आते थे । मेरी शुरू करने के लिए जाते हैं, और परमेश्वर के पास जाकर भी यही की तकलीफों से तंग आकर या प्रपंच दुःखों को दूर 16

Hindi Translation (Marathi Talk) मांगते हैं, 'हे परमात्मा, मेरा घर ठीक रहे। मेरे बच्चे ठीक रहें। हमारी गृहस्थी सुख से रहे। सभी खुशी से रहें।' बस! मनुष्य की वृत्ति यहाँ तक हल्की होती है, और उसी छोटेपन से वह देखता है। परन्तु यह छोटापन-हलकापन जरूरी है। वह नहीं होगा तो आगे का मामला नहीं बनने वाला। पहली सीढ़ी के बगैर दूसरी सीढ़ी पर नहीं आ सकते तो सहजयोग की सबसे बड़ी सीढ़ी प्रपंच होना जरूरी है। हम सन्यासी को आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकते। नहीं दे सकते। क्या करें? बहुत बार करके देखा, पर मामला नहीं बनता। उसके लिए व्यर्थ का बड़प्पन किसलिए? उसका | कारण है कि हमने बाह्य में सन्यासी के कपड़े पहने हैं, पर अन्दर से क्या आप सन्यासी हैं? सन्यास एक भाव है। ये कोई कपड़े पहनकर दिखावा नहीं है कि हम सन्यासी हैं, हमने सन्यास लिया है, हमने घर छोड़ा, ये छोड़ा, वह छोड़ा, ऐसा कहकर जो लोग कहते हैं कि हम योग मार्ग तक पहुँचेंगे, ये अपने आपको भुलावा है। अगर आप पलायनवादी हैं, आपमें पलायन भाव (escapism) है तो उसका कोई इलाज नहीं है। जिस मनुष्य में थोड़ी भी सुबुद्धि है उसे सोचना चाहिए कि यहाँ हम प्रपंच में हैं। यहाँ से निकलकर हमने कुछ प्राप्त किया भी तो उसका क्या फायदा? समझ लीजिए किसी जंगल में आपको ले गये और वहाँ बैठकर आपने कहा, 'देखिए, मैं कैसे पानी के | बगैर रह सकता हूँ?' तो उसमें कौन-सी विशेष बात है ? पानी में रहकर भी आपको पानी की जरूरत नहीं है, आप पानी में रहकर भी पानी से निर्लिप्त हैं, ऐसी जब आपकी स्थिति हो, तब सच्चा प्रपंच हो सकता है। और आज हमें उसी की जरूरत है। उस प्रपंच की। आपको जनक जी के बारे में मालूम होगा। नचिकेता ने सोचा, ये जनक राजा जो अपने सर पर मुकुट पहनते हैं, इनके पास सब दास-दासी हैं, नृत्य, गायन होता रहता है, ये जब हमारे आश्रम में आते हैं तो हमारे गुरू इनके चरण छूते हैं? ये ऐसे क्या महान हैं? तो उनके गुरू ने कहा, "तुम ही जाओ और देखो ये कैसे महान हैं?" तो नचिकेता एकदम उनके आगे जाकर खड़ा हुआ और कहने लगा, "आप मुझे आत्मसाक्षात्कार दीजिए। मेरे गुरू ने कहा है, आप आत्मसाक्षात्कार देते हैं। सो कृपा करके आप मुझे आत्मसाक्षात्कार दीजिए। उन्होंने कहा, "देखो, तुम सारे विश्व का ब्रह्मांड भी माँगते तो मैं देता, पर तुम्हें मैं आत्मसाक्षात्कार नहीं दे सकता। उसका कारण है, उस चीज़ का तत्व ही जिसे मालूम नहीं, उस मनुष्य को आत्मसाक्षात्कार कैसे दें? जो मनुष्य तत्व को समझेगा वही उसमें उतर सकता है।" तो प्रपंच का तत्व है 'प्र' और वह 'प्र' माने प्रकाश। वह जब तक आपमें जागृत नहीं होता तब तक आप 'पंच' में हैं 'प्रपंच' में नहीं उतरे। नचिकेता ने जब उपरोक्त सवाल राजा जनक से पूछा, तो उन्होंने कहा कि अब तुम मेरे साथ रहो और बाकी सब कहानी तो आपको मालूम है। मुझे वह फिर से कहने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु अन्त में नचिकेता समझ गया, इस मनुष्य (राजा जनक) का किसी प्रकार का लगाव नहीं है या कहिए चिन्ता नहीं है, न किसी चीज़ के प्रति आत्मीयता है कि जिसे हम संसार कहते हैं, इस तरह की चीज़ों की। और ये एक अवधूत की तरह रहने वाला मनुष्य है। सिर पर मुकुट धारण करेगा, धरती पर भी सो जाएगा, जैसे बादशाह है। उसे कोई आराम की जरूरत नहीं। कहीं तो पलंग पर सोएगा, गद्दियों पर लेटेगा, जमीन पर ही पड़ा रहेगा , ऐसा ये बादशाह है। उसे किसी भी चीज़ की परवाह नहीं। उसे किसी ने भी पकड़ा नहीं है। जो मनुष्य प्रपंच में है उसको न किसी आराम की और न किसी गुलामी की आदत लगती है। उसे किसी पत्थर पर सर टिकाकर सोने को कहा तो वह सो सकता है। चोकर (रूखी- | 17

Hindi Translation (Marathi Talk) सूखी रोटी) भी खा सकता है, और दावत भी खा सकता है। उसे कल अगर पूछा जाए, भई अब आश्रम बनाना है, तो कैसे करें? तो वह सब कुछ बता देगा। सीमेन्ट से लेकर सभी बातें बता देगा । ये कहाँ मिलेगा ? वो कहाँ मिलेगा। सब कुछ बता देगा। उसे अन्दर से किसी चीज़़ की पकड़ नहीं। ये बात तत्व की बात है। इसे आप समझ लीजिए । नामदेव जी ने एक कविता लिखी है और वही नानक साहब ने भी वन्दनीय मानकर गुरू ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित की है। वह अत्यन्त सुन्दर है। उसका मैं केवल यहाँ पर आशय वर्णन करती हैँ। उस कविता में कहा है, 'आकाश में पतंग उड़ रही है और एक लड़का हाथ में उस पतंग की डोर पकड़ कर खड़ा है। वह सबसे बातें कर रहा है, हंस रहा है, आगे पीछे जा रहा है, यहाँ वहाँ भाग रहा है। परन्तु उसका सारा चित्त उस पतंग पर है।' दूसरे दोहे में उन्होंने कहा है, 'बहुत सी औरतें पानी भरकर ले जा रही हैं और मार्ग से जाते समय आपस में मज़ाक कर रही हैं, घर की यह वह बातें कर रही हैं। परन्तु उनका सारा चित्त सर पर रखे घड़ों पर है कि पानी न गिरे।' इसी तरह और एक दोहे में माँ का वर्णन है, 'एक माँ बच्चे को गोद में लिए सभी काम करती है। चूल्हा जलाती है, खाना बनाती है, सभी प्रकार के काम करती है। उन कामों में कभी झुकती है, कभी भागती है। सब कुछ उसे करना पड़ता है, परन्तु उसका सारा चित्त पूरे समय उस बच्चे पर रहता है कि बच्चा गिर न जाए। इसी तरह साधु-सन्तों का है। सभी तरह के कामों का उन्हें ज्ञान होता है। वे सभी कार्य करते हैं किन्तू वे सब करते समय उनका सारा चित्त अपनी आत्मा पर होता है। ये सभी लोग बिल्कुल आपकी तरह गृहस्थाश्रम में रहने वाले होते हैं, उनके बाल-बच्चे होते हैं। सब कुछ होते हुए भी इनमें जो वैचित्र्य है वह आपको तत्व में आकर पहचानना चाहिए। वह क्या वैचित्र्य है? और वही माने 'सहजयोग' है। वह वैचित्र्य अपने में आने पर अपने को भी उससे क्या लाभ होते हैं ये देखना जरूरी है। क्योंकि प्रपंच में आप लाभ और हानि पहले देखते हैं। लाभ कितना है? हानि कितनी है ? सर्वप्रथम कहना ये है कि परमात्मा उन सभी से परे है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु बहुतो को उसका मतलब मालूम नहीं। और आज कल के समय में परमात्मा की बातें करने से लोगों को लगता है 'इन महिला को अभी आधुनिक शिक्षा वगैरेह मिली नहीं है और ये कोई पुराने जमाने की बेकार नानी-दादी की कथाएं सुना रही है।' परन्तु परमेश्वर है और वह रहेगा । वह अनन्त में है। परन्तु परमेश्वर हमारे साथ प्रपंच में किस तरह कार्यान्वित होता है यह देखना चाहिए । सर्वप्रथम अब देखें कोई समस्या है। किसी ने मुझ से कहा, 'माताजी, मेरे घर में तकलीफ है, मुझे काम-धंधा नहीं है।' इस तरह की बातें, अत्यन्त छोटी-छोटी बातें , जड़-लौकिक बातें, 'ये ऐसा है, वैसा है' और थोडे दिनों के बाद वह कहता है, "माताजी, सब कुछ ठीक हो गया।" तो ये सब कैसे होता है? यह देखना चाहिए। एक दिन की बात है, हमारी एक शिष्या है, विदेशी है। मैं 'शिष्या' वगैरा तो कहती नहीं हूँ 'बच्चे' ही कहती हैं। तो दोनों लड़कियाँ थीं। वे दोनों जर्मनी में एक मोटर में जा रही थीं । और जर्मनी में 'ऑटेबान' करके बहुत बड़े रास्ते होते हैं। और उस पर से बड़ी तेजी से गाड़ियाँ इधर-उधर दौड़ती हैं। तो उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी, दोनों तरफ से ट्रक, बड़ी- बड़ी बसें, बड़ी - बड़ीं कारें, जो 'डबल - लोडर्स' होती हैं, वह सब जा रही थीं और बीच में हमारी मोटर। उसका ब्रेक भी काम नहीं कर रहा था और गाड़ी भी 'बरबलिंग' (कंपन) करने लगी। तो मुझे लगा कि अब मैं गयी, अब तो मैं बच ही नहीं सकती। अगर ब्रेक भी कुछ ठीक रहता तो कुछ उम्मीद थी। पर वह ठीक नहीं था ।' तो उस स्थिति में 18

Hindi Translation (Marathi Talk) उसमें एक तरह की प्रेरणा आ गयी। जिसे हम कहेंगे ' इमरजेन्सी की प्रेरणा' वह निर्माण हो गईं। वह है कि 'अब सब कुछ गया, अब कुछ भी नहीं रहा, विनाश का समय आ गया।' तो शरणागत होकर उसने कहा, "श्री माताजी, आपको जो करना है वह करें। मैं तो आँख मूँद लेती हूँ।" और उसने आँखें मूँद लीं । उसकी चिठ्ठी में लिखा था , "थोड़ी देर बाद मैंने देखा तो मेरी कार अच्छी तरह से एक तरफ आकर रूकी हुई खड़ी थी और मेरा ब्रेक भी ठीक अब हो गया था।" अब माताजी ने कुछ नहीं किया था , ये आप देखिए। यह कैसे होता है? मलतब यह जो परिणाम हुआ है वह किसी न किसी कारणवश हुआ है। मतलब 'कारण व परिणाम'। समझ लीजिए आपके घर में झगड़ा है। उसका कारण है आपकी पत्नी या आपकी माँ या आपके पिताजी या कोई 'अ' मनुष्य और उसका परिणाम है घर में अशान्ति। जो मनुष्य सर्वसाधारण बुद्धि का होगा वह ' परिणाम ' से ही लड़ता रहेगा। अभी मुझे इसे लड़ना है। फिर कोई दूसरी लड़ाई निकल आएगी। फिर तीसरी। अब जो कारण है उस पर कौन सोचते हैं ? कुछ लोग सूक्ष्म बुद्धि के होते हैं। वे उसका जो 'कारण' हैं उससे लड़ते हैं। उस कारण से लड़ाई करने पर वह कारण भी उनसे लड़ना शुरू कर देता है। और 'कारण और परिणाम' इसके चक्कर में पड़ने से वे दोनों ही समस्या वैसी की वैसी रह जाती है। उसके परे वे जा नहीं सकते। और इसलिए 'प्रपंच करना बहत कठिन काम है', ऐसा सब लोग कहते हैं। इसका इलाज क्या है? इसका इलाज ये है कि उसका जो कारण है, उस कारण के परे जाना होगा। उसका जो कारण था, ब्रेक टूट गया था, उस ब्रेक से वह लड़ रही थी। परन्तु जब उसे महसूस हुआ, इन सबके परे भी कुछ है कोई शक्ति है और वह शक्ति कारण के परे होने से कारण भी नष्ट हो गया और उसका परिणाम भी नष्ट हो गया। ये ऐसे होता है। आप विश्वास करिए या मत करिए, पर ये बात होती है। परन्तु ये अन्धविश्वास से नहीं होती है। अब बहुत से लोग मेरे पास आकर कहते हैं, "माताजी, हम इतना भगवान को याद करते हैं परन्तु हमें कैन्सर हो गया। हम इतना करते हैं, मन्दिर में जाते हैं, सिद्धीविनायक के मन्दिर में रोज जाकर खड़े रहते हैं, घंटे-घंटे। मंगल के दिन तो विशेष करके जाते हैं, परन्तु तब भी हमारा कुछ भी अच्छा नहीं हुआ, इस भगवान ने हमारा कुछ भी अच्छा नहीं किया, फिर हम इसे क्यों भजें?" ठीक है। आप जिस भगवान को बुला रहे हैं उसका आपका क्या कोई कनेक्शन (सम्बन्ध) हुआ है? आपका जब तक कनेक्शन नहीं हुआ, तब तक अच्छा कैसे होगा? भगवान तक आपके टेलीफोन की कनेक्शन तो होना चाहिए। इस तरह आप रात दिन परमेश्वर की पूजा करते हैं? परन्तु क्या आप जो बोल रहे हो उस परमेश्वर को सुनाई दिया है? चाहे जो धंधे करो , चाहे जैसा बर्ताव करो और उसके बाद 'हे परमात्मा, मुझे आप देते हैं कि नहीं?' कहकर उसके सामने बैठ जाना। उस परमात्मा ने आपको किसलिए देना है? आपका कोई कनेक्शन होगा तो आप कुछ भारत सरकार से माँग सकते हैं, क्योंकि आप उसके नागरिक हो, परमात्मा के साम्राज्य के नहीं। पहले उसके साम्राज्य के नागरिक बनिए, फिर देखिए उसकी याद करने के पहले ही परमेश्वर ये करता है कि नहीं। अब समझ लीजिए यहाँ पर बैठे-बैठे ही कोई अगर इंग्लैण्ड की रानी को कहेगा कि वह हमारे लिए ये नहीं करती, वह नहीं करती। वह आपके लिए क्यों करने लगी? तो यहाँ तो परमात्मा हैं और वह परमात्मा आपके लिए क्यों करने लगा? आप उनके साम्राज्य में अभी आए नहीं हैं। केवल उन पर तानाशाही करना 'हे परमात्मा !' जैसे कोई वे आप की जेब में बैठे हैं। और अब आपको ये भी विचार नहीं है कि हमें परमात्मा का स्मरण करना है। सुस्मरण कहा है, स्मरण नहीं कहा है। सुस्मरण करते समय भी 'सु' कहा है। ये देखिए, 'सु' माने क्या? जैसे 'प्र' शब्द है वैसे ही 'सु' शब्द है। 'सु' माने जहाँ मनुष्य का सम्बन्ध होकर आपमें मांगल्य का 19

Hindi Translation (Marathi Talk) आशीर्वाद आया हुआ है तभी वह सुस्मरण होगा। अन्यथा तोते की तरह बिना समझे बोलना है। उसका असर युवा पीढ़ी पर होता है। वे कहते हैं 'इस परमात्मा का क्या अर्थ हुआ? परमात्मा का नाम लेकर यहाँ दो बाबा आए और हमारी माँ का पैसा ले गये, वहाँ कोई गले में काला धागा बाँध गये और रुपया ले गए। ऐसे परमात्मा का क्या अर्थ हुआ?' इसलिए उनका कहना ठीक लगता है। फिर उनकी तरह और लोग भी कहते हैं 'परमात्मा है ही नहीं। परन्तु सर्वप्रथम अपनी समझ में ये गलती हुई है कि क्या हमारा परमात्मा के साथ कोई सम्बन्ध हुआ है? क्या हमारा उन पर अधिकार है? हमने उनके लिए क्या किया है ? ये तो देखना चाहिए। पहले उनके साथ अपना कनेक्शन (सम्बन्ध) जोड़ लीजिए। अब सहजयोग माने परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ना। सहज इस शब्द में 'सह' माने अपने साथ, 'ज' माने जन्मा हुआ। जन्म से ही आपमें योग (सम्बन्ध जोड़ना), योग सिद्धि का जो अधिकार है, वह माने 'सहजयोग' है। आपमें परमात्मा ने कुण्डलिनी नाम की एक शक्ति रखी है वह आपमें स्थित है। आप विश्वास कीजिए या न कीजिए | क्योंकि ऊपरी ( बाह्य) आँखों ( दृष्टि) वाले लोगों को कुछ कहना कठिन है। विशेषकर अपने यहाँ के साहित्यिक और बुद्धिजीवी लोग विचारों पर चलते हैं। और विचार कहाँ तक जाएंगे , इसका कोई ठिकाना नहीं है । किसी विचार का किसी से मेल नहीं है । इसलिए इतने झगड़े हैं। तो इन विचारों के परे जो शक्ति है, उसके बारे में अपने देश में परम्परागत अनादि काल से बताया गया है। उस तरफ कुछ ध्यान देना जरूरी है। परन्तु इन विचारवान लोगों में इतना अहंकार है कि वे उधर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं। हो सकता है शायद इसमें उनके पेट का सवाल है। परन्तु सहजयोग में आने के बाद पेट के लिए आप आशीर्वादित होते हैं। परमात्मा से सम्बन्ध घटित होने के बाद आपकी समस्याएं ऐसे हल होती हैं कि आपको आश्चर्य होगा। 'ऐसा हमने क्या किया है? इतना हमें परमात्मा ने कैसे दे दिया? इतनी सही व्यवस्था कैसे हो गयी?' ऐसा सवाल आप अपने आपसे पूछ कर चकित रह जाते हैं । ज्ञानदेव की 'ज्ञानेश्वरी' का आखरी पसायदान (दोहा) आपने सुना होगा उन्होंने जो वर्णन किया है वह आज की स्थिति है। ये सब अब घटित होने वाला है। जिस चीज़ की जो इच्छा करेगा वह ( परमेश्वरी आनन्द) उसे प्राप्त होगी। परन्तु वह करने के पहले आप केवल कुण्डलिनी का जागरण कर लीजिए । उसके बिना में आपको कोई वचन नहीं दे सकती। और न मिनिस्टर (मन्त्री) लोगों की तरह आश्वासन देती हूँ। जो बात है वह मैं अपनी बोली में अपने ही ढ़ंग से कह रही हूँ। कोई साहित्यिक भाषा में नहीं बोल रही हूँ। जैसे कोई माँ अपने बच्चे को घरेलू बातें समझाती है उसी तरह मैं आपको समझा रही हूँ। आपमें जो संपदा है वह प्राप्त कीजिए। आप कहते हैं हम प्रपंच में बँध गए हैं। 'बँध गए हैं' माने क्या ? तो फालतू बातों का आपको महत्व लगने लगा। मुझे नौकरी मिलनी चाहिए वो क्यों नहीं मिल रही है, क्योंकि बेकारी ज्यादा है? माने बेकार ज्यादा हैं इसलिए। बेकारी क्यों ज्यादा है? बेकारों की संख्या बढ़ रही है। वो बढ़ती ही जाएगी। इन कारणों के परे कैसे जाना है? उसका इलाज है कि वह जो शक्ति हमारे चारों तरफ है उसका आव्हान करना होगा। अपने में वह शक्ति मूलाधार चक्र में रहती है। मूलाधार में ये जो शक्ति है वह प्रपंच में कैसे कार्यान्वित है यह आप देखिए । अपना ध्यान उस (शक्ति की) तरफ होना चाहिए। और सर्वप्रथम ये विचार होना चाहिए कि मूलाधार में जो कुण्डलिनी शक्ति है वह श्री गणेश की कृपा से वहाँ बैठी है। अब इस महाराष्ट्र को बहुत बड़ा वरदान है। कहना चाहिए | यहाँ जो अष्टविनायक हैं वह आपके लिए परमात्मा का बहुत बड़ा उपकार हैं। इसी कारण महाराष्ट्र में मैं सहजयोग स्थापित कर सकी हूँ। क्योंकि श्री गणेश का जो प्रभाव है उसी 20

Hindi Translation (Marathi Talk) का आप पर आवरण है। उसी आवरण के कारण सचमुच मेरी बहुत मदद हुई है। ये श्री गणेश आपके मूलाधार में | विराजमान हैं। अब कोई डॉक्टर है तो वह अपने घर में श्री गणेश का फोटो रखेगा। मन्दिर भी बनाएगा। वहाँ जाकर नमस्कार करेगा। परन्तु उस श्री गणेश का और डॉक्टरी का क्या सम्बन्ध है ये उसकी समझ में नहीं आएगा और उसे वह स्वीकार भी नहीं करेगा । परन्तु उस श्री गणेश के बिना डॉक्टरी भी बेकार है। अब ये जो श्री गणेश शक्ति आपमें है उसी के कारण आपके बच्चे पैदा होते हैं। अब जरा सोचिए, एक माता-पिता जिस तरह उनके चेहरे हैं उसी तरह का बच्चा पैदा होता है। हजारों, करोड़ों लोग इस देश में हैं, दूसरे देशों में हैं। परन्तु हर एक का बच्चा या तो उसके माता-पिता की तरह होता है, नहीं तो दादा-दादी या उस परिवार के किसी व्यक्ति के चेहरे पर होता है। तो इसका जो नियमन है वह कौन करता है? वह श्री गणेश करते हैं । आपका कर्तव्य है कि अपने घर में जो गणेश (बच्चे) हैं उनमें जो बाल्यवत अबोधिता है उसे स्वीकार करें। अबोधिता अपने में आनी चाहिए। घर में छोटे बच्चे होते हैं। छोटे बच्चे कितने अबोध होते हैं। उनके सामने हम वह गाली-गलौच करते हैं, बुरे शब्द बोलते हैं। ऐसे वातावरण में हम उनको पालते हैं, जहाँ सब अमंगल है। उन्हें जो इच्छा करने देते हैं या कहिए उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देते । यही (बच्चे) तो आपके घर के गणेश हैं। उनके | संवर्धन में, पालन-पोषण में आपका ध्यान नहीं है। आजकल तो इंग्लैण्ड में ८० वर्ष की आयु की औरतें भी शादी करती हैं। तो अब क्या कहें कुछ समझ में नहीं आता। वहाँ की गन्द यहाँ मत लाओ। वहाँ की गन्द वहीं रहने | दीजिए। ते 'अति शहाणे, त्यांचे बैल रिकामे' (जो ज़्यादा सयाना हैं उनकी खोपड़ी खाली है।) तो श्री गणेश की अप्रसन्नता हम पर न हो उसका निश्चय करना होगा। श्री गणेश हम में बैठकर हमारे बच्चों का पालन करते हैं। प्रथम जनन और उसके बाद पालन। और वह जो भोला गणेश (बच्चा) है वह घर के सभी लोगों को आनन्द देता है। किसी घर में बच्चा पैदा होते ही कितनी खुशियाँ छा जाती हैं। उस बच्चे से कितनी आनन्द की लहरें घर में फैलती हैं। परन्तु जिस घर में बच्चा नहीं होता वहाँ कैसा खालीपन सा महसूस होता है। ऐसा लगता है उस घर में जाएं नहीं। क्योंकि वहाँ बच्चों की गुनगुनाहट नहीं, हँसना नहीं, खिलखिलाना नहीं, वह मस्ती नहीं। ऐसे घर में कोई माधुर्य नहीं। परन्तु आजकल जमाना कुछ दूसरा ही है। ही नहीं होते। उनकी आबादी घटती जा रही है। और जिन देशों को अमीर affiluent कहते हैं उन देशों में बच्चे पैदा हमारे भारत देश की आबादी बढ़ती जा रही है। इसलिए लोग कहते हैं यह बहुत बुरा है । आपके देश की आबादी इतनी नहीं बढ़नी चाहिए। मान लिया, परन्तु कहना ये है कि जो बच्चे आज जन्म ले रहे हैं उनमें भी अक्ल होती है। वे क्यों उन देशों में जन्म लेने लगे? वे कहेंगे वहाँ रोज पति-पत्नी तलाक लेते हैं और बच्चों को जान से मार ड़ालते हैं। वही हमारे साथ होगा। क्योंकि यहाँ (भारत में) माँ-बाप को बच्चों के प्रति जो आस्था, जो प्रेम, जो सहज- बुद्धि है वह इन लोगों में (अमीर देशों में) बिल्कुल नहीं है। आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि लन्दन शहर में माँ- बाप एक हफ्ते में दो बच्चों को मार देते हैं। जितना सुनोगे उतना कम है। मुझे रोज ही धक्का सा लगता है। और उन्हें उसका कुछ भी असर नहीं है। क्योंकि अहंकार में इतने डूबे हैं कि इसमें कुछ अनुचित है ये महसूस ही नहीं करते। वहाँ जाकर मालूम हुआ हिन्दुस्तानी मनुष्य कितना अच्छा है। यहाँ (भारत) के टेलीफोन ठीक नहीं हैं। माईक ठीक नहीं हैं। रेलगाड़ियाँ ठीक नहीं हैं। सब कुछ मान लिया। पर लोग तो ठीक हैं। उस अच्छाई में जो गहन से गहन है, 21

Hindi Translation (Marathi Talk) वह है गणेश तत्व | और जिस घर में गणेश तत्व ठीक नहीं है वहाँ सब कुछ गलत होता है। जहाँ बच्चे बिगड़ रहे हैं उसका दोष मैं समाज से ज्यादा माँ-बाप को देती हूँ। आजकल माँ भी नौकरी करती हैं। बाप तो करते ही हैं। तब भी जितना समय आप अपने बच्चों के साथ काटते हैं, वह कितना गहन है ये देखना जरूरी है । अब सहजयोग में आने पर क्या होता है ये देखना जरूरी है। मतलब सहजयोग का सम्बन्ध आपके बच्चों के साथ किस तरह है ये देखना जरूरी है। सहजयोग में आपकी गणेश शक्ति जो जागृत होती है वह कुण्डलिनी शक्ति के कारण है। तब प्रथम मनुष्य में सुबुद्धि आती है। हम उसे विनायक ( गणेश) कहते हैं। वही सबको सुबुद्धि देने वाला है। मैंने ऐसे बच्चे देखे हैं, जिन्हें लोग मेरे पास लेकर आते हैं, कहते हैं, बच्चा क्लास में एकदम 'शून्य' है, खाली मस्ती करता है, मास्टरजी से उल्टा-सीधा बोलता है। मैंने उससे पूछा, "तुम ऐसे क्यों करते हो?" उसने कहा, "मुझे कुछ नहीं आता और मास्टरजी भी मुझे डाँटते रहते हैं। फिर मैं क्या करूं ?" वही बच्चा फर्स्ट क्लास फर्स्ट (प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान) में पास हुआ है। ये कैसे हुआ है? वह गणेश अपने में जागृत होते ही वह शक्ति आपमें बहने लगती है और मनुष्य में एक नये तरह का आयाम शुरू हो जाता है। उस आयाम को हम सामूहिक चेतना कहते हैं। उस नयी चेतना में जो चीज़ें पहले मनुष्य को साधारणतया दिखाई नहीं देतीं, अनुभव नहीं होतीं, वे सहज में ही होने लगती हैं। ये नया आयाम या कहिए ये जो एक नयी चेतना-शक्ति अपने में आने लगती है उस शक्ति से मनुष्य सच्चा समर्थ हो जाता है। और उस समर्थता से एक चमत्कार घटित होता है। जो बच्चे बेकार हैं, जो किसी काम के लायक नहीं है, माने जो शराब वरगैरा पीते हैं-आजकल आपको मालूम है ड्रग वगैरा चलता है-हमने तो कभी चरस नाम की चीज़ ही नहीं देखी थी। अब मालूम होता है कि आजकल स्कूलों में चरस बिकती है। ये सब मूर्खता, सुबुद्धि न होने के कारण होती है। वह सुबुद्धि जागृत होते ही जो लोग इग्लैण्ड, अमेरिका में चरस लेते हैं वे यह सब छोड़कर अच्छे नागरिक बन गए हैं। ये सहजयोग की शक्ति है। बच्चों में शिष्टाचार आता है। मैं देखती हूँ आजकल बच्चों में शिष्टाचार नहीं है क्योंकि माँ-बाप आपस में लड़ते हैं, बच्चों का आदर नहीं करते। उनसे चाहे जैसा व्यवहार करते हैं। जैसी माँ-बाप की प्रकृति, वैसी ही बच्चों की बन जाती है और वे वैसे ही असभ्य आचरण करते हैं। सहजयोग में आकर माता-पिता की कुण्डलिनी अगर जागृत हो गयी और बच्चों की भी हो गयी तो फिर सब एकदम कायदे से व्यवहार करते हैं। पहले आत्म-सम्मान जागृत होता है। उपदेश करने से आत्म-सम्मान जागृत नहीं होता। परन्तु सहजयोग में कुण्डलिनी जागृति से मनुष्य में सम्मान आता है। अपने देश में जो मनुष्य सत्ताधीश है उसी का सम्मान करने की रूढ़ी चली आ रही है। परन्तु सच्ची सत्ता श्री गणेश की है। उनकी सत्ता जिनके पास हो उन्हीं के चरणों में झुकना चाहिए। बाकी सब ऐरे- गैरे नत्थू-खैरे आज आएंगे कल चले जाएंगे। उनका कोई मतलब नहीं, बेकार हैं वे लोग। जिन्होंने गणेश को अपने आप में जागृत किया है उनके सामने झुकना चाहिए। गणेश शक्ति जागृत होते ही आदमी में बहत अन्तर आ जाता है। जैसे कि आजकल पुरुषों की नज़र इधर-उधर दौड़ती रहती है, चंचल रहती है, आज्ञा चक्र पकड़ता है। हरदम पागलों की तरह इधर -उधर देखते रहना, जिसे कहते हैं तमाशगीर। आजकल तमाशगीरों की बड़ी भारी संख्या है। महाराष्ट्र में भी शुरू हुआ है। हम जब छोटे थे, स्कूल, कॉलेजों में पढ़ते थे तब हमने ऐसे तमाशगीर नहीं देखे थे। परन्तु अब ये नये लोग निकले हैं। ये लोग हरदम 22

Hindi Translation (Marathi Talk) अपनी आँखें इधर से उधर दौड़ाते रहते हैं। उससे बहत शक्ति नष्ट होती है और उसमें किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं है। नीरस क्रिया (joyless pursuit) कहना चाहिए। उसमें अपना सारा चित्त लगाकर अपनी आँखें इधर-उधर घुमाते रहते हैं। हरदम इधर-उधर देखना, जैसे रास्ते के विज्ञापन देखना। गलती से कोई विज्ञापन देखना छूट गया तो उन्हें लगेगा जैसे अपना कुछ महत्वपूर्ण काम चूक गया। फिर से आँख घुमाकर वह विज्ञापन पढ़ेंगे। हर-एक चीज़ देखना जरूरी है। ये जो आँखों की बीमारी है यह एकदम नष्ट होकर मनुष्य सहजयोग में एकाग्र होता है। तब इसमें एकाग्र दृष्टि आती है। ऐसी एकाग्र दृष्टि व गणेश शक्ति अगर जागृत हो जाती है, उसे 'कटाक्ष निरीक्षण' कहते हैं। आपकी कटाक्ष दृष्टि जहाँ पड़ेगी वहाँ कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी। जिसकी तरफ आप देखेंगे उसमें पवित्रता आ जाएगी। इतना पावित्र्य आँखों में आ जाएगा। ये केवल अकेले गणेश का काम है। और ये गणेश आपके घर ही में है। आपने अपने गणेश को पहचाना नहीं। अगर पहचाना होता तो अपनी पवित्रता में स्थित होते। जो पवित्र है वही करना चाहिए। परन्तु आपने अपने गणेश को नहीं पूजा। कोई बात नहीं। अपने घर में बच्चे हैं, उनके गणेश को देखिए। उन्हें पूजनीय बनाइए और अपने गणेश को भी । आप अपनी कुण्डलिनी जागृत करवाइए। परन्तु सहजयोग की विशेषता ये है कि ये सहज में होता है। उसके लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं । कुण्डलिनी जागृत होने पर मनुष्य में सुबुद्धि आती है और उस मनुष्य का सारा व्यक्तित्व एक विशेष प्रकार का हो जाता है। अब यहाँ पर जो साहित्यिक लोग होंगे वे कहेंगे माताजी कोई भ्रामक (विचित्र) कहानियाँ सुना रही हैं। परन्तु आपको सुनकर आश्चर्य होगा। अहमदनगर जिले में सहजयोग के कारण दस हजार लोगों ने शराब छोड़ी है। मैं शराब बन्दी हो जाए वगैरा नहीं बोलती हूँ। मैं कुछ नहीं बोलती। आप जैसे भी हो आप आइए । आकर अपना आत्मारूपी दिया जलाइए। दिया जलने के बाद शरीर में क्या दोष हैं वे आपको दिखाई देंगे। जब दिया नहीं जलेगा तब तक साड़ी में क्या लगा है ये नहीं दिखाई देगा। उसी तरह एक बार दिया जला कि सब कुछ दिखाई देगा। बिल्कुल थोड़ा सा भी जल गया तो भी आपको दिखाई देगा कि अपनी क्या क्या त्रुटियाँ हैं। आप ही अपने गुरू बनिए और अपने आपको अच्छा बनाइए। स्वयं को पवित्र बनाइए। जो लोग पवित्र होते हैं उनके आनन्द की कोई सीमा नहीं। उनके आनन्द का कोई ठिकाना नहीं रहता। किसी ने कहा है, 'जब मस्त हुए फिर क्या बोलें?' अब हम मस्ती में आए हैं तो उस मस्ती की हालत में अब हम क्या बोलें? ऐसी स्थिति हो जाती है। पवित्रता आनन्दमयी है और केवल आनन्दमयी ही नहीं , पूरे व्यक्तित्व को सुगंधमय कर देती है। ऐसा मनुष्य कहीं भी खड़ा होगा तो लोग कहेंगे, 'हे भाई, इसमें कुछ तो भी कुछ विशेष बात है इस मनुष्य में।' जिन्हें विशेष नहीं बनना है उनके लिए सहजयोग नहीं है। जिन्हें विशेष बनना है वे बनेंगे। आप विशेष बनने वाले हो ये सर्वविदित है। वह आपको अर्जन करना है, कमाना है। जिन्हें विशेष बनना है, उन प्रापंचिक लोगों के लिए, घर-गृहस्थी में रहने वाले लोगों के लिए सहजयोग है। जिन्हें कुछ बनना नहीं, जो समझते हैं हम बिल्कुल ठीक हैं, हमें कुछ नहीं चाहिए माताजी, तो भाई ठीक है, आपको हमारा नमस्कार। आप पधारिए। आप पर हम जबरदस्ती नहीं कर सकते । अगर आपको पूर्ण स्वतन्त्रता की रक्षा करनी है। अगर आपको नर्क में जाना है तो बेशक जाइए, और अगर स्वर्ग में आना है तो आइए। हम आप पर कोई जोर जबरदस्ती नहीं कर सकते। सर्वप्रथम अपने प्रपंच में सुख का कारण बच्चा होता है। गर्भारम्भ से ही घर में आनन्द शुरू हो जाता है। माता 23

Hindi Translation (Marathi Talk) के कष्टों की समाप्ति के पश्चात बच्चे का अत्यन्त उल्लास के बीच जन्म होता है। आजकल मैंने देखा है जो लोग पार हैं उनके जो बच्चे होते हैं, वे जन्म से ही पार होते हैं, चाहे वे लोग कहीं भी रहें । कितने ही बड़े-बड़े आत्मपिडों को जन्म लेना है। सबको मैं देख रही हूँ। वे कह रहे हैं, 'ऐसा कौन है जो हमारी आत्मा को सूचारू रखेगा ?' ऐसे- वैसे लोगों के यहाँ साधु-सन्त नहीं जन्म लेते। ऐसे बड़े-बड़े आत्मपिंड आज जन्म लेने वाले हैं और उनके लिए ऐसे लोगों की जरूरत है जिनके प्रपंच सचमुच ही प्रकाशित हैं। और ऐसे प्रकाशित प्रपंच निर्माण करने के लिए आप सहजयोग अपनाकर अपनी कुण्डलिनी जागृत करवा लीजिए। वह होने के बाद दूसरे चक्र से जिसे हम 'स्वाधिष्ठान चक्र' कहते हैं उससे प्रपंच में बहुत से लाभ होते हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का पहला काम है, आपकी गुरु-शक्ति को प्रबल बनाना। बहत से घरों में मैंने देखा है, पिता की कोई इज्जत नहीं, माँ की कोई इज्जत नहीं। छोटे-छोटे १५-१६ साल के बच्चे ही सब कुछ है। आजकल बाज़ार में देखती हूँ, हमारे जैसे वयस्क लोगों के लिए साड़ी खरीदना एक समस्या है। सभी साड़ियाँ युवा लड़कियों के लिए ही हैं। बड़े-बूढ़े लोगों के लिए साड़ियाँ बनाने का आजकल रिवाज ही नहीं रहा। पहले जमाने में बूढ़े लोगों के पास पैसा रहता था, उनके लिए सब कुछ ठीक-ठाक रहता था। अब बूढ़े लोगों को कोई पूछता नहीं। उनके लिए शादीब्याह में एकाध साड़ी खरीदना भी मुश्किल हो गया है। जिस समय ये गुरु शक्ति आपमें जागृत होती है तब ये जो बूढ़ापन, वृद्धत्व आता है, उसमें बुजर्ग आदमी को लें। अपने पिता भी कभी -कभी बिल्कुल मूर्खों की तरह बर्ताव करते हैं। माँ महामूर्खों की तरह बर्ताव करती है। बाहर से जो लोग आते हैं उनके सामने किस तरह रहना है उसे नहीं मालूम। चिल्लाती रहती है, सारा ध्यान उसका चाभियों पर, नहीं तो जात-पात के लड़ाई-झगड़ों पर रहता है। कोकणस्थ की शादी कोकणस्थ से ही होनी चाहिए, देशस्थों की देशस्थों से। ऐसा नहीं हुआ तो सास लड़ती है। ये जो बुड्ढ़े लोगों की अजीब बातें है, ये तब खत्म हो जाती हैं और उसके स्थान पर उस बूढ़ेपन में एक तरह की 'तेजस्विता' आ जाती है। वह व्यक्ति अपने सम्मान के साथ खडा रहता है। आपको लगेगा 'अरे बाप रे! हमारे पिताजी ये क्या हो गए?' पहले जमाने के जो दादोजी कोंडदेव (शिवाजी के जमाने के लोग) वगैरा लोग थे, क्या वही यहाँ खड़े हो गए ?' और तुरन्त उनके सामने हम विनम्र हो जाते हैं। तो इस युवा पीढ़ी में जो खलबली मची हई है। बात-बात पर तलाक, पत्नी के साथ लड़ाई, माँ-बाप से नहीं बनती, घर में रह नहीं सकते, घर से बाहर भाग जाना, छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़े, ये सब हो रहा है। काम-धंधा नहीं, पैसे नहीं, सभी बुरी आदतें, सब तरफ से आजकल की युवा पीढ़ी एक बड़े संक्रमण काल की तरफ बढ़ रही है। उनकी पृष्ठभूमि (background) बहुत महान है। पर में कहती हूँ महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि तो बहुत ही महान है। पर वह सब भूलकर भी पढ़ेंगे नहीं, सुनेंगे नहीं। अब संगीत का अपने महाराष्ट्र में कितना ज्ञान है? साधु- सन्तों का कितना साहित्य है अपनी भाषा में। पर वह सब किताबें कौन पढ़ता है? गन्दी किताबें सड़क पर खरीद कर पढ़ना। कुछ अत्यन्त नकली, superficial (जो गहराई में नहीं जाते, बस ऊपर ऊपर उतरते रहते हैं) इस तरह की युवा पीढ़ी बनती जा रही है। इस युवा पीढ़ी को अगर इसी तरह रखा तो ये इसी हवा में खो जाएगी। किसी काम की नहीं रहेगी। मुझसे पूछिए आप, मैं अमेरिका गई थी तो ६५% पुरुष बेकार है। वहाँ के जो लोग हैं उन्हें एक डर है। वहाँ 'एडस' नाम की कोई बीमारी है। उससे सभी युवा लोग मर रहे हैं और उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इससे | 24

Hindi Translation (Marathi Talk) कैसे छुटकारा मिले? उसका कारण है, 'ये करने में क्या हर्ज है? इसमें क्या बुरा है? हो गए होंगे श्री रामदास स्वामी, हमें उनसे क्या मतलब ? वह सब बातें रखिए अपने पास । हम अब मॉडर्न बन रहे हैं।' बड़े आए मॉडर्न बनने वाले! वे (अमेरिकन) मॉडर्न कहाँ गए हैं। वह देखिए एक बार उस देशों में जाकर। वहाँ के मॉडर्न लोगों की क्या स्थिति है ये जरा जाकर देखिए । यहाँ के लेखकगण यहीं बैठकर वहाँ के वर्णन लिखते रहते हैं। वहाँ जाकर देखिए। वहाँ के वयस्क लोग रात दिन एक ही बात सोचते हैं, हम किस तरह आत्महत्या करें? एक ही विचार है उनका, आत्महत्या। यही एक रास्ता है उनके पास। तो हवा में खत्म होने वाले जो ये लोग हैं उनकी तरह आपको मॉडर्न होना है तो आपको हमारा नमस्कार ! परन्तु आप को अपनी शक्ति में खड़े रहना है और कोई विशेष बनना है, तो आप जो चले जा रहे हैं सो रुकना पड़ेगा। जरा शान्त होकर सोचिए ये (विदेशी) जो सारे दौड़ रहे हैं, जो अन्धाधुन्द दौड़ (rat race) चल रही है उसमें भी क्या भाग रहा हूँ? एक मिनट शान्त होकर सोचना चाहिए हमारी भारतीय विरासत क्या है? सम्पत्ति के बटवारे में यदि एक कतरन (छोटा टुकड़ा) कम-ज्यादा मिली तो कोर्ट में लड़ने जाते हैं! परन्तु अपने इस देश की बड़ी परम्परा है। उस तरफ किसी का ध्यान नहीं। वह खत्म होने जा रही है। उसका हमने कितना लाभ उठाया है? इसका ज्ञान सहजयोग में आने पर वयस्क लोगों को होता है। क्योंकि तब उन्हें मालूम होता है कि हम पहले जो थे उससे कितने ऊँचे उठ गए है। मेरे बचपन में मेरे पिताजी ने मुझसे कहा था सर्वप्रथम इस युवा वर्ग की जागृति होनी चाहिए। दसवीं मंजिल (चेतना के स्तर) पर बैठे साधु-सन्त नहीं समझ पाते कि साधारण लोगों को, जो अभी पहली मंजिल पर भी नहीं पहुँचे, उनकी चेतना की क्या अवस्था है। ये (साधारण लोग) ताल-मजीरे अवश्य बजाते हैं, किन्तु उन गीतों व भजनों के पीछे क्या भाव है यह वे नहीं समझते। जब वे पहली मंजिल (आत्मसाक्षात्कार ) पर पहुँचेंगे तब उन्हें पता चलेगा कि उससे ऊपर और भी मंजिलें हैं। तो इस सर्वसाधारण मानवी चेतना के परे एक बहुत बड़ी चेतना है। उसे 'ऋतंभरा शक्ति' कहते हैं। वह आपको सहज में प्राप्त होती है। वह प्राप्त होने के बाद आपको अपने जीवन का दर्शन होगा। हम क्या हैं, कितने महान हैं और हम ये जो अपने जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, ये क्या हमें शोभा देता है ? कितनी आपके पास सम्पदा है आपने अपनी क्या इज्जत रखी ? आपको अपने बारे में कुछ पता नहीं है। ये आप समझने की कोशिश कीजिए और सहजयोग में अपनी जागृति कराइए। इसी तरह आजकल की युवा पीढ़ी है। ये भी परमात्मा के साम्राज्य में सहज में आ सकती है। इस युवा-पीढ़ी को पार कराना बहुत आसान काम है। सारे भोलेपन में गलत काम करते हैं। इनका सब भोलापन ही है । एक लड़का सिगरेट पीता है तो मैं भी पिऊं, बस! किसी ने विशेष तरह के कपड़े कुछ पहने तो मैं भी पहनूंगा, इतना ही! सब कुछ भोलापन! परन्तु कभी-कभी इस भोलेपन से ही अनर्थ हो सकता है। परन्तु यही युवा पीढ़ी आज कहाँ से कहाँ पहुँच सकती है। आज अपने देश में किस बात की कमी है? कोई कहेगा खाने की है। परन्तु मुझे तो ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। मुझे लगता है हम ज्यादा ही खाते हैं और दूसरों को भी देते हैं। मैं जब भी यहाँ आती हूँ तो सबको हाथ जोड़कर बोलती रहती हूँ, अब खाना बस करिए मुझे अब नहीं चाहिए । हर-एक मनुष्य वहाँ कहता है हिन्दुस्तान में खाने की कुछ कमी नहीं दिखाई देती, क्योंकि इतना खिलाते हैं,आग्रह कर करके । लगता है खाना ही न खाएं। तो अपने यहाँ कमी किस बात की है? लोग भी बहुत से वाद-विवाद चर्चा 25

Hindi Translation (Marathi Talk) करने में नंबर एक हैं। वे अगर यहाँ खड़े होंगे तो मुझसे भी जबरदस्त भाषण देंगे, सभी बातों में। होशियार हैं बहुत हम लोग। कुछ ज्यादा ही होशियार! सब कुछ है हमारे पास, सोना-चांदी, सब कुछ। कमी किस बात की है? एक ही कमी है कि हमें ये ज्ञान नहीं कि हम कौन हैं ? मैं कौन हूँ? इसका अभी तक ज्ञान नहीं है। जिस समय ये घटित होगा तब पूरा शरीर पुलकित हो उठेगा और आपके शरीर से प्रेम अर्थात चैतन्य की लहरें बहने लगेंगी। केवल ये घटना आप में घटित होनी चाहिए। इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता। होगा तो होगा, नहीं तो नहीं भी। आज नहीं तो कल घटित होगा। इस प्रपंच में आपकी आर्थिक समस्याएं हैं। महाराष्ट्र में देखो तो 'श्री माताजी, गरीबों को आप से क्या लाभ होगा?' आप क्या हैं, गरीब हैं या अमीर, या मध्यम? फिर आपको क्या लाभ चाहिए? आप चाहे मध्यम हो, अमीर हो, रईस हो, चाहे गरीब, किसी को भी संतोष नहीं। रेडियो है तो वी. डी. ओ. चाहिए । वी डी. ओ. है तो एयरकंडीशनर चाहिए। और उसके बाद जहाज चाहिए। और आगे क्या, वह परमात्मा ही जाने! अर्थशास्त्र का एक सर्वसाधारण नियम है। इच्छाएं सामान्यरूप से कभी भी पूरी नहीं होती। आपकी एक इच्छा हुई तो वह पूरी होगी। परन्तु साधारणतया ऐसा होता नहीं। आज एक हुई, कल दूसरी, उसके बाद तीसरी। एक बात स्पष्ट है जो हमने इच्छा की वह शुद्ध इच्छा नहीं थी। अगर वह शुद्ध इच्छा होती तो वह पूरी होने के बाद हमें पूर्ण समाधान होता। परन्तु ऐसा है नहीं। मतलब आपकी इच्छा शुद्ध नहीं थी। अशुद्ध इच्छा में रहे। इसलिए एक के बाद दूसरी, तीसरी, चौथी इस चक्कर में आप घूमते रहे। अब शुद्ध इच्छा साक्षात कुण्डलिनी है। क्योंकि वह परमात्मा की इच्छा है। ये जागृत होते ही जो आप इच्छा करोगे... जो जे वांछिल, तो ते लाहो (जो जिसकी इच्छा है वह उसे प्राप्त होगा। ) इतना कि आप कहेंगे अब मुझे कुछ नहीं चाहिए । आपकी जो इच्छाएं हैं वे पूरी होती हैं, परन्तु वे इच्छाएं जड़ वस्तुओं की नहीं होती। उनमें एक तरह की प्रगल्भता,उदात्तता होती है। और आपकी जो छोटी-छोटी बातें हैं वह कृष्ण के कथनानुसार 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' जब आपका योग घटित होगा तो क्षेम होगा ही। परन्तु पहले योग कहा है, 'क्षेमयोग' नहीं कहा है । 'योग क्षेम वहाम्यहम्' पहले योग घटित होना जरूरी है । सुदामा को पहले कृष्ण को जाकर मिलना पड़ा तब उसकी सुदामा नगरी सोने की बनी। आपका कहना है हम यहीं बैठे रहेंगे और हाथ में सब कुछ आ जाए। क्यों? परमात्मा पर आप इतना अधिकार क्यों जताते हैं। किसलिए? चार पैसों के फूल लिए और परमात्मा को दे आए। इसलिय ? उलटे इसमें आपकी बड़ी गलती है। बहुत से लोग मैंने देखे हैं जो शिवभक्त हैं । वे शिव-शिव' करते रहते हैं और उन्हें हार्ट अटैक होता है। शिव आप के हृदय में बैठे हैं। फिर ऐसा क्यों ? उन्हें हार्ट अटैक क्यों हुआ? क्योंकि शिव नाराज हो गये। आप किसी मनुष्य को ऐसे बुलाते रहें बार- बार, तो उसे भी लगेगा ये आदमी मुझे क्यों परेशान कर रहा है। कल आप राजीव गांधी के घर जाकर 'राजीव, राजीव' ऐसे कहते रहे तो लोग आपको कैद कर लेंगे। यह हुआ है। और इससे आपको न परमात्मा की प्राप्ति हो रही है और न ही प्रपंच की। ऐसी स्थिति है। इसलिए 'मध्यमार्ग' में आना जरूरी है। और मध्यमार्ग को 'सुषुम्ना नाड़ी का मार्ग' कहते हैं। वहाँ | से जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तब मनुष्य बीचों-बीच (मध्य में) आकर समाधानी होता है। बिल्कुल समाधानी बन जाता है। आजकल संतोषी देवी का व्रत चला है। संतोषी नाम की कोई देवी है ही नहीं। सिनेमा वालों ने यह निकाली 26

Hindi Translation (Marathi Talk) तो लगे सब व्रत रखने लगे। जो स्वयं संतोष का स्रोत है उसे क्या कहेंगे वह संतोषी है। और इसी तरह कुछ गलत- ये सलत बनाते रहते हैं। व्रत रखना, आज खट्टा नहीं खाना, करना, वह नहीं करना। कुछ तमाशे करते रहना और फिर परमात्मा को दोष देना, हम इतना परमात्मा की सेवा करते हैं फिर भी हम बीमार हैं। उसके बारे में कुछ दिमाग से सोचना चाहिए। परमात्मा के जो नियम हैं उनका विज्ञान है। वह पहले आप सीख लीजिए। वह सीखे बगैर गलत-सलत करते हो। फिर कुछ बिगड़ गया तो उसे क्यों दोष देते हो? परमात्मा है या नहीं, यही सिद्ध करने के लिए हम आए हैं। बिल्कुल सिद्ध करने के लिए। आपे हाथों से चैतन्य बहेगा । आपके हाथों की उंगलियों पर परमात्मा मिलने वाले हैं । उसके लिए आपकी तैयारी है? बुद्धि ज्यादा चलती है। श्री माताजी क्या कह रही हैं? जरा दिमाग ठंडा परन्तु कीजिए, फिर होगा। आपकी समस्याएं आपकी बुद्धि से हल होने वाली नहीं है। आपकी राजकीय समस्याएं हल नहीं होने वाली, न सामाजिक और प्रपंच की तो बिलकुल ही नहीं। राजकीय प्रश्न ये है कि हम पूँजीपति (capitalist) हैं। उसी के लिए लड़ रहे हैं। क्या वे लोग सुखी है? स्वतन्त्रता भी सम्भाली जाती है उनसे ? दसरे कहते हैं हम कम्युनिस्ट (साम्यवादी) हैं । किन्तु सच्चे कपिटलिस्ट (पूँजिपति) हम हैं क्योंकि हमारे पास शक्ति (की पूँजी) है। ये सब ऊपरी बातें हैं। इसमें आप लोग मत उलझिए। आप अपने आप में (अपने भीतर) परमात्मा का | साम्राज्य लाइए और उसके नागरिक बनिए। फिर देखिए आप क्या बनते हैं। उसके लिए प्रपंच छोड़ने की जरूरत नहीं है। पैसे देने की जरूरत नहीं है । इसमें क्या पैसे देने? ये तो जीवन प्रक्रिया है आपमें। किसी पेड़ को आपने पैसे दिए तो क्या वह आपको फूल देता है? उसे क्या मालूम पैसा क्या चीज़ है? उसी तरह परमात्मा है। उन्हें पैसे वरगैरा नहीं मालूम। किसी बाबाजी को ले आते हैं और उसे कहते हैं, ये लो पैसे। गाँव में हमारे विषय में कहा 'माताजी पैसे नहीं लेतीं।' तो कहते हैं अच्छा १० पैसे नहीं तो २५ ले लीजिए। परन्तु पैसे किस चीज़ के दे रहे हो ? ये (आत्मसाक्षात्कार) तो आप ही का है। इसे क्या खुद खरीदोगे? प्रेम के द्वारा सब कुछ काम होता है। वह प्रेम प्राप्त करना होगा, जो आजकल प्रपंच में नहीं है। और जो प्रेम नजर आता है वह गलत तरीके का है। किसी पेड़ को आपने देखा होगा। उसका रस ऊपर आता रहता है और जिस जिस भाग को चाहिए उसे देते देते वह अपनी जगह तक जाता है। वह किसी फूल पर या पत्ते पर नहीं अटकता। अटक गया तो बस वह पत्ता भी खत्म और वह पेड़ भी खत्म और फूल भी खत्म। उसी तरह हम लोगों का है। हमारा प्रेम माने 'मेरा बेटा! वह तो दुनिया का नवाब शाह हो गया! मेरी बेटी, मेरा काम', 'मेरा-मेरा' चलता रहता है। वह क्या आपका है? लेकिन ये कह सुनकर नहीं होने वाला। कितना भी कह छोड़िए, 'मेरा-मेरा' नहीं छूटने वाला। उसे छुड़वाने के लिये आप की कुण्डलिनी उठनी चाहिए। वह उठने के बाद और पार होने के बाद 'तुम्हारा-तुम्हारा' की शुरूआत होती है। कबीर ने कहा है जब बकरी जीवित होती है तब बार-बार 'मी-मी' (मैं-मैं) करती है। 'मैं-मैं-मैं' करती है। लेकिन वह मरने के बाद उसकी आँत निकाल कर उसका तार खींचकर धुंदके में बाँधी जाती है तो उसमें से आवाज आती है, 'तूही- तूही- तूही'। उसी तरह मनुष्य का है। एक बार जब आपकी कुण्डलिनी जागृत होती है तब लगता है सब कुछ 'तुम्हारा | है। मनुष्य 'अकर्म' में उतरता है। फिर ये बच्चे, सगे-सोयरे सभी तुम्हारे! लोगों को आश्चर्य होता है, ये सब कैसे होता है? 27

Hindi Translation (Marathi Talk) इस बम्बई शहर में इतने लोगों की प्रापंचिक स्थिति में सुधार आया है कि आपको आश्चर्य होगा। परन्तु हम उस तरफ देखते ही नहीं। हमें विश्वास ही नहीं है। नहीं करते तो मत करिए। पता नहीं आपका अपने स्वयं पर भी भरोसा है या नहीं, परमात्मा ही जाने। अब ये व्यर्थ वर्तमान पत्र (समाचार पत्र) वादिता छोड़कर सचमुच की वर्तमान स्थिति में क्या हो रहा है ये देखना चाहिए । श्रीकृष्ण आए, कुछ एक परम्परा लेकर आए और उन्होंने कृषि का कार्य किया। एक बीज बोया। आज वह सम्पदा आपको इस स्थिति तक लाई है। आप फूलों से फल बनने वाले हो। वह आपको प्राप्त कर लेना चाहिए। अगर इस बार आप चूक गए तो समझ लीजिए हमेशा के लिए चूक गए। आपकी सारी प्रापंचिक समस्याएं खत्म होकर आप परमात्मा के प्रपंच में आते हैं। उनके प्रपंच में आए बगैर आपको सुख नहीं मिलने वाला। सारे दुनिया भर के दु:ख परमात्मा के चरणों में आने से खत्म होते हैं, ऐसा कहते है। परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि आप जाकर विठ्ठल (परमात्मा) के चरणों में सर फोड़ लें। श्री विठ्ठल को अपने आप में जागृत करना है। और उसे कैसे जगाना है? उसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है। वह साक्षात् आप में है। केवल कुण्डलिनी का जागरण होने के बाद, जिस तरह दिया जलाया जाता है, उसी तरह आपमें वह जलता है। जिस घर में परमात्मा का दिया जलता रहेगा वहाँ दु:ख-दर्द कहाँ? गरीबी और परेशानियाँ कहाँ? वहाँ तो सुख का संसार होना चाहिए। और इसलिए हम गाँव-गाँव सब जगह घूमते हैं। आपको मेरी नम्र विनती है कि ये जो आप में शक्ति है वह जागृत करवा लीजिए और सारे संसार के प्रपंच का उद्धार कीजिए । मैं आपको हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। 28

Mumbai (India)

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