Public Program

Public Program 1999-02-20

Location
Talk duration
96'
Category
Public Program
Spoken Language
Hindi, Marathi

Current language: Hindi, list all talks in: Hindi

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20 फ़रवरी 1999

Public Program

Shivaji Park, मुंबई (भारत)

Talk Language: Hindi, Marathi | Transcript (Hindi) - Draft

1999-02-20 Awakening Of Kundalini Is Not A Ritual, Mumbai, India

Hindi

सत्य को खोजने वाले आप सभी साधकों को मेरा प्रणाम.

सत्य के और हमारी नज़र नही होती, इसकी क्या वजह है? क्यों हम सत्य को पसंद नहीं करते और आत्मसात नहीं करते? उसकी नज़र एक ही चीज़ से खत्म हो जाये तो बातकी जाए, पर ये तो दुनिया ऐसी हो गई की गलत-सलत चीज़ों पे ही नज़र जाती है। सो इस पर यही कहना है कि ये घोर कलियुग है, भयंकर कलियुग है। हमने जो लोग देखे वो बहुत निराले थे और आज जो लोग दिखाई दे रहे हैं, वो बहुत ही विक्षिप्त, बहुत ही बिगड़े हुए लोग हैं। और वो बड़े खुशी से बिगड़े हुए हैं, किसी ने उन पे ज़बरदस्ती नही की । तो अपने देश का जो कुछ हाल हो रहा है उसका कारण यही है कि मनुष्य का नीति से पतन हो गया। अब उसके लिए अपने देश में अनेक साधु-संतों ने मेहनत की, बहुत कुछ कहा, समझाया। और खास कर भारतवर्षीयों की विशेषता ये है कि जो कोई साधु-संत बता देते हैं उसको वो बिलकुल मान लेते हैं, उसको किसी तरह से प्रश्ण नही करते। विदेश में ऐसा नही है। विदेश में किसे ने भी कुछ कहा तो उसपे तर्क करने शुरू कर देते है। लेकिन हिंदुस्तान के लोगों की ये विशेषता है कि कोई ग़र साधु-संत उनको कोई बात बताए तो उसे वो निर्विवाद मान लेते है कि ये कह गए है ये हमें करना चाहिए। छोटी से लेकर बड़ी बात तक हम लोग ऐसा करते हैं। ये भारतीय लोगों की विशेषता है, और इसी विशेषता को लेकर के आज तक हम लोग ठीक से चल रहे थे।

पर अब क्या हो गया है कि घोर कलियुग में मनुष्य ये सोचता है कि सत्य नाम की कोई चीज़ नही है, असत्य ही सब कुछ है, जो असत्य मे बैठा है वही पनपता है, उसी को सब तरफ से मदत आती है। इस तरह की गलत धारणाएँ हमारे अंदर इसलिए उत्पन्न हुई कि ये कलि का बड़ा जबरदस्त, जोरदार हमारे पे आधिपत्य है। और इसको हम जानते नही हैं कि ये कलि का आधिपत्य है जो इस तरह से हमें सर्वनाश की और ले जा रहा है। अपने देश में छोड़िये, और देशों में भी मै देखती हूँ कि इस कलि महाराज का इतना वहाँ पर आधिपत्य है, इतना उसका राज्य है कि लोग बेवकूफ़ जैसे बिलकुल बहके चले जा रहे हैं। और हिन्दुस्थान के लोग वैसे भी सीधे-सरल होते हैं। और कोई बात उनको बेवकूफ़ी की करा दीजिये तो उनकी ये समझ में नही आता कि ये बेवकूफ़ बना रहे हैं। जैसे एक छोटी सी आजकल की बात, मै आई तो मैने देखा की प्याज़ महंगा हो गया। अरे भाई ग़र प्याज़ महंगा हो गया तो क्यों महंगा हो गया? उसके लिए सरकार बदलने से क्या प्याज़ आ जायेगा? एक सोचने की बात है कि हम कितने बेवकूफ़ हैं कि हमें कोई भी बेवकूफ़ बना सकता है। क्योंकि इस कलि का असर हम पर सबसे ज़्यादा है। और क्यों है? क्योंकि हमारे ही देश में नीति, धर्म और आध्यात्म का राज्य रहा। सारी दुनिया से, परदेश से इतने लोग आते हैं , आप तो जानते हैं (कि) आते हैं, उनमें से सत्तर फ़ीसदी लोग सिर्फ़ खोजने आते हैं कि सत्य है। मुझे तो चायना में आश्चर्य हुआ कि वो लोग कहने लगे कि आपकी जो सम्पदा है जिसे कि आध्यात्म, spirituality कहते हैं, वो तो हमें कहीं दिखाई नही दी। वो कहाँ गायब हो गई? कोई देश में कोई जाता नही, किसी और देश में कोई जाता है क्या इस सम्पदा को खोजने? सिर्फ़ आप ही के देश में क्यों आते हैं? ये सम्पदा है कहाँ?

ये आध्यात्म की सम्पदा क्यों खत्म हो गई? इसका किसी धर्म विशेष से सम्बन्ध नही। सब धर्मों में आध्यात्म की ही बात की। उसके बाद पंडित हुए, कोई मुल्ला हुए, और कोई हुए, उन्होने इसका सत्यानास किया वो दूसरी बात है। पर आध्यात्म हरेक धर्म का गाभा, उसके अंदर की जो प्रतिष्ठा है, वो है। और वो आध्यात्म इस देश में इतना ज्यादा था, इतना अधिक था, कि मेरी समझ में नही आता कि लोग अभी तक इसकी और क्यों नही आते। आध्यात्म के नाम से लोग पैसे कमाने अमेरिका गये, आध्यात्म के नाम से सब को बेवकूफ़ बनाने की लिए भी हिंदुस्थान में बहुत हैं। लेकिन आध्यात्म को सच्चाई से पाने के लिये कितने लोग हैं?

अब ये सोचना चाहिये की आध्यात्म की हमें क्या जरूरत है? सबसे पहले मुझे कहना है कि इसकी जो मूलतः, जो कुछ भी मूल कहना चाहिये इसी देश में है। आध्यात्म सिर्फ़इसी देश में असली तौर से पूरी तरह से पनपा। और देशों में भी है, जैसे इस्लाम में है, जैसे कि आप कहें तो ईसाई धर्म में है, सब धर्मों में है, पर जितना मूलतः अपने देश मेंआध्यात्म का ज्ञान लोगों को है, कहीं भी नही है। और हम लोग अछूते भिखारी हैं। हमको मालूम ही नही कि हम लोग कितने श्रीमंत हैं, हमारे आध्यात्म के दम पर हम क्या क्याकर सकते हैं वो सोचने की बात है। तो सबसे पहले ये जान लीजिये कि इस देश का उद्धार तो सिर्फ़ आध्यात्म से ही होगा। और उसके बाद सारे देशों का आध्यात्म होने के बारेमें भविष्यवाणी है कि जब ये आध्यात्म में उतरेंगे तब ये किस तरह से पनपेंगे। अब जो भी आज तक हमने जाना है आध्यात्म के बारे में, वही है जो किसी ने बता दिया या बेवकूफ़बना दिया, बेवकूफ़ बनाना पहला कार्य है। और उसी तरह से हम कर्मकांडी हो गए, उसी तरह से हम कुछ ना कुछ करते रहते हैं। लेकिन आध्यात्म में ये जानना चाहिए कि यहअपने भारतवर्ष की सम्पदा है, ये एक विशेष संस्कृती से आई है और ये संस्कृती हज़ारो वर्षों से हमारे अंदर प्रणित है, हज़ारो वर्षो से। मैंने किसी भी देश में इतनी संस्कृती नहीदेखी, इतने सुसंस्कृत लोग नही देखे। हमारे यहाँ ऐसी छोटी-छोटी बात में भी संस्कृती दिखाई देती है। कि अब किसी को अंग्रेज़ी में कहेंगे "I hate you" (मुझे तुमसे घृणा है) माने ऐसी बात क्या हम लोग हमारी किसी भी भाषा में क्या कह सकते है क्या किसी को? क्योकि किसी से नफ़रत करना एक महापाप है। तो हम थोड़ी कहेंगे कि हम पाप करतेहैं। पाप पुण्य की भावना इस देश में बहुत गहन है, और बनी हुई है। अभी हम लोग जागे नही, बेकार के लोग इस देश में फैले हुए हैं।

और "समाजवाद" - अरे वो समाजवादी का हाल रशिया में क्या हुआ वहां जा के देखो। वो आके आपको सिखा रहे हैं नई-नई बातें, उनकी जैसी दुर्दशा हुई, वैसी दुर्दशा यहाँ और कराना चाहते हो क्या? इन समाजवादी लोगो ने कभी अपने आध्यात्म की और ध्यान दिया है क्या? उसको समझा है क्या? सिर्फ़ समाजवाद समाजवाद कहने से कोई आप समाज को सुधार नही सकते। समाज को सुधारने का एक ही तरीका है। इस भारतवर्ष की दशा ठीक करने का एक ही तरीका है। वो है, अपने आध्यात्म में आप खड़े हो जाएँ, और आध्यात्म का गाभा इस महाराष्ट्र में कुछ कम नही, महाराष्ट्र में कुछ कम नही। जो कुछ भी आज आपसे मै बताने वाली हूँ , ये सारी भारतीय संस्कृती की विशेषता है। इसमें ये मतलब नही कि हम संकुचित हैं, छोटे हैं। ये संस्कृती तो हमें, एक सागर/महासागर के जैसी है। किसी ने कहा माँ आप भारतीय संस्कृती पर किताब लिखो। हे भगवान मैने कहा, कोई आसान है? ये तो महासागर है। ऐसे-ऐसे ग्रंथ, ऐसी-ऐसी चीज़ें अपने देश में लिखी हुई है जिसके बारे में कोई भी कुछ नही जानता। अभी एक मेरे पास मेक्सिको के ऍम्बॅसैड़र (राजदूत) आये थे मिलने, वो कहने लगे हमारे मेक्सिको में बड़ी भूत-बाधा होती है, इतने लोग पीड़ित है उससे, माँ उसका कोई इलाज बतलाओ। मैंने कहा इस पर मुझे एक किताब लिखनी होगी। हमारे देश में सब चीज़ों के बारे में इतना सुस्पष्ट लिखा हुआ है, इतना व्यवस्थित लिखा हुआ है और बतलाया गया है, पर कोई उधर जाता ही नही।

आजकल एक तो, ये अंग्रेज़ी भाषा हमारे ऊपर लाद कर गए अंग्रेज़। मुझे कहा कि पहले अंग्रेज़ी में बोले। मैने कहा बाबा कम से कम यहाँ तो अंग्रेज़ी नही बोलने को कहो।अंग्रेज़ी भाषा कोई भाषा है? इस भाषा में तो "स्पिरिट" कहते है - अब स्पिरिट याने आत्मा, स्पिरिट माने भूत, स्पिरिट माने शराब - अब बोलिये! अरे इस भाषा में कौन बता सकता है इतनी गहन बात? इसको तो बहुत गहन लोग चाहिये, और वो गहन लोग आप हैं, हिंदुस्तानी। आप लोग हैं, आपकी गहनता जगाओ तब आप समझ जाओगे कि आप क्या हो। आपको जानना चाहिये कि आप क्या हैं। जिस वक़्त आप जानियेगा की आप क्या हैं तभी आप समझ पाइयेगा कि आप बहुत महान हैं। और आपका देश भी बहुत महान है, इन्होनें हज़ारों संतों को पैदा किया। मोहम्मद साहब ने खुद कहा है कि एक लाख चौबीस हज़ार नबी हो गए - वो कहाँ थे, वो क्या सब अरबस्थान में हुए? उन्होंने जो बात कही, वही बात इतने विस्तारपूर्वक इतने समझा कर के अपने आध्यात्म में कही, वो ये है कि हमारे अंदर स्थित जो शक्ति है कुण्डलिनी की उसके जागरण से आत्म-साक्षात्कार होता है। और जब ये आत्म-साक्षात्कार होता है तो आत्मा का जो प्रकाश है वो अपने जीवन में हरेक क्षण-क्षण में अपना पूरी तरह से मार्गदर्शन करता है। माने ये, कि हम समझते हैं अभी, कि झूठ बोलो तो कोई हर्ज़ नही, किसी का पैसा खा लो तो कोई हर्ज़ नहीं, ठीक है, कब तक? जब तक आप उस चारो तरफ़ फैली हुई परमात्मा की परम कृपा से सम्बंधित नही हुए। जब आप उस शक्ति से सम्बन्धित हो जाते हैं, तब आपको पता नही है कहां से कहां पहुँच सकते हैं, कितनी बाते हो सकती हैं, जिसके बारे में यहाँ बहुत से लोग बैठे हैं जो गवाही देंगे। लेकिन ये होते हुए भी हम लोगों की उधर नज़र ही नही है, उधर हमारा ध्यान ही नही है। अरे इस भारतवर्ष में जन्म लेने के लिए, महापुण्यों से आप जन्म लेते हैं, ऐसे ही नही आप भारतीय बने। मै परदेस में जाती हूँ, तो पहली बात ये कि लोग सोचते हैं कि ये भारतीय हैं। और यहाँ से महाचोर जो गए हैं वहां पर, वो भी इसी बूते पर कमा रहे हैं कि हम (वो) भारतीय हैं। सो अपनी भारतीयता को अंदर जगाना चाहिये और समझना चाहिये कि हमारे देश में कितनी सुंदर व्यवस्था है।

हम कोई एक विशेष धर्म की बात नही करते, एक विशेष group (समूह) की बात नही करते। हम संघ की बात करते हैं। पर ये बात है हमारे अंदर बसे हुए उस कुण्डलिनी की बात, जिसके जागरण से आपको आत्म-साक्षात्कार होता है। और ये आत्म-साक्षात्कार होने के बाद जो आपके आत्मा का प्रकाश है, वो आपको पूरी तरह से सम्हालता है।आपको किसी का भला-बुरा सोचने की ज़रूरत ही नही। आपको अगर कोई परेशान करे तो उसको परेशान करने वाले बैठे हुए हैं। आपसे उनसे कोई मतलब नही, वो अपना सम्हाल लेंगे। अब मै कहूँ कि इसको सम्हालने वाले शिवजी हैं, तो फ़ौरन मुसलमान डंडा ले के मुझे मारने को आएंगे, ईसाई कहेंगे आप कैसे कहते हो? ग़र मै ये कहूँ कि मक्का में मक्केश्वर शिव हैं। उनसे पूछिए कि आप पत्थर क्यों पूजते हो? क्यों पत्थर के पीछे चारों तरफ़ घूमते हो? उनसे पूछना चाहिये। तो इनको उसके जवाब नही। इसलिए कि साक्षात शिव का स्थान है। और शिवजी और मोहम्मद साहब कोई दो, दूसरे नहीं थे। मोहम्मद साहब भी आदिगुरूओं एक अवतरण थे। हम ये कह सकते हैं कि वो अवतरण थे, आप चाहे या ना मानें। उसका जो, पूरी तरह से ग़र जानना हो तो जब आपको आत्म-साक्षात्कार होता है तो आप देखिये आपके उँगलियों में आपको पता होता है कि किसके कौन से चक्र पकड़े है, उंगलियों में। कोई मशीन नही चाहिये, कुछ नही। और मोहम्मद साहब ने कहा है कि जब कियामा आएगा तब आपके हाथ बोलेंगे और आपके खिलाफ शहादत देंगे। लेकिन ग़र मुसलमान दूसरे रस्ते चले गए और हिन्दू इधर तीसरे रस्ते चले गए और बाकि ईसाई चौथे रस्ते चले गए उसको ये लोग क्या करे? उन्होने तो आध्यात्मकी ही बात की थी, और इसी कियामा की बात की थी, इसी परिवर्तन की बात की थी, और हिन्दू धर्म में तो हरेक ने कहा था कि ऐसा समय आने वाला है। पर हम लोग पता नही क्यों भूले भटके कहाँ जा रहे हैं और इसको सोचते नही, और बेकार में झगड़े कर रहे हैं। इस झगड़े की कोई ज़रूरत नही है। पहले चीज़ समझ लो कि तुम्हारा धर्म क्या है।शिवाजी महाराज ने कहा था कि "स्वधर्म”, स्वधर्म को जगाओ। ये “स्व” का धर्म माने आत्मा का धर्म है। साफ़ उन्होंने कहा था, स्वधर्म को जानना है क्योंकि वो स्वयं साक्षात्कारी थे। उनके जीवन के एक-एक लक्षण देखिये, आप हैरान होंगे। वो किस कदर महान व्यक्ति थे। इसी तरह से हमारे यहाँ रामदास स्वामी, उनके (शिवाजी महाराज के) गुरु थे। उनसे किसी ने कहा, सोलहवी शताब्दी में कुण्डलिनी पे बहुत बातचीत हुई, कि भाई ये कुण्डलिनी का जागरण कितनी देर में होता है? तो उन्होंने कहा, "तत्क्षण” लेकिन लेने वाला चाहिए और देने वाला चाहिए। अब ग़र कहिये कि जो यहाँ खोमचे लेके घूम रहे हैं उनको मै आत्म-साक्षात्कार दूंगी तो क्या दे सकती हूँ? उसकी गहराई होनी चाहिए, वो गहराई पता नही कहाँ खो गई है हम लोगों के अंदर। और जब वो गहराई होती है तो आत्मदर्शन होना कोई कठिन नही है, ऐसा ये कलियुग का विशेष महत्व है।

जिस वक्त में एक बार, ऐसी कहानी है, कि कलि, दमयंती के पति जो थे नल उनको मिले। तो उन्होंने (नल ने) कहा मै तेरा सर्वनाश करूंगा क्योंकि तुमने मेरी बीबी से मेरा बिछोह किया। तो कलि ने कहा कि देखो भाई मेरा तुम नाश ज़रूर करो , पहिला मेरा महात्म्य समझो। कहने लगे तुम्हारा क्या महात्म्य, इस वक्त सब लोग जब तुम राज्य करोगे तो सब भ्रान्ति में बैठे रहेंगे उनको सबको भ्रान्ति रहेगी, तुम क्या कर सकते हो। सो उन्होंने कहा कि देखो मेरा ऐसा राज्य ज़रूर होगा, भ्रांती होगी, पर उसी वक्त गिरी-कंदरों में घूमने वाले ये साधु-सन्यासी और घर में रहने वाले बहुत से ऐसे लोग जो कि परमात्मा की खोज में हैं, जो सत्य की खोज में हैं, उनको सत्य प्राप्त होगा, उनको आत्म-साक्षात्कार मिलेगा, और ये कलजुग में ही होने वाला है, क्योंकि भ्रांती से घबड़ा के वो ज़रूर सत्य को खोजेंगे। ऐसी जब उन्होंने बात समझा दी, उस समझ से नल भी शांत हो गए, उन्होंने कहा अच्छा बाबा एक बार कलियुग आने दो। अब ये आया है कलियुग, और इस कलियुग के प्रताप क्या कहने, हमने बचपन में इतने कभी सुने नहीं थे, जैसे-जैसे लोग आजकल आ रहे हैं।

और इसी में फिर आप जान सकते हैं कि हमारे देश को बचाना, इस देश की महानता को उभारना ये हमारा कर्तव्य है। कोई बाहर से आ के नहीं करेंगे। हमको करना है। और हमकैसे कर सकते हैं? बड़ा सहज-सरल तरीका है कि आपकी कुण्डलिनी का जागरण ग़र हो जाए। इसी महाराष्ट्र में सोलहवीं शताब्दी में अनेक साधु-संतो ने कुण्डलिनी पे बातकरी। बात करी थी इतना ज़रूर कहूँगी। और आपके ज्ञानदेव ने तो बारहवी शताब्दी में बताया। पर आदिशंकराचार्य ने तो छठी शतब्दी में, और चौदह हज़ार वर्ष पूर्व मार्कण्डेयने। ये जो सब कह गए, सब बेकार गए क्या? क्या आजकल की जो हम लोगो की प्रवृत्ति हो गई है, उस प्रवृत्ति में मनुष्य के दिमाग में ये बात बैठनी चाहिए कि कुछ न कुछ हमारागलत रास्ता हो गया है। उस गलत तरीके की वजह से आज हम ऐसे ठोकरें खा रहे हैं। अब गरीबी है, गरीबी है तो रो रहे हैं, अरे लेकिन गरीबी क्यों है? क्योंकि अपने यहाँ लोगोंमें हवस है, हवस है। पैसा खाते हैं, जहाँ जाओ, मै पूना में गई, कहने लगे माँ वो तो पैसा खाता है, कोई बात करो पैसा खता है। मैंने कहा भाई क्या खाना-वाना खाता नही क्या, पैसे ही खाते रहता है? जिसको देखो वो पैसा खाता है, और पैसा खाकर अंत में जेल में जाए, चाहे उसका सत्यानास हो, उसके बच्चे ही उसको मार डालें, इसकी उसको परवाहनही, बस पैसा-पैसा-पैसा। पर ये लक्ष्मी तत्व नही है। लक्ष्मी का तत्व और होता है, और उसके तत्व से अनेक अनेक लोगों का उद्धार हो सकता है। उसको जागृत करने के लिएआपके अंदर कुण्डलिनी का जागरण होना ज़रूरी है। जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तो आपोआप लक्ष्मी तत्व दिखाई देता है। सबसे तो बड़ी बात ये है कि मनुष्य एकदमसमाधानी हो जाता है। उसमें क्या है? कोई चीज़ दो हो चाहे चार हो फ़र्क क्या होना है? समाधानी होने का मतलब मेरा कभी नहीं कि आप सन्यासी हो के जंगल में जाओ, कुछनही, घर में ही रह के। उलटे ग़र कोई सन्यासी आता है तो लोग कहते हैं कि जा कर आप कपड़े बदल कर के आओ। तो वो कहते हैं कि हमारे पास तो यही छोड़े हमारे गुरूजी ने, और तो कुछ कपडा ही नही, तो हम और क्या बदल के आएँगे? सो आपको कोई ऐसा बाहर का ढोंग करने की ज़रूरत नही। और पागल जैसे गाने और बजाने की भी ज़रूरतनही है, जैसे आप जानते हैं लोग रस्ते मे गाते-बजाते चलते हैं, वैसे कोई ज़रूरत नहीं। आपके पूरी तरह चेतना में ही इसको प्राप्त करना है, पूरी तरह जब आप पूरी चेतना में हैंआपके conscious mind (चेतन मन) में ही आप उसे प्राप्त करें। और इस अनुभव से आप प्लावित हों। ये अनुभव सिद्ध है कोई सिर्फ़ बातचीत नही है, ऐसा कुछ नही है। येइसका अनुभव आपको प्राप्त होना चाहिए। हाँ, अनुभव के बाद आपको इसमें बढ़ना चाहिए। अनुभव तो हज़ारों को हो जाता है, पर इसमें बहुत कम हैं जो उतरते हैं। मुझे, आश्चर्य की बात है, इस महाराष्ट्र की भूमी जो कि इतनी पावन भूमी है, जगह-जगह जहाँ देवी के मंदिर हैं, जहाँ-जहाँ जाईये वहाँ-वहाँ पूजा-पाठ, मुसलमानों के पीरों के कितनीजगहें यहाँ बनी हुई हैं। लेकिन यहाँ के लोगों में अभी तक ये धारणा नही आई है कि इस पवन भूमी में हमने जन्म क्यों लिया, क्या हमारी विशेषता है? क्यों हम इस पवित्र भूमी में आए और हमें यहाँ क्या करना है? मुझे तो वाकई में बहुत आश्चर्य होता है क्योंकि सबसे ज़्यादा काम मैंने महाराष्ट्र में किया। महाराष्ट्र में मै घूमी, फिरी, इधर जाओ, उधरजाओ, पता नही सालों तक जंगलो में रहे, फिर कहीं जा करके तो किसी छोटेसे गाँव में रहे, हर तरह का काम किया, लेकिन दुख की बात ये है कि लोगों को वही कर्मकांड, उसीकर्मकांड में, चार बजे उठेंगे, नहा-धो करके ज़ोर-ज़ोर से श्लोक बोलेंगे, कुछ बोलेंगे, कुछ न कुछ कर्मकांड चाहिये। और उनके समझ ही में नहीं आता है कि कुण्डलिनी काजागरण कोई कर्मकांड नही है। वो लोग कहते हैं कि हम आपको इतना पैसा देंगे, हमारी आप कुण्डलिनी जागृत करो - ये अंधश्रद्धा वाले - मैंने कहा भईया वो कुण्डलिनी कोक्या मालूम है रुपिया-पैसा? और ग़र तुम उसका अपमान करोगे तो वो कभी उठेगी ही नही। अक़ल के मारे हुए लोग है, दूसरी कोई बात नही। वो समझते नही कुण्डलिनी चीज़क्या है।

कुण्डलिनी का मतलब है कि आप के अंदर जो सुप्तावस्था में एक शक्ति है उसका जागरण होकर के वो छे चक्रों को छेदती हुई, और ये ब्रम्हरंध्र, इसको भी छेदती हुई और इसचारों तरफ फैली हुई ब्रम्हशक्ति से एकाकारिता प्राप्त करती है। और आपके अंदर से ये ब्रम्हशक्ति दौडने लगती है की कियामा आ गया। इतनी सहज चीज़ है। "स-ह-ज" सहमाने आपके साथ पैदा हुआ ये आपका जन्मसिद्ध अधिकार है कि आप इसे प्राप्त करें। लेकिन आप अछूते हैं, आपके पास time (समय) नही, आपके पास कोई ये नही वजहनही, “हम तो बड़े सुखी हैं ” - फिर जब कोई बीमारी आएगी तो आएंगे दौड़े हुए, जब कोई तकलीफ़ आएगी तो आएंगे दौड़े हुए, पर जब आप स्वस्थ हैं तभी ही। “स्व"-"स्थ" मानेजो स्व में स्थित है वही स्वस्थ हो सकता है। स्व माने आत्मा इसमें जो स्थित है वही हो सकता है। सबसे तो बात ये है कि कितने ही बार मैने आप लोगों को समझाया कि सहजयोग में उतरना चाहिये, सहज योग में उतरना चाहिये, आपको प्राप्त करना चाहिए, आपकी विशेषता है, महाराष्ट्र की विशेषता है। महा-राष्ट्र बने बैठे हैं। किस चीज़ से आपमहाराष्ट्र के हैं ये भी सोच लीजिये, क्यों आपको महाराष्ट्र कहा जाता है? आज इतने शहरों में मै घूमती हूँ और इतने देशों में मै घूमती हूँ , आपके बारे में लोग ना जाने कितनी-कितनी कविताएँ बना देते हैं। पर यहाँ आ कर के फिर अधोमुख हो कर बैठ जाते हैं कि बाबा रे बाबा यही क्या माँ हमें बता रही थीं? यही वो महाराष्ट्रीयन हैं क्या? माने इतनीसम्पदा होते हुए भी जैसे कोई छोटे से तालाब में अनेक कमल निकल आएं इस तरह से इतने बड़े-बड़े लोग यहाँ हो गए। पर यहां की पब्लिक जो है अभी कीड़े-मकोड़े ही बनीरहेगी। मै माँ हूँ , मुझे कहना ही पड़ेगा। हमारे इतने बड़े कार्य के पीछे में आपको हैरानी होगी, रशिया के लोग, ऑस्ट्रिया के लोग, कहाँ-कहाँ के, अमेरिका के लोग, और ये लोगसारे कार्यान्वित हैं। ये हिंदुस्तानी नहीं हैं, सब "परदेसी" जैसा हम कहते हैं, पर अभी हम लोग ही परदेसी हो गए हैं, और इस बम्बई (मुंबई) शहर में तो दुनिया भर के लोग आ केबसे हुए हैं। बजाए इसके कि यहाँ की सम्पदा सारे दुनिया में फैलाएँ, वो पता नही क्या कर रहे हैं। सब पैसा बना रहे हैं, पैसा बना रहे हैं, पैसा बना रहे हैं! इस पैसे का करोगेक्या? इसकी क्या वक्त है? आज बड़े-बड़े पैसे वाले हैं, उनको कौन पूछता है, उनको कौन जानता है? पर एक सहज योगी ग़र कहीं हो जाए तो दुनिया उसके तरफ दौड़ती हैक्योंकि वो जानकार आदमी है, उसको कुण्डलिनी के जागरण की कला आती है, वो फिर हिन्दू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, सिख हो, कोई हो, पर वो जानता है कि इस आदमीकी कुण्डलिनी कैसे जागृत करनी चाहिये। मुझे तो हैरानी होती है कि बाहर के लोग अभी आए थे, तो एक लड़का था उसकी शादी एक लड़की से हमने कराई, उस लड़की कोमैने देखा नही था। उसने आ के कहा, माँ ये लड़की की जो चैतन्य लहरियाँ हैं, vibrations (वायब्रेशन्स) हैं वो ठीक नही हैं, आप इसे एक बार देखिये। मैने कहा, अच्छा? मैनेकहा, एक अंग्रेज़, अंग्रेज़ ये बात मुझे बता रहा है, और किसी के ध्यान में ही ये बात नही आई। उसके बाद इस लड़की को जब देखा तो मैने कहा बिलकुल सच बात है। इसकीचैतन्य लहरियाँ ठीक नही हैं। फिर उसका क्या problem (समस्या) था समझ में आया, सब कुछ देखा। पर एक अंग्रेज़ आ कर के और आपको आध्यात्म सिखाए ये अपनी दशानही चाहिए। ऐसे तो उन्होने राजकरण बहुत सिखाया, बहुत परेशान कर दिया। पर अब वो आ करके आपको आध्यात्म सिखाएँ? इसलिए मै कहती हूँ कि किसी तरह अपनी औरनज़र हो और आप देखें।

इन्होने कहा था कि मराठी में ज़रूर बोलिए, क्योंकि मराठी (मराठी लोग) बड़े conscious हैं कि मराठी भाषा में बोलना चाहिये।

Marathi

मराठीत सांगायचं म्हणजे असं कि महाराष्ट्रात येवढी मेहनत संतांनी केली, त्याची काय फळं काढलीत तुम्ही ते बघा. अहो ज्ञानदेवांच्या पायात चपला नव्हत्या, जोडे नव्हते, बिचारे त्यांचे पाय भाजले. आणी यांच्या पालख्या घेऊन काय फिरतात, आणी या पालख्या निघाल्यावर मग त्याच्या बरोबर पंधरा-वीस भिकारी निघाले. ज्या गावात जातील तिथे जाऊन जेवतात. हिंदीत सांगायचं म्हणजे "लानत है". तिथे जेवायचं, त्यांच्या नावावर. ते मेले, त्यांची स्थिती करून टाकली. त्यांनी तर तेवीस सालात सांगितलं, नको रे बाबा! तेवीस वर्षांमध्ये त्यांनी समाधी घेतली. ही अशी आपली दशा. सगळ्यांचे वाभाडे काढले. तुकारामांचे एवढे वाभाडे काढले, नामदेवांना एवढं छळलं. काही सुद्धा डोक्यात आलं नाही कि हे साधू-संत आहेत. आणी त्यांच्याच कविता मग आम्ही शाळेत शिकलो. आजकलच्या कविता मात्र भयंकर आहेत मराठीतल्या, काही अर्थ नाही त्यांना. कोणाच्या तरी चोरलेल्या असतील, असं वाटतं मला. आहो काय ते हून गेले लोक इथे, त्यांचं जरा तरी लक्षात घ्या, आणी आध्यात्माकडे या. सकाळी नुसतं घंटा बडवत बसून का होतंय हे? किंवा, "पहाटे आम्ही चार वाजता उठतो, गरम पाण्यानी अंघोळ करतो, मग जाऊन आम्ही देवाची पूजा करतो" - कशाला देवाची पूजा करता तुम्ही, स्वतःची आधी करा. ही दुर्दशा आज तुमची का आली आहे? हे असं वेडेपण कुठून आलं? हा विचार करा. मी म्हणते, घोर कलियुग आहे. पण ह्या कलियुगानंतर सत्ययुग सुद्धा येतो आहे, हा सत्ययुगाची का नाही फायदा घ्यावा? तुम्ही का नाही उतरावं सत्ययुगात? ही मराठी भाषा म्हणजे फार कमालीची आहे. काही म्हणा, ह्याच्या सारखी भाषा नाही. आणी इतके पर्यायवाची शब्द आहे कि ह्याचं भाषांतर करणं म्हणजे फारच कठिण आहे, फारच! ह्या भाषेबद्दल मला अत्यंत अभिमान आहे. पण तो का? कारण ह्या भाषेत इतके सुंदर-सुंदर कवि झाले, कादंबऱ्या काय झाल्या, आणखीन ते वाचायचं सोडून ही घाण कशाला वाचत बसता? सगळ्यांचं लक्ष घाणीकडे! परदेशाच्या लोकांना पूर्वी आपण म्लेच्छ म्हणायचो म्हणजे ज्यांना मलाची इच्छा ते म्लेच्छ, असं म्हणत होते. आता तो शब्द इकडे लावला पाहिजे, कारण सगळी घाणीचीच आवड दिसते लोकांना. भलत्या-सलत्या गोष्टी! काही समजहतच नाही मला, (कि) झालंय काय तुम्हाला. आहो ह्या महाराष्ट्रात तुमचा जन्म झाला. मराठी सारखी भाषा! ह्या भाषेला सुद्धा तुम्ही कलंक लाऊन टाकलेला आहे. काय ती भाषा आणी काय त्याचं वर्णन करणार. ते सोडून तुम्ही त्या भाषेतला जो गर्भितार्थ आहे... केशवसुतांच्या कविता वाचा. कोणी वाचल्याच नसतील मला माहिती आहे. पण आम्ही शाळेत असताना केशवसुत वाचायचो, ठोबळ्यांच्या (?) कविता वाचायचो. ते सगळे गेले. आता काय आहे - घाणेरड्या कविता असल्या त्या बऱ्या, "प्रणय" पाहिजे त्यांना! असला मूर्खपणा!! ह्या मूर्खपणाला महाराष्ट्रीयन लोकांनी बळी नाही गेलं पाहिजे. तुम्ही आध्यात्माच्या जमीनीत बसलेला आहेत. ह्या महाराष्ट्राच्या भूमीत आहे आध्यात्म. आहो जगाभरची कुण्डलिनी ह्या महाराष्ट्रात आहे. आता सांगितलं तर तुम्हाला विश्वास नाही होणार, पण मी सांगते ते खोटं नाही. त्याच्यावर बसून तुम्ही करताय काय?

आहो साऱ्या जगाला मार्गदर्शन करायला ह्या देशात तुम्ही जन्म घेतला ह्या विशेष देशात. आणी आता दुसरे लोक तुमच्या पेक्षा पुष्कळ बरे असं झालेलं आहे. महाराष्ट्रात कोणाला फुरसतच नाही. मला भेटायला येतात...

कोणी वोट सुद्धा दिलं नाही. आहो म्हणटलं काय तुमची देशभक्ती, कमीत कमी वोट तर द्यायचं! नाही म्हणे, "माताजी आम्ही दिलं नाही, आम्ही आपले तटस्थ आहोत". "तटस्थ" का? ह्या देशाला तुम्ही जन्माला आलात. ह्या देशाचे जे चांगले दिवस आहेत ते आम्ही पाहिलेले आहेत. हजारो लोक तुमचे बळी गेले, तुरुंगात गेले, इतकं सहन केलं त्यांनी, आपलं सगळं काही त्यागलं त्यांनी, देऊन टाकलं. माझे वडील. मला माहिती आहे त्यांनी आपलं सगळं देऊन दिलं. आईनी सुद्धासगळे दागिने देऊन टाकले. सगळं काही सोडून टाकलं त्यांनी देशासाठी. आणी आज त्यांचेच बघा काय निघत आहेत बाभाडे, ते बघून घ्या तुम्ही. आहो म्हणे वन्दे मातरम् म्हणायचं नाही! त्यावरच मला सांगायचं आहे कि वन्दे मातरम् म्हणून-म्हणून आम्ही ह्या अंग्रेजांना इथून घालवलं. येवढं आम्ही त्या वेळेला आपल्या देशाचं माहात्म्य राखलं आणी तुम्ही लोक म्हणता कि वन्दे मातरम् म्हणायचं नाही! हे जे म्हणतात हे किती लोक जेलमधे गेले होते? विचारून बघा ह्यांनी काय दिलं ह्या देशासाठी? कसला त्याग केला ह्यांनी? बुद्धीचा त्याग केला, नीतिचा याग केला, पण कोणच्या गोष्टीचा ह्यांनी त्याग केला आहे का? हे कोण होतात म्हणणारे वन्दे मातरम् म्हणायचं नाही म्हणून? तुम्ही जरी म्हण्टलं इथे तरी मी सर्व जगात वन्दे मातरम् म्हणायला सांगणार. ह्या भारताची प्रतिष्ठा आपणच घालवली, आपल्याला मान-प्रतिष्ठा राहिलेली नाही ते लक्षात ठेवा. तर असल्या गोष्टी मूर्खपणाच्या जर कोणी सांगितल्या तर त्यांना विचारायचं - तुम्ही काय त्याग केला? तुम्ही कोणचं युद्ध केलं? तुम्ही ज्या वेळला अंग्रेज इथे होते त्यांचे जोडे पुसत होता, आणी आता ह्या अश्या फालतूच्या गोष्टी करता? - असं सांगायला पाहिजी. आणी या गोष्टीवर जर तुम्ही अटूट असले तर तुमचा मान होईल. कोणी जर इंग्लीश लोकांना सांगितलं कि तुम्ही हे म्हणायचं नाही, ते थोबाडात मारतील. आहो तिथे काय वेगळे-वेगळे laws (नियम व्यवस्था) आहेत का? प्रत्येक देशामधे एकच law (नियम व्यवस्था) असतो. तुम्ही हिंदु असा, मुसलमान असा, ख्रिश्चन असा, कोणी असा. इथे प्रत्येकाला वेगळे-वेगळे laws दिले. हे आमचे जवाहरलालजींची कृपा. ते काही हिंदुस्थानी नव्हते. English, British (ब्रिटिश) मनुष्य होता तो. मराठीत "इश्-"म्हणतात तसं आहे ते. त्यानी हे आमच्या डोमल्यावर सगळं घातलेलं आहे. त्याचं घेऊन काय बसलात तुम्ही? तुमच्या देशातलं जे आहे एवढं खोलातलं, ते घ्या. त्यांना काय माहिती होती का आपल्या देशाची किंवा संस्कृतीची? ते गांधीजींनी कृपा करून आपल्या डोक्यावर बसवलं आणी चालूच आहे ते.

आता तुम्ही जागृत व्हा. ह्याचा म्हणजे माझा अर्थ असा नाही कि तुम्ही काही fundamentalist (कट्टर) व्हा वगेरे, असा अर्थ नाही. पण जे खरं आहे ते धरलं पाहिजे नं? जे तुमच्यात सत्व आहे ते धरलं पाहिजे नं? तुमची जी प्रतिष्ठा आहे ती धरली पाहिजे नं? तुम्ही आपल्या प्रतिष्ठे शिवाय इतर लोकांच्या प्रतिष्ठेला येवढा मान द्याल तर कसे होईल? हे समझूनघेतलं पाहिजे, कि आम्ही कोण, आणी आमचं वास्तविक स्वरूप काय? आम्ही कशे ऐरे-गैरे-नत्थुखैरे नाही, कि ज्याच्या-त्याच्या पायाला लागायचं, ज्याची-त्याची लांगुन चालन करायचं. विशषतः महाराष्ट्रीयन लोक प्रसिद्ध आहे, टिळकांसारखे झाले, आगरकर झाले, रानडे झाले, आता कोण आहे बघायला? कोणालाही विचारलं ते पैशे खातात, ते पैशे खातात, ते पैशे खातात. हे काय आहे? हे महाराष्ट्रीयन लोकांचं ब्रीद आहे कि काय? म्हणून माझी विनंति आहे कि तुम्ही पहिल्यांदा भारतीय व्हा, निदान तेवढं तरी करा. मगत् याच्यात या सहज योगात. फॉरेनचे लोक येतात ते भारतीय कपडे घालतात, त्यांची लग्न इकडे होतात, त्यांच्या मुली येतात त्या कपाळाला कुंकू, मंगळसूत्र घालून बसतात. त्या महाराष्ट्रीयन बनून बसतात. आणी तुम्ही मात्र अगदी... आमच्या पुण्याला तर ही कमाल आहे बायकांची, कि केस कापायचे, काळे चष्मे लावायचे, sleeveless (बिना-बाह्यांचं) घालायचं आणखीन मोपेड वर बसून जायचं आणी तेवढासा स्कर्ट घालायचा - ह्या कोणत्या पुण्यातल्या बायका आहेत हो? मी तर पुण्याला गेले कारण लोकांनी सांगितलं पुण्यपट्टणम् आहे, म्हणून मी पुण्याला गेले. तिथे एक राक्षस माझ्या मागे लागला, पण जाऊ द्या. पण पुण्याला तो रजनीश बसलेला आहे. त्याचे शिष्य कितीतरी, म्हणजे ही घाणत् यांना पाहिजे असेल. तर आम्ही त्यात काय करणार? इतर देशांचा उद्धार होईल पण ह्या महाराष्ट्राचा कधी उद्धार होईल असं मला कळत नाही. आता पुष्कळ मला योगींनी समझवून सांगितलं, कि आता महाराष्ट्रीयन सुद्धा सहज योगात येताहेत माताजी, मेहनत करताहेत माताजी - हे सगळं सांगितलं. तरी अजून दिल्लीला, जितके इथे लोक आलेत त्याच्या दहा-पट लोक आलेत, आणी मुंबईला - मुंबईला ही स्थिती. आता, मी दिल्लीला पूर्वी बिल्ली म्हणायची, पण दिल्ली कशी जागृत झाली बघा. आणी आपण कुठे आहोत?

तुम्ही महाराष्ट्रीयन आहेत, महाराष्ट्रातले राहणारे. भारतीय संस्कृती तुमच्या रग-रगात भरलेली आहे, तुम्ही तिला नुसतं जरा सं जागृत करा. आणखीन ह्या फालतू च्या भ्रामक गोष्टी सोडून पहिल्यांदा आत्म-साक्षात्कार घ्या. तो आत्म-साक्षात्कार तुम्हाला सहज मिळेल पण त्याच्यावर त्याची वाढ केली पाहिजे. अंकुरले तरी ते वाढलं पाहिजे, आणी त्याच्यासाठी तुम्हाला शिष्टपणा करून चालणार नाही. म्हणे "आम्ही कसं तिकडे जायचं माताजी, तिकडे सगळे अशेच लोक येतात". कोण "अशेच" म्हणजे कशे? "म्हणजे आम्ही मोठी माणसं". असं का? म्हणून तुम्ही तिकडे जाऊ शकत नाही? देवाच्या देवळात तुम्ही सगळे जाता कि नाही जात? मग तुम्ही का नाही जाऊ शकत तिथे? नाही म्हणे "आम्ही मोठी माणसं, आम्ही मोटारीतनं जाणार, ते लोक बसnनी येणार". ह्या सर्व गोष्टी कुठनं आल्या हे मला समझत नाही. पूर्वी नव्हतं हे असं, मी सांगते तुम्हाला, मी सगळ्यात म्हातारी आहे इथे मला असं वाटतं, मी तरी असा काही प्रकार पाहिलेला नाही. तेव्हां पहिल्यांदा नम्रपणे, तोंडाळपणा सोडून आणी आपण आमचे जिथे-जिथे केंद्र आहेत तिथे जा. आता आम्ही पैशेच घेत नाही तर आमच्या जवळ येवढे मोठ-मोठाले महल कुठुन असतील? जी जागा असेल, जिथे मिळेल, तिथे बसून तुम्ही ध्यान करा आणी ध्यानात प्रगती करा. तुम्ही मोठी माणसं असाल, आज आहात, उद्या काय होईल तुमचं, पण ज्याच्यात मोठेपण आहे ते आहे आत्म्याचं दर्शन - हे सगळ्यात मोठं धन आहे. आणी ते धन मिळवलं पाहिजे. ते धन जर तुम्ही मिळवलं नाही तर मी ह्या इथे महाराष्ट्रात का जन्माला आले आणी ह्या इथे तुमच्या मुंबईला का राहिले मला समझत नाही. परत-परत सांगते कि सगळं हे मोठेपण सोडून टाका. काही नाही. म्हंटलं आहे नं कि "लहानपण दे गा देवा, उगा साखरेचा रवा, ऐरावत रत्न थोर, त्याची अंकुशाचा मार" -- आणी तो अंकुश म्हणजे काय आहे? अंकुश म्हणजे तुम्हाला झालेला गर्व. मद चढला तुमच्या आत. इतके कमालीत आहे... सहज योग, तुम्हाला आश्चर्य वाटेल, इतके चमत्कार आहेत. मी सांगायला नको. तुम्ही स्वतः येऊन बघा. तुम्हाला आश्चर्य वाटेल कि हे चमत्कार कशे घडतात. आहो पण ही सर्वव्यापी शक्ति परमेश्वराची आहे, ती शक्ति परमेश्वराची आहे. तेव्हां हे कसं घडतं आणी कसं होतं हे तुम्हाला समझेल. पण आधी प्रांगणात या. बाहेरून बसून नुसते टिंगलेबाजी करण्यानी काही होणार नाही आहे. आणी त्यानी तुमचं ही भलं होणार नाही. तरी आज आलेल्या प्रत्येक माणसाला माझं हे म्हणणं आहे, प्रत्येकानी निदान शंभर तरी सहज योग्यांना एकत्र केलं पाहिजे. तेव्हांच तुमचा उद्धार हू शकतो. कारण इकडे नुसतं बोकाळलं आहे सगळं. त्यानी तुमचे संबंध problems solve (समस्या निराकरण) होतील असं योगींनी सांगितलं ती गोष्ट खरी. काही खोटं नाही. Problems solve होतात पण कसले-कसले problems? आपल्या इथे कसले चोर, भामटे सगळे आलेत. मुंबईला म्हणजे असं काही तरी आकर्षण आहे कि जगातले सगळे चोर, भामटे, खोटं बोलणारे लोक इथे पोहोचलेत. त्यांना कशाची भीती नाही, चाड नाही, काही नाही. आणी कसं निघायचं त्यांच्यातनं हे त्यांना माहिती आहे.

तेव्हां लक्षात ठेवा कि पहिल्यांदा, सर्वात पहिल्यांदा, तुम्ही सुरक्षित होता. तुम्हाला कोणी हात लाऊ शकत नाही. अगदी सुरक्षित होता तुम्ही. कोणी तुम्हाला हात लाऊ शकत नाही. आज पर्यंत सहज योगामध्ये एक ही मनुष्य दगावला नाही गेला. फक्त एक मुलगा दगावला गेला कारण तो सारखा मला म्हणायचा, माताजी मला मरायचं आहे, मरायचं आहे. म्हण्टलं, का? तर म्हणे माझी आई फार दुष्ट आहे, म्हणून मला मरायचं आहे, मला दुसरी आई पाहिजे आहे. अरे, म्हण्टलं मी आहे न तुझी (आई). पण तरी सुद्धा तो... तोच एक फक्त आहे, जे दाऊद महाराजांनी जो बॉम्ब फोडला, त्या बॉम्ब मधे तो एकटा गेला. बाकी एका सहज योग्याला (सुद्धा) काहीही त्रास झाला नाही. तेव्हां संरक्षण तुम्हाला मिळतं. फार मोठं संरक्षण आहे. दुसरं म्हणजे तुमची कला निर्मिती. तुम्ही कलाकार आहात. तुमच्या अनेक कला आहेत. महाराष्ट्रात सुद्धा आहेत, नाही म्हणायला तरी सुद्धा त्या कलेला एक स्वरूप, त्याचं विशेष स्वरूप ते तुमच्यात येतं. कलेला समझण्याची तुमची जी प्रवृत्ती आहे ती वाढते. कलेवर तुमचं पूर्ण लक्ष येतं आणी जे-जे कार्य करता त्या कार्यामध्ये सुद्धा कलात्मकता येते. तुमच्या स्वभावात, तुमच्या वागण्यात, तुमच्या ह्याच्यात सुबकता येते. हे कमीतकमी बाह्यतलं झालं. पण आतून काय होतं कि तुम्ही अगदी शांत होता. शांत होता तुम्ही. शांत म्हणजे असं कि सगळीकडे एक साक्षी स्वरुपत्व होतं. जे कृष्णांनी सांगितलं आहे कि तुम्ही साक्षी होता, तुम्ही सगळं काही एक साक्षी स्वरूपात बघता. साक्षीस्वरूपात बघण्याचा अर्थ असा आहे, कि तुम्ही निर्विचार होऊन, कोणत्या गोष्टीवर तुम्ही प्रतिशोध घेत नाही, reaction (प्रतिक्रिया) करत नाही. पण तुम्ही निर्विचार होऊन त्या गोष्टीला बघता साक्षी स्वरूपात, जसं काही सर्व नाटक चालू आहे. आणी त्यातली गोम तुम्हाला कळते. तुम्हाला कळतं कि तुमचं कुठे चुकलेलं आहे, आणी कुठे ते तुम्ही ठीक करू शकता. कारण हा संबंध तुम्हाला परमेश्वराकडून आहे. आज योगींनी सांगितली ती गोष्टं खरी आहे कि मला पुष्कळशा गोष्टी अशा माहिती आहेत कि त्या normally (साधारणपणे) लोकांना माहिती होत नाहीत. कबूल आहे. पण त्याला कारण, मी काही असं विशेष यंत्र लावलेलं नाही, त्याला कारण आहे कि फक्त माझ्या आत्म्याचं प्रेम. हे प्रेम माझी मदत करतं, आणी हे प्रेम निर्वाज्य आहे. त्याला काही सांगावं लागत नाही. नुसतं प्रेम. आणी त्या प्रेमाच्या धारे मधे सगळं काही व्यवस्थित होतं. ह्या प्रेमाचा आनंद म्हणजे एक अद्भुत आनंद आहे. त्याला आम्ही निरानंद म्हणतो. पण तो आनंद म्हणजे केवळ निव्वळ आनंद आहे, त्याला दोन sides (बाजू) नाही. फक्त आनंद. म्हणजे एक अनुभव, आणी तो अनुभव सारखा येत राहातो. मग त्यानंतर काय होतं, कि तुम्ही अगदी निश्चिन्त होता. निश्चिन्तता येते. तुम्हाला insurance करायला नको, काही नको. निश्चिन्त होता. कशाची गरज राहत नाही. आता ह्यांनी सांगितलं, लांबलचक, मला हे award (पुरस्कार) मिळाले ते award मिळाले. म्हंटलं कसलं काय आणी कसलं काय. मला काय? मी त्यांना कधी म्हण्टलंच नाही कि द्या किंवा काय करा, कुठून दिलं मला समझत नाही. आपले देत बसतात award. मला माहिती नाही काय-काय award आहे. ते योगीनी लिहून ठेवलेले आहेत. त्याची काही गरज भासत नाही. तुम्ही आपल्याच आनंदात आपल्याच सुखात असता. तर तुम्हाला हे सुख जेव्हां मिळेल त्याच्यानंतर तुम्ही कोणत्याही फालतू सुखाकडे जाणार नाही. तिसरं म्हणजे, तुम्हाला सत्याचा मार्ग मिळतो. हे सत्य म्हणजे प्रेम आहे. आणी प्रेम म्हणजे परमेश्वर. सत्याचा मार्ग म्हणजे असा, कि तुम्हाला समोर दिसतं सत्य काय आहे आणी असत्य काय आहे. नीर-क्षीर विवेक म्हणतो तो येतो. आणी त्या विवेकाने तुम्ही ओळखता कि तुम्हाला सत्य म्हणजे ह्या सत्याच्या मार्गानी जायला पाहिजे. पूर्वीच्या काळी सत्य आणी असत्यात येवढा problem नव्हता जो आज सुरु झालेला आहे. किंवा हे खरं कि ते खरं? हे करायचं कि ते करायचं? तेव्हां आत्मदर्शनानी बरोबर सगळं (दिसतं?) काय आहे, काय नाही करायचं. आणी तंतोतंत. ते इतकं सुंदर, इतकं समर्पक असतं कि तुम्हाला कसलाच प्रॉब्लेमच राहात नाही. सगळं सुटून जातं . आणी आश्चर्य वाटतं, असं कसं आम्ही एकदम एवढ्या ह्यांच्यानं निघालो होतो गर्दीतून, काहीही गडबड नव्हतं, आणी आम्ही बाहेर कशे आलो? गर्दीतून बाहेर हून तुम्ही जर वर बसले, पहाडावर बसले तिथून तुम्ही बघा सगळ्यांची मजा. पण त्यात एवढंच पाह्यचं कि जितके बुडताहेत त्यांना बचावलं पाहिजे. आधी तुम्हाला, पाण्यात तुम्ही बुडता त्या विचारांचं वादळ तुमच्या वरती आहे. त्या विचारांच्या वादळात तुम्ही घाबरून जात. समझत नाही काय करायचं. पण समझा तुम्ही बोटीवर बसलात, आणी लाटा आल्या तर त्याना तुम्ही बघू शकता. त्याच्याही वर, जर तुम्हाला पोहता आलं तर तुम्ही उड्या मारून कितीतरी लोकांना बचावू शकता. हे सहज योगाचं कार्य आहे. आणी हेच करायला पाहिजे. हा तरणोपाय आहे. आपल्या देशाच्या भवितव्याचा तरणोपाय आहे. आहो तुम्ही नाही केलं तर पुष्कळ आहेत करणारे. पण तुम्ही मात्र बुडणार हं, येवढं मी सांगते. म्हणून एक आईच्या दृष्टीनी हा विचार ठेवा कि आईला असं वाटतं कि आपल्या सर्व शक्त्या मुलांना द्याव्या. मुलांना सगळं मिळू देत. जे काही असेल, ते-ते मुलांसाठी आहे, मला काहीही नको, ही एक आईची वृत्ति असते. आणी म्हणूनच मी तुम्हाला विनंति करते कि सहज योगात गहनात या आणी इतर लोकांना सुद्धा सहज योगात आणा. हे सगळे तुमचे जेवढे काही problems (समस्या) आहेत, जे भांडणाचे, वाद-विवाद, ते सगळे संपून जातील. अर्थात त्यांनी सांगितलंच कि तुम्ही physically, mentally, emotionally ठीक हून जाल. होतात. गोष्ट खरी आहे. कशे होतात, काय होतात वगेरे तुम्ही सहज योगात या, म्हणजे तुम्हाला कळेल. तुम्ही स्वतःच लोकांना बरं करू शकता. आणी त्यात येवढा आनंद आहे. काही सोडायचं नाही काही धरायचं नाही, अश्या परिस्थितीत तुम्ही येता.

आपल्या सर्वांना माझा अनंत आशीर्वाद आहे.

कृपा करून सहज योगावर आपलं पूर्ण प्रेम असू द्या आणी त्यातले दोष बघू नका. म्हणजे प्रोग्रामला गेले कि, "माताजी, तिथे एक मनुष्य आम्हाला असं म्हणाला". अहो, तुम्ही त्या माणसाला बघायला गेला होता कि स्वतःला बघायला गेला होता? ख्रिस्तानी म्हण्टलं आहे, Know Thyself (स्वतःला जाणा). हे ख्रिश्चन लोकं हे करताहेत का, Know Thyself? काही नाही. धर्मांतर करतात. धर्मांतर करून काय मिळतंय? गाढवाला कोल्हा करा आणी कोल्ह्याला गाढव करा काय, एकच आहे नं? धर्मांतरानी नाही होत आहे. धर्मांतराच्या वर जायला पाहिजे. आणी ख्रिस्तानी सांगितलेलं आहे कि मी पाठवीन कोणाला तरी. मोहम्मद साहेबांनी सांगितलं आहे मी पाठवीन कोणाला तरी. जर ते शेवटले होते तर असं कशाला म्हणाले? आहो बुद्धिवादानी सुद्धा तुम्ही ह्यांना सगळ्यांना चुप बसवू शकता. पण तुम्ही, तुमचीच बुद्धी ठीक असायला पाहिजे, ती बुद्धी ठीक नाही आहे. त्याच्यात आत्म्याचा प्रकाश यायला पाहिजे. आणी त्या आत्म्याच्या प्रकाशातच तुम्हाला तेच लक्षात येईल जे आज-पर्यंत हरपले होते.

माझा सर्वांना अनंत आशीर्वाद आहे.

पण सगळ्यात शेवटी आपण वंदे मातरम् म्हणू आणी सगळ्यांनी उभं राहायचं. त्याला कारण असं आहे माझे वडील फार मोठे देशभक्त होते, फारच मोठे. आणी ते हाय कोर्टचे वकीलही होते. तर हातामधे झेंडा घेऊन ते हाय कोर्ट वर चढले. आणखीन त्या वेळला पोलिसांनी गोळ्या घातल्या, म्हणजे इंग्लिश लोकांनी, तर त्यांना एक गोळी इथे लागली (श्री माताजी डोक्याच्या बाजूला चिन्ह करतात) आणी घळा-घळा रक्त वाहू लागलं. पण तरी सुद्धा ते वर गेले, जाऊन तिथे झेंडा लावला, आणी जेव्हां तो फडकू लागला तेव्हां खाली उतरून आले. आणी आम्हाला सांगून गेले होते, तुम्ही नुसतं वंदे मातरम्... आज म्हणणार आहोत तरी सगळ्यांनी उभं राहावं. हे वंदे मातरम् म्हणजे आपल्या मातृभूमी ची अर्चना आहे, तिला नाही म्हणणारे लोक महामूर्ख आहेत. ह्या देशात राहतात, ह्याच्यात खातात, आणी असल्या आईलाच नाही म्हणायचं म्हणजे काय आहे?

(श्री माताजी आणी उपस्थित प्रत्येक जण उभे राहतात आणी संपूर्ण (सर्व कडवे) वंदे मातरम् चं गान केलं जातं)

संचालकांचं असं म्हणणं आहे कि माताजी सगळ्यांना आत्म-साक्षात्कार द्या. बरं. एक वचन पाहिजे.

You have to promise that after getting your self-realization you will grow.

सहज योगानंतर नुसतं आत्म-साक्षात्कार घेऊन बसलेले बरेच मला माहिती आहेत. त्यानी काहीही फायदा होणार नाही. त्याच्या पुढची पायरी आहे कि तुम्ही यात वाढलं पाहिजे. वाढलं पाहिजे, आणी ते सामुहिकतेत. आजचा सहज योग सामुहीकतेत आहे.

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आत्म-साक्षात्कार देना मुश्किल नही है, लेकिन आप लोगों से ये उम्मीद रखना, कि आप अपने आत्मा के प्रकाश को पूरी तरह से अपने जीवन में फैलाएं, ये कठिन बात है। इसलिए मैं आशा करती हूँ। इन्होने कहा, तो मैं दूंगी आत्म-साक्षात्कार। मैं क्या दूंगी, आपकी अपनी ही चीज़ है, सब कुछ आप ही की शक्ति है, आप ही का सब कुछ है। एक जला हुआ दीप दूसरे दीप को जलाता है, इसी प्रकार ये कार्य होता है। किन्तु ये वचन आप मन में ज़रूर दीजिये कि हम अपने अंदर की आत्मा के प्रकाश को बढ़ाएंगे और सामूहिक चेतना में जागृत हो जाएंगे। बहुत ज़रूरी है। सामूहिक चेतना के कारण, कोई झगड़ा, कोई आपसी मारामारी कुछ नही रह जाएगा। अब सत्तर देशों में, कह रहे हैं, कोई कह रहे हैं अस्सी देश में सहज योग चल रहा है। सब लोग आते हैं दिल्ली में प्रोग्राम में, कभी मैने किसी को किसी से झगड़ते, मारते-पीटते देखा नही। हाँ मज़ाक ज़रूर करते हैं। ऐसी स्थिति आ जाती है। आज ग़र हमारे मंत्री-मंडल ऐसा हो जाए, center (केंद्र सरकार) में भी और यहाँ भी तो सब झगड़े ही ख़तम हो जाएंगे। पर उनका मुश्किल है। वो कोई लोग तो हो गए न मंत्री! अब भगवान बचाए रखे। पर उनको ग़र जागृति हो जाए सबको, तो झगड़े सब खतम हो जाएं। बहुत सरल चीज़ है। आप लोग तो ये इस भारत भूमी के... बहुत पवित्र (भूमी), इस पे बैठे हुए हैं। बहुत जल्दी पार हो जाएंगे। कोई टाइम नही लगने वाला। आप दोनो हाथ मेरे तरफ़ करिये और आँख बंद कर लें। अब पहले आप मेरे तरफ Left hand (बांया हाथ) करें और Right hand (दाहिना हाथ) सर पे रखें। अगर पेअर में जूते पहने हों तो निकल दीजिये। यहाँ पर रखें (श्री माताजी तालु के ३-४ इंच ऊपर चिन्हित करती हैं). आपको ऐसा लगेगा थोड़ा सा गरम-गरम निकल रहा है। कोई हर्ज़ नही। यहाँ से, इसको हम लोग तालु कहते हैं, संस्कृत में “तालव्यम् “ कहते हैं और medical terminology में इसको fontanelle bone area कहते हैं, जो कि आप के बचपन में एक बहुत मृदु ऐसा हड्डी का हिस्सा था वहां पर आप हाथ उस पे - जमा कर नही, ज़रा दूर, अधर में रखियेगा, और देखिये हाथ घुमा के कि आपके सर में से कुछ ठंडी या गर्म हवा आ रही है क्या। अब Right hand मेरी और करें और Left hand से देखें कि ठंडी या गरम हवा आ रही है कि नही। अब गरम हवा इसलिए आ रही है कि आपने न तो अपने को क्षमा किया है न दूसरों को किया है। तो एक साथ सब चीज़ को आप करिये।

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गरम हवा एवढ्या साठी येतेय, कि तुम्ही स्वतःला ही क्षमा केली नाही आणी दुसऱ्यांना ही केली नाही. म्हणून सांगा, मी सगळ्यांना क्षमा केली, स्वतःलाही आणी दुसऱ्यांनाही, त्यानी हवा थंड होईल. आता परत डावा हात माझ्याकड़े.

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फिर से Left hand मेरे और करिये और Right hand से देखिये सर झुका के देखिये कि आप के इस तालू भाग से ठंडी या गरम हवा आ रही है क्या। अभी भी गरम आ रही है तो आप सिर्फ़ कहिये मन में कि मैने सबको क्षमा कर दिया। क्षमा कर दीजिये। अब दोनों हाथ मेरे और करिये। सामूहिक चेतना का ये कार्य, ये बात ज़रूर है कि, अब ही शुरू हुआ है, सहज योग से शुरू हुआ है। दोनों हाथ मेरी और करें। जिन लोगों के हाथों से ठंडी-ठंडी हवा आ रही हो या गरम हवा आ रही हो वो दोनों हाथ ऊपर करें।

वा-वा-वा, सब लोग पार हो गए। बुद्धिवादी भी पार हो गए!

वा-वा-वा, कमाल है। पर अब इसकी प्रतिष्ठा रखनी है। आगे बढ़ना है। और औरों को भी खींचना है अपनी तरफ़। बढ़ाना है इसको। इसी से आपका आनंद बहुत बढ़ जाएगा।

अनंत आशीर्वाद हैं आपको।

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(झाले पार सगळे, आता काय करायचं?)

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ये इस भूमी की है देन। मुझे जब इंग्लैंड में पार करना पड़ता था तो मेरे हाथ टूट जाते थे. आप लोग देखिये कितने आसानी से हो गए। अब इस भारत माता के जो उपकार हैं, उसको कुछ तो देना चाहिये कि नही?

अनंत आशीर्वाद हैं।

Shivaji Park, Mumbai (India)

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