Talk to Yogis

Talk to Yogis 1977-02-03

Location
Talk duration
53'
Category
Public Program
Spoken Languages
Hindi
Audio
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Current language: Hindi. Talks available in: Hindi

The talk is also available in: English

3 फ़रवरी 1977

Talk to Sahaja Yogis

Bharatiya Vidya Bhavan, मुंबई (भारत)

Talk Language: English, Hindi | Transcript (Hindi) - Draft

1977-0203- UPDESH BHARTIYA VIDYA BHAVAN, MUMBAI.

मैं आपको कुण्डलिनी के बारे में जानकारी दूँगी। उसी समय, कुण्डलिनी भी चढ़ रही होगी। आपको इस कुण्डलिनी के चढ़ने का एहसास नहीं होगा। तो कृपया अपने हाथ ऐसे रखें। हाथ आत्मसाक्षातकार मांग रहे हैं। तो हाथ में भावना होनी चाहिए। मेरा मतलब है, आपको अवश्य पूछना चाहिए। हाथ ऐसे रखना चाहिए जैसे आप मांग रहे हैं। तो सीधे ऐसे, वैसे नहीं, और आपकी गोद में।

मराठी में कुछ कहती हैं। यदि आप नहीं जानते, (मराठी बोलते हिन्दी में) यदि आप नहीं समझते, तो हिन्दी बोलें।

मानव को ये सोचना चाहिए कि परमात्मा ने हमें क्यों बनाया? हमारे जीवन का कोई लक्ष्य है या यूं ही परमात्मा ने हमें अमीबा से लेकर मनुष्य बनाया है? इतनी परिशानी उठाकर, इतने युगों तक, इतने योनियों में से गुजारकर, परमात्मा ने मनुष्य की ये जो सुन्दर कृति बनाई है, वो कोई न कोई कारणवश बनाई होगी। हो सकता है कि अभी वो उस दशा में नहीं पहुँचा है, जहां इस चीज़ को जान सके कि ये कृति क्यों बनाई गई? हो सकता है, अभी वो अपने कार्य कारण को समझ नहीं पाया होगा। लेकिन अवश्य, जरूर कोई न कोई वजह होनी चाहिए कि एक अमीबा से मनुष्य क्यों बना?

अगर कोई वजह है, तो उसे खोजना भी मनुष्य के लिए नितांत आवश्यक है। जब उसे नहीं खोज पाता है, जब उसे जान नहीं पाता है, तो उसको परेशान होना भी बिल्कुल स्वाभाविक है। ये स्वाभाविक बात है कि आज मनुष्य अत्यंत चिंतित है, परेशान है, घबड़ा रहा है। उसको ये नहीं पता कि ये घबराहट कहां से आ रही है, किस कारण वो इतना व्यस्त है, इतना शुब्ध हुआ घूम रहा है।

सहजयोग इस बात का उत्तर है। सहज, 'सह' माने- साथ, 'ज' माने - पैदा हुआ। जो आपके साथ पैदा हुआ है, अधिकार योग का, परमात्मा से एकाकार होने का, उसी को सहज योग कहते हैं। सहज योग, जब मनुष्य आदीन था, जब वो अमीबा था, तब भी सहज योग था। और उससे जब वो चतुष्पाद हुआ, तब भी सहज योग घटित हुआ। और जब से वो द्वीपाद हुआ, तब भी सहज योग बना था। और जब से वो मनुष्य हो गया, तब भी सहज योग घटा था। और आज का जो सहज योग है, ये मनुष्य को अपना अर्थ बताने के लिए है, उसका आखरी चरम, अन्तिम लक्ष्य है।

इसके बारे में खोज बीन करते हुए, अपने भारतवर्ष में, आदिकाल में, बहुत से ऋषि मुनियों ने, मनन द्वारा, मेडिटेशन द्वारा, अंदर, अनेक चीजों का पता लगाया। परशुराम के समय में, जब परशुराम का जन्म हुआ था, उस समय लोगों ने जंगलों में खोजने की कोशिश की। सारे दुनिया से अपने को काट कर, घोर ब्रह्मचर्य में रह कर छोटी सी गुफा में छिपकर, उन्होंने अनेक वर्षों तक तपस्या की। और उसके बाद उन्होंने जो मनुष्य के अंदर के सूक्ष्मतम, गुप्त रहस्य हैं, उनका पता लगाया। उनकी खोजबीन से बहुत ही थोड़े लोग लाभ उठा सके, क्योंकि यह कार्य अत्यंत सूक्ष्म था। और समाज में रहते हुए, इस कार्य को करना बहुत ही कठिन था। इन लोगों ने अपने धर्मग्रंथों में या अपनी पुस्तकों में, अगर उन्होंने गरिमा लिखी भी हो, अनेक तरह से इन सूक्ष्म तत्वों का वर्णन किया है। लेकिन कलयुग, जिसे कि आज हम मॉडर्न टाइम्स कहते हैं, इसमें आज वह समय आ गया है, जिसे कि हम बहार का समय कह सकते हैं। जैसे कि एक पेड़ पर शुरू में एक-आध ही फूल खिलता है, एक-आध ही फल लगता है; अनेक वर्षों तक यही चलता रहता है, उसके बाद जब बहार आती है, तो अनेक फूल खिल जाते हैं। अनेक फूल खिलकर सहज में ही उनके फल बन जाते हैं। वो कैसे बनते हैं, क्यों बनते हैं, ये कोई नहीं जानता, आज सब फूल हैं, कल उनमें से फल निकल आते हैं।

उसी प्रकार, आज कलयुग में बहार आई हुई है, और आपका हक है कि आप जानें कि आप क्या हैं, आपका क्या अर्थ है, आप क्यों इस संसार में आए हैं। इस चीज़ को आप जान लें, यह आपकी खुद की संपदा है। जैसे कि कोई दीप पूरी तरह से सँवारा जाता है, उसके अंदर तेल, बाती, सब ठीक से रख दी जाती है, और दिवाली के रोज़, सब एक लाइन से लगा दिए जाते हैं। तब एक जला हुआ दीप लेकर आप अनेक दीप जला सकते हैं। उसी प्रकार सहजयोग एक अत्यंत सरल सहज तरीका है। और मनुष्य को इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए कि यह इतना सरल क्यों है। धर्म के मामले में, मनुष्य हमेशा उल्टा ही सोचता रहा है। आज यदि काशी जाना हो, तो सुबह यहां से चलकर शाम तक काशी पहुंच सकते हैं। तब मनुष्य क्यों नहीं सोचता कि सुनते हैं, इसके लिए बड़ा सामान जुटाना पड़ता है, बड़ी कठिन तपस्या करनी पड़ती है, तब कहीं हम पहुंचते हैं। अगर सहजयोग के मामले में भी ऐसी कोई विशेष व्यवस्था हो गई हो, तो उसके बारे में इतनी चर्चा और ऊहापोह क्यों होनी चाहिए? अगर कोई विशेष चीज आपको मिलने वाली है और उसका लाभ आपको मिलने ही वाला है, तो उसके बारे में इतनी शंका क्यों होनी चाहिए? आखिर शंका भी उस चीज की होनी चाहिए, जहां पर आपको कुछ लेना-देना पड़े, या कोई चीज़ की मांग हो, या कोई कहे कि आपको तीन साल का कोर्स करना पड़ेगा, रोज़ आना पड़ेगा, और फीस देनी पड़ेगी, या भूखा रहना पड़ेगा, या हम कहें कि सर के बल खड़ा होना पड़ेगा। यह तो हम कुछ भी नहीं कहते। तब फिर इतनी शंका करके क्यों सोचना कि यह कैसे हो सकता है, हो ही सकता है। अब इस हाल में कम से कम पचास फीसदी लोग कहते हैं कि उनके साथ यह घटित हो गया, और आपके साथ भी होना चाहिए। लेकिन मनुष्य का विचार इसी तरह से चलता है। अब रही बात कि हमारे अंदर वास्तव में ऐसी कोई व्यवस्था है क्या, कोई हमारे अंदर ऐसा अंकुर है क्या, जैसे कि हर बीज में होता है, जिसके फलस्वरूप आप अपने पुनर्जन्म को प्राप्त करते हैं। ज्ञानेश्वर जी, जनक, नानक, कबीरदास जी, योगवशिष्ट, मारकंडे जी, और सबसे बड़े आदि शंकराचार्य जी ने कुंडलिनी के बारे में अनेक बार वर्णन किया है। देवी महात्म्य पढ़ें या देवी सहस्त्रनाम पढ़ें, उसमें उनके सारे वर्णनों में यही लिखा है कि वह कहाँ-कहाँ स्थित होती है, किस चक्र पर होती है, किस मार्ग से उत्थापन करती है, आदि सब कुछ वर्णन किया गया है।

लेकिन हमारे लिए, जैसा अंग्रेज़ी में कहते हैं, यह सब ग्रीक और लैटिन है, क्योंकि हम इतने अंग्रेज़ी हो गए हैं कि हमें अपनी ही चीज़ों के बारे में कुछ पता नहीं है। अब घर में यदि मंत्रोच्चार हो रहा हो, तो हम सुनते हैं, कोई पंडित बाबा आए, उन्हें 10-15 रुपये दे दिए, काम खत्म। उन्होंने मंत्र कह दिए, हमारा सारा पूजन-पाठ हो गया, देवी जी को प्रसन्न कर दिया। ऐसी भावना के कारण, हम अपने धर्म के किसी भी विचार से किसी भी तरह से तादात्म्य नहीं रखते। अब पश्चिमी देशों में, जहाँ लोग काफी समृद्ध हो चुके हैं, सारी दुनिया की सत्ता और संपदा कमा ली है, जिनके पास हर तरह की सामग्री जुट गई है, वे सब कुछ मैटेरियलिज़्म में कर चुके हैं। अब वे लोग मुड़कर कहते हैं, "जिस आनंद को खोजने के लिए सब कुछ किया, वह आनंद कहाँ है?" उस आनंद की उपलब्धि हमें नहीं हुई, तो वे कहते हैं, "यह सब छोड़ो, इसमें कोई आनंद नहीं है, यह भ्रम है, इसे छोड़ दो।" उनके बच्चों ने सब कुछ छोड़ दिया, घर छोड़कर सन्यासियों का भेष धारण कर लिया, और गांजा पीने लगे। यह भी कोई तरीका हुआ! हजारों लोग यहाँ घूम रहे हैं, ये सब साधु हैं, परमात्मा को खोज रहे हैं, और गांजा भी पी रहे हैं। सोचते हैं कि गांजा पीने से भगवान मिलेंगे।

ऐसे समय में सहजयोग उपलब्ध हुआ है। इसके लिए खोजना बाहर नहीं है, यह अंदर है। बड़े-बड़े कवियों ने कहा है। राजा जनक के अवतार नानक जी ने कहा है, "काहे रे वन खोजन जाई, सदा निवासी सदा अलेपा, तोहे संग समाई।" इसका भाव यह है कि वह तेरे ही अंदर समाया हुआ है, तो बाहर क्यों खोजने जा रहे हो? वह तेरे ही अंदर आत्मस्वरूप है, उसे बाहर क्यों खोजने जा रहे हो?

अब वह चीज़ क्या है, वह कौन है, कैसा है, इसके बारे में मैं आपको बताऊंगी। सहज योगियों को देर करके नहीं आना चाहिए, इससे सभी का ध्यान भटकता है। आप साहब इधर देखिए, क्या आपने औरतें, आदमी, लड़कियां नहीं देखी हैं? इधर देखिए। एक मिनट तो चित्त इधर रखें। हम कह रहे हैं अपने को खोजने की बात। थोड़ी देर अपने चित्त को अपने भीतर ले जाने की बात है। यदि आप चित्त को इधर-उधर घुमाएंगे, तो हम उसे अंदर कैसे खींचेंगे? थोड़ी देर इधर ध्यान लगाएं, थोड़े शांत रहें, क्योंकि यह बहुत सूक्ष्म है। बहुत सूक्ष्म चीज़ है, और अत्यंत श्रद्धा से पाई जाती है। हमारे शरीर में एक व्यवस्था है, जिसे अंग्रेजी में ऑटोनोमस नर्वस सिस्टम कहते हैं, जिसे हम स्वयं संचालित संस्था कहते हैं। यह संस्था हमारे अंदर तीन प्रकार से स्थित है, जिसे डॉक्टर लोग लेफ्ट और राइट सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम और पैरासिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम के नाम से जानते हैं।

हमारे सहज योग शास्त्र के अनुसार, ये तीनों ही संस्थाएँ जड़ हैं। बाहर दिखने वाली ग्रोस हैं और इनको चालना देने वाली संस्थाएँ हमारे यीड की हड़ी में स्थित हैं। जैसे कि मैंने आपको यहाँ दिखाई हैं, तीन लाइनें हैं, आप देख सकते हैं, ये तीन नाड़ियाँ हैं; इसे एक को ईड़ा, एक को पिंगला, और बीच वाली नाड़ी को सुषुम्ना कहते हैं। अब ये तीन नाड़ियाँ हैं या नहीं, वो हमारे अंदर स्थित हैं या नहीं, सूक्ष्म रूप से यही कार्यान्वित हैं या नहीं। क्योंकि सिम्पथैटिक और पैरासिम्पथैटिक तो आप देख सकते हैं, लेकिन सूक्ष्म नाड़ियों को आप देख नहीं सकते हैं। उसका साक्षात्कार सहज योग से ही हो सकता है। पहले किसी भी सूक्ष्म चीज को देखने के लिए आपको भी सूक्ष्म होना पड़ेगा, यह निर्विवाद है। बिना सूक्ष्म हुए आप सूक्ष्म चीज को कैसे जानेंगे, देखेंगे?

जैसे आज आपकी आँखें हैं, जैसे भी आप अभी मनुष्य स्तर पर हैं, आपको कुंडलिनी का स्पंदन हम दिखा सकते हैं। आप कुंडलिनी का चलना देख सकते हैं, कुंडलिनी का उठना देख सकते हैं। कोई भी आदमी, चाहे वो पार हो या न हो, अपने शरीर में यह सूक्ष्म व्यवस्था की गई है। ये तीन शक्तियाँ हमारे अंदर वास करती हैं; जो शक्ति राइट साइड से गुजर के लेफ्ट साइड को चली आती है, उस शक्ति का नाम महाकाली शक्ति है। अब आपको यह नाम अजीब सा लगेगा कि माताजी महाकाली कैसे पहने? अब अंग्रेजी लोगों ने तो इसका पता नहीं लगाया, तो इसका अंग्रेजी नाम मैं क्या बताऊँ। यही महाकाली शक्ति है, जिसके कारण सारे संसार की स्थिति होती है, अस्तित्व होता है। इसी के कारण सारे संसार का लय होता है, सर्वनाश होता है। जैसे कि कोई चीज़ किसी वजह से स्थित है, जैसे अपने हृदय के कारण हम लोग जीवित हैं, तो जब हृदय बंद हो जाए, तो हम मृत भी हो सकते हैं। यह शक्ति हमारे हृदय को प्लावित करती है, इसका नाम महाकाली शक्ति है और यह मनुष्य की इमोशनल साइड है, इसको अंग्रेजी में 'psyche' कहते हैं। इस psyche का चालन इस लेफ्ट हैंड साइड के सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम से होता है, पर डॉक्टर लोग इसको नहीं मानते, वो तो राइट और लेफ्ट को एक ही समझते हैं। डॉक्टर और साइकोलॉजिस्ट दोनों आपस में भी एक दूसरे को नहीं मानते। मेरा उनसे झगड़ा ऐसे ही नहीं है, उनका आपस में भी बहुत झगड़ा है। साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर को नहीं समझा पाता और डॉक्टर साइकोलॉजिस्ट को नहीं समझा सकता। मनुष्य psychology भी है, psyche भी है, और मनुष्य शरीर भी है। उसका इमोशन भी है, उसका माइंड भी है, वो सब कुछ है।

सहज योग, मनुष्य को जैसा कि वह सम्पूर्ण है, उसके बारे में पता लगाता है। अलग-अलग, धीरे-धीरे एनलाइज करके नहीं लगाता, जैसे कि साइंस; पर साइंस की हर एक बात से परिचित है। इस नाड़ी को जो लेफ्ट साइड में है, इसको हम महाकाली शक्ति कहते हैं। इस शक्ति से मनुष्य की स्थिति होती है, सारे संसार की स्थिति इसी शक्ति के कारण है। अगर यह शक्ति न हो, तो मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं बन सकता। सारे संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता। लेकिन यह समझ लीजिए कि यह परमात्मा की इमोशनल स्थिति है। यह कार्यान्वित नहीं है, यह स्थिति है। हमारे अंदर यह शक्ति जब कार्यान्वित होती है, तो हमारे अंदर जो कुछ भी मर जाता है, जो भी विचार हमारे अंदर आकर खत्म हो जाते हैं, जो भी कुछ हमारा भूत है, जो भी कुछ हमारा पास्ट है, वह इसी शक्ति द्वारा संचालित होता है, वह इसे स्टोर करती रहती है। जितना भी हमारे अंदर कंडीशनिंग होता है, वह इसी में स्टोर रहता है, रिकॉर्डेड रहता है। हम इसे महाकाली की शक्ति मानते हैं।

दूसरी शक्ति, जो हमारे लेफ्ट से गुजर कर राइट को आती है, उसे हम महा सरस्वती की शक्ति कहते हैं। महा सरस्वती की शक्ति से हमारा सारा कार्य होता है। यह सब सारा सोचने का काम होता है, हाथ-पैर चलाना, जो कुछ भी हम काम करते हैं, आगे के लिए, भविष्य के लिए। जो भी हम प्लानिंग करते हैं, जो भी हम विचार करते हैं, वह सब हमारे राइट हैंड साइड की शक्ति से होता है, जिसे हम महा सरस्वती कहते हैं। इसके बीच में जो शक्ति है, उसे महालक्ष्मी की शक्ति कहते हैं। इस शक्ति के कारण हमारा उत्थान होता है, हमारी उत्क्रांति होती है, evolution होता है। आज जो हम amoeba से इंसान बने हैं, वह इसी शक्ति के कारण है। मनुष्य का जो आज स्वरूप है, वह भी इसी शक्ति के कारण है। यह शक्ति सब वस्तुओं में उसका धर्म स्थापित करती है। धर्म का मतलब, आप लोग घबराइए नहीं, धर्म का मतलब होता है उसके अंदर का धर्म; जैसे सोने का धर्म है कि यह खराब नहीं होता, यह अविनाशी है। कार्बन में चार valencies होती हैं। हर एक अणु-रेणु में उसका धर्म होता है। बिच्छू बिच्छू जैसा होता है, सांप सांप जैसा होता है। उसी प्रकार मनुष्य मनुष्य जैसा होता है। मनुष्य का धर्म भी इसी शक्ति से स्थापित है, और धर्म की स्थापना करने के कारण ही मनुष्य आज इस दशा में आ गया है।

अलग-अलग मनुष्यों के धर्म होते हैं, qualities होती हैं, जो उसमें आती-जाती हैं। जब इन दस धर्मों की स्थापना हो जाती है, तब मनुष्य की निर्मिति हो जाती है। इस महालक्ष्मी की शक्ति के कारण मनुष्य उस दशा में भी जा सकता है, जहां उसे पहुँचना है। यह evolutionary शक्ति है। यह आज आपका present है, इस वक्त जो आप हैं, वह शक्ति है। इस प्रकार आपके अंदर तीनों काल स्थित हैं: एक भूतकाल, एक भविष्यकाल, और एक यह वर्तमान समय। इस प्रकार की तीनों शक्तियां हमारे अंदर स्थित हैं, और इन तीन शक्तियों के कारण ही आज मनुष्य इस दशा पर पहुँचा है, यहां बैठा है।

अब जब हम जानते हैं, जैसे यह माइक है, इसे बनाया गया, या कोई भी यंत्र बनाया गया हो, हमें समझ नहीं आता कि इसका क्या उपयोग है जब तक इसके अंदर से वह कॉईल निकालकर हम mains में नहीं लगा देते हैं। जब तक कि उसे हम mains में नहीं लगाते, तब तक उसका कोई उपयोग प्रतीत नहीं होता। उसी प्रकार, मनुष्य भी जब तक वह mains से जाकर नहीं जुड़ता, तब तक उसका कोई अर्थ नहीं लग सकता। उसके बाद इसका भी एक ही अर्थ होता है कि मेरी जो आवाज है, वह इसके अंदर से बहनी चाहिए। यह एक hollow चीज हो जाती है। यह इंस्ट्रूमेंट इसलिए बनाया गया है कि यह मेरी आवाज को वहन करे। बाद में यह पता चलता है कि हम भी एक hollow चीज हो जाते हैं और हमारे अंदर से वह शक्ति प्रसारित होने लगती है। हमारे अंदर से वह चैतन्य की लहरें बनकर हाथ से बहने लगती हैं, जिसे हम सर्वव्यापी परमात्मा की शक्ति मानते हैं, और वह शक्ति प्रेम की शक्ति है। यह तीनों ही शक्तियों से परे है, सारी शक्तियों को लेकर एक साथ बह रही है। इसमें तीनों ही शक्तियां हैं।

इसी चित्र को अगर परमात्मा की ओर देखें, तो यदि हम परमात्मा के प्रतिबिंब हैं, तो यह तीनों शक्तियां परमात्मा में भी संचालित होनी चाहिए। जैसे कि इनके अंदर के छोटे-छोटे तंत्र हम लोग बने हुए हैं, हम लोग माइक्रोइस्म हैं, तो हम लोग माइक्रोस्कोप हैं। इस तरह से हम भी इनके अंदर, इन्हीं के जैसे बने हुए, अंदर बैठे हुए हैं। हमें भी सिर्फ जाग्रत होना है कि हमारे अंदर से वह सर्वव्यापी परमात्मा की शक्ति बहे। जब तक यह नहीं होगा, तब तक आनंद आपको मिल नहीं सकता। जब तक यह गति नहीं आएगी, आप अपने जीवन का लक्ष्य नहीं पा सकते; चाहे आप दुनिया की कोई भी चीज पा लें, आपको सब कुछ मिल नहीं सकता, आप आनंद भी नहीं ले सकते।

आप अभी अपने सामने देख रहे हैं, इसमें हमने अनेक चक्र दिखाए हैं। इन चक्रों से ही गुजरकर कुंडलिनी ऊपर की ओर आती है। अब मैं इन सात चक्रों का वर्णन करती हूं, जो इसमें हैं। अब इस पर शंका करके न बैठे रहें कि यह है भी कि नहीं, या माता जी यूं ही बात कर रही हैं। अगर आप वैज्ञानिक हैं, तो वैज्ञानिक का दिमाग भी, उसकी बुद्धि भी खुली होनी चाहिए। उसका दिमाग खुला होना चाहिए। हम यह परिकल्पना आपके सामने रख रहे हैं। उसे आप स्वीकार कर देखें, और अगर वह घटित हो, वह फलीभूत हो, और उसका साक्षात हो, तो उसे आप मान लें।

ये जो सात सूक्ष्म चक्र हमारे भीतर हैं, ये बाहर तो दिखाई देते ही हैं। डॉक्टर इन्हें प्लेक्सस के नाम से जानते हैं। साथ ही मैं तुम्हें उनका नाम भी बताऊंगा, जो सूक्ष्म से प्रकट होकर बाहर रूप में विद्यमान हैं, जाल का। लोग इसे देख सकते हैं और वे समझ सकते हैं कि हमारे अंदर कोई संस्था है, जिस पर हम निर्भर हैं, कोई नियंत्रण नहीं है। जैसे कि आपका दिल अपने आप धड़क रहा है, आपका पेट अपने आप काम कर रहा है, आपकी सांस अपने आप चल रही है, कई चीजें अपने आप हो रही हैं। अगर आप दिल की गति को बढ़ाना चाहते हैं, तो आप इसे बढ़ा सकते हैं। अगर आप दौड़ना शुरू करते हैं, तो आपकी दिल की गति तेज हो सकती है, लेकिन ये अपने आप कम हो जाता है, आप इसे कम नहीं कर सकते। आप अपनी सांस की गति को बढ़ा सकते हैं, कम नहीं कर सकते। इसे कम करने की प्रक्रिया भी स्वचालित है। आप जो कुछ भी बढ़ा सकते हैं, उसका उपयोग आपातकालीन स्थिति में कर सकते हैं। जिस पर आप नियंत्रण कर सकते हैं, वह संस्था सिंपैथेटिक नर्वस सिस्टम (सहानुभूति तंत्रिका तंत्र) है, और जो संस्था आप पर नियंत्रण करती है, वह पैरासिंपैथेटिक है। सहानुभूतिपूर्ण, जैसा कि मैंने आपको बताया, इड़ा और पिंगला से चलता है, और पैरासिंपैथेटिक बीच की संस्था, जिसे हम शुषुम्ना नाड़ी कहते हैं, से चालित है। अब इन तीनों नाड़ियों से प्लावित होकर हमारे अंदर कुछ सेंटर्स हैं। इन सेंटर्स में अनेक देवी-देवता विद्यमान हैं। अब बहुत से लोग कहेंगे, "माता जी बेकार की बात मत करिए, यह वैज्ञानिक नहीं है।" लेकिन क्या वैज्ञानिक सभी चीजों का जवाब दे सकते हैं? अगर एक छोटा सा सवाल आप डॉक्टर से जाकर पूछें कि जब हमारे शरीर में कोई भी बाहरी वस्तु, कोई विदेशी चीज आती है, तो हमारा शरीर उसे फेंक देता है। वह पूरी कोशिश करता है कि वह उसे शरीर से निकाल दे। लेकिन जब मां के गर्भ में कोई बच्चा बस जाता है, तो उसे शरीर नहीं फेंकता, बल्कि उसका संभरण करता है, उसे बढ़ाता है। यह कौन करता है? इसका निर्णय कौन लेता है? यह फर्क कहां से आता है? कोई इसके बारे में सोचता है? यह कैसे हो जाता है कि जब कोई शिशु मां के पेट में आ जाता है, तो उसका संभरण शुरू हो जाता है, ना कि उसे निकालकर फेंक दिया जाए।

ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिनका कोई उत्तर डॉक्टर नहीं दे सकता। एसिटिकोलाइन और एसिडेलिन नाम के दो केमिकल्स हैं। जब ये हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं, या हमारे शरीर में कार्यान्वित होते हैं, तो इनके एक्शन अलग होते हैं। जैसे जहां इजेक्ट करना है, वहां ये ऑपरेट कर देते हैं, और जहां आराम करना चाहते हैं, वे उसे बढ़ाते हैं। माने, वे उसको छोटा कर देते हैं, खींच देती है। डॉक्टर लोग कहते हैं कि हम यह नहीं बता सकते, we cannot explain them. बहुत सी बातों में ऐसा ही जवाब होता है, "we cannot explain." ठीक है! उनका कहना भी सत्य है; उसमें बड़ी भारी एक सच्चाई है, कि कम से कम वे सच्चाई पर हैं। लेकिन चूँकि इन लोगों की खोज बाहर से है, अँधेरे में जब आप किसी जगह जाते हैं, तो आपको कुछ पूरी चीज़ दिखाई नहीं देती। एक चीज मिल गई, दूसरी चीज मिल गई, उसका कनेक्शन नहीं बन पाता। फिर आप एक-एक चीज लेकर अनेक विश्लेषण करते जाते हैं, तब आप उस जगह जाकर पहुंचते हैं, जहां पूरी चीज मौजूद है। उसको आप भूल जाओ। आप जानते हैं कि एक डॉक्टर एक आंख को देखेगा, दूसरा डॉक्टर दूसरी आंख को। अगर आपको पूरा शरीर का परीक्षण कराना है, तो आपको कम से कम साठ डॉक्टरों की जेब गर्म करनी होगी। मनुष्य एक ही है, और उसकी कला, उसका संगीत, उसकी कविताएं, वह कहां से आती हैं, इसका किसी को कोई अंदाज़ा नहीं। किंतु जब आदमी बाहर से खोजता है तो ऐसा ही होता है। लेकिन एक बात हो सकती है कि इस अंधेरे कमरे में अगर प्रकाश हो जाए, अचानक रोशनी आ जाए, तो सभी कुछ एकदम से जाना जा सकता है। यह हमारा सहज योग है।

हमारे अंदर, बिल्कुल नीचे, त्रिकोणाकार अस्थि में, आप देखेंगे एक साढ़े तीन, सबको दिखाई दे रही है? साढ़े तीन वृत्त में, सर्कल में, लपेट में, है एक कुण्डलिनी नाम की एक शक्ति है। यह है कि नहीं? मैंने आपको पहले ही बताया, मैं इसका साक्षात आपको दूँगी। यह शक्ति सुप्ता अवस्था में रहती है। यह तब तक सुप्ता अवस्था में रहती है जब तक इसकी कोई अधिकारी सामने नहीं आता। इसका अधिकारी बहुत ही दुर्लभ है, करीबन होता ही नहीं सहज योगी। कम से कम मुझे कोई मिला नहीं, जब से मैंने जन्म लिया है, इस जन्म में तो मिला नहीं। इस जन्म में कोई भी नहीं। कुछ लोग हैं जरूर संसार में, जिन्हें कि मैं कह सकती हूं कि वे पार हो चुके हैं। लेकिन वो कोई भी, एक भी, संसार में नहीं विचरते। सब लोग जंगलों में बैठे हैं। बहुत ही कम, बिरला ही कोई, एक-आध ही देखा जाता है। कोई जब सामने आ जाता है, उसका जब साक्षात होता है, क्योंकि यह चैतन्य है, 'अवेयरनेस' है। यह सोचती है, समझती है, ऑर्गनाइज करती है। सोचने, समझने, कोऑर्डिनेट करने और प्रेम करने वाली कोई शक्ति है या नहीं, यह हम नहीं समझ सकते। हम ऐसी किसी शक्ति को समझ नहीं सकते। लेकिन जब हम ये सब कर सकते हैं तो कोई ऐसी शक्ति तो होगी ही। इसके लिए कोई स्रोत होना चाहिए। आखिर हम ये सब कृत्य कैसे कर सकते हैं?

जो वृक्ष में नहीं है, वह फल में कहाँ से आया? इसका कहीं न कहीं कोई स्रोत अवश्य होगा। यह शक्ति कहीं न कहीं तो विराजमान होगी, जिससे कि हम प्यार करते हैं, सोचते हैं और सारे कार्य करते हैं। उसी शक्ति का अंश मात्र आपके अंदर, हरेक के अंदर आता है। इसी तरह से, बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी के अंदर उतरता है और यहाँ पर, तीन साइड लपेट में, इसका भी बड़ा शास्त्र है, गणित है। आपके अंदर स्थित है। बड़ी सुंदर व्यवस्था है। और वह शुद्ध है। अब बहुत से लोग कहते हैं कि हम कुंडलिनी जागरण करते हैं। ऐसे बहुत सारे लोग मिलते हैं। बहुतों ने किताबें भी लिख डालीं। वो किताबों को पढ़कर अगर आप आएंगे तो पहले घबराएँगे कि, 'माता जी, कुंडलिनी तो बहुत खतरनाक चीज है।' वह आपकी माँ है। आपकी माँ कभी भयंकर हो सकती है? सारी दुनिया भी भयंकर हो जाए, माँ तो नहीं हो सकती? वह आपकी अलग-अलग माँ सबकी माँ है। वह आप ही के साथ है, वह हर जन्म-जन्मांतर में पैदा हुई। जिस माँ ने आपको जन्म दिया, वह बदल सकती है, पर वह नहीं बदलती। यह कुंडलिनी आप ही के साथ भ्रमण करती रहती है। वह आपके ही साथ रहती है। वह बार-बार आप ही के अंदर स्थित रहती है। वह आप ही को जानती है। वह आपकी सब गलतियाँ भी जानती है। आपकी सारी कुंडली जानती है। आपके सारे कर्मों को जानती है। वह क्या है? वह आपके साथ क्या बुराई कर सकती है? कैसे कर सकती है?

लेकिन जो उसका अधिकारी नहीं है, वह ऐसी गंदी बातें लिखते हैं। कुंडलिनी के नीचे अगर आप देखें तो चार दलों का एक सेंटर है। कुण्डलिनी जहाँ स्थित है, उसे मूलाधार कहते हैं, क्योंकि मूल का आधार वहाँ है। उसका निवास, उसका घर है। और उस घर के बाहर, उसके नीचे, उसके बहुत नीचे, उसका एक सेंटर है, जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं। अब ये बड़ा भारी अंतर है — मूलाधार और मूलाधार चक्र। मूलाधार चक्र नीचे मौजूद है और मूलाधार ऊपर। मूलाधार में आपकी माँ कुण्डलिनी, गौरी शक्ति स्वरूपिणी, बैठी हैं। गौरी नहा रही हैं, और नीचे में गणेश जी उनकी रक्षा कर रहे हैं। इस पहले सेंटर के अंदर श्रीगणेश बैठे हैं। अब कोई कहेगा, "श्री माता जी, श्रीगणेश आपने कहाँ से ले आए?" श्रीगणेश साक्षात वहाँ हैं या नहीं, ये बाद में देखा जाएगा। लेकिन श्रीगणेश तो एक प्रतीक रूप हैं। श्रीगणेश प्रतीक हैं चिरकाल के बालक। श्रीगणेश चिरकाल के बालक हैं।

अपने अंदर अनेक प्रतीक हैं। यह साइकोलॉजिस्ट मानते हैं। यूं उन्होंने काफी मेहनत की है। वो कहते हैं, हमारे यहाँ एक ऐसी यूनिवर्सल अंकोनशियस (सार्वभौमिक, अचेतन), सर्वव्यापी एक ऐसी अचेतन शक्ति है जो हमारे अंदर प्रतीक भेजती है, जैसे सपना। ध्यान की उनकी इतनी शक्ति नहीं थी, अगर होती तो वे लोग इसे देखते। लेकिन ध्यान में जाने की शक्ति होने पर वह देख सकता है कि इस जगह श्री गणेश साक्षात हैं। क्या वे हैं या नहीं, यह आपको हम जैसे-जैसे कुंडलिनी योग में आगे बढ़ेंगे, तब आपको दिखाएंगे और समझाएंगे। अभी यहां जितने लोग हैं, उन्होंने इसे जाना है। तुम्हें अभी तक इसका पता नहीं चला है। आप लोगों ने इसे अभी जाना नहीं, आप लोग भी जानेंगे। श्री गणेश का यहां स्थान है। इस चक्र में श्री गणेश इसलिए बैठाए गए हैं, कि जब आप चाहते हैं कि अब अपनी कुंडलिनी जाग्रत हो, तो आपकी मां गौरी जागृत हो जाएं। आपके मन में अपनी मां के प्रति एक बच्चे जैसी इनोसेंस, अबोधिता और गौरव होना चाहिए। मासूमियत होनी चाहिए, वह चैक के मामले में होनी चाहिए। क्योंकि श्री गणेश इस चार पंखों के चक्र पर बैठे हैं। इसी चक्र से सेक्स भी कंट्रोल होता है। वह कोई रास्ता नहीं है परमात्मा की ओर जाने का, बिल्कुल भी नहीं। इससे अगर उस रास्ते से कोई गुजरने कि कोशिश करता है, तो श्रीगणेश क्रोधित हो जाते हैं। क्या आप अपनी माँ से सैक्स कर सकते हैं? जो लोग सेक्स के बारे में बात करते हैं वे तुम्हें यही सिखा रहे हैं कि आप अपनी माँ के साथ सेक्स करै। हिन्दुस्तानी आदमी इसे बहुत अच्छे से समझ सकता है। इससे बड़ा कोई कुकर्म, पाप, या श्रापित चीज नहीं है। मुलाधार चक्र पर श्री गणेश अपनी माँ की लज्जा का रक्षण कर रहे हैं। लेकिन आजकल बहुत से नए-नए कृष्ण जी निकल आए हैं, जो अपने को कहलाते हैं। वे इस तरह की गंदी बातें फैला रहे हैं कि आप अपने सेक्स को सबलीमेट करें। आप पहले ही सबलीमेटेड हैं; देखिए आपका चार पंखों वाला मूलाधार चक्र नीचे है और कुंडलिनी ऊपर बैठी है। इस तरह के कार्य करने से जो आपके अंदर गर्मी पहुँचती है, यह श्री गणेश का क्रोध है। वह आप पर गुस्सा हो जाते हैं, और उनके गुस्से के कारण ही कुंडलिनी चिढ़ जाती है। कुंडलिनी कुछ है, जो जहां-तहां बैठी हुई है, वह हिलती नहीं है। यह तो श्री गणेश का गुस्सा है, जिसके कारण कुंडलिनी से परे सहानुभूति तंत्रिका पर आघात होता है। आपके अंदर अनेक तरह की व्यवस्थाएँ तैयार होती हैं। कुछ लोगों पर सारे भूत-प्रेत आ जाते हैं। मैंने देखा है; मेरे पास उन लोगों के मारे हुए लोग आते हैं, जिन्हें ठीक करना पड़ता है। सारे बदन पर बलिस्टर्स आ जाते हैं। इतने गणेश जी गुस्से हो जाते हैं कि बहुत से लोगों के हाथ-पैर कूदने लगते हैं। कोई चिल्लाने लगता है, कोई चीखने लगता है; कोई अपने कपड़े उतार देता है, कोई नशा करता है। कुछ लोग बकने लगते हैं, और किसी को कहीं लाइट वाइट दिखाई लगने लग जाता है। यह अजीब सी बात है। मैं अभी एक जगह गई थी कोल्हापुर में, वहाँ एक आदमी मेरी तरफ पैर करके बैठा था। सबने कहा, "भई, माता जी की तरफ पैर करके नहीं बैठो।" उसने कहा, "मुझे ऐसे बैठने दो, नहीं तो मैं मेंढक के जैसे कूदता हूँ।" उन्होंने पूछा, "तुम मेंढक के जैसे क्यों कूदते हो?" उसने जवाब दिया, "मेरे गुरु ने मेरी कुंडलिनी उठा दी है, इस वजह से मैं मेंढक जैसे कूदता हूँ।" ऐसे कुंडलिनी को भगवान करके ना उठाओ। आपके लाभ के लिए है और आपके सुख के लिए जो चीज है, आनंद के लिए जो चीज है, उसका इस तरह का प्रयोग और इस कदर उसका अनादर और क्या हो सकता है। कोई भी उसमें ऐसे सिम्पटम्स नहीं होने चाहिए। हां, यह जरूर है कि अगर आपकी तबीयत ठीक नहीं है, हो सकता है आपकी कुंडलिनी थोड़ी सी उठकर उस जगह पर चली जाएगी और वहाँ जहां आपको तकलीफ है, वहाँ जाकर रुक जाएगी। एक-दो रोज वहाँ रुकेगी। हो सकता है कि आपके शरीर में थोड़ी गर्मी सी आ जाए। या हो सकता है कि एक साहब को स्किन की शिकायत थी, उनका एक अंगूठा जरा हिलने लग गया। इतना ही, बहुत ज़्यादा नहीं है। क्योंकि इंडिकेशन्स भी आने चाहिए। जब यह कुंडलिनी जागृत हो जाती है और इन सारे चक्रों को षठ चक्र कहते हैं, क्योंकि सातवाँ चक्र तो उसे छेदना नहीं होता, वह तो उससे ऊपर है, इसीलिए इसे षठ चक्र बोलते हैं। देखिए, यह कितनी बड़ी साक्षात बात है कि सातवाँ चक्र जो मूलाधार चक्र है, उसे छेदा नहीं जाता। इसलिए उसकी बात ही नहीं करनी चाहिए कुंडलिनी के वक्त में, हाँ, यह कभी नहीं। अगर आप अपवित्र आदमी हैं, लंपट हैं, आपने अपने गणेश जी की जरा भी परवाह नहीं की और मूर्खतापूर्ण जीवन बिताते रहे हैं, तो जरूरी है कि आपके अंदर एक शून्यता हो जाएगी। और जब भी कुंडलिनी उठती है, वह झट से नीचे आ जाती है। ऐसा ही होता है। यह दूसरी बात है, यदि आपने गणेश जी की परवाह नहीं की तो भी सहज योग में बहुत माफी हो जाती है। मैंने देखा है कि बहुत से लोग इस तरह से रहते भी हैं, तो भी उनको माफी मिल जाती है। बहुत जरूरी है कि जब आप परमात्मा के सामने आए हैं और आप चाहते हैं कि आपको उनका आशीर्वाद मिले, तो आपको अपनी पवित्रता को भी आँक लेना चाहिए। क्या हममें यह पवित्रता है? क्या हम माँ-बहन को कुछ समझते हैं या नहीं? बहुत जरूरी है। मूलाधार चक्र के ही बिगड़ जाने से जो भी सेक्स के प्रॉब्लम्स हैं, हो जाते हैं। जैसे कब्ज आदि, कॉन्स्टिपेशन वगैरा जो भी चीजें हैं, हो सकती हैं, क्योंकि यह बिल्कुल गुदा के नीचे चक्र है। उसके ऊपर आप देखते हैं, बराबर बीचों-बीच पेट की ओर जिसे कि हम नाभि कहते हैं। यह नाभि चक्र है। इसे लोग मणिपुर चक्र भी कहते हैं। नाभि चक्र या मणिपुर चक्र बराबर नाभि के पीछे रीढ़ की हड्डी में इस जगह होता है। और इससे जो प्लेक्सस चलता है, उसे अंग्रेजी में सोलर प्लेक्सस कहते हैं। यह चक्र आपके पीठ की रीढ़ की हड्डी में रहता है, लेकिन प्लेक्सस तो सामने होता है, जो कि पीठ की रीढ़ की हड्डी के बाहर में होता है। यह ग्रॉस (स्थूल) है, और जो सूक्ष्म चक्र है, वह आपके रीढ़ की हड्डी के अंदर होता है, मेडुला ऑबलॉन्गेटा में। बायोलॉजी में इसे मेडुला ऑबलॉन्गेटा कहते हैं, जो रीढ़ की हड्डी के अंदर होता है। तो यह चक्र, जो सोलर प्लेक्सस है, इसी से हमारे पेट के सारे अंग कार्य करते हैं। इसी चक्र से निकल के चारों तरफ घूमता है। इसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं। इस चक्र में छह पंखुड़ियाँ होती हैं। इस पर श्री ब्रह्मदेव का वास है और सरस्वती उनकी शक्ति हैं। जो नाभी चक्र है, उसमें श्री विष्णु का वास है और लक्ष्मी जी उनकी शक्ति हैं। अब समझ लीजिए कोई आदमी जरूरत से ज्यादा गरीब है, हो सकता है उसका नाभी चक्र खराब हो। नाभी चक्र की खराबी से अपने देश का ही नाभी चक्र खराब है, इसीलिए यहां गरीबी ज्यादा है। आप लक्ष्मी जी की अनेक पूजा करिये, दुनिया भर के आप काम कर लीजिए, लेकिन आपको फायदा नहीं होता। जब तक आपका नाभी चक्र ठीक नहीं होगा, आपकी हालत ठीक नहीं होगी। लेकिन लक्ष्मी जी का मतलब पैसा वाला नहीं होता है। यह आप बार-बार, अच्छे साफ़ तरीके से समझ लीजिए। आज मैं इन दो चक्रों के बारे में बता कर ध्यान करवाऊंगी। कल बाकी के चक्रों के बारे में बताऊंगी। लक्ष्मी जी और सरस्वती जी के बारे में आपको बताऊंगी। यह कल्पना नहीं, यह साक्षात है, वास्तविक। क्योंकि नाभी चक्र जो है, यह भीतर धर्म की स्थापना करता है हमारे अंदर। मनुष्य के दस धर्म हैं, यह होने चाहिए। यदि यह मनुष्य के दस धर्मों में से टूट जाता है, तो यह सहजयोग के लिए उपयोगी नहीं है। उसके धर्म बांधने पड़ते हैं। उसकी जागृति नहीं हो सकती; ये दस धर्म हैं। यह हमारे अंदर मिनिमम होने चाहिए। जब यह होते हैं, तभी आदमी धर्मातीत होता है। लक्ष्मी जी एक स्त्री स्वरूपा दिखाई देती हैं। स्त्री स्वरूपा का मतलब है माता रूप में होना चाहिए। जिस आदमी के पास पैसा है, लक्ष्मीपति उसे कहना चाहिए जो स्वयं अत्यंत सरभय हो, और जिसके अंदर मातृत्व हो सके। दूसरे, लक्ष्मी जी कमल पर खड़ी हुई हैं, हल्की हैं। अर्थात जिस आदमी के पास, जिसे लक्ष्मीपति कहा जाए, उसमें अपने बारे में इतना हलकापन होना चाहिए। इतनी सादगी होनी चाहिए कि वह एक कमल पर भी खड़ा हो सके। हम देखते हैं कि जरा सा पैसा हो जाए तो इतना घमंड हो जाता है।

“माता जी, देखो, मुझे पार तो होना है, लेकिन मैं सबके बीच वहाँ हॉल में नहीं आ सकता। आप तो मेरे घर आना।” मैंने पूछा क्यों? “क्योंकि आपके पास थोड़ा ज्यादा पैसा है? आप सबके साथ बैठ नहीं सकते?” ऐसे आदमी में जरा सा भी घमंड नहीं होना चाहिए, इतना सा भी घमंड नहीं होना चाहिए। तभी वह लक्ष्मीपति है। अगर उसे पैसे का घमंड हुआ तो वह बर्बाद हो जाएगा। फिर वह क्या पैसे वाला है? अगर वह असली पैसे वाला है, तो यही चीज होती है, उसे कभी भी किसी चीज का घमंड नहीं हो सकता। किसी दूसरे की मारी हुई चीज होगी तभी वह घमंड करता है, या उसके पास अभी बहुत कमी हो। इसीलिए उसका घमंड होता है। जब वह पूरा पूर्ण होता है तो कभी घमंड नहीं करता। क्या हम लोग कभी अपनी नाक, आँख, कान का घमंड करते फिरते हैं?लक्ष्मी जी के दोनों हाथों में गुलाबी रंग के खिले हुए कमल हैं। इसका मतलब यह है कि जो लक्ष्मीपति हैं, उनका हृदय इन कमलों जैसा खुला होना चाहिए, खुले दिल का होना चाहिए। कोई आया और उस पर भौंकने लग जाए, तो वह लक्ष्मीपति कैसा? वह तो कुत्ता हुआ, वह लक्ष्मीपति नहीं हो सकता। कमल के जैसे, जिसकी सुरभि सारे संसार में फैली हुई हो। यह जानना चाहिए कि एक लक्ष्मीपति यहाँ रहते हैं, तो स्वाभाविक रूप से लोग उनका सम्मान करेंगे और कहेंगे, "हा हा, यह आदमी है न, इसे लक्ष्मी प्राप्त हुई है।" लेकिन लक्ष्मी ऐसे नहीं चढ़ सकती। यह लोग पैसे वाले हैं, पर यह लक्ष्मीपति नहीं हैं। इनके पीठ पीछे लोग कहते हैं, "वह बड़ा दारूबाज है, वह फलाना है, वह ढिकना है; वह काला बाज़ार करता है।" ऐसे व्यक्ति की कोई प्रशंसा नहीं करता, उसमें कोई गरिमा नहीं है, उसमें कोई सुंदरता नहीं है। ऐसे एक व्यक्ति को मैं जानती थी जहाँ मैं पैदा हुई थी। उन्हें डी लक्ष्मीनारायण कहा जाता था, वे बहुत बड़े रईस आदमी थे। उन्हें आप सही मायनों में लक्ष्मीपति कह सकते हैं। अत्यंत ही विनम्र व्यक्ति थे, बहुत ही सरल, बच्चों जैसे स्वभाव के। लेकिन ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं। लक्ष्मीपति का घर भी कमल जैसा होना चाहिए, सुंदर, गुलाबी, जिसमें हृदय का गुलाबीपन हो। उसमें हृदय का खिंचाव हो, लोगों को स्वीकार हो, सबका वहाँ आना हो। यहाँ तक कि गूंगे जैसे प्राणी के भी कमल अपने हाथ थाम लेते हैं और उसे आराम से सुलाते हैं। (कमल की सहजता होनी चाहिए) उसके हृदय में कोमलता होनी चाहिए। ऐसे किसी व्यक्ति को आपने देखा है? अगर कोई एक-दो दिखाई दे तो मुझे आकर बताना। यह बहुत मुश्किल है, पैसा आया और लोग गधे बन गए। कुछ नहीं हुआ तो शराब पी ली, नहीं तो जुआ खेल लिया। क्या आदमी की बुद्धि है? उसके पास पैसा आ गया, लेकिन उसकी बुद्धि हमेशा उलटी दिशा में जाती है। घोड़े से भी बदतर बुद्धि है आदमी की। सोचकर आश्चर्य होता है। कभी भी पैसा उसे सच्ची बुद्धि नहीं दे पाता, ऐसा इंसान किस काम का? ऐसा पैसा किस काम का? वह पैसा ही काम आता है जिससे मनुष्य को सच्ची बुद्धि आती है। उसका धर्म जागृत होता है। परमात्मा इसलिए ज्यादा पैसा देते हैं ताकि आपके हाथ से धर्म का काम हो और संसार का भला हो। धार्मिक कार्य और पैसे का बड़ा नजदीकी संबंध है, मैं आपको बता रही हूँ। आप विश्वास करें या न करें। कल मैंने बताया था कि मैं किसी के घर गई थी। उन्होंने कहा, "माता जी, आप जरूर यहाँ आना, यहाँ बहुत जरूरी काम है। यहाँ बहुत रईस लोग रहते हैं।" मैंने कहा, "देखो भई, मुझे यह रईसी-वईसी कुछ समझ में नहीं आती, अच्छा, मैं चलती हूँ।" रास्ते में था, बहुत कहा उन्होंने मुझसे; जैसे ही मैंने अंदर पैर रखा, कहा, "इस घर पर बहुत भारी श्राप है, तुम कुछ भी कहो, रईस कहो, जो कहो।" उसने कहा, "कैसे?" मैंने कहा, "यह घर श्रापित है।" मैंने उनके घर में जाकर देखा, तो दो जवान लड़के थे। वे हमेशा कुर्सी पर बैठे रहते थे, उनके पैर ऐसे थे, उनके हाथ ऐसे थे। न वे सो सकते थे, और जब से पैदा हुए थे, तब से वे ऐसे ही थे। उस पैसे का क्या करने का? हाथी लेकर घूमोगे? आपके दोनों बच्चे ऐसे हो गए हैं। मुझे लगा कि यह घर शापित है। धन का अभिशाप हो गया। यदि आप धन कमाते हैं, तो उसका मूल्य धर्म की व्यवस्था में है। इसी तरह कई घर शापित हैं। अगर आप किसी की पत्नी को देखें, तो वह पागल हो गई है। किसी को कुछ हो गया है, किसी को कुछ हो गया है। कोई कहता है, "हमारे घर में कोई बच्चा नहीं है।" कोई कहता है, "कुछ होता है, कुछ होता है।" संतान न होना कोई अभिशाप नहीं है, लेकिन जिस तरह से यह उन पर प्रभाव डालता है, वह अभिशाप है।

इसीलिए धन और धर्म का बहुत बड़ा संबंध है।

Bharatiya Vidya Bhavan, Mumbai (India)

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