Public Program 1985-03-23
23 मार्च 1985
Public Program
Jaipur (भारत)
Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - Draft
परम पूज्य श्री माताजी निर्मला देवी,
सार्वजनिक कार्यक्रम,
23 मार्च, 1985
जयपुर, राजस्थान,
भारत
श्री माताजी के आगमन पूर्व का दृश्य
बहुत सारे साधकों से हॉल भरा हुआ है।
एक सहज योगी भाई नए लोगों को अंग्रेजी भाषा में संबोधित कर रहे हैं। उसके पश्चात श्रीमती सविता मिश्रा भजन प्रस्तुत करती हैं। भजन समाप्ति की उपरांत श्री योगी महाजन दर्शकों को संबोधित कर रहे होते हैं।
तभी श्री माताजी का आगमन होता है, और वे स्टेज पर तेजी से चढ़ते हुए हम सब को दर्शन देती हैं। सब को प्रणाम कर के वे अपनी सिंहासन पर विराजमान होती हैं। योगी महाजन श्री माताजी का स्वागत कर के सहज योग के विषय में संक्षिप्त में बोलते हैं। तत्पश्चात उनके आमंत्रण पर डॉक्टर वारेन भी सहज योग का संक्षिप्त परिचय देते हैं। श्रीमती सविता एक और भजन प्रस्तुत करती हैं।
श्री माताजी को माल्यार्पण किया जाता है और उनके साथ उपस्थित सज्जन को भी। (वे अंग्रेजी में कहती है की - आई विल स्टैंड एंड स्पीक)
(श्री माताजी खड़ी हो गई हैं, और सब पर दृष्टि डालते हुए अपना भाषण आरंभ करती हैं)
जयपुर के साधकों को हमारा प्रणाम।
श्री कृष्ण ने तीन तरह के लोग संसार में बताए हुए हैं, जिन्हे के वे तामसिक, राजसिक और सात्विक कहा करते थे।
तामसिक वो लोग होते हैं, कि जो अच्छा और बुरा, शुभ अशुभ कुछ भी नहीं पहचानते, पर अधिकतर अशुभ की ही ओर दौड़ते हैं, अधिकतर गलत चीजों की ओर ही दौड़ते हैं। जब वो अति इस में घुस जाते हैं, तो भूत विद्या, प्रेत विद्या, शमशान विद्या आदि चीजों से अभिभूत हो कर, उसी की ओर उनका आकर्षण रहता हैं।
और जो लोग राजसिक होते हैं, जैसे कि हमारे पश्चौमात्य देशों में है, वेस्टर्न कंट्रीज में है। और अब हम लोग भी उनकी ओर, उनके जैसे बन रहे हैं। बहुत ज्यादा इंटेलेक्चुअल होने की वजह से, और उनकी बातें सीख सीख कर के, काफी हम में भी उनकी आदतें आ गई हैं, कि वो लोग अच्छा और बुरा, दोनों का अंतर नहीं जान पाते। उनके लिए सभी अच्छे हैं और सभी बुरे हैं। ये अंतर वो जान नहीं पाते, और अहंकार के बूते पे ही वो जीते हैं। कोई चीज उन्हे पसंद आ जाए तो वो अच्छी है। जो न पसंद आ जाए वो बुरी है।
तीसरे लोग होते हैं, कि जिन्हें मैं साधक कहती हूं। ये सात्विक प्रकृति के लोग होते हैं। सात्विक का मतलब यह नहीं, कि वो कठोर तपशचर्या करते हैं, खान पीन का विचार करते हैं आदि, किंतु सात्विक आदमी जो होता है, कि अपने अंदर वो एक संतुलन बनाए रहता हैं। किसी भी अति पर, एक्सट्रीम पर नहीं जाता। किसी भी अतिशयता पर नहीं आता है। कोई भी अति पर न जा कर के, अपने विवेक बुद्धि से जो अच्छी चीज होती है, उसे स्वीकार्य करता है। ऐसे लोग साधक कहलाए जाते हैं, क्योंकि वो एक बात पर जरूर आ कर रुक जाते हैं, कि आखिर हम इस दुनिया में किसलिए आए हैं। ये सवाल उनको बार बार खटकता है, कि इस संसार में परमात्मा ने हमें जो जन्म दिया है वो किसलिए? इसका कुछ न कुछ अर्थ लगना चाहिए। कुछ न कुछ मतलब निकाला चाहिए। उनके अंदर जब ये भावना जाग्रत हो जाती है, तब कहा जाता है कि वो एक साधक की तरह से खोज रहे हैं, कि इस दुनिया में दिखने वाली माया से भी कोई चीज परे है या नहीं।
और इस पर अपने देश में परंपरागत हजारों वर्षों से लोगों ने बहुत कुछ आख्यान लिखे हैं, और बहुत सारे सत्य हमारे सामने रखे हुए हैं, क्योंकि हमारा देश एक विशेष रूप से बनाया गया। यह देश योग भूमि है। इसी देश में बड़े-बड़े महान संत, साधु, अवतरण हुए हैं, क्योंकि यह देश इसी कार्य के लिए बनाया गया है।
ऐसा कहां जाए तो परदेस में हम देखते हैं, कि लोग बहुत उन्नति कर गए हैं और बहुत बढ़ गए हैं, और सोचते हैं कि उन्होंने बहुत कुछ पा लिया। यह बड़ी भारी गलतफहमी हमारे अंदर है। सांसारिक चीजों को पाने से मनुष्य आनंद को नहीं पा सकता। यह आप स्वयं जाकर के वहां देख सकते हैं, कि हम लोग उनसे कहीं अधिक सुखमय और आनंद में हैं। कम से कम यहां प्रेम की भावना कितनी जबरदस्त है, और आपस में उस प्रेम की भावना से हम लोग अभी भी काफी संतुलित जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
पर अगर आप परदेस में जाकर देखें, तो आपको आश्चर्य होगा, कि मैं बताऊं- इंग्लैंड में हर हफ्ते में दो बच्चे मां-बाप मार डालते हैं, जो कि उनके लीगल बच्चे हैं, उनके कोई गलत बच्चे नहीं हैं। मां बाप अपने बच्चों को, दो बच्चों को प्रति सप्ताह मार डालते हैं। इस तरह की चीज हम लोग सोच भी नहीं सकते, कि बच्चों को मार डाला जाए। हालांकि यहां इतने बच्चे होते हैं, वहां तो सिर्फ एक ही दो बच्चे होते हैं, पर उस पर भी वह अपने बच्चों को मार डालते हैं क्योंकि, उनसे बर्दाश्त नहीं होता। 'मुझे पसंद नहीं है बच्चों की तकलीफ।' तो उनको मार डालते हैं।
ऐसी इतनी चीजें वहां होती हैं जिसका हमें अंदाज नहीं, हम जानते नहीं। कारण यह है कि जब आप मशीन के सहारे चलने लग जाते हैं, तो आपका हृदय भी मशीन के जैसे हो जाता है। और उसके अंदर का जो व्यक्तित्व है, वो भी उसी तरह से, कहना चाहिए कि बिल्कुल सूखता हुआ, निष्प्राण। इस तरह से वह काम करता है, जैसे एक मशीन बिना सोचे समझे किसी भावना के ही हर काम को कर सकती है, इसी प्रकार मनुष्य हो जाता है।
अब अगर मैं यह बात कहूं, तो आपको लगेगा कि मां यह कहां की पुरानी बात कह रही हैं। लेकिन मैं तो वहां रहती हूं, और रोजमर्रा देखते हुए मुझे बड़ा आश्चर्य होता है, कि इन लोगों ने यह स्थिति प्राप्त करके उसे आत्मसात भी कर लिया और उस में रह रहे हैं। लेकिन उनमें जरा सा भी सुख और शांति का लवलेश भी नहीं है।
आप आश्चर्य करेंगे, कि कोई भी इंसान से आप वहां बातचीत करिए, तो पाईएगा की अंदर से वह इतना अशांत है, इतना परेशान है कि हर आदमी वहां खोज रहा है, कि इससे निकलने का कोई मार्ग होना चाहिए। और इसीलिए जहां हम सोचते हैं कि बहुत समृद्धि है, बहुत संपदा है उस जगह में ऐसी हालत है, कि लोग रात दिन यह सोचते हैं की आत्महत्या कैसे की जाए!
आपको पता नहीं कि स्वीडन, नॉर्वे और स्विट्जरलैंड यह तीन देश हैं बहुत समृद्ध शाली, और वहां से जब लोग मेरे पास आते हैं, जवान लड़के, जवान लड़कियां, बहुत छोटे जिन्होंने अपनी जिंदगी में कोई भी आनंद नहीं उठाया, कोई भी सुख नहीं उठाया। वो जब आते हैं तो मैं देखती हूं, कि उनकी हालत ऐसी है जैसे कोई शव की या प्रेत की हो। मैं पूछती हूं, 'भई तुम लोग करते क्या हो? ऐसी तुम्हारी हालत क्यों?' कहते हैं कि 'मां हम तो यही सोचते रहते हैं, कि आत्महत्या किस प्रकार की जाय?'
तो जो हम लोग दिमाग में यह बनाए बैठे हैं, कि वह देश बड़ा उन्नति शील है, और हमको भी उनके जैसे उन्नति करनी है, तो मेहरबानी से हमको थोड़ी देर के लिए रुक जाना चाहिए। यह तो ऐसा देश है जो सारी चीजों को पूरी तरह से फलीभूत कर सकता है। लेकिन हमारी दृष्टि बाहर है अंदर नहीं हर मामले में।
वही हाल अध्यात्म का भी है। अध्यात्म अंदर से पाने की चीज है बाहृये से नहीं। कई लोग सोचते हैं कि हम गेरुआ वस्त्र पहनकर घूमे तो परमात्मा मिल जाएंगे। कोई लोग सोचते हैं, कि हम परमात्मा का नाम सुबह से शाम तक लेते रहे तो परमात्मा मिल जायेंगे। जहां देखिए वहां इस तरह की कल्पनाएं लोगों की परमात्मा के बारे में हो गईं। कई लोग सोचते हैं कि यह खान पीन छोड़ो तो मिल जायेगा, वो करने से मिल जायेगा। बाहृये से परमात्मा मिलना कहीं भी वर्णित नहीं है। किसी भी धर्म में बाहृये से परमात्मा मिलना वर्णित नहीं है। यह कहा गया है, कि बाहृये से जरा चित् को हटाने के लिए, अगर आप कोई ऐसा प्रयोग करें, तो वो फलीभूत हो सकता है। लेकिन बाहृये के आवरणों से आप आत्मा को प्राप्त करिएगा, ऐसा कहीं भी लिखा नहीं। तो इसे अंदर ही पाना है।
'कहे नानक बिन आपा चीन्हे मिटे ना भ्रम की काई' सब ने कह दिया कि जब तक अपनी आत्मा को प्राप्त नहीं करियेगा, तब तक भ्रम आपका जा नहीं सकता, माने यह जो कि आज आपकी मानवीय चेतना में इस ह्यूमन अवेयरनेस में जो भी कुछ आप जानते हैं, उससे परे कुछ और जानने का है। उसे जानने के लिए पहले आपको आत्मा को प्राप्त करना चाहिए।
बुद्ध ने तो यहां तक कह दिया, कि आप परमात्मा की बात मत करिए। वह तो दूर की बात है। पहले आत्मा ही की बात करो, क्योंकि जब तक आत्मा को ही प्राप्त नहीं करोगे, तो यह बेकार की बातों से लोग दुनिया भर की चीजें करते रहेंगे और असलियत पर नहीं रहेंगे, यानि वहां तक लोग उनको कहते हैं, कि वो अनीश्वरवाद था।
उसी प्रकार महावीर जी ने भी यही प्रयत्न किया। समकालीन थे। उन्होंने दोनों ने यही प्रयत्न किया, चलो थोड़ी देर छोड़ ही दो। सिर्फ आत्मा ही की बात करो। जब आत्मा को प्राप्त करोगे, तब हम फिर परमात्मा की बात करेंगे। उस से पहले उस की बात करना व्यर्थ ही है, क्योंकि जिस के पास आंख ही नहीं, उस के पास रंग की बात क्या की जाए। लेकिन ये सब होते हुए भी, इतनी असलियत होते हुए भी हम लोग, जो कि हम भारत वासी हैं और जो कि इस भूमि पर, इस योग भूमि पर पले हुए हैं, जो कि इतनी महान भूमि है, कि इसका वर्णन नहीं करा जा सकता, हम लोग इस से अपरिचित रह गए।
वजह ये हुई है कि हम लोगों पर अंग्रेजों का राज्य आ गया। अंग्रेजो ने हमारे ऊपर छाप डाल दी। हम खुद ही अंग्रेज होने के जतन में लगे हुए हैं। जब तक स्वतंत्रता नहीं थी, तब तक कुछ भला था हाल। आप तो जब से स्वतंत्रता हो गई, तो हम लोगों के बेअंदाज तरीके शुरू हो गए, कि हम उसी चक्कर में फंसना चाहते हैं कि जिस में ये लोग घूम रहे हैं। लेकिन जैसे कि कोई विशाल वृक्ष खड़ा हो जाए, और वह अपनी जड़ों को ना जाने, उसी प्रकार इस सृष्टि की आज हालत है। यह सारा जो उन्नति के पथ पर चला हुआ पश्चिमात्य देशों का समूह है, यह सिर्फ एक
विशाल वृक्ष के जैसा है, जिसने अपनी जड़ों को नहीं जाना अंदर से। और इसकी जड़ों को जानने का कर्तव्य हमारे ऊपर है, क्योंकि हम ही ने शुरू से जड़ों की बात की है, और जड़ों के बारे में हम ही को ज्ञात है।
परंपरागत हम देखें तो चौदह हजार वर्ष पूर्व से ही मारकंडेय ने, जिसने की बड़ा तपस्या और त्याग का अनुदान दिया था, उन्होंने कुंडलिनी की बात चौदह हजार वर्ष पूर्व की थी। और हमारे यहां कहते हैं, कि इंद्र को सोलह हजार वर्ष पूर्व आत्मसाक्षात्कार हुआ था। यह हमारी परंपरा है इस देश की। हमने हमेशा जड़ों को खोजा है। कोई भी साधु संत आप देखिए, जिन्होंने लिखा है। जिन्होंने भी इस पर लिखा है, यही कहा है कि अपनी आत्मा को प्राप्त करो।
लेकिन हम लोग उसमें भी एक चीज नहीं समझते हैं, कि यह सहज है। 'सहज समाधि लागो' कबीरदास जी कह गए 'सहज समाधि लागो'। सहज का मतलब यह, कि 'सह' माने आप के साथ, 'ज' माने पैदा हुआ। आप ही के साथ पैदा हुआ यह योग का अधिकार आपके अंदर स्थित है।
जब ये कहा गया, उधर चित्त किसका जाता है, लोग तो और ही चीजे कर रहे हैं। मंदिरों पे मंदिर बन रहे हैं। दुनिया भर के धर्म स्थापन हो रहे हैं। दुनिया भर की चीजें हो रही हैं, लेकिन जो अंदर से पाने की बात है, उधर किसी का चित्त नहीं है। इसीलिए आज जो हम देखते हैं धर्म की अनास्था, धर्म की ग्लानि, इतना ही नहीं धर्म धर्म में झगड़ा, ये असत्य की बात है, क्योंकि सत्य एक ही है। विश्व का धर्म एक ही है, वो है आत्मा को प्राप्त करना। और जिस धर्म में यह नहीं होता है, वहां हम अपने एक एक फूल, जैसे की इस वृक्ष में लगे हुए हैं, इस परमात्मा के वृक्ष में लगे इन फूलों को, इन अवतारों को, इन संतों को, साधुओं को तोड़ डालते हैं, और उन मरे हुए फूलों को अपने दिल से चिपका कर ये, ये मेरा धर्म! ये मेरा धर्म! कह कर के आपस में लड़ाई झगड़ा करते हैं। ये कभी भी धर्म हो ही नहीं सकता।
धर्म वो चीज है, जब आप उसे प्राप्त करते हैं, वो संतुलन आप को मिलता है, जिस संतुलन के कारण आप ऊपर उठ सकते हैं, और जब आप ऊपर उठ जाते हैं, तो आप को आश्चर्य होगा कि आप के अंदर सामूहिक चेतना जो है, आप के नसों में आ जाती है। आप के सेंट्रल नर्वस सिस्टम में आप महसूस करते हैं, कि सामुहिक चेतना क्या है।
हमारी उत्क्रांति, हमारा इवोल्यूशन जो हुआ है, जो आज अमीबा से हम इंसान बने, उस में कौन सी आप ने मेहनत की थी जो आप इंसान बन गए, जो आज मेहनत करनी पड़ेगी? अगर यह सारा उत्क्रांति का ही रचनात्मक कार्य है, उसी का इवोल्यूशनरी प्रोसेस है, तो उसमें आपको कौन सी मेहनत करनी पड़ेगी, जिसके लिए कि आप को इसका अंतिम चरण प्राप्त करना है। कोई भी ऐसी चीज की जरूरत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ये सब से महत्वपूर्ण चीज है, जिसे कहते हैं वाइटल चीज है। इस के लिए अगर आप को मेहनत करनी पड़े तो, तो हो गया! अगर कल हमें अपनी श्वास लेने के लिए किसी लाइब्रेरी में जा कर पढ़ना पढ़े और उस के बारे में जानना पड़े, तो हम तो, यहां कितने लोग जीवित रहेंगे?
जो सब से महत्वपूर्ण चीज आज है, वो है अपनी आत्मा को प्राप्त करना। न कि ये की फालतू चीजों में अपनी जिंदगी बर्बाद करना, जिससे कि हम तामसिक बन जाएं, या हम राजसिक बन जाए। पर सात्विकता में खड़े हो कर के अपनी आत्मा को प्राप्त करना चाहिए।
और आज निसर्ग भी हमारे पीछे हाथ धो के लगा हुआ है, जिसे के हम कहते हैं कि घोर कलयुग आ गया है। कहते तो सब हैं, लेकिन उधर चित्त हमारा नहीं है। आज सारी सृष्टि में जो बड़ा गदर सा मचा हुआ है, दुनिया भर के लोग जो आपस में आतंक मचाए हुए हैं, और आज एटम बॉम्ब जो आप के सिर पे लदा हुआ खड़ा हुआ है, वो बता रहा है कि कुछ न कुछ करना होगा। जब तक मनुष्य सामूहिक चेतना में खड़ा नहीं होगा, तब तक शांति की बातचीत वाचलना मात्र है, जिसे की 'शब्दजालम' कह कर के और आदि शंकराचार्य ने बहुत गिराया है।
तो इस वक्त यह जानना है, कि हम जो मनुष्य चेतना में हैं, हम सब कुछ नहीं हैं। अभी तक हम ने अपना जो है अंतिम चरण पाया नहीं, इसीलिए हम भ्रम में बैठे हैं। हमारे अंदर आज भी जो वैमनस्य है, और जो द्वेष, ईर्ष्या आदि जो हम को एक दूसरे से अलग हटाता है, यह जो भावना है, इसका कारण ये है, कि अभी तक हमारे अंदर वो चेतना जागृत नहीं हुई, जिसे हम सामूहिक चेतना कहते हैं। और ये चेतना हमारे अंदर जाग्रत होनी चाहिए।
यह यूंग जैसे बड़े भारी साइकोलॉजिस्ट जिन्होंने पहले फ्रायड का शिष्यत्व किया था, फिर उसको उन्होंने पूरी तरह से धिक्कार किया। उन्होंने साफ-साफ कहा है, कि जब मनुष्य उठेगा उसके अंदर सामूहिक चेतना जागृत हो जाएगी।
वल्लभाचार्य ने कहा है कि 'वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे पीण पराई जाने रे'। वो बुद्धि से जानने की बात बिल्कुल नहीं है, क्योंकि वह तो स्वयं आत्मा की प्राप्ति की ही बात करते थे। तो उन्होंने यह नहीं कहा कि आप बुद्धि से जानिए। इसे क्या तकलीफ है। यह तो डॉक्टर लोग जानते ही हैं। लेकिन अपनी आत्मा से जाना जाता है, और आत्मा से जानने के लिए आप के अंदर यह जो चैतन्य की लहरियां बहनी शुरू हो जाती है। जब आपके हाथ से चैतन्य बहना शुरू हो जाता है, तो उंगलियों के इशारे पर आप जानते हैं, कि कौन सी जगह इस आदमी को शिकायत है, और कौन सी जगह आपको शिकायत है। और उसको ठीक करने का अगर इंतजाम आप जाने या उसके लिए आप में इतनी तितिक्षा आ जाए, या जिसे आप कहिए, उसके लिए आपके अंदर एक्सपर्टाइज आ जाए, तो आप स्वयं इसे बैठे-बैठे ठीक कर सकते हैं। और कैंसर और यह जो बीमारियां हैं, जिससे दुनिया सारा आज आतंक में फंसा हुआ है, सारी दुनिया में आफत मची हुई है, वो सारी की सारी नष्ट हो सकती हैं, और यह दिन आज आ सकता है।
लेकिन हमारे यहां लोग जरा जरूरत से ज्यादा होशियार है, जरूरत से ज्यादा बुद्धिमान हैं। छोटेपन में एक बार कबीरदास जी को पड़ा था। उन्होंने कहा था कि, 'पढ़ी-पढ़ी पंडित मूर्ख भय'। तो मैं कहती थी कि पंडित कैसे मूर्ख हो जाएंगे। सो मुझे आजकल दर्शन बहुत होते हैं। शब्द जाल में फंसने में हमें बड़ा मजा आता है। शब्दों के जाल, शब्दों के झगड़े, शब्दों पर लड़ाई करना, और इससे अपने को कुछ तो भी विशेष रूप से, मैं यह हूं मैं वह हूं कहना। आप सिर्फ मानव के सिवा और कुछ नहीं हैं, और आप को अतिमानव होना चाहिए।
अब आप क्या हैं, क्या नहीं हैं, आप के अंदर क्या चीज है इसे आप एक शास्त्रज्ञ साइंटिस्ट की दृष्टि से जानने की कोशिश करें। ये नहीं की दिमाग पहले से ही बंद कुंद कर लिया। हमारे फलाने गुरु साहब हैं। उन्होंने तो यह कहा था। आपने अगर उनसे आज तक कुछ पाया नहीं, तो कम से कम अपनी बुद्धि को खोल कर सोचिए, कि आपके अंदर जो व्यवस्था बनाई है, यह सहज है, यानी आप ही के साथ प्राप्त हुई है। आपके जन्म के साथ आपकी कुंडलिनी आप ही के साथ आई है।
अब इस कुंडलिनी पर भी लोगों ने ऐसे ऐसे वचन लिखे हैं, कि जो सुनकर मैं खुद हैरान हो जाती हूं, कि पता नहीं कहां से इन्होंने लिखा है, जिससे आदमी एकदम घबडा जाए। ये साक्षात आप की अकेली, आप की व्यक्तिगत, आप की इंडिविजुअल मदर हैं। ये क्या आप को तकलीफ देंगी, या परेशान करेंगी? जो मां जिसने आप को जन्म दिया है उसने बिचारी ने तो सारी तकलीफें खुद उठा कर आप को जन्म दिया, तो ये जन्म जन्मांतर की जो आपकी मां है, क्या ये कुछ आप को तकलीफ दे सकती है? इस तरह की बात वही कहते हैं, कि अनाधिकार चेष्टा जिसे कहते हैं, जो आदमी इसका अधिकारी नहीं होता, और वो करना चाहता है कि मैं कुंडलिनी को जाग्रत करूं, तो जरूर है कि गणेश जी हाथ मारते हैं, और तकलीफें शुरू हो जाती हैं। पर कुंडलिनी का इस में हाथ नहीं है।
गणेश जी जो हमारे अंदर एक अबोधिता बन के जी रहे हैं, हमारे अंदर जो जाग्रत हैं, हमारे अंदर जो चक्र हमारे सब नीचे है, (श्री माताजी चार्ट की और संकेत करते हुए) इस में जरा स्पष्ट रूप से नहीं है। यह तो इन लोगों ने कुछ छपवा वपवा लिया है। लेकिन आप लोग देख सकते हैं जब आप किताब लीजिएगा। जो पहला, जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं, उस में साक्षात बैठे हैं।
लेकिन अब ऐसे दिन आने वाले हैं, कि परदेस से लोग आ कर के गणेश जी समझाएंगे, क्योंकि हमारे पास फुरसत कहां है? बड़े बिजी लोग हो गए! कर क्या रहे हैं आप? कर क्या रहे हैं? सिर्फ इसके कि सरदर्द, टेंशन, प्रेशर्स, कैंसर, ये बीमारी, वो बीमारी, सब जोड़ते चले जा रहे हैं एक के बाद, एक के बाद एक।
लेकिन जो आप की धन संपदा अंदर में है, जो आप की विशेष चीज अंदर में है, उसे क्यों न पा लें? और जब वो सहज है। यह भी जान लेना चाहिए, कि यह सहज जो घटना हमारे अंदर घटित होती है यह जीवंत क्रिया है। यह कोई मरी हुई क्रिया नहीं है। जैसे कि एक बीज है आप उसको पनपाना चाहते हैं। अगर उसको आप धरती मां की गोद में डाल दीजिए, तो अपने आप उस में अंकुर आ जाते हैं। उसके लिए आप कौन सी तनख्वाह देते हैं इस मां को, जो रात दिन मेहनत करती है। या उसे कौन सा आप रुपया पैसा देते हैं, या कौन आप सिर के बल खड़े होते हैं। यह तो उस की मां की अपनी ही शक्ति होती है, जिसके दम पर वह अपने आप से ही अंकुरित हो जाता है।
इसी प्रकार यह भी एक सहज चीज है जो कि जीवित चीज है, और जो मनुष्य परमात्मा के नाम पे पैसा इकट्ठा करता है, उस आदमी से आप को सतर्क रहना चाहिए, बहुत सतर्क रहना चाहिए। और वह हमेशा ऐसे लोगों के इंतजामात में रहता है, कि किसके पास ज्यादा पैसा है, किसको कितना ऐंठना चाहिए। हम लोगों को सोचना चाहिए, कि जो आदमी परमात्मा की बात करता है, उसकी नजर ही पैसे पे नहीं रहती। उसको क्या मतलब है कि आपके पास कितना पैसा है कितना नहीं? वो तो यह देखता है कि आपके पास धर्म की संपदा कितनी है, और आप कितना परमात्मा को पा सकते हैं।
लेकिन हम इस चक्कर बाजी में इतना ज्यादा फंसे हुए हैं, कि हम सोच भी नहीं सकते, कि इसके परे कोई चीज हो सकती है। दूसरा और भी चक्कर हमारे यहां चलता है, कोई आदमी अगर सोशल वर्क करता है, जो कि किसी का अस्पताल खोल दिया, किसी की बीमारी ठीक कर दी, कोई स्कूल खोल दिया। यह कोई परमात्मा के काम है? यह तो मनुष्य के कार्य हैं। यह आपके सामाजिक कार्य हैं, आप करें। इससे कोई परमात्मा को मतलब नहीं है। लेकिन जब कोई परमात्मा का आदमी ठीक करता है, तो उसे जरूरी नहीं कि वो अस्पताल खोले। वो तो एक नजर में भी आप को ठीक कर सकता है। उसकी नजर में ही वह शक्ति होती है, कि एक नजर से, एक कटाक्ष से, 'कटाक्ष कटाक्ष निरीक्षण' कहा गया है देवी के लिए, कि एक कटाक्ष में ही वह आपको ठीक कर सकते हैं। एक नज़र में वो आप को ठीक कर सकते हैं अगर वो वाकई परमात्मा के आदमी है।
तो इस तरह की गलतफहमी में रहना, कि हमने यहां धर्म में पैसा दे दिया, वहां धर्म में पैसा दे दिया, और या तो फिर अपने को भूखा मारते रहते हैं सुबह से शाम तक हम लोग। इतनी गलतफहमी में हैं। यह उपवास करना है, वह उपवास करना है। जिस चीज का आप शौक फरमाते हैं, वही हो रहा है। अपने देश में भुखमरी हो रही है। मैं किसी से कहूं कि 'भई क्यों उपवास करते हो परमात्मा के नाम पर, (श्री माताजी हंसते हुए) क्यों उसको दुख देते हो?' खासकर मां को तो बहुत दुख होता है, अगर मां से झगड़ा हो जाए, तो हम कहते है की आज खाना बंद। बस मां के लिए इससे बढ़कर दुखदाई क्या चीज, कि मेरे बच्चे ने आज नहीं खाया। उस के प्राण निकाल डालें आप ने। लेकिन उपवास करने में हम लोग बड़े होशियार हैं। उपवास तो वैसे ही देश में हो रहा है। उसकी वजह से क्या भगवान आने वाले हैं उनके यहां?
बुद्धि को ताक पर रखकर जो लोग धर्म करते हैं, वह कभी कभी बड़े अधर्म में फंस सकते हैं। इसलिए बुद्धि को त्यागना नहीं चाहिए। लेकिन भक्ति का मतलब यह नहीं, कि पागल जैसे माला जप रहे हैं। माला जपने के लिए भी आपको जानना चाहिए, कि परमात्मा से आज तक आपका संबंध नहीं हुआ। अगर हमारा आपसे संबंध ना हो, और आप हमारा नाम लेते रहें, तो क्या आप हमें प्राप्त कर लेंगे?
ये अगर, ये जो मशीन आप के सामने है, इस का संबंध जब तक मैन से नहीं होगा, क्या आप इस को व्यवहार में ला सकते हैं? जब तक आप का संबंध परमात्मा से हुआ ही नहीं, तो आप किस को पुकार रहे हैं? जब तक आप का टेलीफोन ही जुड़ा नहीं है तो आप किस को बुला रहे हैं? तो कहने लगे, हम ने एक सौ आठ नाम इसके लिए हैं। एक लाख उसका किया है। किस ने कहा आप से? ये तो सब पैसे भरने वालों की बात होती है। तुम एक लाख जपते रहो, और एक लाख इधर दे दो। हम लोगों को अपनी बुद्धि को सजग रखना चाहिए। पर इस वक्त जो बुद्धिमान लोग हैं, वो अंग्रेजों की तरफ घूम गए हैं। या तो वो अंग्रेजों की तरह घूम रहे हैं, या अमरीका की तरह घूम रहे हैं, या पता नहीं और कहां उनका दिमाग घूम रहा है।
यह देखिए की हमारे ही अंदर, बुद्धि से जानिए, कि हमारे ही अंदर, इसी देश के अंदर इस का भंडार पड़ा हुआ है। और उस भंडार से जब आप प्लावित होंगे, आप का सृजन होगा, तो आप सारे संसार को उस से जाग्रत कर सकते हैं। सारे संसार में आप शांति फैला सकते हैं। इतनी महान चीज है इस देश में जन्म लेना, कि आप लोग जानते हैं, कि कितने महापुन्यों के बाद मनुष्य इस देश में जन्म लेता है। इस में साक्षात विश्व की कुंडलिनी बैठी हुई है। देश आप का है। यहां जितना पुण्यकर्म हुआ है, कहीं नहीं हुआ।
आप को आश्चर्य होगा, मै मेरे पति के साथ लंदन से आ रही थी। और आते ही साथ मैने इनसे कहा, 'चलो हिंदुस्तान तो आ गया।' उन्होने कहा, 'कैसे जाना?' मैंने कहा, 'सब दूर चैतन्य जो फैला है। और क्या! यही तो मेरा देश है।' तो उन्होंने कहा,'अच्छा?' गए और पायलट से जा कर पूंछा। उन्होंने कहा कि, 'अभी एक मिनट पहले वी टचएड आवर शोर्स!' ये हमारा महान देश है।
अभी डॉक्टर वारेन आ रहे थे। हम लोग हॉन्ग कॉन्ग से लौट रहे थे, स्विट्जरलैंड से। तो झट से उन्होंने कहा कि, 'मां आ गया हिंदुस्तान।' मैने कहा,'क्यों?' उन्होंने कहा,'मेरी कुंडलिनी चढ़ गई एक दम खटाक से।' मैंने जा कर के पूंछा। कहने लगे, 'हां अभी टच हुआ है कैलकटा।' ये अपना महान देश है जहां चैतन्य की लहरियां बह रही हैं। इतना सागर चैतन्य का यहां पर है, और यहां हम अनभिज्ञ की तरह, अपरिचित बने, अंग्रेज बन रहे हैं। ये कोई अक्लमंदी की बात नहीं है।
मैं आपसे एक मां की तरह बता रही हूं, कि आप के अंदर यह शक्ति निहित है, और इतनी जबरदस्त है आपके अंदर क्योंकि आप हिंदुस्तानी हैं। हिंदुस्तानियों को पार कराने में जरा भी मुझे समय नहीं लगता। एक क्षण में लोग पार हो जाते हैं। खासकर हमारे देहातों में तो हजारों आदमी आज पार हो रहे हैं। मैं ज्यादातर शहरों में काम कम करती हूं, क्योंकि शहर के लोग ना इधर के रहे ना उधर के रहे। कुछ गडबड काम है। लेकिन ज्यादातर में देहातो में काम करती हूं। देहातों में मनुष्य में शक्ति, भक्ति, सब चीज काफी अभी भी है, और लाखों लोगों को रियलाइजेशन हो चुका है महाराष्ट्र में। आप आश्चर्य करेंगे।
हालांकि राजस्थान में आज ही मैंने ये पहला प्रोग्राम किया है और मुझे पूर्ण आशा है, कि राजस्थान में ये कार्य होगा। विशेषकर मैं स्वयं भी, मेरे बाप दादे, बहुत पुराने हम लोग राजपूत ही हैं। मतलब शालीवाहन का नाम आपने सुना होगा। उसी के खानदान के हम लोग हैं। तो हम राजपूत ही हैं, और ये भूमि मेरे बाप दादाओं की है, और मुझे यहां बहुत कार्य करने का है।
मैं आपसे विनती करती हूं, कि आप पहले अपनी आत्मा को पहचानिए, आत्मा को प्राप्त करिए। आत्मा को प्राप्त करते ही आपकी अनेक बीमारियां दूर हो जाएंगी। उसका तो कुछ विशेष है ही नहीं। जिसको कहते हैं कि बाइप्रोडक्ट है, और उसके बाद आप के अंदर की मानसिक शांति स्थापित हो जायेगी। आप को आनंद आएगा। पर कोई भी दीप आदमी जलाता है, तो इसलिए नहीं कि उसको टेबल के नीचे रखा जाए, पर इसलिए कि लोग उसके प्रकाश से प्रकाशित हों।
इसीलिए जो आदमी एक बार पार हो जाते है, उनको थोड़ा सा इस में जानना चाहिए, और उसके बाद लोगों को देना चाहिए। बहुत ही सहज बात है, सरल बात है। कोई कठिन बात नहीं है। जिसे की हम कह सकते हैं, कि योग के दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ ये होता है योग का, सिर के बल खड़ा होना और व्यायाम आदि करना। ये तो बिलकुल जिसको कहते हैं अष्टांग योग करना जिसको कहते हैं एक सौ साठवां पार्ट योग का इतना सा है, और उसके लिए भी यह जानना चाहिए कि हर कुंडलिनी कौन से चक्र पर रुकी हुई है। जब तक कुंडलिनी चली ही नहीं, (श्री माताजी मुस्कुराते हुए) तब तक आप कौन सा अपना इलाज कर रहे हैं? कौन सा चक्र आपका पकड़ा है पहले वह तो देखिए, नहीं तो हो सकता है कि इलाज कर रहे हो आप पेट का और बीमारी आप के सिर में या आप के कंठ में कहीं हो। इसलिए पहले कुंडलिनी को चढ़ने दीजिए। जब वह चढ़ती है तो अपने आप ही जानिएगा कि आपको शिकायत कहां है, क्या है। उसे आप ठीक कर लें।
पर हम लोग थोड़ा उस बात को जो योग बनाए हुए हैं, उसका कारण यह है कि कुछ लोग हिमालय गए थे। उन में कुछ बेकार लोग थे, तो उनको वापस भेज दिया गया। उन्होंने शुरुआत में वही सब व्यायाम वगैरा सीखा, उसी को सिखा दिया। उसी का नाम योग हो गया।
योग का एक अर्थ होता है जो कि सबसे बड़ा और महान अर्थ है, कि परमात्मा की जो सर्वव्यापी शक्ति है उससे एकाकार होना। ये एक अर्थ हुआ, और दूसरा अर्थ होता है युक्ति से। 'कोई ऐसी युगति करो नंदलाल'- कहा जाता है। कोई ऐसी युगति करो! युगती माने जोड़ देना, और युक्ति देखिए शब्द हमारे यहां बनाए भी कितने सुंदर हैं, कि युक्ति। युक्ति माने कि उसकी ट्रिक, याने की उसकी प्रवीणता एक्सपर्टाइज। वो सीख लेना ये योग का अर्थ है। योग कौशलम! कौशलम- उसकी डेफ्टनेस जिसे कहते हैं। यह सीख लेना। तो सिर्फ योग को प्राप्त कर से कुछ नहीं होगा। उसका एक्सपर्टाइज भी सीखना चाहिए।
लेकिन इस के लिए आप पैसा वगेरह कुछ दे नहीं सकते। ये समझ लीजिए। अंग्रेज तो इतने अकलमंद हैं, कि मुझ से कहने लगे, कि एंग्लो- सैक्सन ब्रेन ये समझ ही नहीं सकता कि आप बगैर पैसों के ये काम करते हैं। मैंने कहा, 'इतना गया बीता है अगर एंग्लो - सेक्शन ब्रेन, तो रहने दो उसको। बेकार की चीज है।' लेकिन हम तो इस चीज को समझ सकते हैं क्योंकि परंपरागत इस देश में अनेकों ने इस कार्य को किया। लेकिन उस वक्त एक दो हो फल लगते थे। एक ही दो पार होते थे। जैसे कि राजा जनक ने एक नचिकेता को ही पार कराया था। उनको आत्म दर्शन दिया था, लेकिन आज सामूहिक चेतना का समय आ गया है। ये विशेष समय है। इसे में कहती हूं, बहार आई हुई है, ब्लॉसम टाइम है। इस वक्त बहुत से फूलों को फल होना है और अगर नहीं हुआ, तो इस संसार का सर्वनाश ही होने वाला है।
में तो नहीं सोचती, कि एटम बॉम्ब से हमारा सर्वनाश होगा। हमारा सर्वनाश होगा हमारे ही अंदर से उखड़ जाने से। हमारी ही जड़ों से हट जाने से हमारा सर्वनाश कोई भी तरह से हो सकता है। या तो हमारी शारीरिक हानि हो
जाए या मानसिक हानि हो जाए, या सांपतिक हानि हो जाए। किसी भी तरह से हमारा नाश हो ही सकता है, जब कि हम अपनी जड़ों तक नहीं पहुंच सकते। एक एक सर्वसाधारण जीवन का रहस्य है, कि जिस के पास में जीवन का स्त्रोत बहता नहीं, वो कब तक जी सकता है? इसीलिए उस जीवन के स्त्रोत को पाना चाहिए। उसको जानना चाहिए। इस की इच्छा उत्कंठा जब होती है, तभी उसे साधक कहा जाता है।
आशा है आप लोग भी इसी इच्छा से यहां तशरीफ लाए हैं, और कहने का ये है कि समय कम है, और एक लेक्चर में तो सारी पूरी बात तो बता नहीं सकती मैं। लंदन में कम से कम कहते हैं लोग, कि सिर्फ लंदन में हमारे तीन हजार लेक्चर्स हुए हैं, और मराठी भाषा जो की मेरी मातृ भाषा है, उस में तो कम से कम पांच हजार लेक्चर हो गए, और हिंदी में भी लोग कहते हैं कि करीबन तीन चार हजार भाषण हो चुके हैं। तो अब इतना करने पर भी, अभी भी (श्री माताजी हंसते हुए) जो भी कह रही हूं, उसका कोई अर्थ नहीं।
आप से सिर्फ इतनी ही विनती है, कि आप लोग पहले ये सब जानने से उस दीप को पा लें, जो आप के अंदर स्तिथ हैं। यह आप ही का अपना है। मुझे उसमें कोई खास चीज करने की नहीं। कुंडलिनी आपकी मां है। आत्मा आप के हृदय में बसा हुआ है। सिर्फ कुंडलिनी का जागरण मेरी उपस्थिति में पहले होगा। उसके बाद आप की उपस्थिति में भी हो सकता है। एक दीप जो जला हुआ है, वही दूसरे दीप को जला सकता है। इस में कौन सा लेना देना लगता है? और आप दे भी क्या सकते हैं, और हम ले भी क्या सकते हैं! जब हम लेने से असमर्थ हैं, तो आप देने से भी असमर्थ हो ही जाएंगे, क्योंकि जब हम ले ही नहीं सकते, तो आप देंगे क्या! देना सिर्फ यही है कि प्यार। प्यार जब आपके अंदर परमात्मा का आता है, तो उसमें कोई, उसके अंदर खिंचाव नहीं रह जाता। जिसे कहते हैं, कि कोई तरह की वासना नहीं रह जाती। वासना रहित अत्यंत शुद्ध प्रेम, आप के अंदर से शक्ति स्वरूप बहता है। ये प्रेम की शक्ति है जिसको हम ने कभी भी जाना नहीं और इस्तेमाल नहीं किया।
हम तो सिर्फ द्वेष, हिंसा और घृणा की ही शक्ति को आज तक इस्तेमाल करते आए हैं। आज तक इस सर्वव्यापी प्रेम की शक्ति को हमने नहीं जाना। वह जब हमारे अंदर से बहना शुरू हो जाती है, तभी हम समर्थ होते हैं, और समर्थ होते ही सभी तरह की बुरी आदतें, सब तरह की गंदगी सब छूट कर के एक साधु संत बन जाते हैं। जिस के लिए कहा गया है- 'पार उतर गए सब संत जनाने' (अस्पष्ट)। उसके लिए घर द्वार छोड़ो, बीवी को छोड़ो, बच्चों को छोड़ो। ये सब तमाशे करने की जरूरत नहीं! फिर से बाहृये में आने की जरूरत नहीं। अंदर ही से चीज जो छूट जाए वही असली है। बाहर से उसका क्या अनाउंसमेंट करने का, कि हम संन्यासी हैं। हम बाबाजी हैं। ये तो वो लोग करते हैं, जिनको इस के दम पर रुपया कमाना होता है।
और फिर मनुष्य सहज में ही सब को देता है। सहज में ही देता है। उस में कुछ यह नहीं कि साहब मैंने किया। तब तो आदमी अकर्म में बोलता है। जो सारा गीता में बताया गया है, कि तुम अकर्म में आ जाओ। लेकिन उस में भी थोड़ी चक्करबाजी, क्योंकि श्री कृष्ण जो थे बड़े भारी डिप्लोमेट थे। तो उन्होंने सोचा सीधे उंगली तो घी नहीं निकलेगा, तो उन्होंने थोड़ी टेढ़ी उंगली (श्री माताजी हंसते हुए) करके आप लोगों को बताया हुआ है। लेकिन मैं तो मां हूं। मैं तो असलियत बता दूंगी। यह टेढ़ी उंगली बताई हुई है। उस रास्ते में आपने कही चक्कारें काटी हैं, अब सीधे सीधे आ जाइए।
जैसे कि एक बच्चा होता है। वो एक गाड़ी चला रहा है। और घोड़ा पीछे है। तो बाप बाहर आया। तो बाप ने कहा कि, 'चलो भई घोड़े को आगे लगा लो। जब स्थितप्रज्ञ हो जाओ, तब उसके बाद बात करेंगे।' तो लड़के ने कहा, अर्जुन ने कहा, 'भई आप तो कह रहे हो, लेकिन ये कैसे? आप तो इधर कह रहे हो कि तुम साक्षी हो जाओ। उधर कह रहे हो तुम युद्ध में जाओ।' उन्होंने कहा, इनके बस का नहीं! चलो, इनको उल्टा बताएं। 'चलो, ठीक है! तुम घोड़ा मत लगाओ सामने। तुम ऐसा करना चित्त अपना घोड़े पे रखो! घोड़ा जरूर चलेगा।' और न चलने वाला है। ये डिप्लोमेसी की खासियत है, क्योंकि मेरे पति भी एक डिप्लोमेट हैं। मैं जानती हूं कि जो भी कंडीशन रखिए एब्सर्ड रखिए। एब्सर्ड कंडीशन रखिए की फिर आदमी हार कर लौट आएगा, कि भैया ये तो होने नहीं वाला। तो फिर दूसरी कंडीशन पे उतर आता है। यही कृष्ण की बात है, कि कृष्ण ने एक एब्सर्ड कंडीशन रखी कि जब घोड़ा पीछे है, तो आप आगे जायेंगे कैसे?
तो उन्होंने उस पर बहुत कमाल किया है। जैसे कि भक्ति में उन्होंने कहा कि, ' पत्रम, पुष्पम, फलम, तोयम' - जो भी देना है वो मुझे दीजिए।' और देते वक्त कहा, 'अनन्य भक्ति करिए!' अनन्य शब्द पर खेल गए। अनन्य माने जब दूसरा नहीं होता। माने कब नहीं होता दूसरा! जब आप का संबंध उस से हो जाए तब न! उनकी चक्करबाज़ी में न आइए (श्री माताजी हंसते हुए) क्योंकि वो जानते थे इंसान इतना गड़बड़ है। वो तो छह हजार वर्ष पूर्व की बात थी। लेकिन उन्होंने इसलिए ये चक्कर चलाए क्योंकि इंसान की खोपड़ी उल्टी है।
हम खुद देखते हैं। रोजमर्रा हमें ऐसे लोग दिखाई देते हैं, कि वो सीधे आते हैं नहीं। उन्हे गोल ही घुमाना पड़ता है। जब फिर ये लोग कहते है कि, 'मां आपने माया उन पे कर दी।' मैं कुछ नहीं करती माया वाया, लेकिन सीधे वो चीज जो है, नाक के सिधान में उसे नहीं देखेंगे। उल्टे घूमेंगे। और जब उल्टे घूमते हैं (श्री माताजी हंसते हुए नीचे बैठे किसी की और देखते हुए) इन से पूंछ लीजिए बताएंगे किस्सा। (श्री माताजी हंस रही हैं) जो बैठे हुए हैं। जब उल्टे घूमते हैं, तो कोई न कोई चक्करबाजी करनी पड़ती है। (श्री माताजी हंसते हुए पीछे मुड़ कर पूंछती है) बताऊं क्या किस्सा। हैं? अच्छा, तो वो चक्कर बाजी फिर थोड़ी सी चलानी पड़ती है। उस के बगैर तो इंसान की खोपड़ी में कुछ घुसता नहीं।
लेकिन ये बहुत से ऐसे लोग हैं जो सीधे सरल, आंख की ऐसे सीधार में चले जाते हैं। और हिंदुस्तानियों में एक विशेषता है, कि बहुत जल्दी प्राप्त करते हैं, क्योंकि उनका धर्म अभी भी स्थित है। अभी भी वो मां बहन जानते हैं। धर्म पे खड़े हैं। अब गवर्नमेंट को थोड़ा बहुत धक्का देते हैं। उस में कोई हर्ज नहीं। गवर्नमेंट माने जो भगवान का गवर्नमेंट है, वो ठीक रखने से बहुत काम हो सकता है। पर उसके बाद मनुष्य अपने आप ही पूरी तरह सच्चा, बिलकुल पूरी तरह से स्वच्छ हो जाता है। उसको कोई चीज की ज़रूरत नहीं रहती। लक्ष्मी उसके पैर पे लोटती है। उसको क्या करना? रिद्धि सिद्धि जिसके घर में पानी भर्ती है, उसको क्या करने का है सब चीज दौड़ने से? जो कहिए वो हो सकता है। पर पहले परमात्मा का जो साम्राज्य है, उस में आप पदार्पण करिए। परमात्मा आतुर हैं के आप आइए, आसनस्थ होइए, आराम से बैठिए और इस चीज को प्राप्त करें। जो आप की अपनी शक्ति है, उसे आप प्राप्त करें।
और ये बहुत सहज है, बहुत सरल है। इसे प्राप्त करना ही एक परम कर्तव्य है, और बाकी सब व्यर्थ है। सब बेकार की चीजों में अपना समय बर्बाद करने से, एक सीधी बात है कि परमात्मा को अपने अंदर पा लीजिए, जो आप के अंदर बसा हुआ है।
मै इतना ही आज कहूंगी, और अभी चाहें तो हम अभी इसका अनुभव भी शायद हो जाए। तो इसलिए उस ओर हम लोग अग्रसर हों। और कोई आप को प्रश्न हो तो पूंछ लीजिए, क्योंकि प्रश्न तो जरूर होंगे ही। लेकिन प्रश्न हों, जो कि इस विषय से संबंधित हों, तो ठीक है। नहीं तो कभी कभी मुझ से लोग यह भी पूंछते हैं, कि राजीव गांधी कितने साल तक यहां गद्दी पे रहेंगे। (श्री माताजी मुस्कुरा रही हैं)
(श्री माताजी के पैरों के करीब कोई योगी) - सहज योग शुरू कैसे करें?
श्री माताजी - अच्छा अभी शुरू करवा देते हैं। आप तो भटके से हमारे घर आ गए थे। भूले भटके से ये हमारे पति के मित्र है बहुत ज्यादा।
(श्री माताजी हंसते हुए) और हमारे ही चक्कर में फंस गए हैं। (श्री माताजी हंस रही है)
तो अब आप लोग इसको प्राप्त करें और प्राप्त कर के, जैसे मैंने कहा था, इसको सीख लें, कि क्या चीज है इसकी डेफ्टनेस इसकी जो है। हर चीज के लिए हमारे पास समय है, लेकिन परमात्मा के लिए समय नहीं है। लेकिन जब विकट समय आता है फिर इंसान सोचता है कि भई क्या बात है? ऐसा क्यों हो गया? और ऐसे हमें तकलीफ हो गई। अब हमें मां आप ठीक कर दीजिए। मैं कहती हूं कि आप स्वयं ही ठीक हो जाइए, और सब को ठीक करिए। इस में कोई आप को बहुत समय देना नहीं पड़ता है। घंटो आप को मेडिटेशन नहीं करना पड़ता है। आप स्वयं ही ध्यान में चले जाते हैं। कुछ नहीं करना पड़ता।
हम तो खुद ही, आप पूंछ लीजिए, हम तो खुद ही एक हाउसवाइफ हैं, और हमारी भी लाइफ बहुत बिजी रहती है। हमारे पति भी बहुत बिजी आदमी हैं, और हमारे खुद ही ग्रैंड चिल्ड्रन हैं। सब कुछ है। लेकिन सब संभालते हुए, क्योंकि आदमी इतना ज्यादा विशेष रूप से इतना शक्तिवान हो जाता है, इतना डायनेमिक हो जाता है, कि वो पच्चीसों काम करता है उसको थकान नहीं आती। उसकी उमर नहीं चढ़ती। उसको किसी तरह की परेशानी नहीं होती। अव्यग्र! अव्यग्र वह काम करता है, और चीज से हट कर के उसे देखता है। जब आप उस से हट कर देखते हैं तब उसकी जो समस्याएं हैं, जो प्रॉब्लम्स हैं, उसको आप बहुत सुव्यवस्थित रूप से ठीक कर सकते हैं। इस स्तिथि को प्राप्त करना बहुत आसान है, पर उसको जमाना, बीज का (अस्पष्ट) आसान है परंतु उस पेड़ को जमाना और उसका वृक्ष बनाना, कम से कम थोड़ी सी उधर इच्छा हुए बगैर हो नहीं सकता।
इसलिए मेरी विनती है कि पार होने के बाद भी कल भी एक मीटिंग है। उसमें भी आप लोग जरूर सब आइए, और उसके बाद ये क्या चीज है उसे आप समझ लीजिए, और इसमें आप कार्यान्वित होइए। (श्री माताजी हाथ जोड़ कर झुकती हैं)
परमात्मा आप सब को आशीर्वाद प्रदान करें।
अब कोई प्रश्न हो तो पूंछ लीजिए। (श्री माताजी अपने सिंहासन पर विराजमान होते हुए किसी को संबोधित करती हैं जो बगल में ही बैठे हैं) आप के तो खूब वाइब्रेशनस चल रहे हैं।
कोई भी प्रश्न हो तो पूंछ लीजिए।
(श्री माताजी की दाईं ओर भूमि पर विराजमान एक सज्जन) मैं पूंछ सकता हूं एक प्रश्न?
श्री माताजी: हां, पूंछिए! पूछिए! (हंसते हुए)
सज्जन: इच्छा हो तो जवाब दीजिएगा, नहीं तो मत दीजियेगा।
श्री माताजी: नहीं, नहीं! क्यों नहीं? जरूर देंगे।
(सज्जन प्रश्न पूंछना आरंभ करते हैं और कोई और दूसरे सज्जन भी, तो श्री माताजी कहती हैं)l यह पूंछ रहे हैं। (श्री माताजी माइक में खट खट करती हैं) ये तो चल ही नहीं रहा।
सज्जन: मैं आप के (अस्पष्ट) के अंदर, मकान के अंदर आया था और वहां ठहरा था। सुबह के वक्त, समथिंग वेरी सीरियस, विच यू कैन हियर मी से क्लियरली से (श्री माताजी जोर से हंस पड़ती हैं) माता जी मैं आपके यहां पर माता जी के नाते नहीं, लेकिन एक हाउसवाइफ के लिए जैसे आप कहती हैं, बड़ी भाभी के नाते, ऑक्सफोर्ड पे आप का मकान जो विलायत में है, अब शायद आप ने उसे छोड़ दिया है, उसमें आपका मेहमान रहकर एक दिन ठहरा था। कई वर्ष हो गए। भाई साहब यानि आप के पतिदेव श्रीवास्तव साहब जो यू एन वेलेंटाइन कंसल्टेशन एजेंसी के सेक्रेटरी जनरल हैं आजकल कई वर्षो से, और बराबर बार बार चुने जाते हैं यूनेनिमसली, वो मेरे पर बड़े कृपालु मित्र हैं। हम ने सुबह नाश्ता वाश्ता खा कर तय किया कि लंदन जाएं।
श्री माताजी: रात में बात हुई।
सज्जन: रात में बात हुई थी कि लंदन जायेंगे सवेरे, तो उन्होंने कहा कि, 'कैसे जाते हैं आप?' उन्होंने पूंछा। मैंने कहा, 'मैं ट्रेन से जाता हूं।' कैसे जाते हूं, पता नहीं किस तरह। तो उन्होंने कहा, 'सुबह मर्सिडीज़ गाड़ी मेरी नई ली है, उस में चलेंगे अपन।' तो ये बैठी बैठी, उस वक्त खाने के बाद का समय था, थोड़ा म्यूजिक व्युजिक हो रहा था, मुस्काती रहीं।
श्री माताजी: (अस्पष्ट)
और फिर सुबह जब आठ बजे ब्रेकफास्ट हुए तब हम ने रवानगी करी। ये मैंने जान कर के बैकग्राउंड दिया, क्योंकि दिस इस रिलेटेड विद द क्वेश्चन। मैंने कभी इनसे पूंछा नहीं, आज सब के सामने (अस्पष्ट) कर के पूंछ रहा हूं। आठ सवा आठ बजे हम, अब करेक्ट टाइम तो मुझे याद नहीं, हम गए। उन्होंने बड़ा अच्छा अपना चाभी का गुच्छा था, वो निकाला। नई मर्सिडीज़ गाड़ी का गैराज खोला। उसमें लगाया..
श्री माताजी: ये मेरे साथ आना नहीं चाहते थे।
सज्जन: (हंस रहे हैं) इन्होंने कहा आप संग चलो। नहीं नहीं! हम तो मर्सिडीज में जा रहे हैं।
श्री माताजी: मै तो पैदल जाती थी।
सज्जन: मैंने कहा आप संग ही चलोंगी। नहीं, नहीं अपन मर्सिडीज में चलेंगे। मैंने कहा चलो साब। बड़े भाई! तो टंटा क्या हुआ मर्सिडीज़ में सवा आठ, साढ़े आठ बजे जब भी पहुंचे तो बड़ी नई, ब्रांड न्यू मर्सिडीज़ उसकी चाबी ही नहीं घूमे। और वो जाम तो हो ही जाता है उसका स्टीयरिंग। तो उसका स्टीयरिंग जाम। बड़ी मैंने कारीगरी करी अपनी, बड़े भाई साहब ने ऊंचे नीचे करे। पसीने वसीने आए। ठंडे मुल्क में बहुत दिमाग लगाया, लेकिन फेल हो गए। नतीजा ये निकला कि हम (अस्पष्ट) हुए पैदल और वहां पहुंचे ट्रेन के ऊपर। वो भी कमबख्त उस दिन टाइम से नहीं आई
श्री माताजी: हमारे साथ ही आए।
सज्जन: वो फिर झक्क मार के इनके संग ही गए। अब आप ये बताओ कि ये हमारे संग क्यों चोट हुई है। क्या माजरा था?
श्री माताजी: क्या बताऊं?
सज्जन: अब आप जवाब दीजिए इसका। मैने तो प्रश्न पूंछा है आप को।
श्री माताजी: क्या प्रश्न है?
सज्जन: यही जो पूंछा है कि ये क्यों ऐसा हुआ।
श्री माताजी: अब भई आप लोग मर्सिडीज से जाना चाहते थे (श्री माताजी हंस रही हैं)
सज्जन: (हंसते हुए) वो नतीजा ये निकला की इन्होंने मना किया था, और हम मर्सिडीज से जा रही थे, तो गाड़ी नई गाड़ी नहीं चली।
श्री माताजी: (हंसते हुए) तो फिर आए हमारे साथ।
सज्जन: (हंसते हुए) और फिर संग ही गए।
सहज योगी: (उपस्थित साधकों में से किसी से पूंछते हुए) आप का प्रश्न?
साधक: मैं यह पूंछ रहा था कि कुंडलिनी जाग्रति का अभ्यास जो शुरू कैसे करे, उस के पहले जो नॉर्मल योगिक क्रियाएं हैं वो सीखना जरुरी है क्या?
श्री माताजी: कोई नहीं! कुछ नहीं साहब! कुछ भी नहीं। योगिक क्रिया वगैरह गलत बात है। ये तो क्रिया नहीं करनी होती है। जैसे कि आप से बताएं, कि जैसे अब मर्सिडीज़ गाड़ी की बात (श्री माताजी हंसते हुए) हुई, गाड़ी से आप समझ सकते हैं, कि जब गाड़ी स्टार्ट हो जाती है, तो उसके सब पहिए अपने आप घूमने लग जाते हैं। है ना? और आप के अंदर सब कुछ बिल्ट इन है। सब चीज बनाई है। आप पूरे तरह से बने हुए हैं। कोई आप को बनाने का नहीं। सिर्फ आप की गाड़ी तैयार है। उसको सिर्फ शुरू कर देना है। वो अपने आप चलेगा। जो पहले से करते हैं वो खराब करते हैं। समझ लीजिए आप गाड़ी का पहिया निकल कर उसे घुमाए, या गाड़ी के पहिए को घुमाने की कोशिश करें स्टेफनी लगा करके, ऊपर चढ़ा करके आप कहें कि चलो इसको घुमाएं, तो क्या गाड़ी चल देगी? यह क्रिया व्रिया करने से तो बड़ा ही नुकसान हो जाता है।
सीधा हिसाब यह है कि यह सहज है, ये लिविंग प्रोसेस है। हम लोग इसके लिए कुछ नहीं कर सकते। इंसान ही सोचता है यह। कोई कुत्ता बिल्ली सोचते है क्या, कि हमें कुछ करना होगा मनुष्य होने के लिए।
साधक: आप ने जो अभी भाषण दिया उस में बड़ी अच्छी बातें कहीं। हमारे देश की (अस्पष्ट) अध्यात्मवाद और भौतिकवाद की कुछ बातें भी बताई। कभी कभी ऐसा होता है कि जो लोग अध्यात्म की बात करते हैं, वो भौतिक वस्तुएं के बिना रह नहीं सकते और उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित भी हैं। और दूसरी बात मैं ये कहना चाहता हूं (अस्पष्ट)
श्री माताजी: (श्री माताजी किसी सहज योगी की तरफ देखते हुए) क्या कह रहे हैं, भौतिकवाद?
साधक: भौतिकवाद नहीं भौतिक संपदाये, भौतिक वस्तुएं! आप को (अस्पष्ट) है।
श्री माताजी: (मुस्कुराते हुए) वस्तुओं से क्या कह रहे है, कहिए! अटैचमेंट है?
साधक: अगर आप देखें (अस्पष्ट) मैंने संकेत दिया है आप से कि आप ने एक (अस्पष्ट) ईगो पे (अस्पष्ट) और उस में मेरे ख्याल में हम लोग हैं। कोई खास ज्ञान (अस्पष्ट)। उसका कारण यह है कि (अस्पष्ट) वापस आनी चाहिए। आप की चेतना जाग्रत होनी चाहिए।
श्री माताजी: वो तो करने वाले हैं! अभी करने वाले हैं। वो हम जाग्रत करेंगे। अच्छा, आप बैठ जाइए, मै बताती हूं।
साधक: (अस्पष्ट)
श्री माताजी: पर कौन सी बात? सवाल तो कर नहीं रहे हैं आप, लेक्चर दे रहे हैं।
साधक: आप ने कहा सवाल!
श्री माताजी: नहीं, नहीं! तो सवाल तो पाया ही नहीं अभी तक। मै समझ रही हूं ना बात, आप क्या कह रहे हैं। अच्छा आप तो बहुत सहनशील हैं साहब? आप भी होइए थोड़ा सा।
देखिए, बात आप ये कह रहे हैं, कि जो बात करी है, उसको ठीक है, यह जवान लोग है, अच्छी बात है सोचते हैं। संसार की बातें सोचना चाहिए। बहुत अच्छी बात है। उन्मुख, सहज योग जो है समाज उन्मुख है। यह एक मनुष्य के लिए नहीं है। सुन लीजिए आप! सुन लीजिए! बाद में आप फिर सवाल करेंगे।
ये एक व्यक्ति के लिए नहीं है। यह समाज उन्मुख है। जब आप सहयोग को प्राप्त करते हैं। तब आपके अंदर श्री कृष्ण ने कहा कि 'योगक्षेम: व्हाम्यहम' जब योग होगा तभी आप क्षेम को प्राप्त होंगे और जो भौतिकता संसार की जो है, जिसे हम भौतिक चीजों से सोचते हैं कि हम सुसंपन्न हो जायेंगे, तो वो इसलिए उस से हमें सिर्फ पैसा मिल जाता है, लेकिन उस से क्षेम नहीं मिलता। क्षेम मिलने के लिए योग प्राप्त होना चाहिए।
हमारे देश में लोगों ने योग को प्राप्त नहीं किया, इसलिए हमें क्षेम नहीं मिला। ये मैं आपकी बात मानती हूं कि क्षेम मिला नहीं। लेकिन सहज योग करने से क्षेम कैसे प्राप्त होता है, ये मैं आप को बता रही हूं।
अब जबकि आपके हाथ से चैतन्य की लहरियां बहती हैं। इसका एक्सपेरिमेंट हमारे यहां बहुत हो चुका है। आज मैं पहली मर्तबा आप के यहां आई हूं, इसीलिए आप अनभिज्ञ हैं। पर आप जान लीजिए कि जिस वक्त हाथ से यह चैतन्य की लहरिया बहने लगते हैं, तो इसको अगर आप पानी में डाल दें, तो यह देखा गया है। राहुरी यूनिवर्सिटी में हमारे बहुत से शिष्य लोग हैं जिन्होंने डॉक्टरेट पास किया किए हुए हैं। उन्होंने एक्सपेरिमेंट करके देखा हुआ है, और आस्ट्रिया में एक बहुत बड़े (अस्पष्ट) हैं। उन्होंने एक्सपेरिमेंट किया है, कि चैतन्य की लहरियों से जो खेती होती है, वह कभी-कभी 5 गुना ज्यादा हो सकती है। इतना ही नहीं हाइब्रिड जो आप आजकल इस्तेमाल कर रहे हैं, क्योंकि जो बीज पुराना चला आ रहा है उस बीज की शक्ति नष्ट हो गई। अब उस में शक्ति संपन्नता नहीं है, इसलिए हाइब्रिड हम लोग लेते हैं और हमेशा हाइब्रिड लेना पड़ेगा, क्योंकि उस में बीज में कोई भी शक्ति नहीं है, कि वो अपने अंकुर को निकाल सके। लेकिन इस से जो पुराने बीज हैं उन में शक्ति आ कर के और उस से पांच गुना ज्यादा आप का उत्पन्न हो सकता है। समझ गए ना? एक तो खेती करने वाला हमारा देश है। यहां खेती ही हमारा प्रधान कार्य है।
आज जो हम देहातों में कार्य कर रहे हैं, वहां पर आप को आश्चर्य होगा कि इतनी सुभद्ता आ गई। महाराष्ट्र में आज इतनी सुभदता आ गई। और आज बारह वर्ष से हम वहां कार्य कर रहे हैं। और बड़े बड़े जो लोग हैं वहां उनसे जा कर आप पूंछिये, जो खेती में काम करते हैं उनका जीवन कितना बदल गया।
पहले तो ये, कि हमारे अंदर बहुत सी गंदी आदतें हैं आ गई हैं बुरी तरह से, शराब पीना और ये और वो। दुनिया भर की चीजें इतनी ज्यादा है देहतों में, कि आप देखिए कि रास्ते पर जैसे कोई खटमल नहीं मरे पड़े रहते, ऐसे लोग पड़े रहते है रात को। उन लोगों को भी जो सहज योग में आए हैं, उनसे वो छूट गए। उनकी वजह से और लोगों से भी ये आदत छूट गई। उनसे उनका पैसा बचने लग गया। उस से उनकी बुद्धि (अस्पष्ट) हो गई। इसके अलावा, जो मैंने आप से कहा कि, चैतन्य ऐसी चीज है कि वो आप को बराबर बताता है कैसे कार्य करना है।
एक साहब हमारे पास आए। अब अपने देश में इतने जॉबलेस लोग हैं, आप जानते हैं। उन में से एक साहब हमारे पास बंबई में आए। आते ही कम लोग हैं। और जवान लोग जब आते हैं, तो झगड़ा ही ज्यादा करते हैं बनिस्पत सुनने के। सुनते कम हैं। झगड़ा ज्यादा करते हैं। तो उन्होंने भी आप ही जैसे बहुत ज्यादा बातचीत शुरू की और हमारा जैसे ही लेक्चर हो गया, उठ कर वो चले गए। बातचीत करते रहे उसके बाद वो उठ कर चले गए। उन्होंने पार नहीं किया। उसके बाद उनकी हालत बहुत खराब हुई। जब वो दूसरी मर्तबा हमारे प्रोग्राम में आए, तो वो पार हो गए।
पार होने के बाद उन्होंने कहा, 'मां मैं तो जॉबलेस हूं।' मैने कहा, 'अच्छा तुम जॉबलेस हो तो खुदी अपना कोई जॉब बनाओ। कहा, 'पर कैसे बनाएं? तो मैने कह दिया, 'अच्छा आप इंटीरियर डेकोरेटर बनिए।' तो उन्होंने कहा, हम तो बन नहीं सकते। हम को तो लकड़ी का पता नहीं।' मैने कहा, 'तुम इस चैतन्य की लहरी से जान जाओ, कि अच्छाई कौन सी है बुराई कौन सी है। तुम लकड़ी पहचान पाओगे, इतना ही तुम डेकोरेट कर पाओगे।' आज वो आदमी सुसंपन्न, सुसंपन्न है, वो सुसंपन्न है। ये नहीं कि आप के पास बहुत ज्यादा पैसा आता है। बहुत ज्याद पैसा आना भी एक आफत की चीज है। भाइयों में झगड़ा, बहनों में झगड़ा, बाप मां में झगड़ा। आप नहीं जानते कितनी आफत की चीज है पैसा ज्यादा।
लेकिन एक संतुलन में, एक समाधान में पूरी तरह से मनुष्य प्राप्त हो सकता है। अपनी देश की पूरी किमया बदल सकती है, अगर आप मेरी बात पूरी सुनें, कि आप योग को प्राप्त हों। पहले योग को प्राप्त हों।
अब इंग्लैंड में आप जानते हैं, कि इतनी ज्यादा वहां पर बेकारी है कि जितनी कहीं नहीं। लेकिन हमारे सहज योग में करीबन तीन हजार आदमी लंदन में आए, उस में से कम से कम, कहना चाहिए कि कम से कम कुछ नहीं तो एक हजार आदमी ऐसे थे कि जो बेकार थे। एक हजार! सब के सब को नौकरी मिल गई। सब के सब कुछ ना कुछ कर रहे है। सब आराम से कमा रहे हैं। कैसे? 'योगक्षेम वहाम्यहम'! जब योग होता है तो आप के अंदर एक लक्ष्मी का तत्व है। वो जब जाग्रत होता है लक्ष्मी का तत्व, तभी आप के अंदर में यह काम होता है। हम लोग लक्ष्मी जी को तो मानते हैं। लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं लेकिन हम ये नहीं जानते, कि ये लक्ष्मी जी हमारे अंदर हैं। उसको जाग्रत करना चाहिए। जैसे ही लक्ष्मी जी का तत्व जाग्रत होता है, तो हम इसे प्राप्त कर सकते हैं।
ये जो हम लोग बाहृये से अपने देश में कार्य कर रहे हैं, कि लोगों को भौतिकता से, भौतिकता में मदद करें। इस से कुछ लाभ नहीं होने वाला बेटे! असल में अंदर से पाने के बाद ही भौतिकता ठीक होती है।
हमारे पति, जैसे आप जानते है, वो शिपिंग कॉर्पोरेशन के चेयरमैन थे। वो बहुत ज्यादा समाजवादी हैं। तो उन्होंने अपने ड्राइवरों की तनख्वाह चार सौ से उठा कर दो हजार रुपए कर दी। छह महीने बाद उनकी सब की बीवियां मेरे पास आईं लेकर के एक संगठन, कि इनको काहे को कर दिया। इन्होंने दूसरी औरतें रख ली हैं, और शराब पीना शुरू कर दिया है और बच्चों को भी नहीं देखते। तो मैने अपनी पति से कहा, 'ये समाजवाद क्यों तुमने बनाया। उनके बच्चे भी भूखे रह गए।'
मनुष्य को पैसा झेलना भी नहीं आता। उसको सत्ता झेलना नहीं आता। उसको कोई चीज झेलना नहीं आती। उसका दिमाग खराब हो जाता है। आत्मा को प्राप्त किए बगैर, आप कोई चीज का आराम भी नहीं उठा सकते। किसी चीज का आनंद भी नहीं उठा सकते। इसलिए जो इंसान बहुत ज्यादा पाया भी हुआ है, वो आनंद में नहीं है, क्योंकि उसका चित्त जो है जब तक उसके अंदर ये रहेगा की विचारों से भरा रहे, वो किसी आनंद को प्राप्त नहीं कर सकता।
जैसे कोई सुंदर सी चीज है उसे आप ने देखा। उसकी ओर देखते समय अगर आप के अंदर यह विचार आए, कि इसे मैं खरीद लूं या इसे मैं बेच लूं, या इसको किसने बनाया होगा? इसका दाम क्या होगा? ऐसा जैसा आप ने सोचना शुरू कर दिया, उसका आनंद खत्म!
अगर लेकिन उस चीज की ओर आप देख रहे हैं। अगर आप निर्विचार में हो गए, तो उसका बनाया हुआ जो आनंद है, पूरा का पूरा आप के अंदर आ जाएगा। जरूरी नहीं कि आप उसको खरीदें, अपनाएं। तो भौतिकवाद जो है, ये भी बड़ी जड़ चीज है। उसको समझने के लिए पहले आप को सूक्ष्म होना चाहिए, और सूक्ष्म आप आत्मा से पा सकते हैं। और जिस ने आत्मा को पा लिया, उसके लिए कोई भी चीज, कोई भी चीज ऐसी नहीं होती जो उसको अपने गुलामी में बिठाए।
अब आप ने तो सिर्फ वही मकान देखा है। अभी जो हम ने मकान लिया है, उस से पांच गुना बड़ा मकान है, और महलों जैसा है। बहुत आराम का मकान है। नौकर चाकर घर में सब है। लेकिन आप अगर कहिए तो हम देहातोंं में रहते हैं। वहां न बाथरूम ना कुछ नहीं, नदी पे नहाते हैं। नदी पे ही सब कुछ होता है, और हम बैलगाड़ियों में घूमते हैं आराम से। हमें कोई जरूरत नहीं। हम तो जमीन पे सो सकते हैं। हमें तो कोई उसकी कुछ जरूरत नहीं पड़ती। उसकी वजह ये नहीं है कि हम ने कोई बड़ी तपस्या की, अपने शरीर को तपाया। क्योंकि जो आत्मा का सुख पाता है वो शरीर के सुख की ओर फिर नहीं इतना उन्मुख होता । उधर चित्त नहीं जाता। वो आराम से कहीं भी कहिए, अब सो गए आराम से सो गए कहीं भी जहां हैं। पत्थर भी मिल गया तो क्या है? उसकी कोई ज़रूरत नहीं होती।
तो यह चीज समझने की जरा सूक्ष्म है। हम लोग जो बाहृये से इसको जड़ता से देखते हैं, उस से कोई सॉल्यूशन निकल नहीं आता। जिन्होंने सोल्यूशन निकाले बेकार हो गए। अब जैसे कोई कहता है कि कैपिटलिज्म लाओ, कोई कहता है कि कम्युनिज्म लाओ। एक ये ही ले लीजिए थ्योरी। है न आप के अंदर?
हम कहते हैं, कि हम तो सब से बड़े कैपिटलिस्ट हम हैं। क्योंकि सारी पावर्स अगर हमारे पास हैं, तो हम सब से बड़े कैपिटलिस्ट हैं। और सब से बड़े हम कम्यूनिस्ट हैं। दर दर मांगते, इधर से उधर घूमते हैं। सब को समझाते हैं। सब को कुंडलिनी जागरण करते हैं। देशों परदेसों में घूमते हैं। अपना घर द्वार, पति इतने अच्छे हैं, सब कुछ होते हुए भी, इतने बार बार घूमते हैं, कि सब को बांटे। हम से बढ़ कर कम्युनिस्ट कौन हैं। तो हम ही कम्युनिस्ट, हम ही कैप्टलिस्ट। तो जो जो आप लोगों ने थ्योरीज भी बना के रखी हैं, वो भी सत्य होती हैं जब आप लोग आत्मा को प्राप्त करते हैं। नहीं तो थ्योरी थ्योरी रह जाती है। कहने को कम्युनिस्ट हैं। मन से तो कैपिटलिस्ट ही हैं सब। और जो कैपिटलस्ट हैं वो चाहे कुछ भी कहें, उनके अंदर भी वो भावना जागृत है जो कम्युनिस्टिक है।
इसलिए असलियत को पहले पाइए, जो आप की असलियत है। जब असलियत मिलती, है तब हर एक चीज के तत्व को आप जानते हैं। उसका अनुसंधान आप को लगता है। इसका तत्व क्या है? तत्व को पाते ही सब चीज हो जाती है। समझे ना? अब आप उसको पा लीजिए।
प्रश्न: (अस्पष्ट) सिद्धियां प्राप्त करने से आप मोक्ष से दूर हो जाते हैं। आप का इस बारे में क्या विचार है।
श्री माताजी: हन! मै तो मोक्ष की बात कर रही हूं। सिद्धि की तो बात ही नहीं कर रही हूं। वो तो गलत बात है। वो जो कह रहे हैं ठीक है। वेदांती जो कह रहे हैं ठीक बात है, क्योंकि जो जाग्रत करते हैं कुंडलिनी, वो स्वयं ही से उठे हुए नहीं हैं। आत्म साक्षात्कार वही दे सकता है, जिस ने स्वयं प्राप्त किया हो। जिसने स्वयं ही प्राप्त नहीं किया, जिनका सारा चित्त आप के पैसों पर ही है, वो आप की क्या कुंडलिनी जाग्रत करेंगे!
सिद्धि तो प्राप्त होगी ही। वो कैसे होती है, वो आदिदैविक, आदिभौतिक जो हमारे अंदर दो स्तिथियां हैं, लेफ्ट और राइट में, उस में आप चले जाते हैं। उस में जाते ही सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। जैसे ऊपर से आप कुछ डायमंड निकाल दो, कहीं ये कर दो, कहीं वो कर दो। ये सब मतलब शुद्र चीज है। बहुत शुद्र चीज है। इसका परमात्मा से कोई संबंध नहीं। ये सब भूत हैं। सब शमशान विद्या है। और अगर आप को डायमंड खरीदना है, तो जयपुर में यहां बहुत से लोग हैं, जो आप को बेच सकते हैं। उस के लिए काहे को गुरु के पास जाना? गुरु तो डायमंड असल देगा। (श्री माताजी हंसते हुए) नकली चीज थोड़ी देगा!
प्रश्न: (अस्पष्ट) सहज योग जो है उसकी वास्तविक क्रिया क्या है?
श्री माताजी: वो मैं अभी! बस आप पक्के निकले। बैठिए! वही मैं करने वाली हूं। वो हो वो। बस आप असली हैं। ये मैं कह रही हूं। जिसने ये चीज सोच ली की ये क्रिया उसे प्राप्त करना है। यही तो सीधी बात है। सीधी बात ये है कि प्राप्त करो। वही बात ठीक। आप ने बड़े पते की बात कही। ये सुनने के लिए मैं बड़ी लालायित थी कि कोई तो कहे कि दो अभी!
येस?
सहज योगी: वर्कशॉप टुमोरो
श्री माताजी: अलराइट! बट टुडे लेट मि गिव देम रियलाइजेशन एटलिस्ट! अलराइट? (श्री माताजी हंसते हुए) आई एम टायरड ऑफ इट!
(श्री माताजी खिलखिला कर हंस पड़ती हैं)
ये कह रहे हैं। नहीं नहीं! आज ही सही है आज ही लीजिए।
हां! तो सब की यही इच्छा है? (श्री माताजी हंसते हुए) अच्छा तो आप लोग भी तशरीफ रखिए सामने कुर्सी पर भाई। इतने बड़े बड़े लोग बैठे हैं, मैं तो घबरा गई हूं। आप लोग सामने बैठिए। चलिए! आइए कुर्सी पर!
आप सब! आई थिंक यू बैटर! आई थिंक यू एलाऊ टू सीट!
आप सामने आइए! आप सामने आइए। (अस्पष्ट) अरे साहब आप तो! जूते उतरना है क्योंकि यह को मदर अर्थ है न, अभी जिनका अभी किस्सा बताया, ये सारी शक्तियां को प्रदान करने वाली हैं।
अभी ऐसा है, कि इसका ज्ञान बहुत लंबा चौड़ा है। आप उसको पहले प्राप्त कर लें। जैसे इस कमरे में आए हैं आप, तो कहा कि दीप कैसे जलाएं? भाई वह बटन दबाओ, तो सब हो जाता है। लाइट आ जाएगी। लाइट आ जाएगी। लेकिन ये कैसी आई, कहां से आई, क्या हुआ, यह सब बाद में जानिए! पहले क्यों सरदर्द लें!
(श्री माताजी अपनी बाएं और किसी को संबोधित करती हैं) सच सीकर्स! ट्रीमेंडस!
आइए! आइए! अच्छा एक तो आराम से बैठिए। कोई इसमें आफत करने की जरूरत नहीं है। आप भी सामने आइए जिन्होंने सवाल पूंछा था। चलिए पार हो लीजिए, फिर बात करेंगे! आइए। हां बच्चों को तो पहले पार होना चाहिए, यंग लोगों को। आइए! हां? यहां बैठिए आइए सामने! आइए, आइए! अच्छी बात है। बहुत खुशी की बात है।
(श्री माताजी पुन: बाएं ओर किसी को संबोधित करते हुए) वो घबड़ा रहे हैं। अरे भई, घबड़ाइये मत! (श्री माताजी हंसते हुए) तुम्हे तो समाज का इतना विचार है, फिर क्यों नहीं दीप जला लो?
आप आगे आ जाइए! सरदार जी आप आगे आइए! आराम से आ जाएं।
वो सवाल करने वाले जा रहे हैं, बताओ। (श्री माताजी हंसते हुए) मैंने आप से कहा न, सब का टाइम बर्बाद कर के। अरे भई! पार तो हो जाओ! पार होने में लगता क्या है।
साधक: सभी का सवाल है।
श्री माताजी: हां? सवाल जो है, वो जो उन्होंने पूंछा, मैने बताया न आप से, कि पहले आप योग को प्राप्त करें। उसके बाद फिर पूंछीए हम से। पहले योग की प्राप्त नहीं किया, तो फिर हम क्या बात करें। पहले जो एक चीज छोटी सी है, उसे आप प्राप्त करें। जैसे कोई कहे कि भई सुनिए की हमें पैसा - हमने कहा अच्छा नौकरी कर लो। तो ये एक इस चीज को जहां से सब प्राप्त होता है, उसी को स्रोत को क्यों न पाएं? सीधा हिसाब ये है। और हम कहते हैं तो कर लीजिए। आप ही के अंदर सब चीज है, तो क्यों न पाएं? जब पाने की चीज आप ही के अंदर है तो उसे क्यों न पाया जाए?
वाह भई वाह! तबियत खुश हो गई। आह! हां? अब इस में करना, जैसे मैंने कहा, कुछ नहीं। सीधी सरल चीज है। सिर्फ ये है, कि आराम से बैठिए पहले। सीधे बैठिए। न ज्यादा झुकना है न पीछे में जाना है। सीधे बहुत ज्यादा, कोई भी तरह का अपने ऊपर में दबाव नहीं आना चाहिए। न तो पेट में कोई चीज कसी हो, या गले में या कहीं, उसे जरा हल्का कर लें और इस वक्त अपने प्रश्न पूछने वाले मन से कहिए कि थोड़ी देर तू शांत हो जा, और क्योंकि यह जो प्राप्ति है, ये सहज ही होती है। अपने आप ही होती है। कुंडलिनी का जागरण होते हुए भी आप देख सकेंगे। जिनके अंदर कुछ रुकावटें होती हैं, उन में साफ साफ दिखाई देती हैं। और जब रुकावटें नहीं होती, तो एकदम के जैसी बहुत अच्छी रनवे हो, तो कैसे प्लेन झट से उठता है, उसी तरह कुंडलिनी बहुत सुंदरता से उठती है।
रामदास स्वामी से पूंछा गया, कि इस में कितना समय लगता है? तो उन्होंने शब्द कहा - तत्क्षण! उसी क्षण होता है। उसी क्षण घटित होता है। और होता है, अभी आप देखिएगा।
तो सब से पहले आप ऐसे हाथ कर के आराम से बैठिए, क्योंकि मैंने कहा था ये पांच जो हैं ये पांच चक्र हैं, ये छे और यह सात चक्र हैं। ये राइट और लेफ्ट में हैं। ये आप के भावना का हाथ है। ये आप के इच्छा का हाथ है, इच्छाशक्ति का और ये हाथ आप की क्रियाशक्ति का।
तो अब दोनों हाथ हमारी ओर करिए। मोहम्मद साहब ने कहा है, कि जब आप का उत्थान होगा, रज्योरेक्शन होगा, तब आप के हाथ बोलेंगे। और यही होता है बस।
(श्री माताजी आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया करवाती हैं)