Public Program

Public Program 1999-03-25

Location
Talk duration
49'
Category
Public Program
Spoken Language
Marathi

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25 मार्च 1999

Public Program

पुणे (भारत)

Talk Language: Marathi | Translation (Marathi to Hindi) - Draft

Velechi Hallk 25th March 1999 Date: Place Pune Public Program Type

[Hindi translation from Marathi talk]

सत्य साधको को हमारा प्रणाम ! इसके पहले भी मैंने कई बार आपको सत्य के बारे में बताया है । सत्य क्या है? सत्य और असत्य इन दोनों में क्या अन्तर है, ये कैसे जान सकते हैं। इसके बारे में मैंने बहुत अच्छी तरह से समझाया है । सबसे पहले इस पुणे में या पुण्यपट्टणम् में हम सत्य क्यों खोज रहे हैं, यह जानना जरूरी है । आज के इस कलियुग में ऐसी-ऐसी घटनाऐं होने लगी हैं कि मनुष्य घबराने लगा है। उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि यह क्या हो रहा है और कलियुग की यही विशेषता है कि मनुष्य संभ्रान्ति की स्थिति में घिरा हुआ है। इस स्थिति में आकर वह घबरा जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि सत्य क्या चीज़ है? मैं कहाँ जा रहा हूँ? दुनिया कहाँ जा रही है? इस तरह के प्रश्नों से वह घिरा रहता है। ऐसी हालत सिर्फ महाराष्ट्र में नहीं, बल्कि पूरे भारतवर्ष में, पूरी दुनिया में है। पूरी दुनिया को इस कलि की महिमा की जानकारी हो रही है। नल और दमयंती का जो बिछड़ना हुआ था वह कलि के कारण ही था और एक बार यह कलि नल के हाथों पकड़ा गया। उसने (नल ने) कहा, 'मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगा ताकि किसी को भी तुमसे परेशानी न हो। कोई तकलीफ न हो।' तब कलि ने नल से कहा कि, 'पहले तुम मेरी महिमा सुनो। वह सुनने के बाद भी अगर तुम मुझे मारना चाहते हो तो मार सकते हो।' तब नल ने कहा कि, 'तुम्हारा क्या महत्व है? क्या महत्व है तुम्हारा?' तो कलि ने कहा, 'मेरा यह महत्व है कि जब मेरा राज आएगा याने कि जब कलयुग आएगा तब सारे लोग संभ्रान्तित अवस्था में रहेंगे। यही सत्य है। मगर इसी से उनकी इच्छा प्रबल हो जाएगी कि हम ये खोज निकालें कि यह मानवीय जीवन क्या है? हम यहाँ क्यों आये हैं? इसके आगे हमें क्या करना है ? और इसी खोज में जो गिरि- कन्दरों में ईश्वर की खोज कर रहे हैं, या सत्य की खोज कर रहे हैं, परम को ढूँढ़ रहे हैं उन्हें इसका सहज लाभ होगा, इसका अनुभव होगा। अनुभूति होना यही सच की पहचान है। अनुभूति के सिवाय किसी चीज़ पर अपनी जान न्योछावर करना यह बात ठीक नहीं है। जब मैंने महाराष्ट्र में कार्य आरम्भ किया तब मुझे सबने बताया कि, 'माताजी, यहाँ आपको पायली के पचास मैंने कहा, 'अब गुरु मिलेंगे। (पायली का मतलब एक माप होता है। एक माप के आपको पचासों गुरु मिलेंगे।) क्या होगा? लोगों का क्या! हमारे ये गुरु, हमारे वो गुरु। उन गुरुओं से आपको क्या कोई लाभ हुआ है क्या? क्या उन्होंने आपको कुछ अनुभव कराया? या कोई दान दिया है? आप क्यों उनके पीछे-पीछे दौड़ रहे हो ?' ऐसा कहीं लिखा नहीं है कि गुरु को खोजना ही है। खोजना तो है ही, पर जो आपके सामने आकर खड़ा हो जाये, आप उसे गुरु कैसे कह सकते हो? आजकल इन गुरुओं ने पुणे में धूम मचा रखी है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । मेरे आने के बाद वे सारे मुझ पर बरस पड़े। इसका मुझे कोई बुरा नहीं लगा। मुझे पता था कि यहाँ पचासों गुरु हैं। आगे चलकर मेरी समझ में यह आया कि, यहाँ लोगों को बहुत ही कष्ट हैं, बहुत ही तकलीफे हैं, पीड़ाये हैं, बाधाये हैं और

अनेक प्रकार की परेशानियों से पीड़ित लोग जब सत्य से परिचित होंगे तब वे सहजयोग में प्रवेश करेंगे और उसका आनन्द भी उठायेंगे। इस सागर में आने के बाद ही 'आनन्द क्या होता है इसे समझेंगे। तब जाकर मैंने किसी तरह धीरे धीरे सहजयोग का प्रचार शुरू कर दिया। आज देख रही हूँ इतनी तादाद में आप लोग आये हैं, इसे देखकर मुझे खुशी हो रही है। जब मैं कल आयी तो आप सब लोग हवाईअड्डे पर (एअरपोर्ट) आये और जिस उत्साह से आपने मेरा अभिनन्दन किया, मेरी तो आँखे भर आयी क्योंकि मैंने जिन्दगी में कभी सोचा नहीं था कि मेरे कार्य को इतनी गति मिलेगी। तब यह जो हुआ आपकी मेहरबानी से हुआ। अब ये कहना चाहिए कि आप पुणे वालों की कृपा ही है और उनकी कृपा से यह घटित हुआ है। इस कार्य में किस प्रकार के भ्रम निर्माण होते हैं यह जान लेना आवश्यक है। पहला भ्रम तो ये होता है कि पैसा ही सब कुछ है। पैसा कमाया, बस हो गया। पैसे के सामने बाकी कुछ भी नहीं। पैसा या हम कहें भौतिकवाद। ये कलि का ही अवतार है। भौतिकवाद का मतलब होता है कि पैसे के लिए चाहे जो करना। किसी का भी गला काटो, जो दिल में आये वही करो। पैसा मिला तो सब कुछ मिला। यही पैसा जो अपने सिर पर बैठा हुआ है, वह सर्व गुरुओं से भी बढ़कर है। ऐसे में पैसे के लिए कुछ भी धंधा करो । चाहे कैसा भी बताव करो । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन पैसा चाहिए इतना पैसा-पैसा कर रहें हैं, मगर मैं पुणे में आज देख रही हूँ कि एक भी फ्लैट बिक नहीं रहा है। कहते हैं कि लोगों के पास पैसा ही नहीं है फ्लैट खरीदने के लिए। तो ये सारा पैसा गया कहाँ? पैसा-पैसा करते-करते आज ये हालत हो गयी है। इससे पहले तो इतनी बुरी हालत नहीं थी। ऐसी हालत कैसे हुई, यह मैं नहीं बता सकती। मगर मैं इतना जरूर कह सकती हूँ कि पैसे से कोई सुख, समाधान और मन:शान्ति नहीं मिलती। कभी भी नहीं मिल सकती। आज अगर आपको एक नया घर बाँधने की इच्छा हुई, आपने बाँध भी लिया, मगर आपने इसका उपभोग नहीं लिया, फिर मन करेगा गाड़ी खरीदें, गाड़ी भी खरीद ली। अब आपको हवाई जहाज तक पहुँचना है। यह जो पैसे के लिए भागादौड़ी हो रही है इससे तो ये सिद्ध हो रहा है कि सुख पैसे में नहीं है। तो सुख किसमें है? सुख आत्मानन्द में है। आत्मा का जो आनन्द है वही सबसे सुखदायक है और शीतल है। तो अब यह समय (आत्मानन्द का) आ गया है, क्योंकि कलयुग खत्म हो गया है। वह (कलयुग) खत्म हो गया है, उसकी पकड़ खत्म हो गयी। अब लोगों की समझ में यह बात आ रही है और मनुष्य अब आत्मानुभव के लिए तैयार है। इस महाराष्ट्र में अनेक गुरु और संत हो गये हैं। बहुत बड़े-बड़े लोग आये, परन्तु उनको बहुत सताया गया, किसी का भी कुछ नहीं सुना। सबको सता-सता कर तंग किया गया। उनकी जगह पर अगर कोई और होता तो कहता मुझे साधु-संत नहीं बनना। यही हालात थे, तब इतनी भी अकल लोगों में नहीं थी कि साधु किसे कहते हैं? गलत लोगों के साथ रहना, गलत लोगों के साथ सम्बन्ध रखना, उनके पीछे-पीछे भागना। जो सच्चे हैं उनके साथ अच्छे सम्बन्ध ना रखना-इस तरह का माहौल था उस वक्त। अब यह स्थिति बदल रही है। अपने जो षडरिपु हैं, उनका कार्य जोर से शुरू था। अब धीरे-धीरे शान्त हो रहा है क्योंकि सामने दिख रहा है कि इससे (षड़रिपु) कोई फायदा नहीं होने वाला है हमें। इससे कुछ सुख नहीं मिलेगा, आनन्द नहीं मिलेगा। पर फिर भी मनुष्य खोज रहा है कि आनन्द कहाँ है? सुख किसमें है? खोज़ते-खोज़ते उसे पता चलता है कि आत्मा

का दर्शन होना जरूरी है। उसके दर्शन के बिना उसे कोई आनन्द प्राप्त नहीं होने वाला है। मेरे कहने का मतलब ये है कि अपने यहाँ इतने साधु-सन्त हो कर गये हैं और लोग उनको सताते ही थे। पर उन्होंने (सन्तों ने) ही बताया है कि, 'कोई बात नहीं, आप ईश्वर का नाम लेते रहो, पांडुरंग, पांडुरंग।' तो लोग चले मंजीरे बजाते हुए उधर, वारकरी बनकर। अब हुआ ये है कि, आपने बहुत मंजीरे बजाये हैं। आपने बहुत कुछ किया है, पूरे दुनियाभर के मन्दिरों का दर्शन आप करके आये हैं। क्या आप जिन्दगीभर यही करते रहोगे? इसके आगे भी एक सीढ़ी है जो कि तैयार है, तो क्यों ना हम चढ़ जाय ? और इसके आगे की सीढ़ी है सहजयोग की। सहजयोग में अब तक आपने जो इच्छा की है, जो भी आपने माँगा और जो आपका लक्ष्य था वही सिद्ध करना है और कुछ नहीं करना है क्योंकि आप में शक्ति है, कुण्डलिनी शक्ति है। मगर आप तो जिद करके बैठे हो। यहाँ पर कुछ लोग आकर बैठे हैं, जिन्होंने कहा, 'हम आपको एक लाख रुपये देंगे। आप हमारी कुण्डलिनी शक्ति जागृत कीजिए |' मैंने कहा, 'आप ही दो लाख रुपये लीजिए और मुझे कुण्डलिनी जागृत करने दीजिए ।' क्या कभी पैसे से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है! यह तो जीवन्त कार्य है। अगर एक बीज को आपने जमीन में बो दिया और उसके सामने जाकर खड़े होकर आपने कहा, 'यह एक लाख रुपये ले लो और पेड़ का निर्माण करो।' वह पेड़ तो कहेगा, 'आप वापस जाओ। आपको अकल नहीं है। यह तो जीवन्त कार्य है।' जीवन्त कार्य का मतलब होता है; आपकी कुण्डलिनी का जागरण। यह कार्य कई बार इस महाराष्ट्र में हुआ है। मगर पुराने जमाने में ऐसी परम्परा थी कि, एक (गुरु ) ने एक (शिष्य) ही को जागृति देनी है । उससे अधिक लोगों को नहीं। बहुत अच्छी तरह से उनकी ( शिष्यों की) धुलाई कर करके आखिर में एक इन्सान मिलता था, जिसे जागृति दी जाती थी। परन्तु श्री ज्ञानेश्वरजी की कृपा से बारहवीं सदी में उन्होंने अपनी ज्ञानेश्वरी में साफ-साफ लिखा है छठे अध्याय में, कि कुण्डलिनी नाम की शक्ति है। उसके पहले आपके यहाँ के लोगों को कुण्डली और कुण्डलिनी इन दोनों में क्या अन्तर है ये पता नहीं था। और यह शक्ति हम सबमें स्थित है। आपकी चाहे जो जाति हो, ब्राह्मण हो, शुद्र हो। यह जाति तो मानव ने बनाई है, वैसे तो कोई शुद्र या ब्राह्मण नहीं होता। इस विश्व में ऐसा भी कुछ है, ये में नहीं मानती और ऐसा (जातिवाद) किसीने भी माना नहीं है । साधु-सन्तों ने भी कभी स्वीकार नहीं किया। ये आप सबको भी पता है। ऐसे तो कई साधु-सन्त उदाहरण के तौर पर हैं। अब मैं आपको उनके बारे में नहीं बताऊँगी, मगर आपको सब पता है। श्री राम जिनकी आज नवमी है, उन्होंने भी एक भिलनी के हाथ से झूठे बेर बड़े प्रेम और आनन्द से खाये थे। इसमें उन्होंने क्या सिद्ध किया? यही कि यह जातियाँ, उँच-नीच ऐसा कुछ नहीं होता है । सब मानवजाति एक है। सबमें कुण्डलिनी स्थित होती है। सबमें यह कुण्डलिनी स्थित है तो आप ऐसे कैसे कह सकते हो कि, आप की यह जाति है, उसकी वह जाति है। बाद में लोगों ने तो कुछ ऐसा ही (जातिवादी) विचित्र शुरु कर दिया मगर सब मानवजाति एक है, यह बात सहजयोग सिद्ध कर सकता है क्योंकि यह कुण्डलिनी शक्ति सब में स्थित है। चाहे वह मनुष्य विलायत से हो या हिन्दुस्थान से हो। सब में अगर यह कुण्डलिनी स्थित है, तो वह इन्सान ऊँच-नीच, इस जाति से, उस जाति से यह कैसे हो सकता है? मैं यह बिल्कुल स्वीकार नहीं करती। आप भी अगर इस बात को ना मानें तो अच्छा है। इसके लिए तो यहाँ पर शोर है धर्मांतर का। धर्मांतर नहीं करना है। सहजयोग याने धर्मांतर है यह बात सही है। ये बात मैं पहले ही बता देती हूँ कि धर्मान्तर की धर्म केवल भ्रामिक

कल्पना मात्र होती है। उस भ्रामिक कल्पना को तोड़कर जो सच्चा धर्म होता है वो हममें जागृत होता है। जो सच्चा धर्म होता है वो हम में जागृत होता है। आत्मा का जो धर्म है वो हम में जागृत होता है और यह उपरी चीज़ें जो हैं। फलाँना-वलाँना जिसके भरोसे यह राजनीति वाले लोग अपना पेट भर रहे हैं, वो सब बेकार है। मूर्खता वाली बात है। एक दिन ऐसा आएगा जो पार हो जाएंगे, सहजयोग में कुण्डलिनी जागृति जिनकी होगी, एक बार जिनका सम्बन्ध चैतन्य से होता है तो यह जात-पात कुछ नहीं रह जाता है। मूर्खता की बातें है। तो ये जो उत्थान का समय आया है जिसे बाइबल में कहा गया है कि, 'It is your last judgement, resurrection' और कुरान में इसे कियामा कहा गया है और इन्होंने जो भी लक्षण बताये हैं वो सभी लक्षण साक्षात् (इसमें) है। इसके बाद आपको पता चलेगा कि यह मुसलमान, ईसाई, हिन्दू इस किस्म के कोई भी प्रकार ईश्वर की नज़र में नहीं होते। ईश्वर ने ही इन सबको एक के बाद एक भेजा है। सब कबूल है मगर उन्होंने (ईश्वर ने) इस प्रकार के अलग-अलग धर्म बनाने के लिए नहीं कहा था। अब मैं कभी-कभी रोम में होती हूँ, कभी इटली में तो वहाँ पर मेरे साथ उन्होंने बहस की कि, 'हमें एक धर्म नहीं चाहिए।' तो मैंने कहा, 'अलग-अलग धर्म भी क्यों चाहिए? झगड़ा करने के लिए? एक ही धर्म नहीं क्योंकि फिर झगड़ा हीं नहीं कर सकते। एक ही धर्म में कैसे लड़ सकते हैं? यह धर्म 'स्व' का धर्म है। शिवाजी महाराज ने बताया, 'स्वधर्म को बढ़ाइये।' वे तो साक्षात् साक्षात्कारी थे और उन्होंने बताया है कि, आप 'स्व' के धर्म को बढ़ाइये और हम यही का्य कर रहे हैं। आप 'स्व' के धर्म को बढ़ाइये। एक बार इस 'स्व' के धर्म को बढ़ायेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि अब तक आप किस अंध:कार में बैठे थे। और सुबह से लेकर शाम तक आप कौन से कर्मकाण्ड में फँसे हुए थे। इससे आपको कोई भी लाभ नहीं होने वाला। अब तक कुछ हुआ है क्या? क्या अब तक कुछ हुआ है? मँजिरे को बजाते हुए आप पंढरी (पंढरपुर) जाइये या मक्का जाइये। सब तरफ एक ही प्रकार है। अंधों की तरह चल पड़ते हैं। कहाँ जा रहे हो? कह रहे हैं। मक्का को चले हम। क्या है मक्का में? 'हमें तो जाना ही है, जाने से हम हाजी हो जाएंगे।' 'हाजी-पाजी आप कुछ नहीं होने वाले। बेकार की बाते हैं ये सब ।' अब अगर आपको बताया जाये कि, 'मक्केश्वर ही शिव हैं' तो आपको आश्चर्य होगा। मुसलमानों को आप पूछिए कि 'आप उस पत्थर की पूजा क्यों करते हो? उसके इर्द-गिर्द क्यों घूमते हो ? आप तो पत्थर को नहीं मानते, तो फिर किसलिए?' परन्तु अपने शास्त्रों में लिखा हुआ है कि मक्केश्वर ही शिव हैं । वहाँ हिंडोलीला देवी का मन्दिर है। मेरे कहने का मतलब ये नहीं है कि, मोहम्मद साहब ने शिव को कभी कम समझा है, बिल्कुल नहीं क्योंकि शिव शाश्वत हैं, अनन्त हैं। उनको आप अगर कहें कि वे ईसाई धर्म में हैं, इस धर्म में है, उस धर्म में है। वे सभी धर्म में हैं। पर धर्म कहाँ है ये आप मुझे दिखाईये। धर्म ही नहीं रहा अब। सब तरफ अधर्म फैला हुआ है। पैसा | खाना, उल्टे धंधे करना ये प्रकार चल रहे हैं। कहते हैं कि हमें मन्दिर बनाना है। किसलिए? मन्दिरों की यहाँ क्या कमी है? कहते हैं, 'माताजी, पैसे दीजिए, मन्दिर बनवाना है।' कहा, 'बिल्कुल मत बनाओ |' पहले आप अपने हृदय के मन्दिर बंधवाओ | अपने हृदय में ईश्वर का मन्दिर जब बनायेंगे तब कहीं जाकर यह उल्टे धंधे छूट जाएंगे। छूटने ही चाहिए, वर्ना तो भुगतो उसके

फल। उसकी भुगतान तो चल ही रही है। अब हमें अगर भोगना है तो वह है परमानन्द को। एक बार ईश्वर की कृपा आप पर हो गयी और उस परम चैतन्य से आपका अगर सम्बन्ध जुड़ जाता है तो फिर और किसी चीज़ की जरुरत नहीं रहती। इन सभी प्रकार के झूठे अगुरुओं के बारे में मेरा एक ही कहना है कि सब को विज्ञान से परिचित होना चाहिए, विज्ञान से मुकाबला करना चाहिए, वैज्ञानिकों से मुकाबला करना चाहिए। अगर वे वैज्ञानिकों से जीत जाते हैं तो फिर वो सच्चे हैं, नहीं तो वो झूठे। हमारा तो रात-दिन इन वैज्ञानिकों के साथ ही कार्य चलता रहता है। फिर चाहे वह वैद्यकशास्त्र हो या भौतिक विज्ञान हो या कोई अन्य भी शास्त्र हो सभी ने सिद्ध किया है । मगर मुझे ऐसा महसूस होता है कि, अपने यहाँ के वैज्ञानिक अभी भी निचले स्तर पर ही हैं। वे आएंगे नहीं पूछने वहाँ । मैं थी रूमानिया में, उन्होंने (रुमानिया वालों ने) एक वैद्यकशास्त्र सम्मेलन आयोजित किया था । वहाँ मुझे बात करने के लिए कहा गया था। तब मैंने उन्हें बताया कि यकृत की तकलीफों से क्या-क्या समस्यायें होती हैं। अब ये सारा ज्ञान, विज्ञान से भी परे है, बुद्धि से परे है। उनकी बुद्धि से भी परे है, उन्होंने मुझे एकदम ही डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। असल में उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि दी। मैं तो उनके विश्वविद्यालय में पढ़ी हुई भी नहीं थी। कुछ नहीं। मैंने कहा, 'आप ये क्या कर रहे हो?' उन्होंने कहा कि, 'माताजी, आपकी दी हुई यह जानकारी कॉग्निटिव साइन्स है (याने बोध -प्रक्रिया सम्बन्धित विज्ञान )। अब अपने यहाँ के वैज्ञानिकों को कॉग्निटिव साइन्स का अर्थ तक भी पता है क्या! मगर उनका ( रूमानिया के साइन्टिस्ट) ज्ञान देखिए कहाँ तक है। एक विज्ञान (साइन्स) भी होता है, जो कि कॉग्निटिव साइन्स है। आइनस्टाईन ने भी कहा है कि जो एक टॉर्शन एरिया होता है, उसमें से जो जानकारी निकलती है वह है कॉग्निटिव। मगर यहाँ के लोगों को समझता भी है क्या कि, कॉंग्निटिव साइन्स होता क्या है! बड़े-बड़े साइन्टिस्ट बनते फिरते हैं। उससे क्या फायदा होने वाला है। उन्होंने ( रूमानिया के साइन्टिस्टों ने) कहा, 'माताजी, आपका यह सभी ज्ञान कॉग्निटिव है। आप जो ये सब बता रही हैं। उसे हम सिद्ध कर सकते हैं।' मैंने कहा, 'करो।' वे इस बात के लिए तैयार हो गये। जब वह सिद्ध हो गया तब वो कहते हैं कि हम मूर्ख नहीं है। आपने जो कहा है वह सत्य है और इसलिए हम आपके चरणों में आये हैं। तो ये जितने भी गलत गुरु हैं उनसे कहिए कि, 'पहले आप वैज्ञानिकों के सामने जाईए। दो दिनो में वो वैज्ञानिक उनको ठीक करेंगे।' कबूल है कि विज्ञान में नीति-अनीति पर कुछ नहीं लिखा हुआ है। पर ये भी सच है कि वे (वैज्ञानिक) झूठ को मानने वालों में से नहीं है । तो ये जो आपको दिखाई दे रहे हैं, जो चारों ओर घूम रहे गुरु हैं और ये जितने भी राजनीति वाले उन गुरुओं के पीछे-पीछे घूम रहे हैं, उन्हें कहिये कि, 'पहले इनको (गुरुओं को) वैज्ञानिकों से परिचय करा दें और उन वैज्ञानिकों से कहिये कि अब इन्हें (गुरुओं को) देख लें।' हिन्दुस्तान में स्थित वैज्ञानिक इस लायक है या नहीं इस से मैं वाकिफ नहीं हूँ, मगर मैं बाहर के वैज्ञानिकों के बारे में बता सकती हूँ। रशिया में तो ऐसे हैं कि वे लोग तो एकसे बढ़कर एक है। एक से बढ़कर एक वैज्ञानिक है। मैंने कहा, 'आप लोग हिन्दुस्तान आइए आपकी कदर की जाएगी।' वे कहते हैं, 'हमें हमारे ही देश में काम करना है।' क्या उनकी देशभक्ति है! उसे देखकर आश्चर्य हुआ। हम सालों साल लड़ते रहे हैं। हमें स्वातंत्र् मिला। अब इन लोगों की देशभक्ति गयी कहाँ? वे है ही नहीं। बिल्कुल अदृश्य हो गयी है। पैसा खाते रहते हैं। जिसे देखो वही पैसा खाता रहता है। कुछ खाना-वाना खाते भी हो या नहीं? या सिर्फ पैसा ही खाते हो? यह सब देखकर ऐसा लग रहा है कि

इस देश की अस्मिता जो है वो फिर से नष्ट हो गयी है। सन बयालीस में हम जब छोटे थे, तब से ही हम इस में कूद पड़े थे और इतनी छोटी उम्र में भी मैं लीडर रह चुकी हूँ। फिर उन लोगों ने बहुत छल किए, मारा, सबकुछ कबूल है, क्या करें! अगर आप किसी अच्छे कार्य के लिए आये हैं तो ऐसी सब बाते तो होती ही रहेंगी। मगर आपके पूणे में ही ऐसे कितने ऐरे-गैरे गुरु आये हैं और आपने उन्हें सिर पर चढ़ाकर रखा है। अभी भी सब जगह भगवे वस्त्र पहनकर लोग घूम रहे हैं। यह बात बहुत ही लज्जास्पद है। हम सत्य को पकड़े हुए नहीं है, मगर फट से असत्य को पकड़ लेते हैं और वह भी महाराष्ट्र में। अरे, यह महाराष्ट्र तो कितना बड़ा राज्य है। जैसा नाम है महा+राष्ट्र वैसा ही यह राज्य है । मैं तो इस मराठी भाषा की तारीफ करती रहती हूैँ। लोगों को बताती रहती हूँ कि आपको यह सीखना बहुत कठिन है, कितने सारे पर्यायी शब्द है, एक-एक शब्द अचूक है। मराठी लोगों की इस स्थिति को देखकर मुझे आश्चर्य होता है। कभी इस गुरु के पीछे , कभी उस गुरु के पीछे भागते रहते हैं। वो क्या कर रहे हैं, ये खुद उन्हें भी नहीं समझता है। और सभी कहते हैं कि, 'हमने सन्यास लिया है। 'क्यों?' 'हमने अपने गुरु को सब कुछ दे दिया है।' ये (गुरु) सन्यासी है! यह तो ठग है, आप इसे क्यों दे रहे हो? तो कहते हैं, 'हमारे गुरु को आप कुछ मत कहिए।' मैंने कहा, 'क्यों ना कहूँ। यह तो ठग है। इसे तो में हमेशा ठग ही कहूँगी।' मुझे किसी का ड्र नहीं। परन्तु वे छूट गये। बहुत सारे (गलत गुरु के जाल से) छूट गये हैं। पुणे से परन्तु फिर भी, अभी भी महाराष्ट्र में हर एक गाँव में बहुत सारे (ठग) अपना बोरी-बिस्तर उठाकर भाग गये हैं । एक-एक गुरु महाराज बैठा हुआ है। कभी कुछ, कभी कुछ कहते रहते हैं। पैसे खाने के पीछे लगे हैं। 'अरे भाई, कितने पैसे लाया है तू?' यहाँ से इनकी शुरुआत होती है। अगर आपको सत्य से पहचान करनी ही है तो ऐसे इन्सान से सत्य को पा लें जो आपको सत्य दे। बता सके। बेकार के लोगों के पीछे जाने में कोई मतलब नहीं है । कुछ नहीं मिलेगा हमें। कभी-कभी तो ये सब देखकर बहुत दुःख होता है। अच्छे-अच्छे घराने से हैं ये लोग। मेरे सामने इन लोगों की आँखे ऐसे गोल-गोल घूमने लगी। तो मैंने पूछा, 'कौन हैं आपके गुरु?' 'वह फलाने- फलाने हमारे गुरु है।' अच्छे खासे रईस लोग हैं। 'हमारा तो सबकुछ लुट गया। कुछ भी नहीं बचा। एक पैसा भी नहीं बचा। और हमारी आँखे ऐसी गोल-गोल घूम रही है।' 'वाह! वाह! अब ये गुरु है कहाँ?' तो कहते हैं कि, 'ईश्वर के पास गये।' परमेश्वर के पास गये या नर्क में इसका पता लगाईये । ऐसी बातें होती रहती है। पुणे में अच्छे-अच्छे लोग जो हाल है तो बेचारे गरीबों का क्या हाल होगा ? और भी ऐसी कितनी सारी बातों ने पुणे को हिलाकर रखा है। ये सब खुद को बुद्धिजीवी कहलाने वालों का अगर ये इस पुणे के अन्दर कैसे घुस आई है इसका मुझे पता नहीं लग रहा है। मगर फिर भी इसे पुण्यपट्टणम् कहते हैं। इस पुणे में इतनी गन्दी बातें आईं कहाँ से ? क्या इसका मतलब अपनी संस्कृति जो है, वह मूर्खता से भरी हुई है? यह (पुणे) संस्कृति का एक महासागर है। मुझे विदेशी लोगों ने कहा, 'माताजी, आप भारतीय संस्कृति पर एक पुस्तक लीखिए।' मैंने कहा, 'हो गया। इतने बड़े सागर को मैं कैसे पार कर सकती हूँ? एक- एक बात का इतनी बारीकी से विश्लेषण किया गया है माने हिन्दू धर्म वगैरा नहीं, परन्तु उनके तत्त्व, विधानों का। धर्म वगैरह का नहीं । हमें हिन्दू किसने कहा? अलेक्झांडर ने। वह सिन्धु नदी से आया था। वह तो ग्रीक था। वह 'स' नहीं कह पाया। उसने 'हिन्दू' कहा इसलिए हम हिन्दू। हिन्दूओं से कोई सम्बन्ध नहीं। यह तो अपनी संस्कृति है। और अपनी

संस्कृति में इतनी सारी छोटी-छोटी बातें हैं, इतनी सारी सूक्ष्म बातें बताई गयी हैं। बोया हुआ उभर तो आया है मगर उसका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। उस संस्कृति के बारे में हम कुछ बोल ही नहीं सकते क्योंकि वह एक महासागर है। मगर आजकल मैं देख रही हूँ पुणे में सब औरतें अमेरिकन संस्कृति को ज़्यादा मान रही हैं। पहले आप अमेरिका में जाकर देखिए कि वहाँ क्या स्थिति है। वहाँ कितने घर बर्बाद हये हैं। वो देखिए पहले। वहाँ के बच्चे ड्रग्ज लेते हैं। औरतें दारू पीती हैं। यह सुनकर मुझे तो बड़ा आश्चर्य हुआ। उनकी क्या स्थिति है वो देखिए । वे (विदेशी) अपनी देश की ओर देखते हैं और अपनी भारतीय संस्कृति, वहाँ जाने से पहले ही वे कहेंगे कि 'हमारा वहाँ साक्षात् रूप ही बैठा हुआ है, वह जाएगी कैसे?' हमें तो अमेरिकन लोग बहुत अच्छे लगते हैं। वहाँ के लोग तो कर्ज के बोझ पर जी रहे हैं। वह देश भी कर्ज में डूबा हुआ है। उनकी खोपड़ी उल्टी है। उनसे कुछ सीखना नहीं है हमें | जो कुछ सीखना है वह अपने अन्दर ही है। जो कुछ ज्ञान का भण्डार है वह अपने अन्दर ही है। उसी को हासिल करना है। मुझे तो आश्चर्य हुआ कि जब लड़कियों को, औरतों को रास्ते से जाते देखा बाल कटा कर, छोटे-छोटे स्कर्ट पहन कर। रंग तो हिन्दुस्तानी ही है और चल पड़े। वे कहते हैं कि अमेरिकन है यह लड़कियाँ, ये औरतें । ऐसा क्या! नहीं रे बाबा, ऐसे अमेरिकन नहीं चाहिए। उनसे कुछ भी सीखने वाली बात ही नहीं है । वही लोग (अमेरिकन) हमसे सीखने आते हैं। हज़ारों की तादाद में यहाँ लोग क्यों आते हैं, इस बारे में आपने कभी सोचा है ! सत्य की खोज में वे हिन्दुस्तान में आते हैं। परन्तु कोई नट (अभिनेता), कोई गुरु उनको पकड़ लेता है। हवाई अड्डे पर ही पकड़ लेता है। और यहाँ आ जाते हैं। आपको आश्चर्य होगा कि परदेसी सहजयोगी जब यहाँ आते हैं तब वे आपकी मातृभूमि को वन्दन करते हैं, उसे चूमते हैं। 'महाराष्ट्र से श्री माताजी आईं हैं।' देखो उनका कमाल, उनकी पहचान देखिए। उनकी समझ देखो। क्या हम में है ऐसी समझ ? सब कुछ मान लिया, फिर भी हमारी संस्कृति गई कहाँ? मैं गांधीजी के साथ थी, तब उनका पूरा ध्यान सहजयोग पर ही था। वे कहते थे कि सब धर्मों का तत्व निकालकर अगर इकठ्ठा किया जाए तो एक नया धर्म बना सकते हैं हम। मैंने कहा, 'मैं वही करने वाली हूँ।' और वह धर्म है सहज धर्म । तब गांधीजीने कहा था कि यह बात मुश्किल नहीं है क्योंकि ये हमारी संस्कृति है, तो ये कोई मुश्किल नहीं है। बिल्कुल मुश्किल नहीं। एकदम आसानी से हो जाएगा। यह बात घटित हो जाएगी। अपने सभी शास्त्रों में यह कहा गया है कि, आत्मसाक्षात्कार होना ही चाहिए। हर धर्म के शास्त्र में यही लिखा है। जो भी झूठे नाटक करते रहते हैं उनका धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है। सब धर्मों में एक ही बात लिखी गयी है कि, 'आप आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करो। इसका मतलब यह है कि यही मार्ग है (आत्मसाक्षात्कार का), यह बात बिल्कुल साफ है। सब कुछ लिखा हुआ है, फिर भी लोग इसे समाजवाद कहते हैं। अरे उस समाजवादी रशिया को जाकर देखें कि उसका क्या हाल बना हुआ है। इस समाजवाद को क्यों लेकर बैठे हो? सिर्फ यही दिखाना चाहते हैं कि हम पार्चात्य हैं। अरे, आप जो हैं वहीं दिखाइये । वो बहुत ही बड़े हैं। उनकी महिमा बता नहीं सकते, इतनी बड़ी बात है वो। मैं छोटी थी, केवल सात बरस की तब गांधीजी के पास गयी। उन्होंने कहा, 'तुम्हारा सहजयोग शुरू करेंगे

हम।' सबसे पहले स्वतन्त्र होना है। बिना स्वतन्त्रता के आप 'स्व' का तन्त्र कैसे चला सकोगे? इसलिए हमने इस स्वतन्त्रता की लड़ाई में हिस्सा लिया, मेहनत भी की। मगर आज देख रही हूँ मैं, लोगों के तो नये पर ही निकल आये हैं। ये कैसे हुआ? गांधीजी की एक ही गलती हुई थी कि उन्होंने जवाहरलालजी को सिर पर बिठा के रखा था। ये क्या हिन्दुस्तानी था? पक्का ब्रिटिश मनुष्य था। उन्हें तो कुछ भी पता नहीं था। उन्हें तो अपनी संस्कृति के बारे में जरा भी जानकारी नहीं थी। जिसको कुछ भी पता नहीं था ऐसे इन्सान को सिर पर बिठाने की क्या जरूरत थी? और कोई उन्हें नहीं मिला था क्या? यही एक गलती गांधीजीने की और इन्हीं गलतियों का फल हम अभी तक भुगत रहे हैं। तुरन्त शुरू हो गया पार्चात्य रहन-सहन। सब कुछ पाश्चात्य तरीके से होने लगा। जिन लोगों को तो नहाना भी नहीं आता है, ऐसे लोगों से क्या सीखना ? मुझे तो ये भी समझ में नहीं आ रहा है कि लोग इन सभी बातों को और संस्कृति को कैसे स्वीकार करेंगे ? उधर जाकर देखिए कि वहाँ उनकी क्या स्थिति है। इंग्लैण्ड को देखिए, इंग्लैण्ड में हजारों की तादाद में बच्चे ड्रग्ज लेते हैं। एडस्, ड्रग्ज और हिंसाचार ये तीन भयंकर बातें वहाँ पर होती है। इसके बारे में आप सबको क्या बतायें? वे इन सभी चीज़ों से घबराकर सहजयोग में उतर गये हैं। उन्होंने कहा, 'माताजी, आप यह सारी चीज़ें मत लाने दीजिए।' मैंने कहा, 'नहीं लाने देँगी।' अजी छोटी-छोटी बातें भी उन्हें पता नहीं। फ्रान्स में हमने महाराष्ट्र की लड़कियाँ दी (ब्याही) है। उन्होंने कहा, 'माताजी, इन्हें कुछ भी पता नहीं।' मैंने कहा, 'ऐसा क्या! क्या मतलब ? 'बाहर से आते हैं और एकदम से पानी पीते हैं।' आप चाहे कश्मीर में जाएं या इधर महाराष्ट्र में रहें, हम सबको पता है कि केला खाने के बाद पानी नहीं पीते हैं। ऐसी छोटी-छोटी बातों से लेकर सब बड़ी-बड़ी बातें हमें पता है। मैं भी जो बता रही हूँ वह सब तो आपको पता है ऐसा सोचना मूर्खता है। मगर एक बात साफ है कि मैंने जो कुछ देखा, वह आपने नहीं देखा है। याने कि 'बंद मुठी सवा लाख की', वैसा ही आपको लगता है, पर इन लोगों में तो अकल ही नहीं है। आयेगी भी तो कैसे आयेगी अकल? उनके पास संस्कृति नाम की चीज़ ही नहीं है। इतनी बड़े संस्कृति के महासागर में रह कर अगर हम मूर्खों जैसा बर्ताव करेंगे और अगर कल आपके बच्चे भी ड्रग्ज लेने लगेंगे, ऐसे उल्टे धंधे करने लगेंगे तो बाद में आप चिल्लाने लगेंगे। वहाँ के बच्चों का क्या, जब माँ-बाप का ही ठिकाना नहीं? परिवार (फैमिली) है ही नहीं। इस सिलसिले में तो वे बिल्कुल बेशर्म लोग ैं । खुद आकर बतायेंगे कि मैंने अपनी बीवी को तलाक दे दिया है। ऐसा क्या! फिर तो हमारा नमस्कार। ये अंग्रेजी भाषा सीखकर जो आपका हाल हुआ है इसे देख कर मुझे आश्चर्य होता है। अंग्रेज भाषा सीखने की कोई जरूरत नहीं। मैंने कभी अंग्रेजी भाषा सीखी नहीं है । मराठी पाठशाला में मेरी पढ़ाई -लिखाई हुई है। सब कुछ मराठी में। उसके आगे साइन्स में भी ंग्रेजी भाषा नहीं थी और मेडिकल में भी नहीं थी। वे कहते हैं, 'आप तो ऐसी अंग्रेजी बोल लेती हैं, वाह !' अजी, इस अंग्रेजी भाषा में कुछ दम ही नहीं है। ये आत्मा को स्पिरिट, भूत को | भी स्पिरिट, दारू को भी स्पिरिट कहते हैं। इसका मतलब आत्मा और स्पिरिट एक ही है क्या? तो उन्होंने कहा, 'आत्मा और स्पिरिट एक ही होने चाहिए।' मैंने कहा, 'अरे, यह क्या? क्या संपदा है अपनी !' अब ये जो संस्कृति है, उसकी सम्पदा, उसका तत्व क्या है? वह है अध्यात्म। अध्यात्म ही उसका तत्त्व है। अपने को कुछ खास समझकर घमंड़ करने में कोई अर्थ नहीं है। उसके अन्दर का जो तत्त्व है वो अध्यात्म का है।

और उस अध्यात्म की जो परिसीमा है वह है आत्मसाक्षात्कार। यह बात आापको समझ लेनी चाहिए। अध्यात्म के बिना सिर्फ बक-बक करना, यहाँ-वहाँ जा कर सिर्फ प्रवचन देना और अब ये जो संस्कृति है उसकी सम्पदा, उसका तत्व क्या है? वह है अध्यात्म। अध्यात्म ही उसका तत्त्व है। अपने को कुछ खास समझकर घमंड़ करने में कोई अर्थ नहीं है। उसके अन्दर का जो तत्त्व है वो अध्यात्म का है। और उस अध्यात्म की जो परिसीमा है वह है आत्मसाक्षात्कार का, यह बात आपको समझ लेनी चाहिए। अध्यात्म के बिना सिर्फ बक-बक करना, यहाँ-वहाँ जा कर सिर्फ प्रवचन देना और ऐसे जो भी प्रकार हैं उससे कुछ हासिल नहीं होने वाला है। सत्रह प्रवचन सुनकर भी आप में कोई बदलाव नहीं आने वाला है, आप जैसे थे वैसे ही रहने वाले हो। आपको कुछ भी फायदा नहीं होगा? आपको आत्मा के दर्शन से ही फायदा होगा। उसी आत्मा के प्रकाश में आप जब देखोगे तो आपको आश्चर्य होगा कि नीर-क्षीर विवेक, जैसे पानी एक तरफ और दूध एक तरफ, दोनो अलग-अलग हैं, साक्षात् वैसे ही बोध होगा आपको। आप कोई गलत काम कर ही नहीं सकते। आप कभी अपने रास्ते से भटक नहीं सकते। कहने का मतलब यह है कि आज यह समय की पुकार है। और आप सभी कह रहे हैं कि दो हजार वर्ष खत्म हो रहे हैं। उसके बाद सत्य युग आएगा। उसमें अगर जमे रहना है तो सत्य पर खड़े रहना आवश्यक है। यह फालतू के ढोंगीपन के प्रकार नहीं चलेंगे। अधिक बकबक, बहुत ज़्यादा बोलना, सिर्फ यह दिखाना कि हम कुछ विशेष हैं, पढ़ाई में विशेष हैं यह सब कुछ नहीं चलेगा। बस यही देखा जाएगा कि आप सत्य पर खड़े हैं या नहीं और अगर हैं तो आपको कोई भी हाथ तक नहीं लगा सकता। अजी, हमारे सहजयोगियों को साँप भी नहीं काटता । कुछ नहीं होता उन्हें । वे कहते हैं, 'माताजी, आपका हमें संरक्षण है।' कैसा संरक्षण! अरे, आप तो खुद अपने आप पार हो गये हैं। ईश्वर के साम्राज्य में आ गये हैं आप, मैं किस तरह से संरक्षण दूँगी। ऐसी एक नयी स्थिति आने वाली है। एक नया जगत तैयार होने वाला है। उस जगत में, क्राइस्ट के कहे अनुसार यह लास्ट जजमेंट है। जो चुने जाएंगे, वे रह जाएंगे, वही रह जाएंगे , बाकी सब जाएंगे, खत्म होंगे, खानदान सहित, गर्भ सहित और पूरी मूर्खता सहित। ऐसा में मैं आज जानबूझकर आप लोगों को खास बताने के लिए ही आयी हूँ, विशेष करके महाराष्ट्र को । पुणे शहर जो पूरे महाराष्ट्र का हृदय है, परन्तु यहाँ क्या-क्या धंधे आ गये हैं, यह आपको पता है। यह बात बताने की जरूरत नहीं है । अब आगे तो इसे पुण्यपट्टणम करके ही छोड़ना है, पूर्णतया, पुणे में ही उतरना चाहिए । उसके लिए मैं आपको यह नहीं कह रही हूँ कि यह छोड़ दो, इसको छोड़ दो , घर छोड़ दो, अपने बीवी को छोड़ दो । मैं तो यह तक भी नहीं कहती कि दारू छोड़ दो। दारू तो अपने आप छूट जाती है। ड्रग्ज भी अपने आप छूट जाते हैं। सब कुछ छूट जाता है। ये सब मैं आपसे नहीं कहती हैँ क्योंकि एक बार अपने आप साफ होने के बाद, कमल जैसे साफ होकर ऊपर उठने के बाद तो किसी प्रकार की गन्दगी नहीं रह जाती। पूरी तरह से निर्मल हो जाओगे। सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा और यही एक माँ की इच्छा है। उसी के लिए तो यह सब कोशिश है । अभी मेरी इतनी उम्र हो गयी है, फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि अभी भी इतना कुछ हुआ नहीं है। पूरी तरह से लोगों के दिमाग में गया नहीं है। जब भी मैं अखबार पढ़ती हूँ तब ऐसा लगता है कि ये लोग किस कदर मूर्खता वाली बाते कर रहे हैं। आपस में लड़े जा रहे हैं। कहाँ पहुँच गये हैं आप लोग! अब तो २००० साल पूरे होने जा रहे हैं और आप लोग वही

सब कर रहे हैं? जातीवाद वगैरा कुछ भी नहीं है। सब असत्य है। यह सब कुछ ढोंग हैं ऐसा कुछ भी नहीं है । अभी इसे सिद्ध करके दिखाना आपका काम है। बिना मतलब के मेरे विरोध में यहाँ के लोगों ने इतने सारे मुद्दे उठाये थे। मुझे उसकी कोई परवाह नहीं। मगर उन्होंने खुद अपने आप में क्या किया, यह उन्हीं से पूछना चाहिए। अब हमारा सहजयोग अस्सी देशों में फैल गया है, ऐसा यह कह रहे थे । मुझे तो कुछ पता नहीं। वह ऐसे हुआ कि, एक मनुष्य पार हो गया तो वो जाकर दूसरे को पार करता है, दूसरा तीसरे को पार करेगा, ऐसा करते-करते अस्सी देशों में शुरू हो गया है। इन अस्सी देशों में कहीं भी वाद-विवाद नहीं है, लड़ाई- झगड़े भी नहीं है, पैसे खाने का कहीं चक्कर भी नहीं है, कुछ भी नहीं है। ऐसे कैसे हो सकता है? हमारे यहाँ तो दो घरों में भी नहीं रह सकते हैं। दो व्यक्ति एक घर में रहें तो उनकी कभी आपस में बनती नहीं। मगर ऐसी पात्रता इनमें आरयीं कहाँ से? यह सामूहिक चेतना, नयी किस्म की जो चेतना है वो मानवी चेतना के परे है। यह जागृत होने के बाद दूसरा कौन? सभी एक ही ईश्वर के चरणों में हैं। अब तक ईश्वर का नाम लेते ही लोग उठ कर चले जाते थे, जैसे कि ईश्वर उनका दुश्मन हो। ये जो बुद्धि के खेल हैं, उन्हें बन्द करके जो सत्य है उसे देखिए। बहुत हो गया। खुद को 'हम कुछ खास हैं' समझना, इसका कोई अर्थ नहीं है। एक दूसरा अनुभव ऐसा है कि लोगों का मानना है कि महाराष्ट्रीयन लोग घमण्डी हैं। वे बहुत गर्वी हैं । ऐसा मानना सत्य नहीं है। कहते हैं कि यहाँ एक साधारण बराबरी का इन्सान भी मिलीटरि के कैप्टन की तरह सीना तानकर चलेगा मगर इधर नॉर्थ इंडिया में एकदम चूहों की तरह आपके सामने बैठते हैं। 'अरे भाई , इसमें में क्या कर सकती हैँ।' कहते हैं कि वहाँ तो लोगों को भयंकर खुद के बारे में घमण्ड है। 'हम' मतलब कौन? शिवाजी के गोद लिए बच्चे हैं हम सभी। ऐसे में ध्यान देना चाहिए। जब तक आप में आत्मा का आनन्द नहीं आएगा, आपको अपना स्वरूप दिखाई नहीं देगा, तब तक यह दैविक गुण आपमें प्रकाशित नहीं होने वाला है। एक बार वह प्रकाश आप में प्रकाशित हो गया, कुण्डलिनी के जागरण से आप अगर चारों ओर फैले हुए इस ईश्वर के साम्राज्य में उतर जाएंगे तो आपको ताज्जुब होगा कि, यह सब कैसे घटित हुआ? यहाँ तक मैं कैसे पहुँचा? अजी, यह आप में स्थित है। यह सिद्ध है। यह तो आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। यही योग आप लोगों ने प्राप्त करना है। इसके लिए कुछ अलग करने की आवश्यकता नहीं। कुछ देने की जरूरत भी नहीं । सिर्फ आपने लेना है । लेना इसका मतलब आपने नम्रता के साथ बैठना चाहिए। गुस्ताख इन्सान अगर होगा तो उसकी कुण्डलिनी, चाहे जितना भी प्रयत्न कर लें, पर वह जागृत ही नहीं होगी पर विनम्र मनुष्य की कुण्डलिनी झट से जागृत हो जाएगी। आप सब अपनी कुण्डलिनी का जागरण कर लीजिए यही मेरी विनती है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। ऐसा अगर एक बार मैंने देख लिया, तो बस, मैं पुणे में आकर रहने लगी। इसके पहले भी बहुत सालों से मैं यहाँ पर मेहनत कर मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए। रही हूँ। सिर्फ पिछले बार नहीं आयी तो इस बार इतना सारा उत्साह है लोगों में, हवाई अड्डे पर उत्साहपूर्ण दिखे वे मुझे। बहुत ही आनन्द हुआ और इसी आनन्द में मैं आपको कहती हूैँ कि यही उत्साह आपने अपनाना है और वह एकदम सहज है, बिल्कुल सहज है यह आप सब में। सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद। कृपा करके यह आशीर्वाद स्वीकार कीजिए |

Pune (India)

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