Public Program 1985-03-24
24 मार्च 1985
Public Program
Jaipur (भारत)
Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - Draft
जयपुर के सर्व सत्य शोधकों को हमारा प्रणाम। जीवन में हर मनुष्य अपनी धारणा के बूते पर रहता है। जो भी धारणा वो बना लेता है उसके सहारे वह जीता है। लेकिन एक कगार ऐसी ज़िन्दगी में आ जाती है, जहाँ पर जा कर वह यह सोचता है, कि, "मैंने आज तक जो सोचा, जो धारणाएं लीं, वो फलीभूत नहीं हुईं। उससे मैंने आनंद की प्राप्ति नहीं की, उससे मुझे समाधान नहीं मिला, उससे मैंने शांति प्राप्त नहीं की।" जब वो कगार मनुष्य के सामने खड़ी हो जाती है, तब वो अपनी धारणाओं के प्रति शंकित हो जाता है। और उस वक़्त वो ढूँढने लग जाता है कि इससे परे कौन सी चीज़ है, इससे परे कौन सी दुनिया है, जिसे मुझे प्राप्त करना है। ये जब शुरुआत हो जाती है, तभी हम कह सकते हैं, कि मनुष्य एक साधक बन जाता है। वो सत्य के शोध में न जाने कहाँ-कहाँ भटकता है। कभी-कभी सोचता है कि, बहुत सा अगर हम धन इकठ्ठा कर लें, तो उस धन के बूते पे हम आनंद को प्राप्त कर लेंगे। फिर सोचता है कि हम सत्ता को प्राप्त कर लें - सत्ता को प्राप्त करने से ही हम आनंद को प्राप्त कर लेंगे। फिर कोई सोचता है कि अगर हम किसी मनुष्य मात्र को प्रेम करें, तो उसी से हम सुख को प्राप्त कर लेंगे। उससे आगे जब वो विशालता पे उठता है, तो ये सोचता है कि, हम प्राणी मात्र की सेवा करें, उनकी कुछ भलाई करें, उनके उद्धारार्थ कोई कार्य करें, तो हम परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। लेकिन ये सब मनुष्य की धारणाएं हैं। मनुष्य की धारणा से मनुष्य परमात्मा की ओर नहीं बढ़ सकता। क्योंकि परमात्मा असीम हैं और जो सीमित बुद्धि है, उसके सहारे हम असीम पर उतर नहीं सकते। हमारी आज तक जो उत्क्रांति हुई है, उसके बारे में अगर हम सोचें, तो सभी कुछ सहज होते गया। आज जो हम आज इंसान बने हैं वो भी सब सहज हुआ है। हमने उसके लिए कुछ किया नहीं। जो भी कुण्डलिनी आदि का इन्होंने आपसे बताया, ये सारी चीज़ें जो हैं, ये आपने बनाईं नहीं, ये अंदर बनी बनाई रक्खी हुईं हैं। आपके अंदर स्थित है, आपने इसे अपनी उत्क्रांति में पाया हुआ है। और इस उत्क्रांति में ये पाए हुए इस धन को आपको सिर्फ पाना है, उसको जान लेना है और उसका स्वामित्य स्वीकार करना है। अब ये चीज़ जो हम कह रहे हैं, ये सच है या झूठ है, आपके अंदर है या नहीं, इसको एक शास्त्रग्न की दृष्टि से अगर देखा जाए, तो ऐसा ही हम कहेंगे कि जैसे कोई एक धारणा शास्त्रग्न बताता है जिसे कि आप कह सकते हैं हाइपोथिसिस, उसके बाद उस हाइपोथिसिस को दूसरा शास्त्रग्न कहता है, 'अच्छा इसको सिद्ध करके दिखाइए।' अगर वो सिद्ध हो जाये तो उसे फिर कायदा माना जाता है। उसे लोग मान लेते हैं कि ये शास्त्र का कायदा है इसलिए वो साइंटिफिक एक मान्य तथ्य हो जाता है। इसी प्रकार धर्म में भी जब हम किसी चीज़ को मान लेते हैं, तो ये ज़रूर जान लेना चाहिए, कि इस धर्म में जो कुछ वर्णित है, वो हम पा रहे हैं या नहीं। लेकिन धर्म के मामले में हमारी दृष्टि बहुत अंधी है। हम ये नहीं सोचते कि जो कुछ भी इसमें वर्णित है, उसे हमने पा लिया है। जैसे कि विशेषकर आज सवेरे ही बातचीत चली थी, तो मैंने कहा कि, सबसे ज़्यादा हिन्दू लोग अपने धर्म से बहुत अनभिज्ञ हैं। वजह हो सकती है कि इन लोगों को कभी भी ऑर्गनाइज़ नहीं किया - एक उससे फायदा भी है। अगर कोई धर्म आप ज़्यादा से, ज़रुरत से ज़्यादा ऑर्गनाइज़ कर लिए तो आदमी ऐसा बन जाता है जैसे कि किसी बैल को या किसी घोड़े को आपने आँख के सामने कुछ बाँध दिया हो। लेकिन एक दोष ये भी आ जाता है कि वो कुछ भी नहीं जानता है। इसीलिए हम, जो हमारा धरोहर है, इतने वर्षों से उपार्जित यहाँ का जो आध्यात्मिक ज्ञान है, उससे बिलकुल अपरिचित हैं, उसके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते हैं। बड़ी आश्चर्य की बात है, कि कितने ही लोगों को मैंने जब मैं कुण्डलिनी कहती हूँ, तो वह सोचते हैं कि मैं कुंडली की बात कर रही हूँ जिसे कि होरोस्कोप कहते हैं। बहुत ही आश्चर्य कि बात है कि हम अपने मूल-भूत तत्वों को तक नहीं जानते हैं। इस देश में जो इतने सालों से, हज़ारों वर्षों से कमाया हुआ धन है, उसके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते हैं। हमारी दृष्टि ही उस ओर नहीं है, हमारी दृष्टि ही बाह्य में है, हम उसको जानना ही नहीं चाहते हैं, जो हमारा धरोहर, हज़ारों वर्षों से उपार्जित ज्ञान है, उसके बारे में हम इस कदर अनभिज्ञ हैं, उधर कोई उत्कंठा नहीं, कोई विचार नहीं, और सोचते हैं कि हम लोग मानो, जैसे कोई अंग्रेज़ों को ही बनाये हुए कोई पुतले हैं। इसके अलावा और हम चीज़ सोच नहीं पाते हैं, कि कितनी बड़ी परंपरा, कितनी बड़ी सम्पदा इस देश में हमारे लिए हमारे पूर्वज छोड़ गए हैं। अब कहने कि बात ये है, कि हमारे अंदर ये संस्था पूरी स्थित है, पूरी तरह से विराजमान है। लेकिन सत्य को पाने वाले को पहले ये जान लेना चाहिए, कि जो सत्य है, सो है, उसे आप नहीं बना सकते हैं। आप कहें कि, 'नहीं, हम तो ये सोचते हैं, हमारी ये धारणा सत्य के बारे में है,' तो वो सत्य नहीं हो सकता है। सत्य जो है सो है। एक नम्र विद्यार्थी की तरह से आपको ये जानना चाहिए कि, 'अभी हमने सत्य को जाना नहीं, इसलिए जो सत्य होगा उसे हम जानेंगे और जानना चाहेंगे।' जब तक ये हमारे अंदर विचार जागृत नहीं होता है, तब तक हमारे अपने ही बनाये हुए पहाड़, बैरियर्स (अवरोध) बने हुए हैं उन पहाड़ों को लांघना बड़ा कठिन हो जाता है। सत्य क्या है, सत्य क्या चीज़ है?
जिसे हम कहते हैं 'सत्य, सत्य' - सत्य क्या चीज़ है? सत्य एक है सीधा-साधा कि आप आत्मा हैं। आप शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार, आदि कुछ भी नहीं आप सिर्फ आत्मा हैं, आप आत्मा हैं और वो आत्मा का प्रकाश अभी तक आपकी चेतना में, या आपके चित्त में आया नहीं। जिस वक़्त ये आपके चित्त में आ जायेगा, तब आप जानेंगे कि ये आत्मा हमारे अंदर स्थित है क्योंकि आपके नसों में, आपके सेंट्रल नर्वस सिस्टम(केंद्रीय मज्जा तंतु) में आप इसको महसूस कर पाएंगे इसके लिए आपको कहीं किसी से पूछना नहीं पड़ेगा, आप इसको खुद जान जाइएगा कि आपके अंदर ये चीज़ चल रही है, ये आपके अंदर बिराजमान है। अगर मैं आपसे कहूँ कि ये सृष्टि [अलग से - आप सामने आ जाइए, आप सामने बैठिए, आइए, सामने बैठिए] ये सृष्टि, चराचर सृष्टि, किसी ऐसे बड़े भारी शक्ति के साथ चल रही है, जो इस कार्य में पूरी तरह से सलग्न है, तो आपको विश्वास नहीं होगा। किन्तु सोचिये, कि ये जो फूल बना है, क्या हम ऐसे फूल बना सकते हैं क्या इन फूलों से जो फल बनते हैं, वो हम कर सकते हैं, कोई सा भी जीवित कार्य हम कर सकते हैं, जो कार्य करते हैं सो मरा हुआ। समझ लीजिये, अगर कोई पेड़ मर गया, उससे हमने टेबल बना लिया, तो सोच लिया बड़ा भरी काम कर लिया। मरे से मरी चीज़ बना ली। और जब मरे से मरी चीज़ बना लेते हैं, तो वो जो जड़ वस्तु है, वो भी हमारे सर पे बैठ जाती है। क्योंकि जड़ और चेतन का हमेशा झगड़ा चलता है। और आत्मा जो है, उससे जड़ हमेशा भागता है। जब आपने एक बार कुर्सी बना ली, तो कुर्सी आपके सर पे बैठ गई क्योंकि आप कुर्सी के सिवा बैठ नहीं सकते हैं। कुर्सी लेकर आपको घूमना पड़ेगा। जिस चीज़ की, जड़ की आपने आदत लगा ली, वो जड़ आपकी खोपड़ी पे बैठ गई। इसका मतलब सीधा ये है कि हम जड़ से जल्दी ही प्रभावित हो जाते हैं बनिस्बत चेतन से। और चेतन से भी अगर हो गए, तो भी हम आत्मा के प्रति उतने उन्मुख नहीं होते हैं, उस तरफ हमारा इतना ध्यान आकर्षित नहीं होता है। उसकी वजह ये है, कि हम अभी तक उतने ऊपर देख नहीं पाते हैं, उतने उन्नत नहीं हैं। अब बहुत से संसार में ऐसे लोग हो गए हैं जिन्होंने बड़े महत कार्य करके, परमात्मा के बारे में, उनके साम्राज्य के बारे में, उनके बड्डपन के बारे में, कुण्डलिनी के बारे में, सब कुछ बताया हुआ है। लेकिन ये किंवदंती ही गई। लोगों को लगता है कि ऐसी बातें हैं, भगवान-अगवान कोई चीज़ हैं नहीं ऐसी बातें चल रहीं हैं, लोग भगवान की बात मात्र करते हैं और भगवान के नाम पर पैसा खसोटना, किसी में झगड़ा लगाना, किसी में परेशानी में डालना, मंदिरों में चरस बेचना, आदि, सब गंदे-गंदे काम करते रहते हैं और भगवान-अगवान कोई चीज़ नहीं है। बुद्धि के स्तर पे बात सही मालूम पड़ती है। मनुष्य बुद्धि से अगर सोचा जाए तो लगता है कि अगर भगवान हैं, तो ये सब तमाशे क्यों हो रहे हैं। इसी प्रकार एक बार अल्जीरिया में बहुत से लोगों ने ये सोचा कि अगर हम फ़ण्डामेंटालिस्ट( कट्टरपंथी) लोग यहाँ पर आ जाएँ, तो ये लोग आकर के वही हाल करेंगे जो खोमिनी ने किया हुआ है। इस वजह से वहाँ के बहुत से तरुण लोगों ने ये सोचा, कि बेहतर है कि हम लोग कोई कम्युनिज्म को ही प्राप्त करें, उसी का अवलम्बन करने से ही हम बच सकते हैं। तो वो लोग कम्युनिस्ट हो गए - पाँच सौ लोगों ने अपनी एक कम्युनिस्ट पार्टी स्थापित की। उनमें से भूला-भटका लंदन चला आया और सहज योग में घुस गया। पता नहीं कैसे वो आया बेचारा और उसके बाद वो पार हो गया। बहुत ही होशियार लड़का है, बहुत शुद्ध प्रकृति का लड़का है - मुसलमान, लेकिन बहुत शुद्ध प्रकृति का। जब उसने पाया, उसने जाकर बताया कि, "नहीं, भगवान तो हैं, लेकिन अभी हमने पाया नहीं था।" पाँच सौ आदमियों को उन्होंने पार करा दिया और सब को प्लेन से लंदन लाया। लेकिन उन लोगों मैं जो उत्कंठा थी, वो बड़ी ज़बरदस्त थी और गहन सी, बड़ी आंतरिक थी। जब तक इस तरह की आंतरिक इच्छा मनुष्य में सत्य को जानने की न हो, तब तक वो सत्य को प्राप्त करके भी खो सकता है। इसलिए आशा है जयपुर में भी ऐसे लोग बहुत से बिराजमान होंगे, कि जो इसको अत्यंत आस्था से जानना चाहेंगे कि, 'हम क्या हैं, हम इस संसार में क्यों आये हैं, परमात्मा ने हमें क्यों मानव स्थिति दी है, और इससे परे हमारी कौन सी स्थिति है।' इसी को जानना ही सत्य है। जिसने इसे जाना, वही सत्य है, बाकी तो आदि शंकराचार्यजी ने कहा ही हुआ है कि, 'एक आत्मा ही, एक ब्रह्म ही, सत्य है और बाकी सब भ्रम है।' अब ब्रह्म की बात जो है वो इस प्रकार है, कि अभी जो आप इस चीज़ को जान रहे हैं, समझ लीजिए, आप अगर जान रहे हैं कि ये इंसान बहुत अच्छा है, हो सकता है कि आपको भ्रम हो, इसको सोच रहे हैं कि ये बड़े अच्छे गुरु महाराज जी हैं, हो सकता है कि ये कोई भ्रम हो, कोई भी चीज़ आप पूरे सौ फ़ीसदी नहीं कह सकते कि ये चीज़ बिलकुल सही है। वजह ये है, कि अभी तक आपने वो जो एकाकी चीज़ है, जो एब्सोल्यूट चीज़ आपकी आत्मा है, उसे नहीं प्राप्त किया। क्योंकि जब आप आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं तब आप कोई भी चीज़ को रिलेटिविली, यानि इस तरह से नहीं जानते हैं, कि इसका ऐसा है, तो उसका वैसा है (बट) लेकिन पूरी तरह से जानकारी रखते हैं कि यही चीज़ सही है। लेकिन उसका मार्ग क्या होना चाहिए? हमारे उत्क्रांति में हमने उसका मार्ग कैसे पाया है। जैसे कि एक जानवर है उससे आप कहिए कि किसी गन्दी गली से चले जाओ, तो वो चला जायेगा। उसको कोई ये प्रश्न नहीं खड़ा होगा, कि इसमें बदबू आ रही इसमें गंदगी है, कुछ है, वो अपना सीधे-सीधे चला जायेगा। पर एक इंसान से कहिए तो वो नहीं जा सकता है। वजह ये है कि आपकी जो सगन्या है, आपकी जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र है (सेंट्रल नर्वस सिस्टम) उसपर आप महसूस करते हैं कि ये गंदगी है। ये आपने अपनी उत्क्रांति में पाई हुई चीज़ है। जो चीज़ आपने पाई है वो आपने सेंट्रल नर्वस सिस्टम में पाई है, और इसी प्रकार आत्मा को भी आपको सेंट्रल नर्वस सिस्टम में पाना चाहिए। नहीं तो अपने को ही लोग कहें, 'हम बड़े हैं, हमने पा लिया है, हम पहुँचे हुए हैं, हम पार हैं,' इस तरह से अपने को ही सर्टिफिकेट कोई दे दे, तो वो मानने की बात नहीं। लेकिन जब कोई चीज़ ऐसी हो जाती है, तो उसकी शक्तियाँ भी प्राप्त होनी चाहिए। माने ये कि अगर कोई कहे कि, 'मैं गवर्नर हूँ,' तो उसके पास अपनी शक्ति होती है गवर्नरशिप की। इसी प्रकार जब अपनी आत्मा को आप प्राप्त होते हैं, तो उस आत्मा की शक्ति को आप प्राप्त होते हैं। अगर उस शक्ति को आप अपने सेंट्रल नर्वस सिस्टम, फिर मैं कहूँगी, अगर प्राप्त नहीं कर सकते, सिर्फ दिमागी जमा-खर्च है, तो वो शक्ति नहीं। माने सबसे पहले आपको सामूहिक चेतना प्राप्त होती है। सामूहिक चेतना, जिसे कि कलेक्टिव कॉन्ससियसनेस कहते हैं, जिसमें आप दूसरों के चक्रों को जान सकते हैं, अपने भी चक्रों को जान सकते हैं, क्योंकि सबसे पहले तो आप अपने ही को प्राप्त होते हैं, अपनी आत्मा को प्राप्त होते हैं। जिसको कहते हैं सेल्फ रियलाईज़ेशन, माने अपने सेल्फ ही को आप जानते हैं, कि आपके अंदर क्या दोष है। दूसरी चीज़ है, आप अपने उँगलियों के इशारों पर जान सकते हैं, कि दूसरों में क्या दोष है। यही सामूहिक चेतना का अपने सेंट्रल नर्वस सिस्टम पे जागृत होना, अपने मज्जा तंतुओं पे जागृत होना ही आत्मसाक्षात्कार है। ज़बानी जमा-खर्च नहीं है, तर्क-वितर्क नहीं है, शब्द-जाल नहीं है, किसी का कुछ कह देना कि, 'तुम ये योगानंद हो गए, भोगानन्द हो गए, उससे नहीं होता है। कोई सर्टिफिकेट से नहीं होता है - ये अंतर्योग है। ये क्रिया जीवंत क्रिया है, जीवंत शक्ति की क्रिया है, जो जीवंत मनुष्य में होती है और जो उसमें पूरी तरह से उसका प्रत्यय देती है, उसका प्रमाण देती है। किन्तु हम लोग कोई भी बाह्य चीज़ों में पहले लिपट जाते हैं। ये एक अंदर से होने वाली घटना है। अब जैसे बहुत से लोग हैं, कहते हैं कि गेरुआ वस्त्र पहनना चाहिए। गेरुआ वस्त्र पहनने से आप सन्यासी हो जाएंगे। बाह्य के दो रुपए में अगर कपडा आप रंगा लें, तो क्या आप सन्यासी हो जाएंगे? गेरुआ वस्त्र पहन के आप सब की प्रॉपर्टी मारते फिरते हैं। आप सन्यासी कहाँ से हो गए? आपकी नज़र तो सारी सब के जेब पर है, आप सन्यासी कैसे हो गए? गेरुआ वस्त्र किसलिए पहना जाये - अंदर का गेरुआ पहनिए। जब आपने अंदर से गेरुआ पहन लिया, तो बाह्य में तो आप राजा जनक जैसे विदेही हो जाते हैं। फिर जहाँ भी रहिए, चाहे महलों में रहिए, चाहे जंगलों में रहिए, कहीं भी रहिए - आप बादशाह हैं। माने दुनिया की कोई सी भी चीज़ आपको जीत नहीं सकती, कोई भी चीज़ आपको खींच नहीं सकती आप किसी के सामने झुक नहीं सकते, कोई आपको खरीद ही नहीं सकता है। ऐसे अनमोल हीरा जब होते हैं, तभी मानना चाहिए कि आदमी पहुँचे हुए हैं। नहीं तो जो देखे वो ही आपको खरीद ले। जो देखे आपको रुपए से खरीद ले या किसी और चीज़ से खरीद ले। तो फिर आपमें और दूसरों में क्या अंतर रह गया? मैं तो कहती हूँ दूसरों से भी गए बीते आप हैं कि आप दूसरों के पैसे पे जी रहे हैं। कम से कम जो मनुष्य संसार में रहता है, वो अपने ही तो कमाई पे जी रहा है, दूसरों की कमाई पे तो नहीं जीता है। सन्यासी वस्त्र पहन कर के आप दूसरों की कमाई पे जी रहे हैं, तो इससे फायदा ये, कि वस्त्र को छोड़ के कायदे से कमाई करिए। पर अधिकतर लोग, जो और कोई कमाई नहीं कर सकते, वही इस तरह की कमाई करते हैं। लेकिन हमारे बुद्धि में भ्रम है, कि हमने जैसे ही काषाय वस्त्र देखा, हो गया उसके पीछे हम लोग लट्टू। खासकर हमारी लेडीज में ये खासकर बात है। आज ही मैंने देखा कि सब औरतें जिनके गुरु थे, वो पार नहीं हुए, उनके पति लोग पार हो गए। धर्म के प्रति जब हमारी दृष्टि उठती है तो इस प्रकार कि जब हम गलत चीज़ है, उसी को मान लेते हैं - ये तामसिक प्रवृत्तियाँ हैं। और जब धर्म से हमारी प्रकृति हटती है, तो हम यही नहीं जानते कि सही क्या और गलत क्या। इसी दुविधा में रहते हैं कि सही क्या गलत क्या? जैसे कि पाश्चिमात्य देशों में लोग हैं, उनको यही नहीं पता है कि सफ़ेद क्या और काला क्या? ऐसे लोगों को यही कहा जाता है, कि सिर्फ अहंकार के बूते पे जो आदमी चलता है, वो यही कहता है कि, 'मुझे ये पसंद है इसलिए ये अच्छा है, मुझे ये पसंद है।' पर कौन है वो जो उसे पसंद है - वो तो तुम्हारा सिर्फ अहंकार है। जब अहंकार खुश होता है, तो आदमी कहता है कि, 'मैं तो आज सुख में हूँ।' जिस दिन अहंकार दुखता है, तो कहता है, 'मैं दुःख में हूँ।' अहंकार के बूते पे रहने से, मनुष्य इसी चक्कर में पड़ा रहता है, 'पल में तोला पल में मासा।' लेकिन जब आप अपने आत्मा पर आ जाते हैं, तो आत्मा सत्य स्वरुप तो है ही, लेकिन ये आनंद स्वरुप भी है। यही आनंद दायक है और आनंद किसी से नहीं प्राप्त हो सकता। अगर कोई कहे कि, 'मेरे पति अच्छे नहीं हैं, मेरी पत्नी अच्छी नहीं है, मेरे बाप अच्छे नहीं, मेरी माँ अच्छी नहीं, इसलिए मैं दुखी हूँ या समाज के कारण मैं दुखी हूँ,' तो जान लेना चाहिए, इसलिए आप दुखी नहीं हैं, आपने वो स्त्रोत पाया नहीं जिससे कि आनंद मिलता है; वो है आपका आत्मा, जो आप ही के अंदर निहित है। इस आत्मा को प्राप्त करना चाहिए, जिसके अंदर सुख दुःख की दुविधाएं नहीं हैं - जो सिर्फ निरानंद है । उस निरानंद को प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि सुख दुःख के झमेले में पढ़कर के मनुष्य कभी सुख में कभी दुःख में चलता है। वो अविनाशी चीज़ नहीं है। एक बार इसका विनाश होता है, कभी उसका विनाश होता है। इसलिए मनुष्य को, आत्मा का जो स्वरुप आनंद है, उसे प्राप्त होना चाहिए। सत्य सरूप आनंद ऐसे हैं, कि जिस वक़्त आप आत्मा को प्राप्त होते हैं, आप के हाथ पर आप जान सकते हैं सत्य क्या है। समझ लीजिए आप से कहा गया कि, 'फलाने मंदिर में स्वयंभू देवता हैं।'- समझ लीजिए अब किसी ने कह दिया तो हो गया। हो सकता है कि उसी ने लाकर के वहाँ बिठा दिए हो, कहे स्वयंभू आ गए। कैसे जानिएगा कि ये स्वयंभू हैं? कैसे पहचानियेगा कि ये स्वयंभू हैं?
उसको पहचानने का तरीका ये है, कि जब आप आत्मा से प्राप्त होते हैं, तब आपके अंदर से चैतन्य की लहरियाँ, जिसे कि सौंदर्य लहरी कर के आदि शंकराचार्य ने वर्णित किया है, आपके अंदर से बहने लग जातीं हैं। और आप उसे जान सकते हैं कि ये असल है या नक़ल है। एक बार हम लोग कश्मीर गए थे। कश्मीर में घूमते-घूमते एक जगह बड़ी ज़ोर की मुझे चैतन्य की लहरियाँ महसूस हुईं, तो मैंने ड्राइवर से पूछा, 'यहाँ कोई बड़ा पुराना मंदिर हैं किसी का।' कहने लगे, 'नहीं, ये तो जंगल है।' मैंने कहा, 'अच्छा, चलो इस तरफ चलो।' रास्ते से गुज़रते-गुज़रते आगे गए तो कुछ गरीब मुसलमानों की झोपड़ियाँ-ओपड़ियाँ दिखाई दीं। तो उनसे पूछा, "भई, यहाँ कोई मंदिर-वंदिर है।" तो, 'नहीं।' कहने लगे कि, 'यहाँ एक चीज़ है, हज़रतबल।' मैंने कहा, 'अच्छा।' मोहम्मद साहब का एक बाल वहाँ रखा हुआ था; पाँच मील दूरी पर उसको मैंने पकड़ा। अब ये मुसलमान भी नहीं जानते हैं जो उसके लिए लड़ते हैं। नमाज़ पूरा कुण्डलिनी का जागरण है। मोहम्मद साहब का वर्णन अपने शास्त्रों में महामेधा करके है। लेकिन ये मुसलमान क्या जानें और हिन्दू क्या जानें जब तक आत्मा को प्राप्त हम नहीं करेंगे, तब न हम कृष्ण को जानें और न ही हमने राम को जाना है। जब वो अकबर की बात करते हैं, तो श्री कृष्ण की बात करते हैं, विराट की। क्या हम जानते हैं कि उनका और उनका बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध है। ईसा मसीह ने साफ़ कहा था कि, 'जो मेरे विरुद्ध नहीं हैं वे मेरे साथ हैं।' ये लोग कौन हैं। ईसाई लोग कभी इस बात को सोचभी नहीं सकते, कि साक्षात् महाविष्णु ही। इनका वर्णन देवी माहात्म्य में आता है। शायद बहुत कम लोगों ने पढ़ा होगा - वही साक्षात् जीसस क्राइस्ट थे। और जीसस का नाम येसु है - येसु, यशोदा से, और क्राइस्ट, कृष्ण से, उनकी माँ ने उनका रखा था। लेकिन इसको समझने के लिए, सबसे पहले आत्मा को आप प्राप्त हों। जिस वक़्त आपमें आत्मा की प्राप्ति होगी, आप देख सकते हैं, कि जो हम कह रहे हैं, सच है, झूठ है। अगर झूठ हो, तो आपके अंदर के चैतन्य बंद हो जाएंगे; अगर सच हो, तो बहना शुरू हो जाएंगे। अगर आप ये पूछें, कि परमात्मा है या नहीं, तो हाथ में ठंडी-ठंडी हवा ज़ोर से चलनी शुरू हो जाएगी। और अगर किसी गलत आदमी के लिए आप पूछें, कि ये आदमी सही है या नहीं, तो सामूहिक चेतना पर आप जान जाइएगा कि ये आदमी कैसा है। कभी-कभी हो सकता है हाथ में एक-आद ब्लिस्टर भी आ जाये। कल भी मेरे हाथ में एक ब्लिस्टर आ गया क्योंकि कोई गलत आदमी किसी गलत गुरु का आया हुआ था, तो एक छोटा सा ब्लिस्टर आ के समझा गया कि ये आदमी गलत गुरु के पास जाता रहा है। इस तरह से आप जान सकते हैं कि कौन सही है, कौन गलत है, बिलकुल अपनी ही चेतना में, अपनी ही अवेयरनेस में, अपनी ही केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में, आप जान सकते हैं कि कौन सही है, कौन गलत है, कौन सत्य है, कौन असत्य है। हर प्रकार का सत्य-असत्य आप इस पर जान सकते हैं। जैसी-जैसी आपकी उन्नति होती है, आप इतनी चीज़ें जान सकते हैं, जिसका आपको अंदाज़ नहीं हो सकता है। यहाँ बैठे-बैठे आप सब चीज़ जान सकते हैं। वजह ये है, कि जो आपकी टेलीकम्युनिकेशन्स (दूरसंचार) वगैराह हैं, इसकी भी कल्पना उसी जो सर्वव्यापी टेलीकम्यूनिकेशन है, उसी से आई हुई है। जब वो सर्वव्यापी टेलीकम्यूनिकेशन में आप उतर जाते हैं, तो सारे सृष्टि की जितनी चीज़ है, उसको आप समझ सकते हैं, इसीलिए कहा जाता है कि द्रष्टा। मार्कण्डेय को देखिए तो किस कदर द्रष्टा थे लेकिन अभी हमने सौ साल पहले के एक बड़े भारी दृष्टा का ज्ञान पाया जो कि लंदन में थे। उनका नाम था विलियम ब्लेक। उन्होंने सहज योग के बारे में इतनी गहरी बातें लिख छोड़ीं हुईं हैं, सौ साल पहले, कि लंदन में ये कहाँ होगा, इसके स्कूल कहाँ होएगा, इसका कॉलेज कहाँ होगा, इसका आश्रम कहाँ होगा, मेरा घर कहाँ होगा, मैं कहाँ रहूंगी पहले, फिर उसके बाद कहाँ जाऊँगी। हैरानी हो जाती है; इतने बड़े द्रष्टा थे और अँगरेज़ लोग कहते हैं कि वो पागल थे। अंग्रेज़ों के तो कभी समझ में नहीं आने वाले साधु-संत। उनका तो दिमाग ही ख़राब है। लेकिन हम, जिन्होंने कितने साधु-संतों को जाना है, या तो वो झूठ बोलते थे - और अगर वो सच बोलते थे, तो अपने आत्मा का हमें विचार करना चाहिए, कि हमने अपने आत्मा को प्राप्त किया है या नहीं। ये शब्द जाल नहीं होना चाहिए।अगर कोई आकर के आपके सामने शब्द जाल फैलाता है, बातचीत करता है, मनोरंजन आपका करता है, तो आप उसी से पूछो जाके। इस तरह से आप अपनी जो आध्यात्मिक दृष्टि है उसको कितनी छोटी कर लेते हैं। आध्यात्मित दृष्टि वहाँ तक रखनी चाहिए, जहाँ तक आत्मा का स्थान है। जब तक हमने आत्मा को प्राप्त किया नहीं, तब तक हमारी आध्यात्मिक तृष्णा कभी भी तृप्त नहीं हो सकती है। इसके लिए आपके रीढ़ की हड्डी के सबसे नीचे के हिस्से में, जिसे हम लोग सेक्रम बोन कहते हैं, उसके अंदर त्रिकोणाकार अस्थि में कुण्डलिनी नाम की शक्ति है। ये शक्ति साढ़े तीन वलय में है, कुण्डलों में है, इसलिए इसे कुण्डलिनी कहते हैं। आपको आश्चर्य होगा, कि ग्रीस में हम जब गए, तो अथीना - ये 'अथ' शब्द से आया - अथ माने प्राइमॉर्डिअल - प्रीमॉर्डिअल मदर अथीना है और उसके हाथ में साँप के साढ़े तीन ये करके, चक्र देकर के, हाथ में कुण्डलिनी है। उसका वहाँ पर न जाने कितने ही उसके स्टैचूस बने हुए हैं। और जब उसके मंदिर पे पहुँचे, तो बाहर गणेश जी की मूर्ती बनाई बैठी हुई है। मैंने पूछा कि, "भई ये कौन?" कहने, "यह बाल देवता हैं।" तो मैंने कहा, "ये किसने बताया आपसे?" कहने लगे, "हिन्दुस्तानियों ने बताया।" मैंने कहा, "कब, जब एलेग्जेंडर आया था तब?" "नहीं, नहीं एलेग्जेंडर तो बहुत बाद में गए थे। हज़ारों वर्ष पूर्व हमारा हिन्दुस्तानियों से सम्बन्ध रहा।" उन्होंने तो उस चीज़ को जोड़ लिया और हमको यही नहीं मालूम कि कुण्डलिनी क्या चीज़ है। इतना ही नहीं, आपको आश्चर्य होगा कि, उसकी जो सीढ़ियाँ हैं, वो भी उन्होंने कहा, 'ये साढ़े तीन हैं।' मैंने कहा, "क्यों?" कहने लगे, "अथीना की जो शक्ति है, वो साढ़े तीन राउंड्स में है, और अगर इस राउंड्स को आप पूरा करिएगा, तो ये सारी पृथ्वी पर चली जाएगी। ये साढ़े तीन क्यों है, इसका एक गणित है। इस गणित के वजह से ये साढ़े तीन है। हमें इसे, हम लोग कहते हैं महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती और आदिशक्ति की अर्ध मात्रा। इस प्रकार से ये साढ़े तीन कुण्डलिनी है। अब अगर आजकल के पढ़े लोगों के सामने महाकाली, महालक्ष्मी की बात करें, तो लोग कहेंगे कि, "माँ कहाँ की, बाबा आदम के ज़माने की बात कर रहीं हैं।" पर जो बाबा आदम के ज़माने की बात है, वो सब सच्ची है और वो सच्ची चलती रहेगी, उसकी सिर्फ सिद्धता आपको हमें देने की है। ये बात सिद्ध है या नहीं, ये सही बात है नहीं जो हमारे पूर्वजों ने बात करी, ये झूठ करी या सही कही ये आज आपको सिद्ध करके देने का है। पर ये आप ही से सिद्ध होगा। आप ही के अंदर जब आत्मा जागृत होएगी, तभी ये सिद्ध हो सकता है, नहीं तो नहीं हो सकता है। ये जो शक्ति है शुद्ध इच्छा है। बाकी जितनी भी हमारी इच्छाऐं है, अशुद्ध हैं। आपने इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्र) का लॉ (नियम) जाना है कि, 'व्यक्तिगत इच्छाएँ संतुष्ट हो सकती हैं, लेकिन सामान्यतः इच्छाएँ संतुष्ट नहीं हो सकतीं।' तृप्त करने योग्य नहीं इसका मतलब ये है, कि हमारी इच्छाएँ अगर शुद्ध हों तो वो इच्छा जब, जो इच्छा अगर शुद्ध इच्छा हो, तो उसके बाद कोई इच्छा ही नहीं रहनी चाहिए। लेकिन क्योंकि इच्छा शुद्ध नहीं थी, इसलिए एक इच्छा हुई, फिर दूसरी इच्छा हुई - आज हुआ मकान बनाओ, कल घर बनाओ, फिर तीसरा हेलीकाप्टर खरीदो। लेकिन जो शुद्ध इच्छा की शक्ति है वो एक है, और वो इच्छा ये है, कि हमारा योग इस सर्वव्यापी शक्ति के साथ होना चाहिए। यही शुद्ध इच्छा है। जब तक ये शुद्ध इच्छा पूरी तरह से प्लावित नहीं होती, तब तक कोई सी भी दुनिया की इच्छा से हम आनंद को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। लेकिन जैसे कल मैंने बताया कि योग के दो अर्थ होते हैं। एक तो अर्थ होता है 'योग' माने जोड़ना हमारे आत्मा से हमारा कुण्डलिनी का योग, या हमारे अंदर हमारे चित्त में सारी सर्वव्यापी शक्ति से योग होना - एक ये योग हुआ और दूसरा अर्थ योग का होता है, कौशलम माने एक्सपरटाइज़। एक बार ये शक्ति हाथ में लगने के बाद, ये आपको जानना चाहिए कि ये शक्ति क्या है, इसका असर क्या है, इसका उपयोग क्या है, इसको कैसे इस्तेमाल करना चाहिए और इसका लाभ किस तरह से हो सकता है। क्योंकि सहज योग जो है आज समाजोन्मुख है - एक दो व्यक्तियों के लिए आज सहज योग नहीं है। हज़ारों व्यक्तियों को पार करना है - हज़ारों व्यक्ति पार हो सकते हैं, ऐसा ये सहज योग है। एक आदमी को बैठा के पार करने की कोई बात नहीं रह गई कि व्यक्तिगत हो - ये समाजोन्मुख है। क्योंकि इसके लाभ समाज को होते हैं। सबसे पहले तो तंदरुस्ती इंसान की ठीक हो जाती है बगैर पैसे के, बगैर डॉक्टर के, बगैर डायग्नोसिस के, बगैर किसी चीज़ के। मानसिक स्थिति ठीक हो जाती है, साम्पत्तिक स्थिति ठीक हो जाती है, क्योंकि लक्ष्मी का तत्व ठीक हो जाता है। हमारे देश में लोग कहते हैं, कि आपके अंदर इतनी योग शक्ति है, आप लोग इतने योगी हैं, इतने आध्यात्मिक हैं, आप गरीब क्यों हैं? क्योंकि हमारे देश में कभी किसी ने योग प्राप्त नहीं किया। कोई पॉलिटिशियन ने कभी योग प्राप्त नहीं किया, बेकार के चक्करों में घूमते रहे - आज तक किसने योग प्राप्त किया है? जब अपने देश में योग की प्राप्ति होएगी, तो श्री कृष्ण ने साफ़ कहा है कि, 'योगक्षेम वहामायम।' पहले योग को प्राप्त करो। जब सुदामा जी श्री कृष्ण से मिलने गए तभी उनको क्षेम प्राप्त हुआ। इसी प्रकार जब तक हम परमात्मा के साम्राज्य में नहीं जाते हैं, ये परमात्मा की ज़िम्मेदारी नहीं रह जाती कि वो हमारे क्षेम को देखें। अभी तो आप जिनके राज्य में बैठे हैं ये उनकी ज़िम्मेदारी है। जिस वक़्त आप परमात्मा के साम्राज्य में उतरेंगे, तब वो परमात्मा की ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वो आपको क्षेम प्रदान करते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि आप पे रुपया ही बरसाते हैं - वो तो बहुत गलत चीज़ हो जाएगी। लेकिन ऐसी स्थिति आप प्राप्त करते हैं, कि समाधान में आप इतना प्राप्त होते हैं, कि किसी तरह से आपको कोई चीज़ की दिक्कत नहीं रह जाती और अब कोई मांग नही। "अब कुछ नहीं चाहिए, माँ हम आनंद के सागर में तैर रहे हैं," ऐसा आप कहने लग जाते हैं। इतना ही नहीं, आपके अंदर धर्म जागृत हो जाता है। अगर आपसे मैं कहूँ कि, "ये न करो, वो न करो, तो आप ज़रूर करेंगे।" इंसान की यही ख़ास चीज़ है। अगर कहा जाए कि, "आप ये नहीं करो," तो क्यों न करूँ, वो ज़रूर करेंगे। इसलिए बेहतर है आपके अंदर कुण्डलिनी जागृत कर दें, आपके अंदर धर्म की जागृति हो जाये और आप स्वयं ही धार्मिक बन जाएँ। यानी ईसा मसीह को ये नहीं बताना पड़ता था, कि तुम गलत काम मत करो। वो स्वयं ही नहीं करते थे। इसी प्रकार आपके अंदर स्वयं ही धर्म जागृत हो जाता है, हमें कुछ कहना नहीं पड़ता है। आज का सहज योग यही विशेष है, कि किसी भी तरह का क्यों न हो इंसान, उसकी पहले कुण्डलिनी जागृत कर दो। थोड़ा सा भी टिमटिमाता भी प्रकाश उसके अंदर अगर घूमने लग जाये, तो वो देखेगा, मेरे अंदर क्या गड़बड़ी है। उसी को उसका गुरु बना दो वो अपने को ठीक करता रहे, जिससे मुझसे झगड़ा न हो। वो खुद ही जानेगा कि ये दोष मेरे अंदर है, खुद ही ठीक करेगा अपने को। जब कभी हाथ में दिखाई दे कि साँप है, तभी न साँप को फेंकियेगा; अगर कहेंगे, "साँप है," तो आप फेंकने वाले नहीं। इसलिए थोड़ा सा न क्यों प्रकाश इंसान के अंदर अगर हो जाये, तो वो देखने लग जाता है कि प्रकाश कोई चीज़ है। और इससे परे कोई ब्रह्म शक्ति है। जब उसे वो जानने लग जाता है तो अपने आप ऐसी चीज़ें, जिसे वो पहले गलत नहीं समझता, एकदम से ही फेंक देता है। ये चीज़ घटित होनी चाहिए। जब तक कि ये चीज़ घटित नहीं होती है, भाषणों से, समझाने से, उपदेशों से, कुछ भी चीज़ होने वाली नहीं। आज सहज योग उस स्तर पे है, जहाँ पे मैं कह सकती हूँ, कि बहुत जल्दी इस का असर लोगों को मालूम पड़ेगा। लेकिन दुर्भाग्यवश आज तक मैं जयपुर नहीं आ सकी। और जयपुर आई भी हूँ तो उस सही दिन, जिसको कि हम गुड़ी पाड़वा मराठी में कहते हैं, जो शालिवाहन राजा ने हिंदुस्तान में बनाया था। लेकिन वो असल में, आप जानते हैं, महाराष्ट्र में राज्य करने गए थे और ख़ास उनका वंश जयपुर का था। उसी दिन मैं यहाँ आई हूँ और मैं उसी वंश की हूँ, मैं भी राजपूत ही हूँ लकिन अब बहुत सालों से, हज़ारों वर्ष से वहाँ रहने की वजह से, शालिवाहन के सब वंशज महाराष्ट्रियन हो गए। एक तरह से अच्छा भी है, क्योंकि महाराष्ट्र में जितना कुछ लोग कुण्डलिनी के बारे में जानते हैं सारे हिंदुस्तान में क्या, दुनिया में कोई नहीं जानता है। वहाँ पर नाथ पंथियों ने इतनी मेहनत करके रखी हुई है - मराठी भाषा में कुण्डलिनी के बारे में जितना लिखा हुआ है, किसी भाषा में लिखा हुआ आप नहीं प्राप्त करिएगा। हाँलाँकि कबीरदास जी ने काफी लिखा, लेकिन कोई पढ़ता थोड़े ही है। वो तो अखंड पाठ होता है, उसमें चलते रहता है अपना अखंड पाठ। एक आया, उसने ऊँगली रखी, 'भई, तू अब पढ़।' फिर वो आया उसने ऊँगली रखी। बस ये कि अखंड पाठ चलता रहे। उसके अंदर क्या है कोई सोचता नहीं। नानक ने लिखा है कि, 'कहे नानक बिन आपा चीन्हे मिटे न भ्रम की काई।" गा रहे हैं, 'भ्रम की काई, मिटे न भ्रम की काई।' अरे भई जो दवा लिख के गए हैं वो लो। दवा जो दिए हैं वो ही प्रिस्क्रिप्शन लेकर के घूमोगे, तो फायदा क्या होगा? कि वो ही प्रिस्क्रिप्शन कह रहे कि, 'मिटे न भ्रम की काई।' लेकिन लेगा कौन, करेगा कौन? सब ने कह दिया है, कि अपना आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करो। जो हम हिन्दू बनते हैं, इनके जो प्रवर्तक आदि शंकराचार्य, उन्होंने हर बार यही कहा है कि, 'ना योगे ना सांख्ये' ये सब बेकार चीज़ें छोड़ो, पहले आत्मा को प्राप्त करो - माँ की कृपा से ही ये होता है। लेकिन उनको लोग कहाँ मानते हैं? पता नहीं कौन सा वितंडवाद करते बैठे हुए हैं, पता नहीं कौन सी चीज़ शुरू की है?
जो सारे इसका मूलभूत तत्व है, वो अब हिन्दू धर्म में होते हुए भी, हिन्दू धर्म को एक अजीब तरह का झगड़े का माध्यम बना लिया है। जो कि सारी दुनिया की शांति का माध्यम हो सकता है, सारी दुनिया को सुख और सारी दुनिया का जो मार्गदर्शन कर सकता है, उसको एक तलवार बना के घुमा रहे हैं, जो कि सारी दुनिया की ढाल हो सकती है। बड़ा मुझे आश्चर्य होता है कि हो क्या रहा है? इसके मूलभूत तत्व को तो आपके बड़े-बड़े लीडरों से बात करने पर आश्चर्य होता है, कि इनको तो मालूम ही नहीं है कि सारे इसका मूलभूत तत्व है, आत्मा को प्राप्त करना और कुण्डलिनी का जागरण। इतने स्पष्ट रूप से किसी भी धर्म पुस्तकों में नहीं लिखा गया है जितना अपने शास्त्रों में लिखा गया है। और जगह लिखा है - जैसे बाइबिल में बहुत जगह लिखा है कि इसको ट्री ऑफ़ लाइफ (जीवन का वृक्ष) कहा गया है। 'मैं आग की लपटों की तरह तुम्हारे सामने उपस्थित होऊँगा,' कहा गया है। बहुत कुछ बातें कहीं हैं, लेकिन साफ़ एक-एक सिलसिले से बात जितनी मार्कण्डेय ने कही, आदि शंकराचार्य ने कही या कबीरदास जी, नानक जी ने कही, उतनी किसी ने नहीं कही। लेकिन उधर किसका चित्त है। हमारा तो चित्त ऐसी जगह ही जाता है जाना नहीं चाहिए। क्योंकि इन लोग का जैसे मैंने बताया है, सारा जो कुछ भी हुआ है, ये बाह्य का है। जैसे कि एक पेड़ बढ़ जाता है और उसके, वृक्ष के इतने बढ़ने पर भी, जब उसकी जड़ें अंदर उतरतीं नहीं, तो उसको गिरने की आशंका हो जाती है। इसी शॉक में आपका सारा वेस्टर्न वर्ल्ड आज बैठा हुआ है। लेकिन हिंदुस्तान में इसकी जड़ें हैं, इसका सारा धरोहर हिंदुस्तान में है, इसे आप प्राप्त करिए, आप इसके अधिकारी हैं। इस भारत भूमि पे जन्म लेने के लिए अनेक आपने पुण्य कर्म किए हैं। उसके सिवाए आप इस धरती पे जन्म नहीं ले सकते हैं। और आपने किया क्या है इस देश के लिए? इसकी जो इतनी बड़ी चीज़ है, उसको पाया नहीं, उसको जाना नहीं। उसको जानना चाहिए, उसको प्राप्त करना चाहिए। एक क्षण में ये कार्य हो सकता है। और इसलिए मैं आपके पास आई हुईं हूँ, कि इसे आप प्राप्त करें। सब आप ही का है - आपकी कुण्डलिनी आपकी माँ है। वो ही आपकी जन्मदात्री है। आपके आत्मा आपके अंदर हैं, जो कि परमात्मा का प्रकाश है। ये सब आप ही का धन आपको प्राप्त करना है, हमारा इसमें कोई लेना देना नहीं बनता। आशा है फिर बार-बार मेरा आना होगा जयपुर। यहाँ पर बहुत लोग मैंने देखे कि आस्थापूर्वक परमात्मा को पहचानते हैं, और ये कार्य और भी आगे बढ़ेगा। आज भी अगर कोई प्रश्न हो तो पूछिए। अच्छा रहेगा थोड़ा बहुत प्रश्न पूछ लें और उसके बाद इसका हम कार्यक्रम करेंगे, कि जिससे सब लोग प्राप्त करें उस आत्मा को, जिसकी बातचीत हुई है। साधक: अभी आपने बताया कि आत्मा को हमें प्राप्त करना चाहिए लेकिन आपने तरीका नहीं बताया कि आत्मा को प्राप्त कैसे करें? श्री माताजी: हाँ, आप तो पक्के साधक हैं। वो ही तो करने वाले हैं। ठीक है। इन्होंने पहले ही ये सवाल पूछ लिया, बड़ा अच्छा हुआ। ये रियल (सच्चे) साधक की पहचान है कि वो ये चाहते हैं कि, 'आत्मा की क्रिया पहले बताइये। माँ मुझे भूख लगी, मुझे खाने को दो,' बस ये असल चीज़ है। बहुत अच्छी ख़ुशी की बात है। साधक: और दूसरी बात है, ये जो चक्र आपने बताये थे (अस्पष्ट) बताने के लिए, इनका क्या फिजिकल एक्सिस्टेंस है वास्तव में अंदर या हमारी एक कल्पना है कि ऐसी होती है? श्री माताजी: नहीं, वास्तविक है बेटा, वास्तविक है। शारीरिक, मानसिक, भावात्मक - वास्तविक, शक्ति है, माने, शक्ति के पुंज हैं, शक्ति के पुंज हैं। साधक: स्थूल रूप है कोई? श्री माताजी: स्थूल भी रूप है। स्थूल रूप है, कि उस जगह में, आपकी जिस जगह आपका चक्र ख़राब हो जाएगा, आप देखिएगा कि आपके जो पीठ के मनके हैं, वो बाहर निकल आएंगे। स्थूल रूप से भी असर करती है, पर शक्ति के पुंज हैं, वो शक्ति के पुंज हैं। साधक: साढ़े तीन जो कुंडली है श्री माताजी: हाँ साधक: ये कहाँ, कौन सी जगह है? श्री माताजी: कहाँ? साधक: साढ़े तीन जैसी ये बता रहे हैं श्री माताजी: हाँ साधक: ये कौन सी जगह है, ये कौन सी हड्डी के पास है? श्री माताजी: वो तो मैं बता रहीं हूँ, सेक्रम बोन (हड्डी) के अंदर - त्रिकोणाकार अस्थि जो है, उसके अंदर है। ये देखिए नीचे में, यहाँ पर। जो नीचे में पीठ, रीढ़ की हड्डी के नीचे में एक त्रिकोणाकार अस्थि है, उसके अंदर। साधक: उसके अंदर है? श्री माताजी: जी हाँ, उसके अंदर ये शक्ति है। साधक: जिसमें ये रहता है ये मेरु.... श्री माताजी: मेरुदंड के नीचे साधक: अंदर श्री माताजी: हाँ, मेरुदंड के नीचे ये शक्ति है पर मेरुदंड वहाँ भी है; मेरुदंड की वो दुम है समझ लीजिए साधक: जहाँ एनस और ये मिलता है?
श्री माताजी: नहीं, उससे ऊपर। त्रिकोणाकार अस्थि ऊपर से - उसके ऊपर है। साधक: कुण्डलिनी जागरण से पहले नाड़ी शोधन ज़रूरी है? श्री माताजी: नहीं, कोई ज़रूरी नहीं, कोई ज़रुरत नहीं। साधक: कुण्डलिनी जागरण के लिए शक्ति पात की ज़रुरत है? श्री माताजी: नहीं, बिलकुल नहीं है। ये शक्ति पात, एक नई बीमारी निकल आई है। बिलकुल ज़रुरत नहीं। ये तो मैं बहुत ही घबड़ा गईं हूँ इसको सुन कर के। मैंने अभी - आप बैठ जाएँ। इनकी बात बता दें भैया ये शक्ति पात की बात ज़रूर समझा दें; मैं तो माँ हूँ न, मुझे बड़ी घबड़ाहट होती है। वहाँ पर एक साहब आये। वो मुझे कहने लग गए कि 'अरुणोदय, बरणोदय' क्या-क्या बताने लग गए मैंने कहा ये कहाँ से आया भई? तो कहने लग गए, "वो फैलाने हैं, उन्होंने एक किताब लिखी थी कि उसमें शक्ति पात होना चाहिए।" मैंने कहा, 'देखो, तुम जाति के ब्राह्मण हो,' - जाति के ब्राह्मण थे। 'तुमको एक बात समझनी चाहिए कि जो भी ज्ञान है, वो भी उत्क्रांति में पाया गया। उसकी भी परंपरा होनी चाहिए। ये कहीं बीच में से ही एक आप निकालिए। जैसे रजनीश ने नियो संन्यास निकाला, किसी ने कुछ और (अस्पष्ट) निकाल दी, इन्होंने एक और तीसरी निकाल ली। इस तरह से आप कोई चीज़ नई नहीं निकाल सकते।अगर पेड़ में अगर फूल लगने हैं, तो वो कायदे से पहले मूल से ऊपर आते हैं, तब उसमें फूल लगते हैं, जो जीवंत चीज़ है। लेकिन ये तो आप इधर से एक उठा के लाते हैं, शक्ति पात करते हैं, कहीं हाथ में ये लेकर - ये सब कहीं शास्त्रों में वर्णित नहीं है - ऐसी चीज़ हमको माननी ही नहीं चाहिए। पर ये अपील करती है इंटेल्लेक्टुअल्स (बुद्धिजीवों) को क्योंकि कोई नयापन लेकर के आती है। नयापन तो होता ही है। आज सहज योग भी एक नयापन लिए है लेकिन इसका आधार है। साधार होनी चाहिए। जब तक इसका आधार नहीं, इसका कोई अर्थ नहीं लगता। साधक: इसमें गुरु की आवश्यकता क्यों पड़ती है? श्री माताजी: हाँ गुरु की आवश्यकता है, लेकिन माँ जो है, वो एक प्रकार की गुरु ही समझ लीजिए। लेकिन हम अपने को गुरु-वुरु नहीं मानते हैं क्योंकि जैसे अभी हम आये, तो आपने कहा कि, "माँ आप आ गए, तो हम कैसे बैठें?" ठीक है आपने कहा। लेकिन कोई माँ के सामने खड़ा थोड़े ही होता है। माँ है। माँ के सर पे भी बैठिए, तो भी माँ है, चाहे पैर पर भी आइये, तो भी माँ है। माँ और गुरु में बड़ा अंतर है, बहुत बड़ा अंतर है। हम तो देखते हैं कुछ-कुछ गुरुओं को - तो वो तो मार हालत खराब है, जो असल हैं। हालत खराब कर देते हैं एक-एक की। साधक: ये (अस्पष्ट) के ऊपर होती है या (अस्पष्ट) के मुँह में? श्री माताजी: किसमें? शिश्न के ऊपर। हाँ, ये पॉइंट आपने ठीक कहा है, ये पॉइंट ठीक कहा है। बहुत ज़रूरी चीज़ है, इसको मैं समझा दूँ। तो समझ गए न आप? तो वो नहीं। आपकी बात ज़रूर है ये बड़ा कनफ्यूशन है। कि ऊपर है या नीचे है - ऊपर है। नीचे में जो है, वहाँ पर मूलाधार चक्र है, जिसमें गणेश जी बैठे हुए हैं। ऊपर में गौरी का स्थान है जो कन्या का है। ये बड़ी गड़बड़ कर दी है लोगों ने क्योंकि, हो सकता है माँ स्वरुप होने की वजह से, हम ऐसा एकदम नहीं कहेंगे, कि इतने महादुष्ट ही रहे होंगे लेकिन गलत फहमी में, इन्होंने गणेशजी को सूँड़ को समझा होएगा कि ये कुण्डलिनी, क्योंकि बाह्य से देखा, अंदर से तो गए नहीं। लेकिन ये तो शुद्ध विद्या है, शुद्ध कन्या है, जो गौरीजी हैं बैठीं हुईं हैं। और उसके नीचे गणेशजी अपनी माँ की रक्षा के लिए बैठे हैं, लेकिन तांत्रिक लोगों ने इसको शिश्न से बना दिया और जब आप - आप सोचें कि माँ को किस लेवल पे ले आये। आप सोचिये, आप हिंदुस्तानी हैं। ये तो फ्रायड की थ्योरी हो गई। माँ को इस लेवल पे ले आये और तब ये धंधे करते हैं, क्योंकि व्यभिचार है। व्यभिचार करने से देवी उठ जाएगी और चाहे जो करो। यही तांत्रिकों ने कमाल करके रखी है कि त्रिकोणाकार अस्थि के नीचे में गणेशजी बैठे हैं और अपनी माँ की लज्जा रक्षण कर रहे हैं। वो छोड़ कर के उसको शिश्न पे बिठा दिया तो हो गया - आपने माँ को कहाँ बिठाया? हिंदुस्तान में ऐसा आदमी मुश्किल से मिलेगा जो माँ की पवित्रता नहीं जानता है। साधक: मैं जालंधर गया था, (अस्पष्ट) वो गुरूजी हैं, जालंधर में श्री माताजी: यही सब सिखाते हैं, शिश्न में बैठी हुई है?
यही तो सब है। साधक: एक बात और है साहब कि हम कुछ यहाँ पर थोड़े से व्यक्ति पढ़े लिखे हैं। मैगज़ीन, बुक्स वगैरा हम थोड़े से लोग पढ़ते हैं। आज कल हमारे भारत देश के अंदर जहाँ पर 80% लोग ए बी सी डी ऍफ़ नहीं जानते, सुबह से शाम तक काम करके अपने जीवन 80 साल, 70 साल गुज़ार देते हैं, तो इसका क्या अर्थ हुआ, कि उन लोगों का जीवन बिलकुल व्यर्थ गया? श्री माताजी: नहीं, नहीं बिलकुल भी नहीं। साधक: उसपर आपके क्या कमैंट्स हैं? श्री माताजी: नहीं, नहीं वो तो सभी, ज़्यादातर वो सहज योग में आते हैं, बनिस्बत इसके कि जिन लोगों के पास समय है। जिनके पास समय वो तो क्लबों में रहते हैं। जिनके पास समय नहीं है, वही आते हैं। लेकिन सहज योग की एक विशेषता ये है, कि जब आप इसको प्राप्त करते हैं - जैसे हम देहातों में ज़्यादातर बेटे काम करते हैं शहरों में कम - और देहात में जब लोग आते हैं, पार हो जाते हैं, एक तो उनकी गन्दी आदतें सब छूट जातीं हैं सब उनके व्यसन छूट जाते हैं, और इतना आदमी डायनैमिक हो जाता है कुछ पूछिए नहीं। एक बार ऐसे ही जा रहे थे खेती में; देखा एक खेत बड़ा लहलहा रहा था। हमने कहा, 'ये किसका खेत है?' तो कहने लगे, 'एक सहज योगी का।' मैंने कहा, "अच्छा, क्या किया?" कहने लगे, "कुछ नहीं माँ, इसमें मैंने चरणामृत थोड़ा डाल दिया था मेरे इसमें, उसके वाई विब्रेशन्स से ही यह इतना लहलहा गया। तो एक ऑस्ट्रिया के हमारे सहज योगी था; मैंने उससे कहा कि, "अच्छा, तुम इसपर एक्सपेरिमेंटेशन (प्रयोग) करो।" उसने एक्सपेरिमेंट किया, वो इतना हैरान हो गया, कि जब उसने पानी, सादा पानी दिया तो - मेज़ (मक्का) पर उसने किया था - जिसको भुट्टा कहते हैं; भुट्टे का पेड़ इतना ऊँचा था जिस वक़्त उन्होंने विब्रेटेड पानी से किया इतना ऊँचा - उसके उसने फोटो बनाये। और ये बड़ा भारी एक साइंटिस्ट है, जो कि यू.एन. में एम्प्लॉयड है। और उसने उसपर पेपर लिखा हुआ है; अभी हम गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया (भारत सरकार) को हम भेजने वाले हैं। पर वहाँ किसके पूछने वाला है, कौन देखने वाला है। उनके टाइम ही नहीं। सबको दूसरी बीमारियाँ हैं। यहाँ तो किसी को टाइम ही नहीं है न। जो लोग पूरे दिन काम करते हैं, उनको टाइम है भगवान के लिए। साधक: कहा जाता है, कि जो व्यक्ति अपनी रोटी चौबीस घंटे में से कम समय में कमा लेता है, उसी के दिमाग में ये अधिकतर बातें आतीं हैं श्री माताजी : खुराफ़ाती! साधक: कि ईश्वर क्या है, भगवान क्या है ? श्री माताजी: नहीं, नहीं, उनके कम आती हैं। साधक: जो व्यक्ति सुबह से शाम तक अपनी मेहनत करता है श्री माताजी: उसको ज़्यादा आती है, बेटे साधक: सामने काम को रखते हुए और किसी बात का ध्यान नहीं करता है। इस (अस्पष्ट) उस व्यक्ति के जीवन अपने आप मोक्ष किसी ऊपर की शक्ति से वो अपने पुनर्जन्म की (अस्पष्ट) से बच जाता है - क्या ऐसा माना गया है? श्री माताजी: नहीं, नहीं ऐसा नहीं है। जो लोग बहुत काम करते हैं, जिसको आप कह रहे हैं, वर्कोहॉलिक जिसे कहते हैं - उनकी बात तो नहीं कर रहे हैं आप? साधक: नहीं सर जो लोग देहात श्री माताजी: नहीं - मतलब देहात में जो लोग हैं साधक: जी हाँ श्री माताजी: देहात के लोगों की बात। अपना देश तो देहात में रहता है। हाँ, तो देहात के लोग जो हैं, वो तो बहुत आसानी से पार हो जाते हैं और होने के बाद डायनैमिक(गतिशील) हो जाते हैं। लेकिन जो शहरों में वर्क ऐलकोहॉलिक्स हैं, उनका इलाज तो कोई भी नहीं कर सकता - वो भी नहीं कर सकते, वो तो बेकार हैं। लेकिन दूसरे, जो कि, जिनके पास फुर्सत ज़रुरत से ज़्यादा है, जैसे जो घडी बाँध कर के हमेशा घूमते हैं उनसे पूछिए कि, "मुझे लंदन जाने का है।" "भई क्यों, इतनी मारामार क्यों?"
"मुझे वहाँ जाकर बॉल अटैंड करने का है।" आधा टाइम - आप सोच लीजिए - हम लोग - अब हमारी उमर, अब चौसठवाँ साल हमारा चल रहा है; हमने ज़िन्दगी काफ़ी देख ली। पहले न तो इतनी पार्टियाँ होतीं थीं, न कुछ होता था - असली दोस्ती रहती थी। आजकल रोज़ ही पार्टी। इसके घर ख़ाना ख़ाने जाओ, उसके घर ख़ाना ख़ाने जाओ। लंदन में तो पाँच-पाँच रिसैप्शन्स अटैंड करने पड़ते हैं। टाइम बर्बाद करने का पूरा इंतज़ाम करने के बाद, हम क्या कहें, कि हमारे पास टाइम नहीं है। टाइम तो बहुत ज़्यादा हो गया है, क्योंकि सब चीज़ें सहूलियत से मिलने लग गईं। आपके सब चीज़ें इतनी सहूलियत हो गई - आपका खाना आसानी से पकने लग गया है, आपको चीज़ें इतनी सहूलियत से मिलतीं हैं, लेकिन बर्बाद करने का इंतज़ाम भी बहुत हो गया है। हम इतना टाइम बर्बाद करते हैं सुबह से शाम तक जिसकी कोई हद्द नहीं है। पर अगर कोई सोचे कि थोड़ा सा समय परमात्मा के लिए देना है, तो इत्ते से एक क्षण में भी, परमात्मा आपके साथ हो सकते हैं। आप बोलिए। साधक: माँ सेक्स के द्वारा बच्चों को जन्म देती है श्री माताजी: ऐ? साधक: माँ सेक्स के द्वारा ही बच्चों को जन्म देती है, यह तो कहा जा सकता है, लेकिन आपने कुछ ऐसे कहा जैसे अवांछनीय हो श्री माताजी: माँ सेक्स से जन्म देती है - ये तो गलत स्टेटमेंट हुआ बेटा। स्टेटमेंट गलत हो गया, स्टेटमेंट गलत है। साधक: अस्तित्व तो है ही। (अस्पष्ट) श्री माताजी: नहीं, नहीं सेक्स बुरी बात तो मैंने नहीं कही, मैंने नहीं कही। लेकिन पत्नी के साथ सेक्स होता है, माँ के साथ तो नहीं। साधक: बच्चे को जन्म देती है। श्री माताजी: हाँ, बच्चों को जन्म देना सेक्स का काम नहीं है। बच्चे को जन्म देना सेक्स का काम नहीं है। सेक्स तो पति-पत्नी में होता है ना, बच्चे से तो नहीं होता। बच्चे से तो पवित्र रिश्ता है। साधक: माँ भी पत्नी होती है श्री माताजी: हैं? साधक: माँ भी पत्नी होती है श्री माताजी: पत्नी होती है, लेकिन पवित्र रिश्ता है। माँ से तो पवित्रता है, ये तो मानना चाहिए। साधक: कुंडलिनी जागरण द्वारा क्या अंदरूनी गर्मी बढ़ गई होती है (अस्पष्ट) श्री माताजी: कुछ नहीं, बिलकुल नहीं होता। ये तो गलत लोगों के पास जाइए जो कि माँ से ही खेलते हैं, उनको होता है। जो गलत काम करते हैं उनसे ही होता है। जो इस तरह की चीज़ें करते हैं, जिनका चरित्र स्वयं ठीक नहीं है, उनसे होता है। वो लोग, ऐसे लोगों के पास जाने से न जाने क्या-क्या - एक साहब के तो पूरे यहाँ से यहाँ मैंने ब्लिस्टर देखे। वो कहने लगे, 'मेरी कुंडलिनी जागृत हुई।' दूसरे साहब पागल जैसे दौड़ रहे थे। मैंने कहा, 'क्या हुआ?' कहने लगे, 'मेरी कुंडलिनी जागृत हो गई।' मैंने कहा, "ये कैसे?" कहने लगे, "बस जैसे कोई बर्रिया मुझे काट रही है; सब बर्रिया मेरे बदन में काट रहीं हैं। और सारी दुनिया भर में पागल जैसे घूम रहे थे। मैंने कहा, "ये किसके पास गए?" कहने लगे, "वो फलाने साहब थे, तो उन्होंने मेरी कुंडलिनी जागृत की।" तो मैंने कहा," उनकी हुई थी?" कहने लगे, "उनकी भी ऐसी ही हुई थी।" मैंने कहा, "अच्छा! तो फिर तुम क्यों गए उसके पास?" जब उनकी ऐसी कुंडलिनी जागृत हुई थी, तो वो तुम्हारी भी ऐसी ही करेगा। भई जब सामने का आदमी ऐसा हो रहा है, तो तुम काहे उसके पास गए? लेकिन इंसान बड़ा अजीब है। शराबखाने से आदमी आता है, गिरता है उसके सामने, और ये उसको लांघ कर आगे चला जाता है। इंसान की बुद्धि का क्या कहें?
साधक: वैसे ये कुछ ऐसे ही वो होते हैं, जैसे ततैया काट रही है, जैसा ऐसा कुछ साधना की तरफ जाता है आदमी। श्री माताजी: हाँ, गलत चीज़ की तरफ जाइए तो होगा ही। अगर मर्यादा आप लाँघिये तो होगा ही। तो होता है ना ये। सब दुनिया भर की चीज़ें होतीं हैं, पर वो तो गलत चीज़ है न। गलत चीज़ से आप साधक: (अस्पष्ट) नहीं है क्या कि कुंडलिनी जागृत हो रही है, अगर ऐसा कुछ हो रहा है, ये बर्रिया काटने जैसी स्तिथि आती है, तो ये क्या उसका कोई पहचान है कि, 'हाँ, ये जागृत' श्री माताजी: नहीं, नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं। उसकी पहचान एक ये है कि आपके सर में से, यहाँ तालु में से ठंडी-ठंडी हवा आती है हाथ में ठंडी-ठंडी हवा - ये इसकी पहचान है। चारों तरफ इसकी ठंडी-ठंडी - 'सलीलम, सलीलम' वर्णन है। 'सलीलम, सलीलम' चारों तरफ ठंडा-ठंडा सा लगता है। साधक: ऐसा ऐसा कोई नहीं शरीर में दर्द पैदा होती हो? श्री माताजी: नहीं, नहीं कुछ नहीं, दर्द-वर्द कैसे, ये आपकी माँ है। वो सारा साधक: दर्द नहीं, जैसे ये कम्पन, कम्पन पैदा होता हो? श्री माताजी: नहीं, होना नहीं चाहिए। अगर कोई गलत चीज़ हो अंदर, तो थोड़ा कम्पन हो जा सकता है। थोड़ा बहुत होता है। अगर कोई अंदर गलत चीज़ हो अंदर, उसको सही करने में थोड़ा बहुत होता है कम्पन, लेकिन ऐसा कोई दुखदाई नहीं होता है। साधक: ये कुंडलिनी जागृत जो होती है, वो कुछ समय के लिए होती है, कुछ परमानेंट टाइम के लिए होती है? श्री माताजी: परमानेंट बेटे। साधक: (अस्पष्ट) श्री माताजी: हाँ, और क्या। साधक: इसका अनुष्ठान क्या है? साधक: तरकीब इसकी? श्री माताजी: वही तो, तरकीब ही तो बताने आये हैं। तरकीब साधक: (आपस में वार्तालाप) साधक: तो जाने वो जब कुछ होगा तब मालूम पड़ेगा। पहले इसका शुरुआत कैसे किया था (अस्पष्ट) श्री माताजी: आपको यही बताना है, पहले इनके सवालात तो हो जाने दीजिए। आप ठीक कह रहे हैं। बिलकुल आप सही हैं। साधक: हम तो स्कूल में पहले जा कर के बैठे, तो कक्का श्री राम जी हम तो लिखना चाहते हैं पहले - ये तो बड़ी बड़ी बातें हैं। श्री माताजी: बड़ी बात - वो बड़ी बात काहे करने की, सही बात कह रहे हैं। भई अगर आपको दिया जलाना है तो बताइये, बटन कहाँ है, ठीक करो। बाद में सीखते रहेंगे कहाँ से लाइट आई, क्या हुआ। ठीक बात कह रहे हैं आप। आप बहुत सही आदमी हैं। यही है, यही जो मैं कहती हूँ कि हिंदुस्तान के देहातों में ये चीज़ है। साधक: अब इसका बड़ा प्रूफ ये होगा सब से, कि जिस समय ये अनुभूति आएगी, इसमें कोई संदेह नहीं रहेगा। श्री माताजी: हाँ! साधक: मस्तिष्क या दिमाग अपने आप कहेगा कि ये हो गया। श्री माताजी: बस। और आप अपना सर्टिफिकेट दीजिए, हमें नहीं देने का है। बस सीधी बात। अभी आपके यहाँ ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनको अनुभूति आ गई है। लेकिन अभी आपको नहीं आई। और सही बात है कि अनुभव शून्य की बात क्या की जाए? ये तो सब अनुभव शून्य बात है - तो अनुभव को पाएं। जैसे आपने कहा ये तो बुज़ुर्ग हैं और समझदार आदमी हैं। ये समझदारी की बात है, बिलकुल समझदारी की बात है। साधक: आपके विषय में पढ़ा था कि आप छूकर ये एहसास करा सकते हैं। श्री माताजी: अरे बेटे, उसकी ज़रुरत नहीं। वो किसी को किया होगा छू-छा के, तो उन्होंने लिख दिया होयेगा लेकिन छूने की कोई ज़रुरत नहीं साधक: कई वर्ष पहले बहुत अरसा हो गया पढ़ा था कहीं, पाँच, सात, दस, बारह साल पहले। श्री माताजी: हाँ कोई कठिन जीव होएंगे, तो उनको छूना भी पड़ा होगा। क्या करें, कभी-कभी तो हाथ तोड़ने पड़ते हैं। साधक: कुंडलिनी शक्ति जागृत करने के लिए, कोई अवस्था भी ज़रूरी है (अस्पष्ट) श्री माताजी: हाँ? साधक: कुंडलिनी शक्ति जागृत करने के लिए, अवस्था चाहिए होगी? श्री माताजी: नहीं, कोई नहीं कोई नहीं साधक: क्योंकि बचपन में या किसी विशेष जीवन में (अस्पष्ट) श्री माताजी: कोई नहीं बेटे साधक: बच्चे को भी?
श्री माताजी: सबकी। बच्चों की तो सबसे पहले होती है। अच्छा अब ये साहब एक और कह रहे हैं कुछ नहीं तो इनकी बात ... बात ये है ना कि जिस वक़्त जागृति शुरू होगी तब आप ढूंढेंगे और कोई सवाल - ये नहीं पूछा, वो नहीं पूछा, इसलिए पहले आपको सैटिसफाइड (संतुष्ट) कर दें। हाँ फरमाइए। साधक: कुण्डलिनी और आत्मा में (अस्पष्ट) क्या होता है श्री माताजी: क्या कह रहे हैं? सहज योगी: कुण्डलिनी और आत्मा में सम्बन्ध क्या है? श्री माताजी: कुण्डलिनी जो है, ये आदिशक्ति है; आदिशक्ति का हमारे अंदर प्रतिबिम्ब है। और आदिशक्ति जो है, ये परमात्मा की शक्ति है। और परमात्मा का प्रतिबिम्ब हमारे अंदर आत्मा है। समझ गए? परमात्मा की जो शक्ति है, वो आदिशक्ति। सदाशिव की शक्ति को आदिशक्ति कहते हैं - परमात्मा की शक्ति। साधक: (अस्पष्ट) श्री माताजी: क्या कह रहे हैं? सहज योगी: आत्मा की तलाश और कुण्डलिनी की तलाश एक ही बात है? श्री माताजी: कुण्डलिनी की तलाश क्या करने की है? उसकी जागृति करने की है और वो ही खोज के, आपकी आत्मा लाकर के, आपके अंदर जागृत कर देती है। उसकी तलाश करने की ज़रुरत नहीं। किसी चीज़ की तलाश नहीं। साधक: जैसे कुण्डलिनी जागृत (अस्पष्ट) श्री माताजी: कुण्डलिनी? साधक: जैसे कुण्डलिनी आगे से चोट करने लगे श्री माताजी: हाँ? साधक: तो रास्ते के चक्र तो अछूते नहीं रहते होंगे? श्री माताजी: रास्ते के?
सहज योगी: कुण्डलिनी आज्ञा चक्र पे चोट करने लगे, तो जो रास्ते के चक्र हैं साधक: वो अछूते नहीं रहते होंगे श्री माताजी: सब खोलने पड़ते हैं। आज्ञा अगर आपका पकड़ा है, तो उसको खोलेंगे। देखते हैं, कहाँ है कुण्डलिनी; सब खोलने का काम तो करने का है, वही तो काम है। साधक: डायरेक्ट आज्ञा चक्र पे पहुँचा जा सकता है? श्री माताजी: डायरेक्ट आपके सहस्त्रार पे पहुँचाएँगे; आज्ञा चक्र क्या बात है। साधक: रास्ते के सब चक्र क्लियर होंगे तभी तो ऐसा होगा (अस्पष्ट) श्री माताजी: हैं? साधक: रास्ते में जो चक्र हैं श्री माताजी: सारे उसमें से सबका वो षट चक्र छेदन करती हुई तत्क्षण यहाँ से निकल आएगी। साधक: ऐसा नहीं होगा सीधा ही आज्ञा चक्र पे पहुँच जाए? श्री माताजी: नहीं, नहीं, यहाँ से निकलेगी साहब - तालु से, ब्रह्मरंध्र से ब्रह्मरंध्र से निकलेगी, तालु को छेदती है, वो षट चक्र भेदन करती है - आज्ञा चक्र पे नहीं रुकती है, ये तो खिड़की है सिर्फ, यहाँ से बाहर निकल आती है। अच्छा बेटे, बैठो। कुछ तो जानते ... साधक: अगर बहार निकल गई तो सभी चक्र सही समझो श्री माताजी : हाँ ये बैठे हैं दो चार, इनकी निकल आई है, इनसे तो पूछ लीजिए। साधक: ये क्रिया करने में किसी का मतलब जो है डीइक्विलिब्रियम भी हो सकता है? श्री माताजी: क्या नहीं होता है? सहज योगी: डीइक्विलिब्रियम श्री माताजी: अरे नहीं साहब आप सुकृत हो जाते हैं - विकृत क्या होएँगे? साधक: कोई ज़रूरी थोड़ा है कि हर आदमी जो है उसको रिअलिज़शन (आत्मसाक्षात्कार) करते ही अपने आपको इक्विलिब्रियम में स्थित कर सके? श्री माताजी: क्यों नहीं? साधक: कोई आदमी ऐसा होता है कि जो उसको प्राप्त नहीं कर पाए और अपने आपको विकृत करे श्री माताजी: विकृत हो जाए? ये कैसे होगा?
साधक: वो आपसे पूछ रहा मैं। श्री माताजी: आप तो ऐसी बात कर रहे हैं। जैसे समझ लीजिए आपने बीज को बोया। तो वो क्या बीज जब वो जब अंकुरित होता है, तो वो विकृत कैसे होगा? साधक: बीज तो कई उगते भी नहीं साहब। श्री माताजी: नहीं, उगते तो नहीं। वैसा तो है ही। कुछ लोग तो पार नहीं होते; ये तो बात सही है। नहीं होते - चलो मेहनत करेंगे। आज नहीं होंगे, कल हो जाएंगे; कल नहीं होंगे परसों होएंगे। हम तो मेहनत के लिए बैठे हुए हैं। उसमें घबड़ाने की कौन सी बात है। आप ज़रुरत से ज़्यादा घबड़ा रहे हैं। आप पार हो जाइएगा। बस पहले पार हो जाओ। अब बस। अच्छा बोलो क्या बात है? साधक: जागृति का तरीका। श्री माताजी: क्या कह रहे हैं? सहज योगी: जागृति का तरीका है? श्री माताजी: वही तो बता रहे हैं। अभी उसके लिए तो समय ही नहीं दे रहे हैं। पहले इधर-उधर की बात कर रहे हैं। अच्छा चलिए। बस वही बात ठीक है। जो बात आप कह रहे हैं सही कह रहे हैं, कि पहले जागृति होनी चाहिए, और कुछ नहीं चाहिए; ये तो सही बात कह रहे। यही तो चीज़ है। हाँ, अच्छा कुछ लोग सामने बैठ जाएं, आराम से। साधक: बिलकुल आज़ादी में। श्री माताजी: कोई घबराने की चीज़ नहीं है। कोई परेशानी की चीज़ नहीं है। इसमें किसी को कोई तकलीफ नहीं होगी। आप सामने बैठिये, बैठिये इधर। आपको तो ज़रूर पार कराना है मुझे। बैठिये इधर। आइये। पीछे ज़रा कुर्सियाँ खींच लीजिए। जितने आगे बैठना है बैठें, नहीं बैठना है, जैसे बैठ सकते हैं, बैठ जाइये। ऐसी कोई बात नहीं है। पर जहाँ तक हो सके आगे की तरफ आ जाएं, तो अच्छा रहेगा। साधक: आगे की कुर्सी में आ जाएं जो लोग पीछे हैं। श्री माताजी: अब जैसे हम कहेंगे, वो आप करिए, क्योंकि आप ही अपनी कुण्डलिनी जागृत करेंगे हम तो नहीं करने वाले, सीधा हिसाब है। और कैसे करना है, वो हम समझा देंगे। लेफ्ट हैंड आप हमारी ओर करिए। आराम से। अपने गोद में, अपने गोद में, लेफ्ट। हम इसलिए लेफ्ट, राइट कहते हैं, क्योंकि कोई इसको सीधा हाथ, उल्टा हाथ ऐसे कहते हैं। कोई कुछ कहते हैं। हिंदी भाषा में, हर प्रोविंस (प्रांत) में अलग-अलग कहा जाता है। इसलिए हम लेफ्ट और राइट ही कहें। या तो उल्टा हाथ, उल्टा हाथ हमारी ओर करें। सीधा, इस तरह से। साधक: कितना आगे करें? श्री माताजी: बस अपने गोद में आराम से, आराम से बैठो। सब आराम से प्राप्त होगा। सहज का मतलब है, आप ही के साथ जन्म हुआ है - सहज। बस ऐसे आराम से, आराम से। और राइट हैंड जो है, इसको हम इस्तेमाल करेंगे, क्योंकि ये जो है, ये इच्छा शक्ति है, और ये जो है, ये क्रिया शक्ति है। इसको हम इस्तेमाल करेंगे और अलग-अलग चक्रों पे लगाएंगे। किस प्रकार, वो हम आपको दिखाते हैं। बड़ा ही आसान है। सबसे पहले हमारे ह्रदय पे हम रखेंगे। उसके बाद हम पेट के ऊपर के हिस्से में रखेंगे। ये क्या चक्र है, मैं बताऊँगी खुदी। इसके बाद पेट के नीचे के हिस्से में रखेंगे। उसके बाद फिर वापस पेट के ऊपर के हिस्से में रखेंगे। सब लेफ्ट हैंड साइड पे काम होगा। सब लोग करें, मेहरबानी से। अभी अगर नहीं हुआ, तो बाद में कहेंगे, नहीं हुआ। उसके बाद में ह्रदय पे रखेंगे। फिर यहाँ पर, विशुद्धि चक्र पे, इस जगह में सामने से, इस तरह से हाथ पकड़ के रखेंगे। उसके बाद माथे पर यहाँ इस तरह से आड़ा यूँ पकड़ेंगे, उसको दबाएंगे। पीछे में यहाँ पर, ऐसे रखेंगे। उसके बाद सर पे, ये जो तलुआ है, इसको बराबर तालु स्थान पे रखके, दबाके और सात बार घुमाएंगे। दबाके यूँ, ऐसी उँगलियाँ करके। बस, इसके बाद काम हो जायेगा। साधक: घुमायें कैसे? श्री माताजी: इसको ऐसे रखिए, दबाइये और घुमाइए। ना, ना, ना, ना। अपने हाथ को ऐसे-ऐसे घुमाइए, दबाकर। ऐसे यूँ, जैसे मैं घुमा रही हूँ, ऐसे। ठीक है। ये नहीं भी करो तो भी हो जायेगा - आप लोग बड़े साधु-संत हैं। कोई ज़रुरत नहीं परेशान होने की। पहले लेफ्ट हैंड मेरी ओर करें और राइट हैंड ज़मीन पर रखें। अब ये मैंने कहा था, कि आप योग भूमि में बैठे हो, इसलिए इस माँ का आशीर्वाद लेना है। लेफ्ट हैंड आपने ज़मीन पर कर दिया। हो सकता है अभी किसी के हाथ में ठंडक आने लग जाये। अब राइट हैंड मेरी ओर करें, संतुलन के लिए और लेफ्ट हैंड इस तरह से। राइट हैंड मेरी तरफ - ये सिर्फ संतुलन के लिए। चश्मे भी उतार दीजिए क्योंकि आँख अब पूरी समय अब बन्द करनी होगी। अब, अब लेफ्ट हैंड मेरी ओर करें। अब आँख बंद कर लें। लेफ्ट हैंड मेरी ओर और आँख बंद कर लें। इसके बाद आँख न खोलियेगा। जब तक मैं नहीं कहूँगी, आँख न खोलें क्योंकि ये अंतर्योग है। सब लोग करें कृपया। कोई देखने के लिए न बैठे। सब को करना चाहिए - यहाँ देखने के लिए न बैठें। जिनको देखने के लिए बैठना है, उनसे हाथ जोड़ना है, कि आप लोग तशरीफ़ ले जाएँ। यहाँ देखने का कुछ नहीं है; आप मेहरबानी से तशरीफ़ लेते जाइए। यहाँ जिनको ध्यान करना है, वही बैठें, क्योंकि दूसरे लोग डिस्टर्ब हो जाते हैं। इसलिए कृपया सब लोग ध्यान में रहें, कृपया। नहीं, मेहरबानी करिए; साधक: सर के ऊपर हाथ रख लें? श्री माताजी: नहीं, लेफ्ट हैंड इस तरह। मेहरबानी करिए - कोई ज़बरदस्ती करने की ज़रुरत नहीं। अगर आपको ध्यान नहीं करने का है, तो आप लोग चले जाइए। साधक: आप ना पांच मिनिट रुक जाइए श्री माताजी: ऐं? साधक: पांच मिनिट रुक जाइए। श्री माताजी: क्यों क्या बात है? साधक: वो बाहर गए हैं ज़रा आ जाएं (अस्पष्ट)। श्री माताजी: ऐं?
साधक: इनके हस्बैंड बाहर गए हैं। साधक: बाहर गए हैं, ज़रा आ जाते। साधक: यूरिनल के लिए गए होंगे शायद। श्री माताजी: अच्छा ठहरते हैं। कोई बात नहीं। आने दीजिए। वो जब भी आएंगे हो जायेगा, अच्छा। घबड़ाये नहीं। देखिए, ये आतुरता देखिए। ये सादगी देखिए, ये सादगी देखिए। इस सादगी पर जब तक मनुष्य नहीं आता, तब तक उसके साथ कुछ नहीं हो सकता है। जो लोग सादगी में नहीं रहते हैं, वो लोग ज़िन्दगी की सारी परेशानियों में फँस जाते हैं। कैंसर की बीमारी, इसकी बीमारी, उसकी बीमारी - सारी चीज़ें उससे पड़ जातीं हैं। अच्छा, अब कोई हाथ नहीं। अब लेफ्ट हैंड मेरी ओर रखें - इस तरह से रखें लेफ्ट हैंड। अब राइट हैंड ह्रदय पे रखें। आँख बंद करें। ह्रदय में आपके आत्मा का वास है, इसलिए एक सवाल मुझसे आप पूछें तीन बार - पूर्ण विश्वास के साथ, "माँ, क्या मैं आत्मा हूँ? "; मन में पूछिए, "माँ, क्या मैं आत्मा हूँ?" मन में पूछें पूर्ण ह्रदय से। अपने में पूरा विश्वास रखना चाहिए। अब इसी सीधे हाथ को, राइट हैंड को आप, लेफ्ट साइड में ही, पेट के ऊपर के हिस्से में रखें। ये गुरु तत्व का चक्र है। क्योंकि आप आत्मा हैं, आप अपने गुरु हो जाते हैं। इसलिए दूसरा सवाल इसी सिलसिले में आप पूछिए, "माँ, क्या मैं स्वयं का गुरु हूँ? "- ये आप तीन मर्तबा पूछिए। ये बड़े मूल भूत प्रश्न आप मुझसे पूछ रहे हैं। "'क्या मैं स्वयं का गुरु हूँ? माँ, क्या मैं स्वयं का गुरु हूँ?" आप क्यों नहीं कर रहे भाईसाहब? कर लीजिए, फायदा होगा। लेफ्ट हैंड मेरी ओर करिए और राइट हैंड पेट पे रखिए। लेफ्ट हैंड साइड में, प्लीज। पूछिए सवाल तीन बार। अब इस राइट हैंड को - आँख बंद रखें और चश्मा उतार लें क्योंकि आँख पे अच्छा असर आएगा। अब इस राइट हैंड को आप पेट के नीचे के हिस्से में रखें। अब एक बात जान लीजिए कि प्रसन्नचित्त होना चाहिए। आपको परमात्मा के दरबार में उतरना है, आप प्रन्नचित्त रहें। भय, आशंका, आदि सब छोड़ करके आप प्रसन्नचित्त हो करके और इस जगह आपने जहाँ हाथ रखा है, स्वाधिष्ठान चक्र है, और इस चक्र से आप शुद्ध विद्या जानते हैं, वो विद्या जिससे कि आप ब्रह्मशक्ति को किस तरह से चालित करना चाहिए, उसके बारे में सारा ज्ञान जानते हैं। लेकिन इस शुद्ध विद्या के लिए मैं आपको ज़बरदस्ती नहीं कर सकतीं हूँ; आपको कहना होगा कि, "माँ मुझे ये शुद्ध विद्या दीजिए।" मैं ज़बरदस्ती नहीं कर सकती हूँ। आपकी स्वतंत्रता की पूरी इज़्ज़त मुझे करनी है, इसलिए आप अपनी स्वतंत्रता में ही कहें, कि, "माँ मुझे शुद्ध विद्या दीजिए," - छह मर्तबा कहिए। इस चक्र के छह - जैसे कमल की पंखुड़ियाँ होतीं हैं, उस प्रकार इसकी छह पंखुड़ियाँ हैं, "माँ, मुझे आप कृपया शुद्ध विद्या दीजिए।" आँख बंद रखें, आँख न खोलें। कृपया आँख बिलकुल नहीं खोलना चाहिए। अंतर्योग है, चित्त अंदर की ओर होना चाहिए। अब ये जो राइट हैंड है इसको आप पेट के ऊपरी हिस्से में फिर से रखें, जहाँ गुरु का चक्र था मैंने कहा - लेफ्ट हैंड साइड में। सब काम लेफ्ट हैंड साइड में हो रहा है। अब अपनी कुण्डलिनी को आप दिलासा दीजिए। कुण्डलिनी जागृत हो चुकी लेकिन उसे दिलासा देना होगा जिससे वो ऊपर चढ़े। इस जगह आप पूरी आत्मविश्वास के साथ कहें कि, "माँ, मैं स्वयं का गुरु हूँ।" पूरे विश्वास से कहें, कोई आशंका न रखते हुए, "माँ मैं स्वयं का गुरु हूँ।" सर में से टोपी आदि निकाल लें, क्योंकि माँ के सामने क्या टोपी डालने की और फिर ब्रह्मरंध्र छेदना है ना। "माँ, मैं स्वयं का गुरु हूँ," दस बार कहिए। दस गुरु तत्व हैं हमारे अंदर - दस बार कहिए। पूर्ण विश्वास के साथ कहा जाये। "मैं ही स्वयं का गुरु हूँ।" अब इस राइट हैंड को हार्ट पे रखें। हार्ट में आत्मा का स्थान मैंने आपसे कहा है। पूर्ण विश्वास के साथ आप कहिए, "माँ मैं आत्मा हूँ।" पूर्ण विश्वास के साथ, "माँ मैं आत्मा हूँ।" बारह मर्तबा। हम्म। साधक: आँखें खोल लें? श्री माताजी: ना, ना, आँखें बंद रखिए। साधक: आप सर आगे बोलिए। श्री माताजी: हाँ, अच्छा; अब आप थोड़ा शांति करें, क्योंकि जो सबको देखना है ना, सबको साथ ले के चलना है। कुण्डलिनी बैठ जाये सबकी ह्रदय चक्र तक, फिर आगे चलेंगे, अच्छा। आप इत्मीनान से रहिए। एक दम से भागना नहीं है, आराम से। सबके साथ चलना है। अच्छा। आँख नहीं खोलिए। अब अपना हाथ जो है, अपने कपाल पे रखें - अपने विशुद्धि चक्र पे रखें। विशुद्धि चक्र जो है, ये हमारे गर्दन और हमारा कन्धा, इसके कोण में लेफ्ट साइड का विशुद्धि चक्र है - इसपे ज़ोर से पकड़िए। पीछे की तरफ हाथ ले जाएँ ज़रा कुछ और। और ज़ोर से दबा के पकड़िए। ये चक्र हमारा तब पकड़ता है, जब हमेशा हम अपने को दोषी समझते हैं - 'हम पापी हैं, हम पतित हैं, ये हैं।' भाईसाहब, अब आप दूसरों को मत देखिये, आप खुद पा लीजिए। खुद पा लीजिए। हाथ इस तरह से रखिए, इधर। राइट हैंड इधर रखें। ना, ना, लेफ्ट नहीं राइट - राइट हैंड। इस तरफ से, इनसे भी कहिए, ये भी एक महाशय। आप सामने से हाथ लीजिए। हाँ, गर्दन से घुमा के, हाँ सामने से। इनसे भी कहिए। हाँ, यहाँ पर अब आप सब ये कहें कि, "माँ मैं दोषी नहीं हूँ, मैंने कोई दोष नहीं किया। मैं कोई पतित, पापी कुछ नहीं हूँ। मैं आत्मा, शुद्ध आत्मा हूँ।" साधक: कितनी बार? श्री माताजी: सोलह मर्तबा। ये श्री कृष्ण का स्थान है। आपको पता होना चाहिए कि परमात्मा सिर्फ एक प्रेम का स्त्रोत नहीं, अनुकम्पा का स्त्रोत नहीं हैं, सबसे बड़ा तो ये क्षमा का स्त्रोत है। और हम ऐसी कोई गलती नहीं कर सकते, जो परमात्मा अपनी शक्ति में क्षमा करके उसे पूरी तरह से नष्ट न कर दें। इसलिए अपने को दोषी समझना बहुत गलत बात है, सो पूरी तरह से कहिए कि, "माँ, मैं बिलकुल दोषी नहीं हूँ, मैंने कोई गलत काम नहीं किया। मैं पतित नहीं हूँ, मैं पापी नहीं हूँ - मैं स्वच्छ आत्मा हूँ, शुद्ध आत्मा हूँ मैं," यहाँ हाथ रख के। बहुत ज़रूरी है। साधक: लेफ्ट हैंड की उँगलियों में तो जलन मच रही है। श्री माताजी: वो तो कुछ गड़बड़ से है, कोई हर्ज़ नहीं। अभी चली जाएगी थोड़ी देर में। चली जाएगी, चली जाएगी। कोई घबड़ाने की बात नहीं है। अच्छा, सोलह मर्तबा कहिए। अब पूर्ण ह्रदय से, चाहे एक ही मर्तबा हो, चाहे दो ही मर्तबा हो - पर पूर्ण ह्रदय से, आप अपना हाथ सर के ऊपर जहाँ पर कपाल जिसे कहते हैं, उसपर रखिये और दोनों तरफ से दबाइए - जैसे सर दर्द होता है तो हम लोग दबाते हैं। इस जगह पूर्ण ह्रदय से आप एक बात कहें - चाहे दो बार, चाहे तीन बार - कि, "माँ, मैंने सबको माफ़ कर दिया।" पूर्ण ह्रदय से कहें। ना, ना, कपाल, कपाल पे रखें, सर पे नहीं। कपाल, कपाल किसे कहते हैं आप? साधक: माथे को। श्री माताजी: माथा। नहीं, क्या कहते हैं आप?
साधक: ललाट, ललाट। श्री माताजी: ऐ? साधक: फोरहेड जिसे कहते हैं श्री माताजी: फोरहेड पर वो समझ नहीं पा रहे हैं ना लोग। साधक: ललाट, ललाट श्री माताजी: ललाट। ललाट बहुत सुन्दर है शब्द। मैंने सोचा ज़रा संस्कृत हो जायेगा इसलिए। हाँ! ललाट पे रखिए। "मैंने सबको माफ़ कर दिया," क्योंकि हम जब किसी को माफ़ नहीं करते हैं तो कुछ नहीं करते हैं और करते हैं तो भी कुछ नहीं करते हैं। लेकिन जब नहीं करते हैं तब ज़रूर कोई आदमी जो कि हमें सता रहा है, परेशान कर रहा है, उसके हाथों खेलते हैं। इसलिए कृपया पूर्ण ह्रदय से कहें कि, "माँ हमने माफ़ कर दिया।" ये ना कहें कि, "मुश्किल है।" एकदम कह दें कि, "माँ, मैंने माफ़ कर दिया।" साधक: कितनी बार कहें? श्री माताजी: ह्रदय से कहें। मैं ख़ुद जान जाऊँगी आपने कहा या नहीं कहा। कितनी बार की बात नहीं। एक बार कहिए, चाहे दो बार कहिए, पर पूर्ण ह्रदय से कहें। हाँ ! अब ये राइट हैंड आप पीछे की तरफ ले जाएँ। अब एक ही बार कोई दोष अपने पे न लगाते हुए, ना पाप गिनते हुए, ना कोई गलतियां गिनते हुए, एक बार परमात्मा से क्षमा मांग लीजिए कि, "अगर तेरी शान में मैंने कोई, कभी कोई बात की हो गलती से भी, तो उसे तू क्षमा कर दे। तुम पिता हो हमारे" आँख बंद कर लीजिए, चश्मा उतार लीजिए। आँख बंद कर लीजिए - यहाँ पकड़िए। साधक: ये कितनी बार कहें? श्री माताजी: बस। अब इस हाथ को आप तालु के ऊपर रखिए। तालु पर तलवा रखिए। तालु आप जानते हैं ना? जहाँ ब्रह्मरंध्र की स्थिति है और इसको दबाइये। और सात मर्तबा घुमाइए। इस जगह भी मैं आपकी स्वतंत्रता मानती हूँ कि आपको कहना होगा कि, "माँ, मुझे आप पार कराइए। माँ मुझे आप आत्मसाक्षातकार दीजिए।" मैं ज़बरदस्ती नहीं कर सकती। [श्री माताजी माइक में फूंकतीं हैं।] [श्री माताजी माइक में फूंकतीं हैं।] [श्री माताजी माइक में फूंकतीं हैं।] [श्री माताजी माइक में फूंकतीं हैं।] [श्री माताजी माइक में फूंकतीं हैं।] [श्री माताजी माइक में फूंकतीं हैं।] [श्री माताजी माइक में फूंकतीं हैं।] अब धीरे से हाथ नीचे रखें। दोनों हाथ मेरी ओर करके आँख धीरे-धीरे खोलिए, बहुत धीरे-धीरे। अब लेफ्ट हैंड अपने सर पर उठाके 4 इंच, 5 इंच पे देखिए, कि कोई ठंडी हवा तो - लेफ्ट हैंड, लेफ्ट हैंड रखिए, राइट हैंड हमारी ओर। ऐसे राइट हैंड हमारी ओर करिए। यहाँ पर तालु के ऊपर जैसे मैंने, लेफ्ट, लेफ्ट यहाँ पे। देखिए कोई ठंडी हवा तो नहीं आ रही है? टोपी उतार लीजिए बेटे। हाँ - माला-आला पहने, वो भी उतार लीजिए, अच्छा रहेगा। कोई माला अगर पहने हैं तो उतारें, इसीलिए कहा है जलन आ रही। माला एक मिनिट उतार लीजिए। बस एक मिनिट यहाँ सामने रख दीजिए। बस, ठीक है - अब देखिए अब जलन ख़त्म हो जायेगी। हाँ! ज़रा ऊपर, 4-6 इंच ऊपर देखना चाहिए। हाँ! आप ही अपना सर्टिफिकेट दीजिए, मैं नहीं देने वाली। पा गए आप। अब राइट हैंड हमारी ओर करें और लेफ्ट हैंड से देखिए। खूब गर्मी आ रही है आप लोगों से। राइट हैंड - लेफ्ट हैंड से देखिए। साधक: पहले राइट हैंड (अस्पष्ट) श्री माताजी: राइट हैंड मेरी ओर करें, इस तरह से, ज़रा ऊँचा। हाँ!
और लेफ्ट हैंड से देखिए पहले। अच्छा, अब जो है लेफ्ट हैंड को मेरी ओर करें और राइट हैंड से देखिए। (अस्पष्ट)। हो गया? आ रही? बहुत सूक्ष्म चीज़ है। आ गई ना? हाँ, ऊपर। साधक: नहीं, कुछ भी नहीं है। श्री माताजी: आएगी, आएगी, आएगी, आएगी बेटा बहुत ज़्यादा घबड़ाहट है आपमें। आएगी, हाथ बदल के देखिए। नहीं आएगी तो पर करादेंगे पार। कोई बात नहीं - हाँ। कहिए, 'माँ मेरे सर में आइए,' जिसके नहीं आ रही। कहिए। अभी कुण्डलिनी आपकी माँ है, आ जायेगी। हाँ, आ गया? साधक: नहीं आया। श्री माताजी: आ रही? आपके आई? आ रही है। आ रही है? साधक: महसूस नहीं हुआ। श्री माताजी: ऐं? साधक: अभी महसूस नहीं हुआ। श्री माताजी: महसूस नहीं हुआ - होएगी, होएगी। आई बेटा? साधक: थोड़ी-थोड़ी। श्री माताजी: हाँ!
ठीक है। अब एक और चीज़ करें। हाथ में महसूस नहीं होता है। हाथ को ऊपर करें और गर्दन पीछे करके सवाल करें कि, "क्या यही वो ब्रह्मशक्ति है जिसके बारे में कहा जाता है?" "यही परमात्मा की वो चेतन शक्ति है जिससे सारे जीवित कार्य होते हैं?" तीन बार पूछिए। अब हाथ नीचे करिए। अब देखिए। आई, हाथ में लग गई? हाँ! अब पहली मर्तबा महसूस हुई है चारों तरफ ये शक्ति। साधक: अपने को तो कुछ भी नहीं हुआ। श्री माताजी: होगा बेटे। तुम चिंता बहुत ज़्यादा करते हो चिंता नहीं करो। अभी करते हैं, तुमको अभी देखते हैं। साधक: समय लगेगा शायद। श्री माताजी: समय नहीं लगेगा। घबड़ाओ नहीं। जिसको समय लगेगा, उसको लगेगा। आपको हो गई? साधक: ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल है। श्री माताजी: हाँ, अभी, अभी देखिए। जिसको ठीक ठीक नहीं लग रहा है, उसको अभी देख लेते हैं। साधक: क्या महसूस होता है हाथ में? श्री माताजी: आ रहा है आपको? साधक: क्या महसूस होता है हाथ में? श्री माताजी: ठंडी-ठंडी हवा हाथ में। सर में हुई थी? साधक: सर में तो (अस्पष्ट) श्री माताजी: अभी होगी, ज़रा बैठिए, थोड़ा इत्मीनान करिए, थोड़ा इत्मीनान। इनको हो गया है, इनको हो गया है, इनको हो गया। अच्छा, जिन-जिन को महसूस हुआ हाथ में असल में, ऊपर हाथ करें, दोनों हाथ, दोनों हाथ। अब देखिए, इतने लोगों को हो ही गया। अच्छा अब जिन को नहीं हुआ, कोई घबड़ाने की बात नहीं। सब को पार कराना है। आइए, ऊपर आइए, चलिए एक-एक करके, एक-एक, सबको देखेंगे। सहज योगी: इस साइड से, इधर से आइए, इधर से, इस साइड से आइए। श्री माताजी: एक, एक करके। पैर पे लेना होगा। सहज योगी: एक-एक करके आइए। श्री माताजी: आइए, एक-एक आइए, आइए। आप पैर पे आइए। आप कौन गुरु के पास गए थे पहले?
साधक: हम अपने आचार्य श्री राम शर्मा के यहाँ। श्री माताजी: वहीं पकड़ आ रही है। ठीक नहीं हैं, इसलिए। राइट हैंड अपने पेट पे रखो, इधर। अब ये कहो, "माँ, मैं ही स्वयं का गुरु हूँ।" पूरी तरह से कहो। साधक: माँ, मैं ही स्वयं का गुरु हूँ। श्री माताजी: आँख खोल के। साधक: माँ, मैं ही स्वयं का गुरु हूँ। श्री माताजी: गुरु तत्व की गड़बड़ है, फिर कहिए। साधक: माँ मैं ही स्वयं का गुरु हूँ। श्री माताजी: फिर से। आँख खोल के कहिए। साधक: माँ, मैं ही स्वयं का गुरु हूँ। श्री माताजी: हाँ ! साधक: माँ, मैं ही स्वयं का गुरु हूँ। माँ श्री माताजी: नहीं हुआ आपका? देखो तो ज़रा, आज्ञा पे पकड़ है। खुल जायेगा। आज्ञा की ही पकड़ आ रही है। हाँ, आ रही कुछ? आएगा। आओ इधर बैठो। लड़के देखें। आइये। हाँ, आ जाओ। अब ये माला-वाला छोड़ो। 'करका मनका छाड़ि दे मनका मनका फेर' - आओ। सब कह गए हैं, वो सब सुन-सुन के हम लोग रटते ही रहते हैं, कुछ करते नहीं हैं। हाँ - आज्ञा? आओ। आज्ञा की वाकई में पकड़ है तुमको - किसके पास गए थे? साधक: मैं? आज्ञा चक्र के लिए (अस्पष्ट)। श्री माताजी: रजनीश के पास - हाँ सहज योगी: तभी! श्री माताजी: एँ, सहज योगी: तभी श्री माताजी: किसके? सहज योगी: रजनीश की काफी किताबें पढ़ीं हैं। श्री माताजी: उसी से तो गड़बड़ हो गया है। चलो मारो उसको गोली। 'रावण मर्दिनी'। हाँ, चलो रखो हाथ। ये तो रावण का अवतार है, समझना चाहिए। जो औरतों की इज़्ज़त पे उठता है, वो कौन आदमी इंसान हो सकता है? राक्षस ही हो सकता है। हाँ!
आया, आया? चढ़ गई, चढ़ गई। अब समझ लो बात को। तुम तो कमाल के हो जो मेरे सामने बैठ गए। दूसरे आते - इनसे पूछो। तीन आये थे, वो वहीं ढर गए - उठ ही नहीं पाए बेचारे। अच्छा, तो आपका क्या हाल है? तंदरुस्ती ठीक नहीं आपकी? साधक: ठीक है। वैसे बीमारी तो नहीं। श्री माताजी: लिवर है आपको। लिवर की शिकायत है। हम्म, अच्छा, आप बैठिए। इनको ज़रा बताओ लिवर के लिए क्या करना है। आपको नहीं आया? साधक: हाँ श्री माताजी : अच्छा, देखिए ऐसे हाथ रखिए। क्या है, क्या है? साधक: अभी नहीं आया। श्री माताजी: आएगा बेटे, घबड़ाओ नहीं। गलत गुरु हो गए थे - कोई नहीं। ज़रा आराम से - सब लोग आ जाएँ। सहज योगी: आपको नहीं आया? साधक: देख लीजिए ज़रा। सहज योगी: अभी नहीं आया? साधक: (अस्पष्ट) श्री माताजी: क्या कह रहें हैं? आ रहा है? हाँ, ऐसे रखिए। नहीं आया है?
हैं ना, लिवर का बताओ। इधर आइए। आपको नहीं आया? साधक: एक बार आया था पहले। श्री माताजी: हाँ? साधक: दिल्ली यूनिवर्सिटी में एक बार लेक्चर सुना था तब तो बहुत आया था। श्री माताजी: तब से क्या हो गया? साधक: कभी आता नहीं, कभी चला जाता है। श्री माताजी: तो ध्यान नहीं किये - ध्यान से ज़माना पड़ता है ना। ध्यान है, ध्यान करने पर कैसे होगा। ध्यान करना पड़ता है। इसको जमाना पड़ता है। क्या हुआ, नहीं आया? आएगा, आएगा, सबको आएगा। हम्म। आपके आ गया है। इनके हो गया है। चलो उठाओ, देखो हाथ। उठाओ इनके। सिर में आ गया है। सहज योगी: बहुत सारी उष्णता। श्री माताजी: एँ? सहज योगी: बहुत गर्मी निकल रही है। श्री माताजी: बाहर जाने दो। गर्मी है बहुत इनके। गर्मी तो है ही। आपके? आज्ञा पर। आओ - गलत गुरु पकड़ लिए; गली-गली में गुरु बैठे हुए हैं। और क्या होएगा? आँख बंद करो। ये हुए कि नहीं? आप नहीं हुए पार? साधक: नहीं हुए श्री माताजी: अनुभव आपको भी नहीं आया?
साधक: न कुछ भी नहीं। श्री माताजी: इनको साक्षात्कार दीजिए, आइए। बैठ जाइये, ये आपको पार कराएंगे। अब ऑस्ट्रेलिया से लोगों को इम्पोर्ट करना पड़ेगा। इधर मुँह मेरी ओर करिए। वो समझायेंगे आपको। अब ये लोग आके आपको बताएंगे गणपति क्या है। हम तो सब भूल गए; हम अँगरेज़ हो गए, वो हिंदुस्तानी हो रहे हैं। चढ़ी? एकादश, सारा एकादश। सहज योगी : कल शाम को भी प्रोग्राम है 6 बजे, C-49, भगवान दास रोड पे। आप लिख लीजिए C-49 श्री माताजी: दिल्ली में सहज योगी: इधर ही। श्री माताजी: यहाँ? सहज योगी: जयपुर में C-49, भगवान दास रोड पे। साधक: कितने बजे? सहज योगी: छह बजे। साधक: आज शाम को ? सहज योगी: कल शाम को। श्री माताजी: अच्छा, क्या हुआ है? सहज योगी: जो विशुद्धि है उस वजह से प्रॉब्लम है सहज योगी: इस प्रोग्राम में आपको बताया जायेगा किस तरह से चक्र देखने हैं, किस तरह उनकी सफाई की जाती है। श्री माताजी: सर में आ गई? सहज योगी: हाँ जी। श्री माताजी: इनके हिसाब से आ गई। साधक: मुझे तो कुछ पता नहीं चला। श्री माताजी: विशुद्धि चक्र है श्री माताजी: वारेन। वो डॉक्टर वारेन के पास जाइये, आपकी विशुद्धि ठीक कर देंगे। इनकी विशुद्धि। साधक: वहाँ जाऊँ? श्री माताजी: हाँ, वो ठीक कर देंगे। हाँ अच्छा - औरों का देखते हैं। आपके? साधक: प्रोलैप्स पाइल्स का ऑपरेशन कराने में चक्कर तो नहीं हो गया? श्री माताजी: एँ?
साधक: मैंने प्रोलैप्स पाइल्स का ऑपरेशन कराया था पिछले महीने। श्री माताजी: हाँ - तबसे आपकी गई क्या? साधक: नहीं, कह नहीं सकते। उससे कोई फर्क तो नहीं पड़ता है? श्री माताजी: दिल्ली यूनिवर्सिटी में आ गई थी? साधक: हाँ जी, बड़ी अच्छी तरह आया था; बहुत अच्छी वाईब्रेशन्स आईं थीं। श्री माताजी: आप बैठो। चलो आओ। दूसरों को देते होगे - आओ, इनके सर पे हाथ रखो। इधर आओ। ऐसे हाथ रखो। एक हाथ मेरी ओर। ऐसे। हाँ! आया? ठंडक आ रही? हाँ, आ रही? आपको महसूस हो रहा है, नहीं? साधक: शरीर से गर्मी निकल रही है बहुत ऐसा लग रहा है । श्री माताजी: यही तो है। साधक: बहुत गर्मी निकल रही है श्रीमाताजी: गर्मी है साधक: पसीना बिल्कुल .... श्री माताजी: गर्मी बहुत है इनके अंदर। लेफ्ट हैंड, राइट इसपे रखिए लिवर पे। लिवर पे रखिए - ये हाथ मेरी ओर। बस छोड़ दीजिये, आइये। अब तो आप समझ रहे हैं - महसूस हो रहा है। बात ये है कि पार होने के बाद दूसरों का करना चाहिए, नहीं तो वाइब्रेशन्स ख़तम हो जाते हैं। साधक: क्या करें मतलब? उसके बाद मेहनत करनी चाहिए, लोगों को देना चाहिए। जब दीप जला दिया, तो कोई टेबल के नीचे थोड़ी रखना चाहिए। अगर आप दूसरों को साथ दीजियेगा नहीं, तो विब्रेशन्स क्यों भगवान आपको देंगे?
साधक: नहीं समझ नहीं आता न दूसरे का अच्छी तरह। श्री माताजी: समझ में आ जायेगा - अब यहाँ केंद्र खुल रहा है, अच्छा? आप यहीं रहते हैं? साधक: नहीं अब फिर दिल्ली जा रहा हूँ एक महीने के बाद। एक महीने के लिए यहाँ हूँ। श्री माताजी: अच्छा। यहाँ रहिए, अभी तो ये लोग हैं। अब देखिए? आपके? तो ये पार हो गए। खूब अच्छे से। आओ चलो सिखाएं। आओ खड़े हो जाओ। इनको सिखाएं। (मराठी) ये बताएँगे। ये देखिए अभी आजकल ये आये हुए हैं। हाँ, हो गए - नहीं? ऐं? सहज योगी: इनको महसूस नहीं हो रहा है - नाभि और आज्ञा। श्री माताजी: (मराठी)। नाभि, आज्ञा - माथे पे आ गई। कहिए, "माँ मेरे सर में आइए" - बस। माथे पर आज्ञा के बाद। आपको? नहीं। (मराठी) (मराठी) आप भी आइए - आपको ये समझा देंगे कैसे उठाना है। आइए। हाँ, एक पे देख लीजिये आप। हाँ, इनपे देख लीजिये, हाँ! आप इनपे देखिए वो कर रहे हैं। आओ, पाटनकर - (मराठी) हम्म, क्या हाल? गर्मी निकल रही काफी - बहुत गर्मी है। साधक: इसका कोई विशेष अनुभव है?
श्री माताजी: हाँ नहीं, लेकिन गर्मी बहुत है ना आपके अंदर - ऐसे हाथ रखिए। राइट हैंड मेरी ओर। क्या काम करते हैं आप? हैं? साधक: ऑफिस में श्री माताजी: क्या काम? साधक: लेखनाचार्य, अकाउंटेंट श्री माताजी: अकाउंटेंट - रखिए हाथ। क्या इनका क्या है? सहज योगी: वोयड (भवसागर) पे धड़कन हो रही है इनके श्री माताजी: वॉइड पे। गुरु कौन हैं? कोई न कोई होंगे। किसी के यहाँ गए होंगे? किसी के भाषण में नहीं गए, कभी नहीं? साधक: भाषण में तो जाते रहते हैं। श्री माताजी: आ साधक: भाषण में तो जाते रहते हैं। श्री माताजी: वो ही तो बात है। अच्छा अब इसको गुरु के चक्र पे राइट हैंड रखें। और कहिए कि, "मैं ही अपना गुरु हूँ।" हो गया ठीक? चलने लग गया हाथ। अब दूसरों को दीजिये। साधक: मुझे नहीं आया। श्री माताजी: नहीं? हो जायेगा आपको। आपको?
नहीं? सहज योगी: जिनका हो गया है वो नीचे उतरें और लोगों को आने दें। श्री माताजी: आप रखिए इनके सिर पे एक हाथ - एक हाथ मेरी ओर। नीचे से उठाइए कुण्डलिनी - हाँ! सहज योगी: जो लोग जा रहे हैं, पहले फोटोग्राफ ले जाइएगा और किस तरह फोटो पर काम करना है, वो अभी बता देंगे आपको। श्री माताजी: आँख, आँख खुली रखें। आँख खुली रखिए। इनको मिल गया? सहज योगी: फोटो के सामने कैंडल रखके और हाथ जिस तरह आज रखे हैं उसी तरह रखके, वाईब्रेशन्स आप महसूस कर सकते हैं और जिन चक्रों में आपको गर्मी आती है, उन चक्रों में किस तरह वाईब्रेशन्स देनी हैं, ये कल 6 बजे बताया जायेगा, C-49 भगवानदास रोड पर। श्री माताजी: गर्मी बहुत है, बहुत गर्मी है आपके अंदर। फोटोग्राफ और किताबें हैं यहाँ पर, वो आप ले के जाइए। श्री माताजी: हैं? साधक: सिंपल और रिस्ट्रिक्टेड डाइट वगैराह बहुत ही अपना (अस्पष्ट) के रखता हूँ। काफी अनुशासित तरीका जीने का है मेरा। श्री माताजी: बहुत ज़्यादा है उसका। इतना अपने शरीर के साथ खेल नहीं करना चाहिए। साधक: हाँ ये हो सकता है। बहुत ज़्यादती आपने कर ली। अपने साथ बहुत ज़्यादती कर ली, इसीलिए राइट साइड पकड़ा हुआ है। साधक: हाँ ये तो हो सकता है। बाकी कोई गलत कदम मैं कभी नहीं लेता। श्री माताजी: नहीं, नहीं, लेकिन ये आप अपने साथ बहुत ज़्यादती करते हैं और बहुत ज़्यादा सोचते हैं। साधक: हाँ ये तो है - थिंकिंग (सोचना) बहुत ज़्यादा है। साधक: हाँ, अब थोड़ा श्री माताजी: शुरू हुआ। बेटर क्या इनका हो रहा है? साधक: इन्हें प्राप्त हो गया है माँ, लेकिन यह फिर से पीछे गिर रही है। श्री माताजी: उसे बाँध दो। यह सभी प्रकार के गुरुओं के पास गए हैं। इनको देखिए - ये दोनों होने चाहिए - जल्दी हो जाएंगे। डॉक्टर साहब, इनको देखिए। ये, दो मिनिट में ये लोग पार हो जाएंगे। ये भी हो जाएंगे। होना चाहिए। अब? कुछ ठंडक तो शुरू हुई। साधक: थोड़ा सा श्री माताजी: अच्छा आप बैठ जाइए इधर। थोड़ी देर ऐसे ही बैठो जैसे हमने कहा। हाथ ऐसे - नीचे उधर सरक के। आप आ जाइए। नहीं हो रहा है आपके? क्या बात? देखते हैं। आप क्या करते हैं? साधक: डॉक्टर हूँ, आँखों का। श्री माताजी: हैं?
साधक: आँखों का डॉक्टर हूँ। श्री माताजी: आँखों का, आई स्पेशलिस्ट। साधक: पहले ऑस्ट्रेलिया था। पांच साल तक मेलबोर्न था, उसके बाद (अस्पष्ट) प्रैक्टिस शुरू की। श्री माताजी: वहाँ से अब आप यहाँ आये! अच्छा! हाँ। वॉरेन, मेलबर्न से एक डॉक्टर हैं। आगे आइए आगे। बहुत पसीना आ रहा है। क्या हुआ? साधक: कुछ नहीं श्री माताजी: क्या कह रहे हैं? नहीं हो रहा है? छोड़ दिया उन्होंने? क्या कह रहे हैं? होएगा। बैठो। निश्चिन्त हो जाओ। ज़रा निश्चिंती से बैठो, निश्चिंती से बैठो। अब बोलो?