Public Program, Sahasrara

Public Program, Sahasrara 1979-03-18

Location
Talk duration
73'
Category
Public Program
Spoken Language
Hindi

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18 मार्च 1979

Public Program

New Delhi (भारत)

Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - VERIFIED

Public Program: Sahasrar

March 18, 1979

सहस्त्रार

सार्वजानिक कार्यक्रम, १८ मार्च १९७९

इसे समझ लेना चाहिए सहस्त्रार क्या चीज़ है। किसी ने अभी तक... किसी भी शास्त्रों में सहस्त्रार के बारे में विशद-रूप से कुछ भी वर्णित नही है। इसकी ये वजह नही है कि लोगबाग जानते नही होंगे, लेकिन पूरी तरह से सहस्त्रार खुला नही था तब तक, इसलिए इसके बारे में बहुत कुछ किसी ने लिखा नही। सहस्त्रार माने, जैसे ये कली है, इसी प्रकार हमारे ब्रेन (मस्तिष्क) को ग़र एक कमल का फूल समझें, तो उसके अंदर परत-न्-परत जैसे ये पंखुड़ियां हैं, उसी प्रकार एक-एक अलग-अलग स्तर बना हुआ है। और ये स्तर एक ही उसको, पता नही आप जानते हैं कि, दो मॅटर (पदार्थ): अपने व्हाइट्-मॅटर (श्वेत पदार्थ) , ग्रे-मॅटर (धूसर पदार्थ) - दो चीज़ होती है (मस्तिष्क में), जैसे आप देख सकते हैं कि दो हैं। इसके आलावा ग़र इसके बीचोबीच आप देखें खोलने पर, तो आपको दिखाई देगा कि बीच में गाभा है, और उसके अंदर हज़ारों छोटे-छोटे पराग हैं। इसी प्रकार हमारा जो ब्रेन (मस्तिष्क) है, ये भी मेद से बना है, fat (वसा) से बना है, लेकिन उसकी परते हैं। ग़र आप उसको क्रॉस-सेक्शन, माने यहाँ से ऐसे क्रॉस-सेक्शन करें, और उसको ग़र आप स्टडी (अध्ययन) करें तो आपको आश्चर्य होगा कि इसके अंदर ये एक-एक पर्त आपको दिखाई देगी, जैसे कि कमल के पुष्प हों, कमल की पंखुड़ियां जैसे। वैसे दिखाई देता है एकदम से। लेकिन डॉक्टरों का कभी कविता से संबंध नही रहा तो वो इस तरह का कंपॅरिज़न (तुलना) नही सोचते। डॉक्टर लोग कविता के दुश्मन ही होते हैं अधिकतर, इसलिए ये चीज़ उनको दिखाई नही देती। पर परमात्मा तो सम्यक हैं, इंटिग्रेटेड हैं, वो काव्यमय भी हैं और क्रिएटिव (सृजनशील) भी हैं, तो उन्होंने ब्रेन (मस्तिष्क) भी बड़ा सुंदर कमल के जैसा बनाया। और उसके जो दल हैं, जिसे मैंने स्तर कहे, वो दल, जैसे पंखुड़ियों को दल कहते हैं, वो एक हज़ार दल हैं। वो एक हज़ार दल हैं - "सहस्त्रार"। और उन हरेक दल के अंदर मध्य में शक्ति का सूत्र है। बीचोबीच नीचे उसके गाभा, और गाभा में पराग है। सहस्त्र दल जब बंद हो जाते हैं, तो बीच में जो जगह आ जाती है वो खाली जगह है, वो जगह खाली है।

[ चित्त इतना नही हिलाते। ज़रा शांति से बैठो। अब रुमाल गिर गया तो उससे क्या? अब बात करते वक्त मै आपके सब खोल रही हूँ ना अब सहस्त्र-दल खोल रही हूँ मै आपके, उसी वक्त बोल भी रही हूँ, ये मेरी संकल्प-शक्ति से कर रही हूँ ना अभी मेहनत ज़रा। तो आप इस वख़त में इधर-उधर की चीज़ नही करना चाहिए। फट से उठ के आँख नही घुमानी चाहिए। आँख स्टेडी (स्थिर) रखो - बस इतना ज़रूर सहज योग में करना पड़ता है। और नही तो आँख बंद कर लीजिये ग़र आपका चित्त जाता है तो आँख बंद कर लीजिये। ]

अच्छा। अब इसके बीचोंबीच जो गाभा है, उस गाभा के अंदर, माने ये समझ लीजिये कि नीचे में तो एक, जैसे कोई पलंग बिछा हो गोल-सा, और उसके ऊपर जो जगह है वो खाली जगह है, उस जगह को डॉक्टर लोग लिंबिक एरिया कहते हैं, "लिंबिक एरिया"। इस जगह जो पराग है, वो हमारे शरीर में जो हज़ार चक्र हैं -- मैने तो आपको सात ही चक्र बताये हैं, सात चक्र जानने से ही पार आदमी हो जाता है, उसमे से नौ चक्र तो वैसे भी, चंद्र-सूर्य दो और मिला लीजिये तो वैसे भी नौ चक्र हैं, लेकिन एक हज़ार चक्र आपके शरीर में हैं, वो अभी जागृत नही हुए, हो जाएंगे धीरे-धीरे, कोई ऐसी घबराने की बात नही -- तो ये सारे हज़ार जो चक्र हैं, वो इस गाभा में, जो की बेड (पलंग) है, उस पर रखे हुए हैं। और उसके ऊपर ये लिंबिक एरिया है। उसमे से जो main (मुख्य) सात चक्र हैं जिसको कि आप जानते हैं, main सात चक्र आपके शरीर में हैं, उनकी सीट्स् (आसन) वहां पर हैं। वैसे ही, जितने भी हज़ार चक्र हैं, उनकी भी सीट्स् वहां पर हैं। कुल मिला कर हज़ार चक्र हैं, उसमे से जो सात चक्र हैं वो मुख्य हम मानते हैं, उसके फिर सब्-प्लेक्ससेस् (sub-plexuses), पर काफ़ी वो लंबी-चौड़ी बात हो जाएगी। अब देखिए कि कैसे चक्र बने हैं सात हमारे अंदर। यहाँ पे दिखाया गया है बाहर उसका कहाँ ये आता है, वो देखना चाहिए। ये तो आप जानते हैं कि कैसे ये... (सिर में चक्रों के स्थान) पहले ये आज्ञा चक्र है, ये तो आप जानते हैं। अच्छा। इसके पीछे में यहाँ पर मूलाधार - ये दो हो गए। तीसरे, पीछे में यहाँ पर स्वाधिष्ठान चक्र है। उसके ऊपर में नाभी चक्र है। उसके ऊपर में हृदय चक्र है। यहाँ पर कृष्ण का चक्र है। यहाँ ऊँगली रखने से ही आप उस चक्र को कंट्रोल (नियंत्रित) कर सकते हैं ग़र आप पार अच्छे से हो गए हैं तो। ये सीट्स् (आसन) हैं। ये श्रीकृष्ण का चक्र है। इसीलिए मै जब आप से कहती हूँ बाल ऊपर करिये (कपाल/माथे पर से) क्योंकि कभी-कभी साइड (बाजू) के ये दो जो चक्र हैं यहाँ पर मैने बताये थे, जो कि अहंकार और प्रति-अहंकार को सम्हाले हुए हैं, यहाँ पर बुद्ध और महावीर का स्थान है, ये भी और दो चक्र हैं। तो सात और दो, नौ हो गए। ये हृदय चक्र है, ये हृदय का स्थान है, यहाँ पर, जिस आदमी का हृदय कमज़ोर हो जाता है उसका रियलाइज़ेशन (साक्षात्कार) भी ज़रा-सा कमज़ोर रहता है, और उसको प्लावित करता है फिर। तो इस प्रकार सहस्त्रार का जो गाभा, माने जो बेड (पलंग) है तो उस बेड के अंदर ये एक हज़ार चक्रों की सीट्स् (आसन) हैं और वो एक हज़ार चक्र जो हैं वो हमारे इन एक हज़ार परतों को भी गाइड (मार्गदर्शन) करते हैं। और ये बाह्य में जो बड़े-बड़े चक्र हैं वो रिअलाइज़ेशन ( साक्षात्कार) के बाद जागृत हो जाते हैं कम से कम। अब सहस्त्रार रिअलाइज़ेशन से पहले कैसा दिखता है? जैसे कि एक कली दिखाई देती है, सारी परतें ढँकी रहती हैं, और उसके अंदर कोई प्रकाश नही नज़र नही आता, प्रकाशित नही। लेकिन जब कुण्डलिनी नीचे से ऊपर चलती है आप लोगों की, तो ये जो सीट्स् हैं, ये जागृत हो जाते हैं - ये सात सीट्स् कम से कम, क्योंकि कुण्डलिनी इन सात में से तो गुज़रती ही है। तो ये जो सात सीट्स् जब जागृत हो जाते हैं और उसके कारण जो पराग है ये भी थोड़ी-सी लाइट (प्रकाश) पाते हैं तो सहस्त्रार ऐसे दिखता है जैसे कि हज़ार जैसे कि मोमबत्तियां हों और उसके अंदर में उसका सूत्र हो मोमबत्ती का। लेकिन मोमबत्ती जली हुई ना हो। समझ लीजिये इसी तरह से परतों में से एक ग़र मोमबत्ती की जुटी हुई है और वो जाली हुई नही है तो कुछ नही दिखाई देगा। ऐसे दिखाई देता है मानो जैसे कि यहाँ से एक लपट, यहाँ से जली हुई है, और सिर्फ़ ये लपटें ही दिखाई देती हैं, पर बड़ी शांत लपटे हैं। बाईबल में कहा है, "आय् विल अपीयर बिफ़ोर यू लाइक टंग्स् ऑफ़ फ़्लेम्स्" - तो उस तरह से लपकती हुई जीवंत ऐसी-ऐसी-ऐसी-ऐसी लपकती हुई बड़ी सुंदर और अनेक रंगों की होती हैं, विशेष कर सात main (मुख्य) रंगों की होती हैं, और सहस्त्रार इस तरह से खुलता है, फिर और इस तरह से खुल जाता है। और कुण्डलिनी उनके बीच में से निकल कर के और ऊपर जा कर के इसे यहाँ पर, आपके यहाँ ग़र कभी-कभी लोग आते हैं जिनके बाल कम होते हैं तो आप देख सकते हैं कि पहले नाभी में यहाँ छेद होता है क्योंकि नाभी से उठती है न कुण्डलिनी, उसके बाद में इधर छेद होता है, फिर इधर होता है, फिर तालु में आता है, और तालु में एकदम से ऐसा डिप्रेशन (गड्ढा) हो जाता है और जो रियलाइज़्ड-सोल (आत्म-साक्षात्कारी) होते हैं, उनके यहाँ पर (तालु में) डिप्रेशन (गड्ढा) रहता है, जैसे बच्चों की तालु होती है। उसको बनाये रखना चाहिये -- वो मै बताऊंगी बाद में, कि कैसे बनाना है। इस प्रकार सहस्त्रार जागृत होता है।

अब आगे की बात बहुत समझने की है। मनुष्य में उसका हृदय एक तरफ़ है, उसका ब्रेन (मस्तिष्क) दूसरी तरफ़ है, उसका लिवर (यकृत) तीसरी तरफ़ है। मनुष्य का इन तीनों चीज़ों पर कंट्रोल (नियंत्रण) नही है। वो अपने हिसाब से चलते हैं। अब मनुष्य का हृदय चाहेगा कि ये चीज़ खा ले, तो ब्रेन कहेगा कि मत खा इससे तकलीफ़ हो जाएगी, और खाने के बाद liver कहेगा कि बेकार की चीज़ खा ली और उसको उठा कर फैक देगा। भावना से हम कोई चीज़ पसंद करेंगे कि इसे हम अपना लें, ये बड़ी अच्छी लगती है, पाश्चिमात्य देशों में तो यही एक क्रायटेरिया (परिमाप) है, यही एक तरीका है, जानने का प्रमाण है - "आय् लाइक् इट्", कि आप "यू लाइक् इट्" तो फिर हो गया वो, फिर उसके बाद कोई सवाल नही उठता। "बट् आय् लाइक् इट्”, हो गया काम खतम। "आय्" -- बड़ा भारी "आय्" (मै, अहं) है वहां। उसकी वजह से मुश्किल ये है कि "आय् लाइक् इट्”, तो जो उनके मन में आएगा वो करेंगे वो। और जब वो “आय्" (मै) शुरू हो गया, तो उसमें ब्रेन जो है, उसका आर्डर है ये, "आय् लाइक् इट्” ईगो (अहंकार) का ऑर्डर (आदेश) है, हृदय का नही हुआ। तो ये नही समझ में आता कि हम लोग जो हृदय में चीज़ चाहते हैं वो ठीक है, कि जो ब्रेन से चाहते हैं वो ठीक है, कि हम... जो पेट में जिससे हमें तकलीफ़ होती है वो क्यों होती है? ये तीन चीज़ मनुष्य को समझ नही आती कभी, कि किस तरह से इसको समझा जाए कि ये चीज़ हमारे लिए वाकई ठीक है या गलत है? जैसे पहले कहा गया था कि “सत्यं वदेत, प्रियं वदेत”। तो लोगों ने कहा भाई ये तो बड़ा मुश्किल काम है। सत्य बोलो तो वो प्रिय तो नही होने वाला, और प्रिय ग़र बोलो तो वो सत्य नही होने वाला, क्योंकि सत्य तो रॅश्नॅलिटि (तर्कसंगतता) से जाना जाएगा, प्रिय तो हृदय से जाना जाएगा, और लिवर है वो अपने हिसाब से चलते हैं, पता नही कब गड़बड़ कर बैठे। तो बीच की चीज़ कृष्ण ने कही। उन्होंने कहा, कि “सत्यं वदेत, हितं वदेत, प्रियं वदेत”। कि आप हितकारी और मंगलमय चीज़ ग़र आप कहें, जो कल्याणकारी चीज़ है, तो हालाँकि वो अप्रिय थोड़ी देर होगी लेकिन अप्रिय होने से भी, बाद में प्रिय भी हो जाएगी।

और सत्य के लिए जो प्रश्ण है, के सत्य फ़िर क्या होगा? समझ लीजिये एक आदमी मर्डर (हत्या) करने आ रहा है किसी का। और जिसका मर्डर करना है वो आ कर आपके पीछे छिप गया। और उन्होंने कहा के वो बताईये कहाँ आदमी है जिसका मर्डर कर रहे थे। अब सत्य तो ये है कि आप जानते हैं क्योंकि वो पीछे छिपा है, क्या उसे बता देना सत्य है? और ग़र ये सत्य है तो उसको मरवा डालिये, आप उसमे कारण हो जाएंगे, कि आपने मरवा डाला उसे। तो फ़िर सत्य क्या हुआ ये उधेड़बून है। और सत्य में रॅश्नॅलिटि काम लाते हैं लोग, कि ये अनधिकार चेष्टा है, ये हमसे पूछने वाला कौन होता है, हम इसे बताने वाले कौन होते हैं। सत्य की भाषा, परिभाषा ये है कि सत्य को धारण करने वाला भी होना चाहिए। नही तो ईसा मसीह ने कहा है कि, “व्हाय आर यू कास्टिंग पर्ल्र्स् बिफ़ोर स्वाइंस्” (सूअरों के सामने मोती क्यों डाल रहे हो)? ईसा मसीह जैसे आदमी ने कहा जो कि बहुत ही क्षमाशील थे, क्षमा के अवतरण थे। उन्होंने तो कहा कि इन बददिमाग लोगों के सामने में अपने वचन, शुभ वचन सुनाने से फ़ायदा क्या? सत्य जो है, वो भी बड़ा तौल के कहा जाता है, यही रॅश्नॅलिटि का फ़ायदा होता है, पर रॅश्नॅलिटि में भी गर विज़्डम् (सूज्ञता) नही हो, तो वो भी बारीकी खतम हो जाती है। जिसको विज़्डम् (सूज्ञता) होती है वो सत्य को कहता तो बहुत जोर से ही है, लेकिन वो तौलते रहता है। और वो सत्य इस तरह से कहता है कि वो कुछ घर कर जाए इंसान में, नही तो बेकार ही है। ऐसे सत्य को फेकने से फायदा क्या? तो अब प्रश्ण ये है, कि इन तीनों का मेल बैठे तो बैठे कैसे? याने हमारा मेंटल बीइंग (मानसिक अस्तित्व) जो है, हमारा इमोश्नल बीइंग (भावनात्मक अस्तित्व) जो है, फिज़िकल बीइंग (भौतिक अस्तित्व) जो है, और अंत में जो हमारा स्पिरिचुअल बीइंग (आध्यात्मिक अस्तित्व) जो है, ये चारों को हम किस तरह से सॅटिस्फ़ाय (संतुष्ट) करें? क्योंकि हमारे अंदर समग्रता नही है। समग्रता माने, सबका जो अग्र होता है, माने आप ग़र दस सुईयां ले लें, और उसके ग़र दस छेद हैं, तो उसमे से बराबर जो सूत्र निकलता है, वो बराबर समग्र हो जाता है। तो इंटिग्रेशन हमारे अंदर नही है, हमारे अंदर ही हमारे बीइंग में इंटिग्रेशन नही है। हमारा एक हाथ एक चीज़ चाहता है, दूसरा हाथ दूसरा चाहता है, आँख एक चीज़ चाहती है, बुद्धि दूसरी चीज़ चाहती है, अहंकार तीसरी चीज़ चाहती है, प्रति-अहंकार चौथी चीज़। तो हम लोग, जैसे कि एक बिंदु पर बहुत सारी फ़ोर्सेस (बल) उसे खींचे तो वो कहीं जाएगी ही नही, उसका कोई प्रॉग्रेस (प्रगति) ही नही हो सकता, और वो छिन्न-भिन्न हो जाएगी। तो इसके लिए परमात्मा ने एक व्यवस्था बड़ी अच्छी करी है हमारे अंदर, कि जब आपका रियलाइज़ेशन नही हुआ, आपका इंटिग्रेशन नही होता, तो तब तक क्या व्यवस्था होनी चाहिए? तो उन्होंने नीचे से चारों तरफ़ से तो खिंच लिया और बीच में से एक सेतु लगा दिया जैसे ये पेंडॉल लगा है। एक पॉइंट (बिंदु) को खूब तरफ़ से खींच कर के, बीच में से ग़र आप सेतु लगा दीजिये तो जिस तरह से एक पेंडॉल बन जाता है या एक तंबू बन जाता है, ऐसे ही मनुष्य बन जाता है जब वो धर्म का सहारा ले कर खड़ा होता है। जब तक आप पार नही होते, तब तक आप इस तंबू के जैसे बंधे रहेंगे - ना ज़्यादा इधर डौले ना ज़्यादा उधर डौले, बीचोबीच स्थित हो कर के रहे। और जब आपका जागरण कुण्डलिनी का होता है, तब बहुत ही आसान हो जाता है, क्योंकि ना तो आप इधर गये, ना उधर की हवा में डौले हुए हैं, एकदम से छेद कर के कुण्डलिनी जब ऊपर चली जाती है तो ये ऐसा पूरा का पूरा आकाश बहुत सुंदरता से खुल जाता है। तब आप पूरी तरह से इंटिग्रेट (समग्र) हो जाते हैं क्योंकि आपके ये जितने भी चक्र मैने बताये हैं, इसके अंदर से, इसके अग्र के अंदर से आपका सूत्र दौड़ता है। और जब ये सूत्र अंदर से दौड़ता है, तो जो चित्त आपके पेट में है, उस चित्त को अपने साथ अपने सर पे ले कर के दौड़ता है। ग़र आपको किसी छेद में से कपडा घुसाना हो, तो आप उस कपडे के अंदर में सुई लगा कर के या कोई चीज़ लगा के, और इसको उसके अंदर से घुसा देते हैं। इसी प्रकार आपका चित्त स्वयं ही उस कुण्डलिनी पर बैठ कर के ऊपर आ जाता है, और फिर जो सर्वव्यापी शक्ति है, उससे एकाकार हो जाता है। सहस्त्रार में जब कुण्डलिनी आती है तब वो सात ही चक्रों में एकाग्र करती है। तो सहस्त्रार का गुरु मंत्र है - एकाग्रता, समग्रता। समग्रता - इंटिग्रेशन।

सहस्त्रार का जो अवतरण है उसका काम है सर्व धर्मों का इंटिग्रेशन करना, सर्व सत्यों का इंटिग्रेशन करना, सर्व हृदयों का इंटिग्रेशन करना। पहले तो आपको अपने अंदर इंटिग्रेट (समग्र) करा दिया, उसके बाद हरेक के हृदय का इंटिग्रेशन करा दिया, सबके बुद्धि का इंटिग्रेशन करा दिया, और सबके नाभी का भी इंटिग्रेशन करा दिया। इसके लिए आप ग़र सोचें कि आप ऐसी सुईयां ले लीजिये, जो कि इस तरह रखी हुई हैं, आप समग्र करने के लिए, इन सुइयों को बराबर बीचोंबीच लाना पड़ेगा, उनके जो छेद हैं सब एक साथ आ जाएं। ग़र इधर-उधर रहेंगे तो जब अंदर से सूत्र जाएगा तो कुण्डलिनी नही चढ़ पाएगी। तो कुछ प्रॅक्टिकल (व्यावहारिक) चीज़ है आप समझना चाहें, जैसे ये अग्र हैं मैने आपको दिखाए थे, ये। अब अगर ये एक-के-ऊपर-एक ठीक हों, तो इसमें से सीधे-सीधे चली जाएगी कुण्डलिनी। ग़र ये खींचे हुए हों, तो ये जगह बच जाएगी। कुण्डलिनी हालाँकि थोड़ी-सी खिसक भी जाए ऊपर में, तो भी ये चक्र में कमजोरी है तो फिर वो धसक-से नीचे आ जाएगी। सहस्त्रार का जो काम है, वो ये है कि जब सहस्त्रार के अधिकारी संसार में आएं तो कुण्डलिनी को उठा के और सहस्त्रार में समा के यहाँ से छेद दें। ये सहस्त्रार का काम है। एक ये बंध है, खास कर के बंध है, जैसा कि मैंने कहा कि राज योग के सारे ही बंध पहले ही घटित होते हैं कुण्डलिनी के चढ़ने में। करने नही पड़ते, करने नही पड़ते ये - सौ बार समझ लीजिये , राज योग किया नही जा सकता, ये घटित होता है अंदर अपने। हठ योग भी किया नही जाता वो भी घटित होता है अंदर। जब कोई गुरु भी करते हैं तो वो घटित करते हैं, और अंत में जो महायोग है वो सहस्त्रार पे होता है, जहाँ की आपका मिलन का समय आ जाता है। तो सारी फोर्स (बल) जब यहाँ आ कर के रुक गई तो सहस्त्रार में पहले “एंट्री इंटू द किंगडम् ऑफ़ गॉड" (स्वर्ग के साम्राज्य में प्रवेश) होता है। यही है ‘किंगडम् ऑफ़ गॉड’ (परमात्मा का साम्राज्य), यही है। इसमें जिस वक़्त आपकी एंट्री (प्रवेश) होती है तो पहले निर्विचारिता आ जाती है क्योंकि आप आज्ञा को लांघ जाते हैं, निर्विचार हो जाते हैं। जिससे अब आप का चित्त जो है, विचारों की और ज़्यादा फैलता नही है, पहली व्यवस्था ये कर दी। धीरे-धीरे जो भी चित्त जितना भी सक-इन (सोख) कर सके, कुण्डलिनी ऊपर में सक-इन कर लेती है। जब कुण्डलिनी ने उसको ऊपर खिंच लिया, शोषित कर लिया, जितना हो सका, उतना ऊपर आ गया चित्त आपका, फिर वो आपकी मूर्धा जो है, जिसको कि कहना चाहिए कि ब्रेन के नीचे का हिस्सा, उसको शांत करती है कुण्डलिनी सबसे पहले। और उस मूर्धा से हमारी जो दोनों ये नाड़ियां हैं, जिनको कि इड़ा और पिंगला कहते हैं, उसमें वो थोड़ी बरसती है कुण्डलिनी। सब में नही होता, बहुतो में होता है, इसकी वजह ये है कि जिनकी इड़ा या पिंगला नाड़ी नादुरूस्त हो, या बहुत कार्यांवित हो, माने सिम्पथैटिक जिनका बहुत चला है, उनके खींचे रहते हैं ऐसे-ऐसे चित्त। तो कुण्डलिनी मूर्धा पर आ कर के, मूर्धा नीचे की प्लेट है, आज्ञा में क्रॉस करने से पहले की बात है, कुण्डलिनी यहाँ पर छा जाती है। तो आदमी को ऐसा लगता है ज़रा आँख थोड़ी बोझिल हो रही है, थोड़ा रिलॅक्सेशन् (विश्रांति) सा लगता है, लगता है कि जैसे, ज़रा-सी नींद-सी आ रही है ऐसा लगता है। शुरू में ग़र किसी को बहुत ही ज़्यादा बोझिल हो, तो ज़्यादा नींद-सी लगेगी। फिर वो इधर छा जाती है, छाने के बाद ये जो दोनों नाड़ियाँ हैं, ये हल्की होने लग जाती हैं, और हल्की होने का मतलब ये है, कि इन नाड़ियों पे आने पर इन के जो अग्र है वो ठीक होने लग जाते हैं धीरे-धीरे। फिर से जो कुण्डलिनी का हिस्सा जो उतरता है नीचे में, वो फिर नाभि में आ जाता है, और फिर ऊपर चढ़ता है। अब ये सारे बंध हैं, बहुत लंबी-चौड़ी बातें, वो सब मै नही बताऊंगी आपको। बहरहाल, वो ऊपर चढ़ती है फिर। ऊपर चढ़ने के बाद फिर से आज्ञा चक्र को अब लांघती है, असल में पहले तो आज्ञा चक्र को छूती है थोड़ा। जब आज्ञा चक्र को लांघती है तब ‘डाय्लेटेशन् ऑफ़ द प्युपिल’ (आंख की पुतलियों का फैलाव) होता है, इसलिए मै आप से कहती हूँ कि आँख आप बंद करें। अब डॉक्टरों का ये कहना है कि ये सिम्पथैटिक है / पॅरा-सिम्पथैटिक है, पता ही नही, उनका इस पे अभी तक झगड़ा है, उनको ये नही पता है कि ’डाय्लेटेशन् ऑफ़ द प्युपिल’ एग्ज़ॅक्टली सिम्पथैटिक है या पॅरा-सिम्पथैटिक है, क्योंकि उनका अभी समझौता नही हो पा रहा इन सब चीज़ों का। बहरहाल, उनसे तो अब हम लोगों को कुछ कहना नही, लेकिन ‘डाय्लेटेशन् ऑफ़ द प्युपिल’ होता है। आँख एकदम काली-काली हो जाती है। अब ये फ़ॉरेनर्स् (विदेशी), जिनकी नीली-हरी आँखे होती हैं, वो भी ऐसे काली-काली दिखाई देती हैं, तो कहते हैं कि माँ हमारी आँख काली हो गई? मैने कहा तुम मेरे बेटे हो, तो मेरे जैसी ही तो आँख होएगी तुम्हारी। क्योंकि pupil एकदम dilate कर जाती हैं। कभी-कभी किसी-किसी में इतनी dilate करती है, उस वक्त एक क्षण भर के लिए ऐसा लगता है, कि सब अँधेरा हो गया एक क्षण के लिए, लेकिन अधिकतम दिखाई नही देता। किसी-किसी को होता है, उसमे घबराने की कोई बात नही, एक क्षण के लिए होता है। एक लेडी (महिला), हमारे पास लेडी डॉक्टर थीं, उनको मै रियलाइज़ेशन दे रही थी, उनका पूरा नही हो पाया, तो उन्होंने कहा मै जा रही हूँ। मोटर मे जाते-जाते उनको ऐसा लगा कि जैसे अंधेरा हो रहा है, तो उन्होंने गाड़ी एक तरफ़ कर ली। थोड़ी देर उनको ऐसा लगा, और उसके बाद उनको एकदम ऐसा लगा जैसे खिल गई हों। उन्होंने जा के वहां से फ़ोन किया, कि पता नही मुझे क्या हो गया, मै तो एकदम खुल गई, तो ऐसा मुझे रास्ते में हुआ था माँ, तो वो क्यों? तो मैंने कहा ‘डाय्लेटेशन् ऑफ़ द प्युपिल’ हो गया था तुम्हारा। और आँखें इसके लिए मै कहती हूँ कि बंद कर लीजिये। क्योंकि कुण्डलिनी बिचारी रूकती है, वो इतना सोचती है, वो जानती है सब कुछ, कि इनकी आँख खुली है, तो अभी ज़रा रुक के खुलो, नही तो इनकी एकदम से आँख में जाएगा, तो घबड़ा न जाए। बहुत सम्हाल के, बहुत नाज़ुक, धीरे-धीरे, गजगामिनी जैसे उठती है, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे आपकी आँख ठीक से देखते-देखते और फिर...

पर सहस्त्रार भी कब बंद पड जाता है जब कुण्डलिनी आ जाती है इसमें। मैने आपसे, पता नही आपको बताया है कि नही बताया है, कि कुण्डलिनी चीज़ जो है, वो जैसे कोई रस्सी होती है ना उसमे बहुत से बल होते हैं, उस प्रकार अनेक बल से बनी हुई होती है। तो पहले तो एक-दो बल ही, कि जो बिलकुल ही पिअर्स् (वेध) कर जाएं बिलकुल अंतरतम में मतलब जिसे ब्रम्हनाड़ी कहते हैं, वो जो सुषुम्ना नाड़ी में है कि बराबर बीच में ब्रम्हनाड़ी है - अब इतना लंबा-चौड़ा मैने बताया नही सब बारीक - उसके अंदर से निकलते हैं। उसके बगैर तो कोई इलाज नही। बहुत ही सूक्ष्म चीज़ है ये। उसके अंदर से पहले कुण्डलिनी को पहले निकल कर के, और उसके एक ही दो बल ऊपर चढ़ते हैं। और चढ़ कर के, और यहाँ पे चित्त को ढ़केलते हैं, चित्त को यहाँ ढ़केल के रखते हैं। तो वो घटना होने की वजह से आपका बाहर से चित्त हट जाता है, और यहाँ पर जो सहस्त्रार है उसको ये प्लावित करते हैं, उसको जागृत करते हैं। उसके जागृति की वजह से चक्र भी धीरे-धीरे सब जागृत होने लगते हैं। क्योंकि यहाँ सीट हैं, जैसे हमारे इंडिया (भारत) की सीट दिल्ली में है। आपको कोई काम करवाना है, दिल्ली में आना पड़ता है, चाहे मद्रास में भी काम करवाना है। उसी प्रकार इसकी सीट क्योंकि यहाँ है, यहाँ आना पड़ता है। तो जब वो यहाँ आप आ जाते हैं तो यहाँ से आर्डर (आदेश) चला जाए, कि हाँ भई जागृत हो जाओ, तो आपके चक्र जागृत होते हैं, उनके अंदर के डेटीज़् (देवता) जागृत हो जाते हैं। किसी में बहुत जल्दी होता है, किसी में देरी से होता है, किसी में बहुत ही देरी से होता है, किसी में एक-एक महीना बीत जाता है; होता है कभी-कभी। लेकिन उसमे मेरा कोई दोष नही। इसके बाद आप का सहस्त्रार खुल जाता है, तो वो भी तभी खुलता है जब आपके अंदर संचित इतना चित्त हो जाए। इसलिए मै कहती हूँ, कि आँख इधर-उधर मत घुमाइए। क्योंकि आँख के कारण आपका जो चित्त है, वो इधर-उधर विचलित होता है। ग़र आप मेरी और देखते रहे, तो मेरे अंदर से जो बढ़ रही है, आवाज़ आ रही है, चैतन्य आ रहा है न? आपकी आँखों से भी चैतन्य जाता है, और उससे आपके गणेशजी जो हैं, शांत होते हैं। इसलिए मै कहती हूँ कि आँख खुली रखिये। लेकिन बाद में आँख जब बंद भी करवा देती हूँ, कि आप बंद करिये, तो मै आपसे यही कहती हूँ कि चित्त को ज़रा-सा स्थिर करें, क्योंकि चित्त जैसे ही यहाँ स्थिर हो जाएगा तो वो उसका ठीक से बैठना हो जाता है, जमना हो जाता है इसके प्रेशर (दबाव) से, माने ये चीज़ जो है, मेकॅनिकल नही है। ये चीज़ सब समझती है कुण्डलिनी, ये ऑर्गनाइज़् (व्यवस्थित) करती है, ये जागृत करती है, और ये आपको प्यार करती है। ये प्रेम की शक्ति है। जैसे आपकी माँ की प्रेम की शक्ति होती है ना, उसके हज़ार-गुना ज़्यादा है ये, करोड़-गुना ज़्यादा ये प्रेम की शक्ति आपके अंदर है। तो ये सब कुछ बहुत सूझबूझ, समझ से सारा और आपको पुनर्जन्म देती है। पर सहस्त्रार का हाथ इसमें सबसे बड़ा ये है कि सातों चक्रों की समग्र इसमें जागृति होती है।

सहस्त्रार से समग्र जागृति होती है। माने एक साथ सात आदमी काम कर रहे हैं, अब सात तरह के कर रहे हैं, कोई चीज़ बनेगी ही नही। आपको मकान बनाना है, तो सीमेंट चाहिए, लकड़ी चाहिए, पत्थर चाहिए, उसके लिए और भी जो कुछ चीज़ें चाहिए। अब आप ग़र सात चीज़ें अलग-अलग रख दीजिये उसका कोई अर्थ ही नही निकलता। उन सात चीज़ों का मेल करना, उनको कोऑर्डिनेट (समन्वय) कराना, उनको ऑर्गनाइज़् (व्यवस्थित) करना, और अंत में जब ऐसा, पूरी तरह से स्थिति हो जाए, इतना चित्त जब वहां पहुँच जाए, उस वक्त सहस्त्रार को खोल देना, ये काम सहस्त्रार का काम है।

सहस्त्रार के देवता जो हैं, वो निष्कलंक हैं, उनका नाम निष्कलंक है, उनको कल्कि भी लोग कहते हैं। कल्कि अवतरण भी आने वाला है। कल्कि अवतरण महाविष्णु का अवतरण है, मतलब विष्णु प्रिंसिपल (तत्व) पे ही है। विष्णु प्रिंसिपल माने इवोल्यूशनरी (उत्क्रांति) है। और इवोल्यूशन (उत्क्रांति) में दो अर्थ होता है — इवोल्यूशन में हमेशा सृजन होता है, और फिर संहार होता है। जैसे पहले हमारे बहुत बड़े-बड़े ऍनिमल्स् (प्राणी) थे, मॅन्मथ वगैरा आपने नाम सुने होंगे, उनमे से हाथी भी था। तो हाथी है - इवोल्यूशन (उत्क्रांति) हो गया, हाथी को बचा लिया गया। क्योंकि उसको पाया, कि ये ठीक है, ना बहुत बड़ा है, और ना बेकार है। उसको बचाया। गजेंद्रमोक्ष के बारे में पढ़े होंगे, ये विष्णुजी ने बचाया। पता नही कितने लोग पढ़ते है कि नही। वो जगह भी यहाँ दंडक के किनारे बड़ी सुंदर बनी हुई है। आपको कभी मौका लगे तो जा के देखिए। पार्क भी है, और बहुत सुंदर जगह है, जहाँ जब वाल्मिकिजी के पास सीताजी जा कर रहीं थीं। बहुत सुंदर जगह है, देखने लायक है। वाल्मिकि नगर नाम की जगह है बिहार में, वहां गजेंद्रमोक्ष हुआ था। वो गजेंद्रमोक्ष जो है, वो उस चीज़ की याद दिलाता है जहाँ विष्णुजी ने इन बड़े-बड़े जानवरों में से सिर्फ़ हाथी को बचाया, और बाकि सब जानवरों को नष्ट करना पड़ा क्योंकि वो ज़रूरत से ज़्यादा बड़े हो गए थे। तो हमेशा आप देखते हैं कि पेड़ में भी जब, पेड़ का फूल बन गया, फूल का जब फल बना, तो उसमे से कुछ चीज़ झड़ गई, कुछ चीज़ का फल बना। कुछ चीज़ ज़रूर झड़ जाती है, और कुछ चीज़ फलित हो जाती है। इसी प्रकार है सहज योग में। अभी फल लगने की बात है। अभी फल लग गए, अब जो कुछ इसमें का waste (व्यर्थ) है और यूज़्लेस (निरूपयोगी) है, या जो कुछ भी हानिकारक है, उस सब को तो निकल देना पड़ेगा, झाड़ना पड़ेगा। जैसे गेहूं होता है, पहले गेहूं के बाल पकने तक तो उसको हम लोग वैसे ही रखते हैं, जब उसके बाल पक गए, धूप में सब ठीक-ठाक हो गया, पूरी तरह से अलग हो गए, तब आप जानते हैं कि उसको हम कैसे अलग कर देते हैं। जब हवा चलती है तो [रवैया?] उसमे पकड़ते हैं, और गेहूं उसमे से अलग हो जाता है और उसके ऊपर का छिलका अलग हो जाता है। ये तो आप रोज़मर्रा देखते हैं। तो वो जो घटना है, वो घटना घटित होगी जब कल्कि अवतरण होगा। उस वक्त वो आपको रियलाइज़ेशन नही देंगे, कोई आपको बात नही समझाएंगे, मेरे जैसे कोई नही काम करने वाले वो। उनके पास फ़ुर्सत नही होने वाली। वो तो बस ले कर के एकादश रूद्र – जो मैने कहे थे, ग्यारह रूद्र अवतरण होने है रूद्र का मतलब होता है विध्वंसक शक्ति शिव की, तो उनकी ग्यारह विध्वंसक शक्तियां हैं, वो जागृत कर के वो संसार में आएँगे – और वो नष्ट करेंगे जितनी भी व्यर्थ चीज़े हैं, उनको उनकी जगह पे बिठा देंगे। और जो विध्वंसक शक्तियां जितनी भी हैं उनको पूरी तरह से नष्ट कर देंगे, और इस तरह से संसार में राम-राज्य स्थापित होगा जिसे हम कहते हैं कि "परमात्मा का साम्राज्य", "दाय् किंगडम् कम्"। सब लोग रियलाइज़्ड्-सोल्स् होएंगे, वो सामूहिक चेतना से प्लावित होएंगे, उसी से वो कार्यान्वित होएंगे, उसी से वो काम करेंगे। तो अब इसकी आखरी स्टेज (चरण) आप लोगों के सामने इस वख़त में है। ये सिर्फ़ हमारी सामाजिक या राजकीय, या हमारी काल की गति ठीक करने वाला नही है, लेकिन सम्पूर्ण विश्व का जो कुछ भी सृजन, क्रियेशन हुआ है, उसकी आखरी ये, अब समय आ गया है, कि इस वक्त वो उस चीज़ को प्राप्त करे, जिस के लिए सारा विश्व बनाया गया। जैसे घड़ा बनाया जाता है तो उसका जो कुछ भी व्यर्थ का है, वो निकाल दिया जाता है। उसी प्रकार जो कुछ भी व्यर्थ का है, जो कुछ भी हानिकारक, विध्वंसक, जो भी परमात्मा के विरोध में है, जो भी दुःखदायी, सब कुछ नष्ट कर दिया जाएगा। इसीलिए, मै एक माँ हूँ, और माँ अपने बच्चे के लिए हमेशा ये सोचती है कि उसे कल्याण और मंगल मिले। और ग़र वो उसको प्रदान करने वाली हुई, तो चाहती है कि जो कुछ मेरा पुण्य है, जो कुछ भी मेरे पास है, सब मेरे बच्चे ले लें, सब कुछ ले लें, लेकिन अपना पूरा पा लें। माँ की शक्ति बच्चो में ही पनपती है। उसको अपनी शक्ति से कोई मतलब नही। उसको अपने बच्चों की शक्ति पे गर्व होता है, और अपने बच्चों की शक्ति में ही वो समाई हुई होती है, और उसका अस्तित्व ही नही होता। ग़र आप लोग नही हैं ,तो हम नही हैं, आप लोग है तो हम हैं, ऐसी चीज़ है। नही तो हम बिलकुल बुलबुला हैं, हमारा कोई भी अर्थ नही है, बस आए हैं, ऐसे गायब हो जाएंगे, कुछ इसका अर्थ ही नही है मानव देह का। आप हैं इसका अर्थ। जैसे एक माचिस की तीली होती है, उसका अर्थ ये ही होता है कि कितने दीप उसने जलाए। और उसका कोई अर्थ नही रहता। इसी प्रकार सहज योग का कार्य है, इसकी गहराई और इसकी महत्ता, इसकी प्रगाढ़ता और इसकी दैवी शक्ति देख कर के आप को ये पता होना चाहिए कि जो आपने पाया है, ये अमूल्य है। क्योंकि माँ से सहज में कोई चीज़ मिल जाती है, लोग उसका विचार नही करते। विशेषकर मेरे रहते हुए बहुत ज़ोर से ये घटना होती है। अभी यहीं बैठे हैं यहाँ पे लोग, वो कह रहे थे कि “पहले दिन इतने ज़ोर से मेरी कुण्डलिनी खड़ी हुई और पूरी रात मै आनंद में हो गई, और ये हुआ और, फिर अभी तो आई ये नीचे और”... ये भी होता है। तो तुम कहोगे कि माँ, ये तुमने क्या किया? सो अपनी संकल्प-शक्ति से हमने अपनी ही कुण्डलिनी पर आपको बिठा कर के अपने ह्रदय से आपको जन्म दे के, और आपके सहस्त्रार से हमने आपको असल में पूरा जन्म दिया है। जैसे कि माँ अपने गोद में बच्चे को पनपाती है, और उसके बाद उसे जन्म देती है, उसी प्रकार सहस्त्रार से आपको जन्म दिया हुआ है। और इतनी सर्वव्यापी घटना है, कि फोटो पर भी घटित होती है। आश्चर्य की बात है कि हमारे फोटो में भी इतने वायब्रेशन्स् (चैतन्य) हैं, आश्चर्य की बात तो है। और ये सायन्स् (विज्ञान) का मै बड़ा उपकार मानती हूँ, यहाँ तक की इसमें से जो बोलती हूँ ये भी मेरे वायब्रेशन्स् खींचे चले जा रहे हैं। बहुत बार आपके चक्र पकड़ते हैं तो मै ऐसा लगा देती हूँ ना आज्ञा को तो आपकी आज्ञा छूटती है। देखिए सायन्स् इसलिए बनाया गया था, कि सहज योग के लिए उपयोगी हो। ग़र टीवी में आप हमें बिठा दें, टीवी पर, और, लोग हमारे और हाथ करें तो ना जाने कितने लोग पार हो जाएं। पर ऐसे दिन कब आएँगे पता नही कि जब टीवी वाले कहें कि, अच्छा माँ आप बैठिये अब, हम आप से वायब्रेशन्स लें। बहुत मुश्किल काम है, वो तो कभी मेरे को बुलाते भी नही, और लोगों ने कोशिश की, तो वो कहते हैं, अरे ऐसे बहुत चालू लोग आते रहते हैं। एक हमारी शिष्य हैं, वो बिचारी अभी आईं थीं इंग्लैंड, तो टीवी वाले उनके पीछे पड़ गए, वो कुछ पेंटर-वेंटर हैं। तो उन्होंने कहा कि यहाँ इतनी बड़ी शक्ति बैठी हैं, तुम मेरे पीछे इतने कायको पड़े हो, उनसे कुछ कराओ। तो उन्होंने कहा कौन है क्या पूछा, अरे ऐसे यहाँ बहुत आ गए और चले गए। और सब दुष्टों के उन्होंने करवाए प्रोग्राम, लेकिन मेरा प्रोग्राम नही करवाया। तो सत्य के पीछे में एक ये भी बड़ा दोष होता है कि जब तक आदमी पॉज़िटिविटी (सकारात्मकता) में बहुत सब नही आ जाते, तब तक सत्य का प्रकाश नही आता है। क्योंकि जो रिफ़्लेक्शन् (प्रतिबिंब) है ना, ग़र आप ग़र पत्थर हों, तो उसपे सूरज पड़ के भी क्या करेगा? ग़र हाँ, आप में शीशा हो तो-तो इसका प्रकाश आएगा बाहर। तो पहला काम मैने ये कहा, कि चलो सब के पहले शीशे बनाना शुरू करो। अब आपके देहली शहर में बहुत से लोग पार हो गए हैं, बहुत। बड़ी अच्छी बात है। शहर के अंदर इतने लोग तो बम्बई (मुंबई) में भी इतने थोड़े दिन में मै पार कर पाती थी, और इतने लोग पार होने पर भी आप देखिये मेरे चले जाने के बाद क्या हालत होती है।

अब आप सब अपने अंदर भी संकल्प करें। हमारा संकल्प पूरा हुआ। आज आपको भी संकल्प करना है, कि कुछ भी हो हम अपनी कुण्डलिनी को ठीक रखेंगे, कुछ भी हमे छोड़ना पड़े, गुरुओं को छोड़ना पड़े, हमको कुछ माँ ने कहा वो चीज़ छोड़नी पड़ेगी, हम अपनी कुण्डलिनी जागृत रखेंगे, और हम अपने को ठीक रखेंगे। इसके लिए सबसे बड़ी बात जो याद रखनी है, कि ये विराट का कार्य है। अब विराट का सहस्त्रार खुल गया, माने अब ये सामूहिक कार्य है। इंडिविजुअल् (वैयक्तिक) कार्य नही है, ये सामूहिक कार्य है। इसलिए आप घर में बैठ कर के थोड़ा बहुत अपनी सफ़ाई-वफ़ाई कर सकते हैं, पर जब तक आप सेंटर (सहज योग केंद्र) पे नही जाएंगे, तब तक ये काम उतना गहरा नही होगा। हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे लोग आश्चर्यजनक हुए, कुछ-कुछ लोग जब मै आई, तो इतने ज़ोर से पार हुए, आज ही एक आए थे महाशय। "आहाहा" सबने कहा, “कितने अच्छे हैं, कितने बढ़िया हैं ये”, आज उनके वायब्रेशन्स ख़ास नही हैं। एक साहब थे यहाँ, बहुत पढ़े-लिखे विद्वान थे तो वो ज़रा मुझसे आर्ग्यू (वाद) करते रहे, ज़रा थोड़ा धीरे-धीरे उनकी गाड़ी चली, पर धीरे-धीरे करते-करते मै देखती हूँ बहुत ही ऊँचे उठ गए। बड़ा आश्चर्य है। वो जो बहुत ज़ोर से कूदे थे, वो तो वहीं बैठे रह गए, और जो धीरे-धीरे चले, वो आगे चले गए। आपने वो कहानी पढ़ी है ना, खरगोश की? वैसे ही मामला है सहज योग में मै देखती हूँ। इसलिए जिसने संकल्प से इसको पूरी तरह अपनाया है वो बड़ा ही ऊंचा उठ जाता है। और सबसे बड़ी चीज़ है ये सामूहिक चीज़ है। इसमें आपको दूसरों को देना पड़ेगा। ग़र आप दूसरों को न दें, तो काम नही होने वाला। धीरे-धीरे दूसरों को देना चाहिए। देते-देते आपको खुद समझ आ जाएगा कि किस तरह से दिया जाता है। कोई दीप जला कर के उसको कुर्सी के नीचे तो नही रखता है ना? ये दीप जल कर के इनके दीपक-स्तंभ होने चाहिए, जिससे और (लोग) जो अपना रास्ता ढूंढ रहे हैं, वो ठीक रास्ते पे आकर किनारे पहुँच जाएं।

अब क्या करना चाहिए, क्या नही करना चाहिए उसके बारे में भी थोड़ा सा मुझे बताना है। पहली तो चीज़, अपने बारे में पहले ये पता लगाना चाहिए कि हमें कैसी-कैसी आदतें लगी हुई हैं? सीधा हिसाब है, क्योंकि अपने को देखने की पहले बात है। पहले तो अपने ही को देखना है, फिर दूसरों को देखेंगे ना? तो पहले ये देखना है कि हमारे अंदर कौन सी खामी है, कौन सी खराबी है? तो आप देखेंगे कि अजीब-अजीब सी आपको आदतें लगी हुई हैं। उनकी कोई ज़रूरत नही। तो पहले जैसे सहज योग में किया है, ऐसे ही अपने आदतों के बारे में करना है, कि हमें फोटो पे कहना, माँ मेरी ये आदत ज़रा छुड़ा दो तो। सीधा हिसाब है। पहले तो हमारे ही संकल्प इस्तेमाल करें, उसके बाद अपनी और चित्त रखें। जैसे-जैसे लोग हमने देखे हैं, बड़े-बड़े शराबी, सिंगापुर में एक साहब, वो बहुत ज़्यादा सिगरेट पीते थे, बहुत ज़्यादा, कि सारी अंदर से सारा सीना जो है, सड़ गया था जैसे सिगरेट से। तो जब वो मेरे सामने ध्यान में आए, तो इतने उसके अंदर से सिगरेट निकली, सिगरेट की बदबू आने लगी, फिर उसके बाद उसके अंदर से सुगंध आने लगी। अब उनका ये हाल हो गया है कि वो जब भी सिगरेट पीने की कोशिस करते थे, तो उनको सुगंध आती थी, तो उनका चित्त हट जाता था। तो याद रखना चाहिए कि ये आदतें इसलिए आपको लगी हैं, कि आप अपने को फ़ेस (सामना) नही कर पा रहे हैं, आप अपने को देख नही पाते इसलिए आदत लग गई। जैसे आदमी बैठा हुआ है, अब पार्टी में शांति से बैठा है, उसको लगा अब बुरा मै, मेरे को अपने को देखना पड़ रहा है, तो फ़ौरन उसने सिगरेट ली, कि भई किसी तरह से अपना मन हटाओ यहाँ से। चार दोस्त आए, अब चार दोस्त से बात करने में सबसे अच्छा है आपस में आदान-प्रदान हो, उसके वजह से हंसी-खुशी रहो, तो ये लगा कि आपस में जब पास में बैठे तो फिर से आपस में देखना हो गया, आपस में आदान-प्रदान होगा, तो बेहतर है सिगरेट-विगरेट जला लो, शराब-वराब ले लो, गायब हो जाओ यहाँ से। उसको हम कहते हैं कि रण छोड़ कर भागना, पलायनवाद है ये। सिर्फ़ ये पलायनवाद की वजह से आदमी में आदतें लगती हैं, सारी आदतें पलायन की वजह से हैं। क्योंकि आदमी अपने को इतना शक्तिशाली नही समझता, और वो ये जानता नही है कि किस तरह से अपना मज़ा उठाए। तो जिस वख़त भी ऐसी इच्छा हो तो अपने पर हंसना शुरू कर दीजिये, कि वाह साहब क्या कहने, अब आपको सिगरेट याद आ गया? और ये सिगरेट तो छोड़ी माँ हमने तुम्हारे नाम पे। इस तरह से कोई सी भी बात करके दिल को ज़रा बहला लें।

अब ये दिल जो है, जो मन है आपका, ये एक घोड़ा है। और घोड़ा आप पे चढ़ जाता है। आपको घोड़े पे बैठना है। सहज योग के बाद आप मन को ऐसा क़ाबू में ला सकते हो, ऐसा कभी भी नही ला सकते थे। पहले ग़र आप कोशिस करते, तो आप में बहुत विकृतियां आ जाती। ग़र आप मन को दबाइये, तो न जाने आपका क्या हो जाए। अब आप मन से कहिये कि ठीक रस्ते चलिए जनाब। क्योंकि अब माहिर हो गए आप, घोड़े को आप जानते हैं कैसे चलना है। जब घोड़े को पता होता है, कि नही ये तो अब सीख गए विद्या, सीधे-सीधे चल, और ये घोड़ा ही वहां ले जा के पहुंचा देता है। इसलिए इस घोड़े को ना तो गिराना चाहिए ना सताना चाहिए। उनसे कहना कि जनाब आप चलिए अब जहाँ पे जाना है आप जानते हैं। अब अपनी और एक [ प्रेस ?] हो कर देखना शुरू करना चाहिए, कि अब ये मिस्टर एक्स जो भी है, समझ लीजिये ये निर्मला जो हैं देखिये आप, इनको ये शौक चर्रा रहे हैं। जिसने अपने ऊपर हंसना और अपने को देखना शुरू कर दिया, वो सहज योग में बड़ा हो जाता है। उसको हंसी आती है अपने ऊपर कि कितना, मुझ में ये ईगो (अहंकार) का घोड़ा कहाँ से आ गया, इसको कैसे निकालूं अब मै, ये खटमल (अहंकार) मुझे कैसे काट रहा है, इस तरह से वो अपने को हटा लेता है। क्योंकि अंदर प्रकाश हो गया। अंदर प्रकाश होते ही साथ आपको अपने चक्र दिखाई देने लग जाते हैं, माने आँख से नही दिखते हैं, पर हाथ से दिखाई देने लगते हैं। अब आपको ये नही दुःख लगता है, आप कहोगे मेरा आज्ञा चक्र ख़राब है सब लोग कहते हैं। आज्ञा चक्र पागल लोगों का भी ख़राब होता है। लेकिन कभी आदमी को बुरा नही लगता कि अरे मेरा आज्ञा चक्र ख़राब है क्योंकि उसका दुखने लगता है आज्ञा। "माँ मेरा आज्ञा चक्र ठीक कर दो", या आप ही खुद अपना रगड़ लेंगे ख़राब हुआ तो।

यानी अब आप आपकी अवेयरनेस्, जो आपकी चेतना है, कुछ ऐसी हो जाती है कि आपको जो गंदगी है वो बर्दाश्त ही नही होगी। देखिये क्या कमाल है सहज योग का, पर उसके साथ रहें तो। जैसे कि, अब रास्ते से एक जानवर चल रहा है, वो थोड़ी देखता है, इधर गंदगी है कि बदबू है, वो अपना चलता है, ना उसको खूबसूरती दिखाई देती है। आपको, आजकल फूल इतने खिले हुए हैं, आप देखते चलते हैं, “आहाहा क्या फूल खिले हैं”। जानवरों को क्या फूल, घांस, पत्ती, सब एक जैसे, उसमे कोई फ़र्क नही पड़ने वाला। आदमी की चेतना जैसी है सौंदर्य की, वैसे रियलाइज़ेशन के बाद आपको अपने भी सौंदर्य का पूर्ण विचार आ जाता है। जो कुछ दुनिया का असुंदर है वो अपने आप आपको बुरा लगता है, माने आपके चक्र पकड़ते हैं। आप कहते हैं, “हो-हो पकड़ लिया पकड़ लिया (चक्र)”। आपके दोस्त ही बदल जाएंगे, आपके मित्र बदल जाएंगे, आपकी प्रायोरिटीज़् (प्राथमिकताएं) बदल जाएंगी, आमूलाग्र आप में चेंज (परिवर्तन) आ जाता है। पर सहज योग के साथ रहे आप, उसकी धारा में बहें, उसमे बुरा न मानें। एक लड़की थी अमेरिका में, वो बिज़नेस वाली थी, अब उसको सारा पता था कि इम्पोर्ट (आयात) क्या होता है, एक्सपोर्ट (निर्यात) क्या होता है, इसमें से कितना आता है, कहाँ जाता है एक-एक पैसा, बड़ी कंजूस-मक्खीचूस थी। उसने मुझे लिखा, कि माँ जब से मै पार हुई हूँ, मुझे कुछ भी [सीन ?] याद नही रहता, सब भूल गई हूँ, मुझे याद ही नही रहता कितना आया, क्या आया, लेकिन मेरा बिज़नेस तो बहुत बढ़ गया, और मुझे याद ही नही रहता, सब अपना चल रहा है। तो आप साक्षी हो जाते हैं, आप देखते रहते हैं - ये आया, वो गया, ये आया - वो आप देख रहे हैं - “वाह भई क्या चल रहा है मज़ा”। आप साक्षी हो करके देख रहे हैं सब। अब कोई प्रश्न आपके सामने आया, आप साक्षी-रूप हो करके देखें। अच्छा, ये बताइये कि साक्षी रूप के बगैर किसी भी चीज़ का सोल्युशन (हल) मिलता है? समझ लीजिये आप पानी में डूब रहे हैं, तो आप डूब ही जाएंगे, आप बचेंगे कैसे? लेकिन जब आप पानी में से निकल कर के, पानी की और देखना चाहें तो आप बच सकते हैं। सहज योग में आप पानी से निकल के बोट (नाव) में आ गए हैं, लेकिन अब आप और उस पानी में उतरना चाहेंगे, तो उतरिये, क्योंकि स्वतंत्रता सहज योग का प्रसाद है, पूर्ण स्वतंत्र आप हैं। इतने आप स्वतंत्र हो जाते हैं कि आपकी आदतें आपसे छूट जाती हैं, आपको जिस-जिस चीज़ ने गुलाम किया, सब चीज़ आपकी छूट जाएगी, लेकिन आप ग़र उधर फ़ंसना चाहें तो चले जाईए, उसकी भी स्वतंत्रता आपको है। और बड़े ज़ोरों में आप जाते हैं फिर, जितना आदमी ऊँचा उठा है उतनी ही ज़ोर से नीचे गिरता है। इसलिए सम्हल कर रहना चाहिए। इस मामले में किसी से भी डरने की बात नही। सहज योग भी किसी को बहुत [जार से भूमकार से ?] बताने की एकदम से ज़रूरत नही, अगर आपने देखा कि ये आदमी इस तरह का चल रहा है, धीरे-धीरे आप उसको बना सकते हैं। अपनी वो जो चीज़ है, उसको आप पनपा सकते हैं। लेकिन ज़रा सूझ-बुझ से काम लें, लोगों से बात करें।

अब एक बात सिर्फ़ आप हमेशा याद रखें कि हैं हमारे अंदर हाथ में ठंडी हवा आ रही है - ये निर्विवाद है, इसमें कोई शंका नही। और इसका वर्णन आदी शंकराचार्य ने भी किया हुआ है, सबने किया है। आपको बाइबिल अगर पढ़ना हो, तो मैने आपसे बताया कि ‘जॉन के रेवेलेशन्स’ में है - होली घोस्ट के अंदर से जो ‘कूल ब्रीज़्’ आती है उसका वर्णन सारे बाइबिल में किया हुआ है। और हमारी सभी किताबों में चैतन्य लहरियों पे लिखा हुआ है, कोई नई बात नही है। ये बात आप भूलना नही। ये एक महान सत्य है। अब ये सूक्ष्म चीज़ है, तो इसको खो देना कितनी गलत बात होगी, इसको आप समझ लें। इसको खोना नही चाहिए। अब मेरे जाने के बाद बहुत लोगो में ऐसा होगा की कुण्डलिनी फिर जा कर के उस जगह जाएगी जहाँ आपकी कमज़ोरियाँ हैं। समझ लें आपको लिवर ट्रबल (यकृत की समस्या) है, तो कुण्डलिनी उतरेगी लिवर में जाएगी, कोई हर्ज़ नही। आप जो सेंटर (सहज योग केंद्र) में लोग हैं, काफ़ी होशियार हैं, उसको जा के पूछिए कि हमें ऐसा हो रहा है, क्या करें? वो बता देंगे आप इस तरह से वायब्रेशन्स लीजिये, अपने को प्लावित करिये।

आपको घर छोड़ने की ज़रूरत नही है, कोई आपको कोई चीज़ छोड़ने की ज़रूरत नही, हरेक चीज़ का जो तत्व है उसमे उतरने की ज़रूरत है। धर्म भी कोई छोड़ने की ज़रूरत नही है। आप किसी भी धर्म के हैं, उसी धर्म के रहिये। हालाँकि रियलाइज़ेशन के बाद आप धर्मातीत हो जाते हैं, आपका कोई धर्म ही नही रह जाता। जब आप मोहम्मद साहब को भी मानते हैं, नानक साहब को भी मानते हैं, जब आप हज़रत अली को भी मानते हैं, और फ़ातिमा बी को मानते हैं, और सीताजी को भी मानते हैं, जब ईसा मसीह को भी आप मानते हैं, गणेशजी को भी मानते हैं, तो ये छोटे-छोटे धर्म के काप्पों में आप कैसे बैठ सकते हैं? आप धर्मातीत हो जाते हैं। धर्म से परे हो कर गुणातीत हो जाते हैं। गुण माने, तीन - तमोगुण, रजोगुण, सत्वगुण - तीन गुण हो गए। तमोगुण जो होता है, उससे मनुष्य अपने पिछली चीज़ों के बारे में सोचते रहता है। तमोगुण से आदमी निद्रा में, बहुत ज़्यादा सोता है, बहुत नींद करता है। रजोगुण से आप बहुत ओवरऍक्टिव (अतिक्रियाशील) होते हैं। ओवरऍक्टिविटी (अतिक्रियाशीलता)। रजोगुण की प्रॉब्लमस् (समस्याएं) जो हैं वो वेस्ट (पश्चिम) में है, अभी यहाँ शुरू हो गई हैं काफ़ी, यहाँ पर भी शुरू हो गए रजोगुण के प्रॉब्लमस्। और सत्वगुण का प्रॉब्लम ये है कि धर्म में एक तरफ़ रूचि हो जाती है और आदमी जो है अपने रजोगुण और तमोगुण से ज़रा घबराता है - ये सत्वगुण का प्रॉब्लम है। [गए काम ?] जब सत्वगुण पे आदमी आ जाता है, पर सत्वगुण बॅलेंसिंग (संतुलन) होने की वजह से ठीक रहता है। पर इन तीनों से आप पार हो जाते हैं, आपको किसी चीज़ की फ़िकर नही रहती आपको। अब ऐसा नही होता है, कि सबेरे उठ कर के ग़र नौ बजे माँ को नमस्कार नही किया तो मेरा काम बिगड़ गया - ऐसा कभी नही है सहज योग में। ये आप जान लीजिये। ये मै कह रही हूँ कि धर्म से भी धर्मातीत, गुणातीत। कोई ज़रूरी नही... माँ का मामला है - पर मन जो है, वो साफ़ रखना चाहिए। नही हुआ तो नही हुआ, ऐसी कौन सी बात आ गई? अब ज़रूरी है कि वो [गैया?] नही छूई तो... ऐसा माँ का काम थोड़ी होता है - हृदय से मानना है। जब आपने हृदय से मान लिया, तो शबरी के बेर हैं - राम ने खा लिए। कौन उन्होंने इसमे धर्म का पालन किया था, कौन से बेर जा के धोए थे, और कौन से उसे पोछा था, कौन से उसकी सफ़ाई की थी, पर दे दिया प्रेम से, खा लिया। सो, प्रेम में ये सब धर्म के बंधन नही होते हैं। लेकिन अपने ही आप मनुष्य में सुंदर सी मर्यादाएँ बनती जाती हैं। मज़ा आता है उसमे घूमने में क्योंकि उस मर्यादा से ही उसका सुंदर आकार और स्वरूप बनते जाता है, अपने आप। सिर्फ़ चित्त वहां रखना चाहिए। अब सहज योग के बाद बहुत लोग ये भी कहते हैं कि माँ ने कहा था सब अपने आप बनता है, तो कुछ करने की ज़रूरत नही है। (श्री माताजी हंसीं )। मै दोनो बात छूना इसलिए चाहती हूँ कि मै इस एक्स्ट्रीम (अति) से ढकेलती हूँ तो उधर चले जाते हैं, उधर से ढकेलती हूँ तो इधर चले जाते हैं - अभी भी आप धर्मातीत नही हुए। पहले अपने धर्म बांधने पड़ते हैं। पहले अपने धर्म बांध लीजिये, उसके बाद आप जब धर्मातीत होंगे।

पार होने के बाद आपको तीन दशाओं में से गुज़रना पड़ता है। और जैसा है, जो भी स्थिति होती है, जो state होती है, उसका अपना-अपना अधिकार, और उसके अपने-अपने ब्लेसिंग्स् (आशीर्वाद) हैं। जैसा कि, समझ लीजिये अब हम किसी जगह करके मुखिया हो गए तो उसका अधिकार है, फिर मुखिया से हम फिर से सरपंच हो गए तो उसका अधिकार है, फिर ग़र समझ लीजिये हम मिनिस्टर (मंत्री) हो गए तो उनका अधिकार है, प्राइम मिनिस्टर (प्रधान मंत्री) हो गए तो उनका अधिकार है, इसी प्रकार अपनी जो-जो स्थिति होती है, उसी के अनुसार हमें परमात्मा के साम्राज्य से अधिकार आते जाते हैं।

तो पहला तो आपको अधिकार बिलकुल है, कि धर्म मिल गया है, याने निर्विचार आप हो सकते हैं। निर्विचार समाधी आना। अभी पार नही हुए, सिर्फ़ निर्विचार समाधी - माने कुण्डलिनी की जागृति के बाद निर्विचार समाधी ग़र आ गई - इतनी ही सी चीज़ पर आप किसी की भी तंदुरुस्ती ठीक कर सकते हैं, कोई सी भी बीमारी आप ठीक कर सकते हैं, शारीरिक, माने आप आरोग्य दे सकते हैं, माने शरीर को आप आराम दे सकते हैं। इतनी सी चीज़। पर बहुत से लोग जो कहते हैं, कि हम ठीक कर देते हैं छूने-वूने से या किसी प्रकार से, (वो) पार नही होते हैं। पर जो [फ़ेक ?] हीलर्स् होते हैं, उनके दो तरह के लोग होते हैं, एक तो होते हैं भूत वाले - उसको तो छोड़ ही दीजिए - वो भूत से ठीक करते हैं, और एक होते हैं जिनकी कि कुण्डलिनी आज्ञा को लांघ गई होती है और वो लोग भी हाथ-वाथ लगा के ठीक कर देते हैं, कोई-कोई पार भी होते हैं, और वो भी ठीक करते हैं। हमारे लंदन में एक साहब थे, वो पार थे, और वो सबको ठीक करते थे। बाद में मेरे पास आने पर उनको पता हुआ सब बात का, लेकिन वो थे पार। तो कोई लोग पार हो सकते हैं, कोई लोग, कुण्डलिनी उनकी आज्ञा से ऊपर लांघ गई। अब आपकी ग़र आज्ञा से ऊपर कुण्डलिनी है, तो आप किसी की भी बीमारी ठीक कर सकते हैं हाथ रख के। एक हाथ फोटो पे रखिये, और एक हाथ इस पे रखिये और ज़रा फोटो से नमस्कार कर के और आप उनकी बीमारी ठीक कर सकते हैं। सोचिये, रोग-निवारण! अब जब कुण्डलिनी लांघ गई और ग़र आपकी कुण्डलिनी ने छेदा, आप कुण्डलिनी जागृत कर सकते हैं। आप जितने भी लोग पार हो गए हैं, आप कुण्डलिनी जागृत कर सकते हैं दूसरों की। और थोड़े देर बाद उनको पार भी कर सकते हैं। देखिये अभी सिर्फ़ निर्विचार में आपको इतना मिल गया और जैसे ही आप पार हो गए आपको ये वरदान मिल गया। चाहें आपके चक्र पकडे हों, लेकिन आप दूसरे की कुण्डलिनी बिलकुल निर्मल रूप से जागृत कर देंगे, वो छूने वाली नही है उसको, आपके चक्र चाहें पकडे हों, उसके चक्र पर असर नही आएगा, देखिये कमाल है सहज योग का। अब यहाँ जितने सहज योगी बैठे हैं, वो इस बात की दाद देंगे, उनके खुद चक्र पकडे रहें लेकिन जब वो जागृति देते हैं, तो जागृति पूर्णतया निर्मल होती है। आश्चर्य की बात है, लेकिन है। इससे और क्या ज़्यादा चाहिए? आपके हाथ से कुण्डलिनी जागृत हो गई, आपके हाथ से कुण्डलिनी चढ़ी। हमारे पैर पे तो आपने देखा ही होगा कि कुण्डलिनी का स्पंदन तक आप अच्छे से देख सकते हैं। लेकिन आप भी ये जब कुण्डलिनी चढ़ाएंगे, तो आप उसे देख सकेंगे, आपको पता चलेगा कि यहाँ तक ठंडा आया, यहाँ तक ठंडा आया, यहाँ तक ठंडा आया। चक्रों को ग़र आप अगर सीख लें, कि उनको किस तरह से बांधना चाहिए, किस तरह से उसको ऊपर उठाना चाहिए, ग़र इसकी आप कला सीख लें, जो विद्या है। यही विद्या है। विद्या का मतलब ये है कि कुण्डलिनी का चढ़ना और पार कराना और उस के लिए अधिकारी होना। अधिकार होने के बाद, अब आप अधिकारी हो गए, आप किसी की भी कुण्डलिनी चढ़ाइये बैठे-बिठाये।

दूसरा इसका अधिकार माने सामूहिक चेतना में आप आ गए। अब इसके अधिकार मै आपसे क्या वर्णन करूँ, कितने अनंत अधिकार आपने प्राप्त किये। कि आपको, समझ लीजिये जानना है किसी के बारे में, सारे दूरदर्शी यंत्र वगैरा सब अब चालू हो जाते हैं। हमारे यहाँ एक साहब हैं, अंग्रेज़। उनके पिताजी बहुत बीमार थे। तो उन्होंने कहा कि, “माँ बहुत दिनों से उनकी चिट्ठी नही आई, क्या करूँ,” तो मैंने (कहा), उसमे क्या तुम ज़रा ऐसे करके देखो। देखा तो इस जगह में (श्री माताजी चिन्हित करते हैं) पकड़ आई। अब ये जो है, ये पिता का स्थान है। ये माता का स्थान है। ये चक्र पकड़ा पिता का, इसका मतलब ये है कि गले में ब्रोंकाइटिस कुछ-न-कुछ बड़ी सीरियस चीज़ हो गई। उन्होंने फ़ोन किया तो उनकी अम्मा आई फ़ोन पे, पूछा कि क्या बात है, पिता कैसे हैं? कहने लगे उनको बहुत सीरियस ब्रोंकाइटिस है। उन्होंने यूँ-यूँ-यूँ-यूँ करके अपना हाथ घूमना शुरू किया, देख लीजिये ये भी आपको शक्ति है, इस तरह से सफ़ाई करनी शुरू कर दी, और अपने को आराम पाया, वहां पिताजी भी ठीक हो गए। आप विश्वास नही करेंगे, ये है शक्ति आपके अंदर ये आ गई (है)। आप अपने को समझते क्या हैं? अरे आप लोग पार हो गए, संत हो गए, बहुत महानुभाव लोग हैं। लेकिन आप जानते नही, क्योंकि सहज योग में सबसे बड़ी चीज़ नम्रता आ जाती है।

ये लोग कोई पार भी नही हुए हैं, इनको कुछ मालूम भी नही है, बिलकुल बेकार लोग अपने बड़े-बड़े मठ बना कर बैठे हैं। अजीब बंदर लोग हैं। और आप लोग पार हो के, आपका रियलाइज़ेशन हो कर के भी कुछ बोलते ही नही, कुछ करते ही नही, समझ में नही आता कि आदमी को किसने कहा था इतना नम्र होने के लिए। उनको शरम भी आती है कहने में कि मै रियलाइज़्ड-सोल (आत्म-साक्षात्कारी) हूँ। बहुत से तो ऐसे लोग हैं कि वो ये भी नही बताना चाहते कि मै रियलाइज़्ड (आत्म-साक्षात्कारी) हूँ। अरे आप हैं। डंके की चोट पर हैं। आप अपनी पूर्व-सम्पदा से पाए हुए हैं। ये आपके साथ होने का था, इसलिए हो गया है। आपको इसमें कोई अहंकार थोड़े ही चढ़ता है। जो आप हैं, वो कहना चाहिए, हाँ हमारा रियलाइज़ेशन हो चुका, माताजी ने दिया है हमको, गए थे वहां हो गया। मेरा ही नाम बदनाम करो बस तुमको करना है तो। इतनी ही शरम आती है तो कहना, हाँ माँ ने किया। चलो, मुझे कोई हर्ज़ नही, पर आप रियलाइज़्ड (आत्म-साक्षात्कारी) हैं, तो रियलाइज़्ड हैं। और बहुत बड़ी चीज़ है। ये कोई इनिशियेशन-फिनिशियेशन नही है, आप रियलाइज़्ड-सोल्स् (आत्म-साक्षात्कारी) हैं। आप इसका इस्तमाल करके देखें, हज़ारो चीज़े इसमें होती हैं। आप इसमें बढ़ें। आपको पता होगा कि कितनी गहन चीज़ें इसमें वर्क्आउट् (कार्यान्वित) होती हैं। सामूहिक चेतना में आप किसी आदमी को जागृति दें, आपको पता चल जाएगा कि इनके चक्र कौन से पकड़े हैं। आप सिर्फ़ उनपे हाथ घुमाइए ठीक से - जैसे आगा-पीछा में फ़र्क होता है - ज़रा सेंटर पे जा कर बारीकी सीखें, और ठीक होगा। कैंसर की बीमारी हमने ठीक की है, हमारे शिष्यों ने कितनो को ठीक किया है। बिलकुल झूठ बात नही है। आप को कभी भी कोई भी फ़िज़िकल ट्रबल (शारीरिक तकलीफ़) नही होने वाली सहज योग के बाद, और ग़र कुछ हो भी तो उसको कैसे करेक्ट् (ठीक) कर लेना है इतना बस सीख लीजिये। आप अपने को ठीक कर सकते हैं, दूसरों को भी ठीक कर सकते हैं। माने ये तो ऐसी चीज़ है कि सारा भंडार आपका खुल गया, लेकिन आप ग़र उसको इस्तेमाल ही न करें, उसमे मै क्या कर सकती हूँ? थोड़े दिन में फिर ताला पड़ जाएगा। ग़र इसको आप इस्तेमाल करें... और देखें कि आप की स्वयं की शक्ति कितनी जागृत है। अब जो गुरुदेव आपको दिखते हैं सब चमत्कार दुनिया भर के, और उन्होंने आपको तो कोई शक्ति नही दी, तो ऐसे गुरु को गुरु मानना ही नही चाहिए। आपकी शक्ति (आपको) जो दे वही गुरु है। जो साहिब से मिलाए, वही गुरु माना जाता है। माने जो पार हो गया उसने ग़र आपको पार नही किया, तो उसको गुरु मानने की क्या ज़रूरत है? इसलिए किसी के सामने भी ये माथा झुकाने की ज़रूरत नही है। कभी ज़रूरत नही। हज़ारों लोगों को झुकाने दीजिये, आप नही झुकना, आप पार आदमी हैं, आप उनसे ऊँचे हैं। अब ये वायब्रेटरी-अवेयर्नेस् (चैतन्य चेतना) आपके अंदर आ गई, आपके अंदर से वायब्रेशन्स (चैतन्य) आ गए। आप इससे जो भी सवाल चाहें, पूछें। सवाल पूछ कर के ही बहुत से लोग पार हो गए हैं, आप जानते हैं। ये वायब्रेटरी-अवेयर्नेस् (चैतन्य चेतना) है, ये आपका कंप्यूटर शुरू हो गया, इसी से सब कुछ अब जानना है। जैसे आदमी अपनी मानवता से सब कुछ जानता है, उसी प्रकार रियलाइज़ेशन के बाद सब इससे जानिए। "माँ इसमें क्या करें?" - वायब्रेशन्स देखो। शुरू-शुरू में हो सकता है थोड़ी दुविधा हो जाएगी, थोड़ा कन्फ़्यूजन (संभ्रम) हो जाएगा, आप सोचेंगे ये सही नही है। इस्तेमाल करने के बाद आपको आश्चर्य होगा कि इतना एग्ज़ॅक्ट (सटीक) आता है। हम लोग तो बैठे-बैठे सब प्रेसिडेंट (राष्ट्रपति), जितने भी प्राइम-मिनिस्टर्स् (प्रधान मंत्री) हैं, सब को बंधन देते रहते हैं सुबह से शाम तक यही धंधा होता है - इनको सुबुद्धि आए, इनका ठीक हो, ये हो, वो हो। एक दिन निक्सन साहब (अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति, जिनको महाभियोग कर निकाला गया था) को वायब्रेशन्स दे रहे थे, तो सोचा इनका अब कल्याण होने वाला है (श्री माताजी हँसते हुए बोलीं)। सब लड़को ने बताया, माँ इनके तो सब वायब्रेशन्स ख़राब जा रहे हैं। ये बहुत दिन पहले की बात है। उनके कल्याण (महाभियोग) होने से बहुत दिन पहले ही बात सबको पता हो गई। अब वायब्रेशन्स से अपने घर के लोगों से भी व्यवस्था ठीक कर सकते हैं। पहले अपनी ठीक करना चाहिए पर। अब जब कोई गुरु के वजह से घर में कलह होते हैं, झगड़े होते हैं, मेरी तो समझ में नही आता कि ग़र इसी घर में ग़र गुरु हैं और उसी घर में कलह और झगड़े बढ़ रहे हैं, तो वो गुरु किस काम का? धीरे-धीरे इतना प्रेम उमड़ता है, जिनसे हम बात भी नही करते (थे), उनसे बात करना शुरू कर देते हैं। धीरे-धीरे सारी बातें इतनी साफ़ नज़र आने लग जाती हैं कि आप आश्चर्य करेंगे। अब इस चीज़ का आप बंधन दें अपने को... जैसे के एक साहब हैं, आपके भाई साहब हैं, बेकार में आपसे नाराज़ हैं, उनका नाम आप ऐसे लिख लीजिये [पाम (हथेली) पर ?] और इस तरह से बंधन दें, सात मर्तबा, चाहे माताजी का नाम ले लें, और ऐसे कर के उनको छोड़ दीजिये। आप देखियेगा नक्शा बदला नज़र आएगा। थोड़े दिन में ठीक हो जाएंगे। क्योंकि ये प्यार के बंधन हैं, ये प्यार की शक्ति का यूज़् (उपयोग) करना है। ये जो प्यार की शक्ति है, जो बताती है, जो सामूहिक चेतना में आपको ले गई है, और जो अपनी सामूहिकता जो है, उसे उसने जागृत कर दिया है। और इसलिए आप सामूहिक जितने भी प्रश्न हैं, उनके उत्तर यहाँ पा सकते हैं। लेकिन सिर्फ़ एक ही अड़चन हर जगह है - उसको भूलना नही चाहिए, और इसलिए कभी घबराना भी नही चाहिए - कि मनुष्य की स्वतंत्रता छीनी नही जाएगी कभी भी। कोई ग़र राक्षस होना चाहे तो आप उसको भगवान नही बना सकते, जब तक वो न कहे (कि) आप मुझे इस रास्ते पर लाईये। किसी की भी स्वतंत्रता सहज योग में छीनी नही जाएगी, यही एक अड़चन है। और यही अड़चन ग़र आदमी हल कर जाए तो काम बन जाए। उसके लिए पहले ही से बंधन-वंधन ड़ाल के उनको ज़रा अपने रस्ते पे ले आए, उनके अग्र इकट्ठे कर लिए, समग्र तो नही हैं, पर अग्र इकट्ठे होते शायद कुण्डलिनी चढ़ जाएगी। पर सहस्त्रार तब तक नही टूटेगा जब तक दूसरा आदमी ना कहे कि हाँ मुझे पार करना है। हाँ कुण्डलिनी तो चढ़ा लेते हैं, कुण्डलिनी तो बहुतो की चढ़ा लेते हैं, पर कुण्डलिनी भी चढाने से आदमी में इच्छा ज़रूर हो जाती है। धीरे-धीरे उसका चित्त जाता है परमात्मा के तरफ़, उसकी इच्छा उधर होती है। तो हालाँकि आप उसे ज़बान से नही कहिये, कुण्डलिनी चढ़ाते रहिये उनकी। ऐसा करने से भी कुण्डलिनी चढ़ जाती है। नाम लिखिए, ऐसा कर दीजिये, कुण्डलिनी चढ़ जाएगी, पार शायद ना हों, होते नही हैं पार। उसके लिए परमिशन (अनुमति) चाहिए, उनके ज्ञान में ही होना चाहिए। क्योंकि पहली मर्तबा, आपने ध्यान दिया होगा तो, कि आपका जो उत्क्रांति का ये जो ऊँचा कदम है, हायर-स्टेप् है, ये आपकी चेतना में हुआ, पहली मर्तबा। इससे पहले नही हुआ - आप मछली से जब कछुआ बने आपको पता नही था, और कछुए से आगे और आप बंदर बने तो पता नही था, और बंदर से आप इंसान बने तो आपको पता नही था - लेकिन आज इंसान से जब अतिमानव आप हो रहे हैं, तो आपको पता होता है।

अब क्या नही करना चाहिए, क्या करना चाहिए, इसके बारे में मैने काफ़ी बताया है। बीमारी वगैरा जो कुछ भी है उसके बारे में आप, हमारे यहाँ कुछ डॉक्टर्स भी हैं और वो रियलाइज़्ड-सोल्स् (आत्म-साक्षात्कारी) हैं, उनसे आप कीजिये (बात)... लेकिन एक बात जो हो जाती है - अधिकर मैने देखा है - सहज योग के बाद, कि पहली चीज़ है, कि लोग अपने जितने भी रिश्तेदार बीमार हैं, उनका एक लिस्ट बना लेते हैं - “माँ आएगी तो उसको इतने हम बीमार ले के पहुंचेंगे”। बिलकुल कॉमन (साधारण) है। बैठे-बैठे वो सारे समय ये सोचते हैं, कि जब माँ आएगी तो वो मेरा चाचा का भतीजा वहां इंग्लैंड में है, उसको बुला लूंगा, फलाना-ढिकाना उसको ये हुआ, उसको बुला लूंगा।और ये सबसे ख़राब चीज़ है। ये सब के साथ होता है, और ये बड़ी हानिकारक चीज़ है, हमारे लिए भी और आपके लिए भी। एक तो, जो लोग बीमार हैं, दुखी हैं, परेशान हैं, उनको, जब तक आप शक्तिशाली नही हैं, ग़र आप उनके पास जाएंगे, तो आप पकड़ लेते हैं उनसे, उनकी बीमारी आपको चिपक जाती है। खास कर मेंटली-अफ़ेक्टेड् (मानसिक रोग) लोग - उनसे तो दूर भागिएगा। शुरू-शुरू में, अभी आपका पौधा लगा है ना - उसको सम्हालना पड़ता है। अधिकतर सवेरे बंधन ले करे घर से निकलें। और रात में भी बंधन दे कर, पैर धो कर सोएं। कम से कम हमारे आने तक इसी तरह से बनाए रखें अपने को। कुछ टाइम (समय) नही लगता - एक पंधरा मिनट में सारा काम रात में हो सकता है। और शुरू में आप इकट्ठे मत करिये सारी दुनिया के पागलों को और बीमारों को, मेहेरबानी से। मै कोई बीमारी ठीक करने नही आई (हूँ), मै रियलाइज़ेशन् देने आई हूँ, सबको रियलाइज़ेशन् देने। पहले आप लोग रियलाइज़्ड् हो जाइये तो बीमारियां ऐसे ही भाग जाएंगी। और जो लोग परमात्मा को नही खोज रहे हैं, उनको ठीक कर के मुझे क्या करने का है - उनका अचार डालने का है? आप ही बताईये - मेरी तरफ़ से आप ही सोचिये, कि जो दीप जलने ही नही वाले हैं उनको ठीक-ठाक करने से अच्छा है, कि फिर से junk (कबाड़) में डाल दो फिर से बना के ले आओ, फिर से ठीक कर लो, इस तरह से आदमी सोचेगा कि नही? हाँ, अगर कोई परमात्मा को खोज रहा है, तो चाहे वो नब्बे साल का भी हो जाए, चाहे सौ साल का भी हो जाए, और जर-जर भी हो, तो भी उसके लिए हम रात-दिन एक कर देंगे। इसमें बहुत फ़र्क है। परमात्मा को खोजने वाले लोग आप इकट्ठे करें। कौन परमात्मा को खोज रहा है, उसको इकठ्ठा करें। अब मै अगले वक्त ये ना देखूं कि आप अपने साथ पच्चीस बीमार ले के पहुंचे हरेक आदमी। उसमे से एक भी आदमी, मै बताती हूँ, टिकने नही वाला। अभी आप देखें शुरू में कितने बीमार आते थे, सब ठीक हो गए, यहाँ तक कि उन्होंने रिपोर्ट ला के दिखा दी। अब कौन आ रहा है? - कोई आएंगे? हमने हज़ारों को ठीक किया है, और हमारे शिष्यों ने हज़ारों को ठीक किया है - किसी को परवाह नही। हमको पहले रियलाइज़्ड् लोग चाहिए, बहुत से लोग रियलाइज़्ड् होने चाहिए। उनको करिये, साबुत लोग तो होएंगे दुनिया में, ऐसा भी क्या? और ये शरीर से ठीक होने से भी इनका क्या फ़ायदा है, क्योंकि ऐसे तो बहुत से पहलवान लोग हैं - परमात्मा को क्या है? ये ग़र नही ठीक होते, तो इनका दूसरा घड़ा बना लेंगे। लेकिन जो बने हुए घड़े हैं, और जो कि पानी के लिए तृप्त हैं उसको ज़रूर पानी भर दिया जाएगा। इसलिए ऐसे लोगों को इकठ्ठा करें जो परमात्मा को खोज रहे हैं, पूरे मन से परमात्मा की और हैं। फिर वो किसी गुरु से चिपके हैं, तो उनको बिलकुल मेरे पास ला के चिपकाइये नही, नही तो झगड़ा करते हैं मेरे साथ। ग़र वो किसी गुरु को सोचते हैं उन्होंने उनको परम दिया है, तो मुझे कमसकम बख्शें, कहना आप उन्ही के पास जाइये साहब, आपके गुरु बहुत भले आदमी हैं, आप उन्ही को चिपकिये, माफ़ करिये, माँ को सताना मत, मेहेरबानी से। वरना ऐसे लोग बहुत मुझे परेशान करते हैं। मै आप से इतनी बिनती करती हूँ, कि जो लोग गुरु को चिपके हैं, उनको चिपके रहने दो। जब वो गुरु के दो-चार हाथ पड़ेंगे उन पे, जब उनके दांत खट्टे होंगे, तो आ जाएंगे। अपने को गुरुओं के पास जाने का नही। अभी मै पूना गई थी, [बहुतों ने ?] कहा, कि "माँ वहां पे हम जा के काम करें"? मैंने कहा, कोई ज़रूरत नही, उनको रहने दो वहीं। बड़े कठिन हो जाते हैं, और जितने गुरु के चक्कर में घूमे होते हैं, उतने और प्रॉब्लम (समस्या) हो जाते हैं। अपने आप जो आ जाए, सो आने दीजिये। हाँ, लेकिन आपको कोई ग़र ऐसा आदमी मालूम हो -- ऐसे आदमी ज़रूरी नही कि कोई बड़ा-भारी भगवान का नाम लेते हैं, भले आदमी, भला आदमी जो होता है, कोई भी भला आदमी, लोग कहते हैं (कि) बड़ा भला आदमी, भोला है, जिसको सब ठगते हैं -- वो ही ठीक है। जो सबको ठगता है, उसको ठगने दीजिये - वो ऐसा ठगा जाएगा कि उसको पता चलेगा, उसकी ठगी उसको खा जाएगी। इसलिए जो भला आदमी हो, भोला आदमी हो, सीधा-साधा हो, बहुत ज़्यादा बोस्ट्फ़ुल (घमंडी) नही हो, बहुत ज़्यादा अपनी बुद्धि की चमक से ज़्यादा लोगों के दिमाग नही ख़राब करता हो, ऐसे सीधे-साधे सरल लोग खोजिये। सबके पहचान में ऐसे लोग होएंगे, जो भले लोग हैं, जिनमे भलमानसियत है, दुनिया के साथ अच्छाई करता है, हमेशा दूसरों की अच्छाई सोचता है, भलाई सोचता है, और जिस को कोई चीज़ की हवस नही है - ऐसे सीधे-साधे लोग आप इकट्ठे कर के लाइए। और मरीज़ों को इकट्ठे मत करियेगा। मरीज़ों से मै तंग आ गई हूँ। अब ऐसा होता है (कि) किसी की कोई बीमारी नही भी ठीक होती, तो वो जान पे लग जाते हैं -"साहब मेरा ये गया ही नही"। अब नही गया तो मै क्या करूँ? अब वो निकल के भी मुझे ही कौन सा लाभ होने वाला है - पॉइंट तो ये आता है। और पीछे पड़े रहेंगे। और सबसे पहले आ के वो ही बैठेंगे। सबसे पहले जो है, सबसे ज़्यादा पकड़े हुए लोग आ कर बैठते हैं। अब प्रॉब्लम (समस्या) ये है कि इनको कैसे ठीक करूँ? और जान खा जाएंगे, कि "नही। ठीक करिये, आपको करना ही पड़ेगा"। भई कैसे करें - आपकी भी तो कुछ पूर्व-संपदा चाहिए, आपका भी कोई बैंक अकाउंट चाहिए ना? अब आप का बैंक अकाउंट (पूर्व पुण्याई) नही तो मै क्या करूँ? थोड़ा-सा तो चाहिए। अब ओवरड्राफ्ट भी बैंक दे दे, पर कितना देगा? (श्री माताजी हंसीं )। उसका भी कोई अंत होता है ना? इसलिए ऐसे लोगों को इकट्ठा मत करिये। भले आदमी हैं जो, बहुत अति नही करते किसी चीज़ की, बीचोंबीच रहते हैं, धर्म में रहते हैं, सर्वसाधारण हैं, सर्वसामान्य हैं, ऐसे लोग ढूंढिए। बहुत बड़े-बड़े आदमी बहुत कठिन हो जाते हैं। और जैसे फिर ये, कि ये घर के नौकर हैं, नौकरानियाँ हैं। ठीक है, कोई-कोई नौकर... हमारे जो बंबई (मुंबई) में ड्रायवर साहब थे, हम तो उनको राजा साहब कहते थे, अब वो ठीक हैं राजा साहब हैं, कोई नौकर भी कभी-कभी राजा साहब होते हैं, पर सब नही होते। क्योंकि वो नौकर है, इसलिए मेरे पैर पे ला के मत झुकाईये - "क्योंकि हमारे नौकर हैं, इसलिए हम लाए" - ऐसा मत करिये। अभी एक देवीजी लाईं थी, मेरा पैर सारा उन्होने खा लिया, सारा जला दिया पैर, और फिर बुरा मान जाते हैं कुछ कहो तो।

इंट्रेस्ट् (रूचि) रखिये हमेशा सहज योगीयों में। सहज योगी कैसे हैं, उनको कोई तकलीफ़ तो नही है, वो तो परेशान नही? उसमे तो नही रहता। फालतू के लोगों में इंट्रेस्ट् नही रखना। जो सहज योगी हैं, उन पर। और जो परमात्मा को खोज रहे हैं, जो साधे-सरल लोग हैं, उनको पहले एक करना। जब ये लोग ठीक-ठाक हो जाएंगे, तो फिर कठिन [अक्षर ?] हम ठीक कर सकेंगे। नही तो ऐसे लोग लाते हैं कि जिनके चार सींग निकले हुए हैं। मेरी तो समझ में नही आता कि इनसे बचूं तो कैसे बचूं? कभी इधर से दौड़ते हैं, कभी उधर से दौड़ते हैं, कुछ बात ही नही सुनते हैं ये लोग। तो सर्वसाधारण, साधे लोगों को लाएं। अब, "वो हमारे बाप हैं", या "वो हमारी माँ हैं", ये कोई क्रायटेरिया (परिमाप) नही है। इसका क्रायटेरिया ये है कि जो परमात्मा को खोज रहा है, वही मेरा भाई, वही मेरी बहन, वही मेरी माँ। ईसा मसीह ने एक बार कहा था, “हू आर माय ब्रदर्स्, एँड हू आर माय सिस्टर्स्?” (मेरे भाई कौन हैं, और मेरी बहने कौन हैं?) - बड़ा भारी सेंटेंस (वाक्य) है ये। “हू आर माय ब्रदर्स्, एँड हू आर माय सिस्टर्स्”? द सहज योगीज़् आर हिज़् ब्रदर्स्, एँड सहज योगिनीज़् आर हिज़् सिस्टर्स्. (सहज योगी उनके भाई हैं, और सहज योगिनियां उनकी बहने हैं)। ही इज़् देयर एल्डेस्ट ब्रदर (वो उनके सबसे बड़े भाई हैं )। गणेशा इज़् युअर एल्डेस्ट ब्रदर (श्री गणेश आपके सबसे बड़े भ्राता हैं )। एँड दोज़् हू आर रिलेटेड टु यू बाय दीज़् लौकिक रिलेशनशिप्स् एँड इन्टु लौकिक रिलेशनशिप्स्, ये तो लौकिक ही हैं। उनके पीछे में पागल नही होने की ज़रूरत। हाँ, धीरे-धीरे आपको आश्चर्य होगा कि वो इसमे आ जाएंगे। आपका व्यवहार देख कर के, आपका विचार देख कर के, आप के तौर-तरीके देख कर के, धीरे-धीरे सब आ जाएंगे। लेकिन उसके पीछे एनर्जी (ऊर्जा) वेsस्ट (व्यर्थ) करने की ज़रूरत नही। जब धीरे-धीरे आ जाएंगे। "मेरा"-पन कम करना चाहिए। ये हमारे हिन्दुस्तानियों में ज़रूरत से ज़्यादा है, और विलायत में बिलकुल नही। मेरा लड़का, मेरी लड़की, मेरा ये - ये ज़रा कम करिये। पर ये क्योंकि फॅमिली (परिवार) में ही सहज योग पनपने वाला है, अत्यावश्यक है कि फॅमिली का ऍटमॉसफ़ियर (वातावरण) ठीक होना चाहिए, और धीरे-धीरे अपनी फॅमिली में भी इसको बढ़ाना चाहिए। किसी भी तरह से फॅमिली वालों को दुखी करने की ज़रूरत नही है, धीरे-धीरे सब चीज़ ठीक हो जाएगी। ये तो आपके हॅंडलिंग (संचलन) पे है, और आपकी क्या सत्ता आपके घर पे है, उस पर है। इस तरह से सब को प्रेम में ला कर के और आपके प्रेम को सिद्ध कर के आप उनको सहज योग में लाएं। और सहज योग खुद ही स्वयंसिद्ध है, उसको सिद्ध करने की ज़रूरत नही। उसके वजह से आपके भी चार-चांद लगते हैं, और आपकी भी सिद्धता होती है। अब आप लोग सिद्ध हो गए हैं, आपको सबको नमस्कार करती हूँ मै। कल मै चली जाऊंगी और अट्ठाईस तारीख को मै फिर यहाँ आने वाली हूँ। आशा है आप सब वहां उपस्थित होंगे और जगह वगैरा सबको पता है। और ये किताब आप लोग सब एक-एक खरीदिये क्योंकि एक भाषण में मै कितना कह सकती हूँ, उस किताब में भी मैने कितना कहा होगा पता नही, लेकिन उसमे चीज़े हैं ज़रा बारीक-बारीक चीज़ों पर भी उसमे विवेचन किया गया है। और उसको आप देख लें, समझ लें, उससे आप को कुछ हमारे बारे में ज़्यादा मालूमात होगी, क्योंकि जब हम बोलते हैं तो अपने को हम [पीछे ?] रख लेते हैं, क्योंकि ये तो माया स्वरुप है और ज़रा इसको समझने के लिए, ज़रा कठिन ही काम होता है। तो इसलिए उस किताब से भी आप हमें समझ सकते हैं। आप लोग उस किताब को भी खरीद लें तो अच्छा रहेगा। और कोई प्रश्न-वश्न हो थोड़ा बहुत तो बता दें, नही तो ध्यान करें।

[ इसके पश्चात् श्री माताजी ने वायब्रेशन्स संतुलित करने के विषय में बताया, कि किस प्रकार के लोगों में बाएं से उठा कर दाहिने और वायब्रेशन्स डालने चाहिए, और किस प्रकार के लोगों में दाहिने से उठा कर बाएं और डालना चाहिए। और बंधन (कवच) के विषय में बताया। ]

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