Vishuddhi Chakra

Vishuddhi Chakra 1979-03-16

Location
Talk duration
88'
Category
Public Program
Spoken Language
Hindi

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16 मार्च 1979

Public Program

New Delhi (भारत)

Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - VERIFIED

Vishudhi Chakra (Hindi). Delhi (India), 16 March 1979.

विश्व के लोग हमारी ओर आँखें किये बैठे हैं कि भारतवर्ष से ही उनका उद्धार होने वाला है, तब तक नहीं पा सकेंगे। और हमारी ये हालत है कि एक साधारण सा व्यवहार जो होता है, वो भी नहीं है। कल मैंने आप से कहा था कि मैं आपको हृदय में बसे हुए शिवस्वरूप सच्चिदानंद आत्मा के बारे में बताऊंगी आज। लेकिन सोचती हूँ कि आखिर में ही बताऊंगी जब सारे ही चक्र बता चुकुंगी, वो अच्छा रहेगा। हालांकि उनको पहले से आखिर तक, अपनी दृष्टि वहीं रखनी चाहिये। बाकी जो भी चक्र हैं, एक उनके चक्र को जानने से ही ठीक हो जाते हैं। इन तीन हृदय चक्र के तीन हिस्सों से उपर एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण चक्र है, जिसे हम लोग विशुद्धि चक्र कहते हैं, विशुद्धि चक्र। जहाँ पे हमारा कंठ होता है, इसके बराबर पीछे में ये चक्र होता है। अब इसके लिये आप एक्झॅक्टली (exactly) किसी के लिये नहीं कह सकते हैं कि ये यहीं होता है। क्योंकि ये बड़ी ही सूक्ष्म चीज़ है, थोड़ा ऊँचे, नीचे होता ही है। जैसी-जैसी मनुष्य की प्रकृती होती है और जैसे-जैसे उसका फॉर्म होता है, वैसे ही इसकी चक्र की भी स्थितियाँ उस तरह से थोड़ी बहुत आगे-पीछे होती हैं। कभी कभी एक इंच का भी फर्क होता है। इसलिये आप ये नहीं कह सकते, कि ये बराबर उस जगह ही होगा। थोड़ा सा मैंने देखा है, किसी का ऊपर होता है, किसी का नीचे होता है। किसी का और भी नीचे होता है। बहरहाल ये कंठ जहाँ पे है, इस कंठ के पीछे में यहाँ पर, यहाँ हमारा विशुद्धि चक्र है। ये चक्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है मानव के लिये। जानवरों में ये चक्र इतना बढ़ा हुआ नहीं है, ना ही इतना वो प्रगल्भ है। मनुष्य की शुरुआत ही इस चक्र से हुयी है समझ लीजिये, पूरी तरह से। इस चक्र में श्रीकृष्ण बिराजते हैं और राधा जी उनकी शक्ति हैं। रा धा, रा माने शक्ति, धा माने जिसने धारणा की है।

कृष्ण का मतलब होता है कृषि करने वाला, जिन्होंने कृषि की है। आप सब की कृषि उन्होंने की है आप के अन्दर इन्होंने बीज भरे। उन्होंने पहले बीज आपके अन्दर भरा, कि उस आनन्द को जानिये। परमात्मा को जानिये, परम तत्त्व को जानिये। इसका बीज उन्होंने भरा है, इसलिये उनको कृष्ण कहते हैं। ये चक्र मनुष्य में तब घटित हुआ, जब उसने अपनी गर्दन ऊपर पूरी तरह से उठा ली। आप जानते हैं कि जानवर की गर्दन नीचे होती है। उसके बाद कुछ ऐसे जानवर हैं, जिनको कि हम कह सकते हैं, चिंपाजी या, बंदर की लंगूर वगैरा जो जातियाँ हैं, उस में भी थोड़ी बहुत गर्दन उपर आ जाती है। लेकिन मनुष्य की गर्दन जो बिल्कुल सीधी हो गयी है, ऐसे किसी भी प्राणिमात्र की नहीं हुई है। ये गर्दन सीधी होने के वजह से ही मनुष्य की स्वतंत्रता स्थापित हो गयी, वो किस प्रकार में आप से बताती हूँ। ये विशुद्धि चक्र से ही हमारे दो इगो और सुपर इगो नाम के बलून तैय्यार हो जाते हैं।

आप जानते हैं, कि जानवर की आकृति ऐसे आती है, ऐसी जाती है, फिर नीचे चली जाती है। जो भी चेतना उनके अन्दर आती है, वो फिर से पृथ्वी की ओर झुक जाती है। लेकिन मनुष्य ने ये जो ऐसी गर्दन ऊपर उठा ली, और उसने अपने अन्दर जिम्मेदारियाँ महसूस करनी शुरू दी, तब वो जब कोई भी कार्य करता है, तो उसमें उसका इगो बढ़ता है। अब इगो शब्द, अहंकार से लोग बहुत घबराते हैं। अहंकार मेरा मतलब नहीं है, अहं भाव, इसमें दोनों में बड़ा अन्तर है। अहं भाव सब में होता ही है होना आवश्यक ही है। हर इन्सान में अहंभाव न हो तो वो जानवर हो जाये। प्रति अहं भाव भी हमारे अन्दर उठता है और लेफ्ट साइड से आके और यहाँ पे, फॉन्टनेल बोन (fontanelle) होता है, वहाँ तक आ जाता है। और अहंकार का भाव भी लेफ्ट साइड से उठ के इधर आता है। आप देखिये, चढ़ते वक्त तो राइट का लेफ्ट जाता है और लेफ्ट का राइट जाता है, जैसे यहाँ पे दिखाया है। इन लोगों ने उसका अभी उसकी गति नहीं दिखाई लेकिन ये विशुद्धि चक्र से इसकी शुरुआत होती है। अगर आप का गला खराब है तो डॉक्टर लोग आपको दवा दे देंगे। कहेंगे, आपका गला खराब है। अगर राइट विशुद्धि खराब है, जो कि रुक्मिणी जी का स्थान है, जहाँ विठ्ठल-रुक्मिणी हैं, उसका तो इलाज दवा से हो जायेगा। पर जिसका लेफ्ट साइड खराब होगी, उसका इलाज नहीं हो सकता। क्योंकि लेफ्ट विशुद्धि से प्रति अहंकार होता उठता है, ये कंडिशनिंग से होता है। जो आपके अन्दर कंडिशनिंग हो गयी, उससे होता है। जैसे कि, एक बच्चा, मैने बताया था, माँ के पास है, दूध पी रहा है, आनन्द में है। जब माँ उसको बदलना, चाहती है, तो बच्चे में अहंकार जागृत होता है, कि ये क्यों हमें सता रही हैं। या क्यों इन्होंने बीच में दखल दी, डिस्टर्ब किया। और जब माँ उसे कहती है कि चुप रहो, ऐसे नहीं करते। तो उसपे से जो उसके संस्कार पड़ते हैं, चाहे वो सुसंस्कार हो, चाहे कुसंस्कार हो , उसके कारण उसके अन्दर प्रति अहंकार, जिससे कि सुपर इगो कहते हैं, होता है।

अब राइट साइड की जो कुछ भी हमारी अॅक्टिविटी हैं, राइट साइड की जो हमारी पिंगला नाड़ी है वो जब भी गतिमान होती है, कार्य करती है तो हमारे अन्दर इगो बढ़ता है। और जब हमारी लेफ्ट साइड की गतिमान होती है तो हमारे अन्दर प्रति अहंकार, माने सुपर इगो बढ़ता है। जब ये दोनों चीजें बढ़ कर एक के ऊपर एक ओवरलैप (overlap) कर लेती हैं। समझ लीजिये बच्चे की उमर जब तक साल भर की हो जाती है, तब तक ये जगह पूरी तरह से भर जाती है। और तब आप में पूरी तरह से ‘हम अलग हैं’, ये भावना आ जाती है। इसे कहना चाहिये अहं भाव, कि हम अलग हैं, आप अलग हैं। जिसे अंग्रेजी में कहते हैं, आयनेस (i-ness)। हम लोग सब अलग-अलग हो जाते हैं। हम सोचते हैं कि हमारा ये नाम है, उनका ये नाम है। अगर छोटे बच्चों से आप बात करिये, तो हमेशा थर्ड पर्सन में वो बात करते हैं। फर्स्ट पर्सन में नहीं कहेंगे, कि मैं जा रहा हूँ। जैसे हमने मुन्ना से कहा कि, ‘बेटे, अब तुम जाओगे कि नहीं। ‘नानी, ये मुन्ना नहीं जायेगा बहुत जिद्दी है।’ थर्ड पर्सन में बात करेंगे। माने, उनका जो है, सामंजस्य, उस मुन्ना नाम से नहीं हो पाता है, आयडेंटिफिकेशन (identification) नहीं हो पाता है। वो हमेशा थर्ड पर्सन में बात करेंगें, कि ये नहीं मानने वाला। ये बड़ा जिद्दी है, माने ये दूसरा है, कोई मुन्ना। और ये जो मैं हूँ ये अलग है।

जैसे-जैसे आदमी बड़ा होने लगता है, वैसे-वैसे इसकी ये जो दोनों ही चीजें हैं, बढ़ती जाती हैं, घनी होती जाती हैं। और उतना ही वो अलग हटते जाता है, उस विश्वव्यापी शक्ति से। अब जानवर जो है वो इस विश्वव्यापी शक्ति से एकाकार ही हैं। लेकिन वो इस मामले में चेतित नहीं है, माने उनमें अवेअरनेस नहीं है। आप अन्तर एक समझ लें, कि आपको वो चेतित करने के लिये ही परमात्मा ने इस तरह से, इस शेल (shell) के अन्दर डाल दिया, समझ लीजिये। या इस एक अलग व्यक्तित्व में ढाल दिया। हर एक का व्यक्तित्व अलग बना दिया। कि आप अपनी स्वतंत्रता में परमात्मा को खोजें, अच्छाई को खोजें और उसी को मानें। इसलिये ये व्यवस्था की गयी। अब आप कहेंगे, कि ये क्या जरूरत थी? परमात्मा को चाहिये था, लोग बहुत से कहते भी हैं, कि सीधे सीधे, डायरेक्टली उसको रियलाइजेशन क्यों नहीं दे दिया? जानवर से उठा के मनुष्य को एकदम से रियलाइजेशन दे देते, तो ये प्रश्न ही नहीं खड़ा होता। लेकिन उत्क्रांति की, इवोल्यूशन की एक दशा तक तो परमात्मा कार्यान्वित होते हैं और सब अपने स्वभाव के अनुसार चलते हैं। जैसे कि बिच्छू होगा, तो वो शेर की चाल नहीं चलेगा। और अगर साँप होगा तो वो सिंह की चाल नहीं चलने वाला। उनका स्वभाव जो है वो वैसा ही बना रहेगा, वो नियत रहेंगे। उसी की नियति पे चलेंगे। उनका जो कुछ भी आप कंडिशनिंग (conditioning) करेंगे, उस पे चलेंगे वो। वो कंडिशन्ड (conditioned) हो जाते हैं अॅटमॉसफिअर (atmosphere) से, उसी की मुताबिक वो रहते हैं। लेकिन एक मानव ही ऐसा है, कि उसके अन्दर एक गीदड़ भी होगा, और उसके अन्दर साँप भी होगा और सिंह भी होगा और शेर भी होगा। राक्षस भी होगा, भगवान भी होगा। एक मनुष्य ही है, क्योंकि वो स्वतंत्र है। क्योंकि वो फ्री (free) है। उसको चाहे तो वो बुराई करे और चाहें तो अच्छाई करे। चाहे तो वो बिच्छू बन जाये और चाहे तो वो शेर जैसे गर्जे।

अब ये स्वतंत्रता परमात्मा ने इसलिये दी, कि आपको अगर परमात्मा को जानना है, तो बगैर स्वतंत्र हुए आप जान नहीं सकते। आपकी स्वतंत्रता में ही आपको परमात्मा को जानना है। आपको हिप्नटॉइज कर के परमात्मा को आप जान नहीं सकते। जबरदस्ती ये काम नहीं हो सकता। आपको अपनी स्वतंत्रता में ही कहना चाहिये, कि हम परमात्मा को जानना चाहते हैं। और इसकी वजह से ही आपकी ब्रेन की आकृती ही त्रिकोणाकार हो जाती है। जानवर की ब्रेन की आकृति फ्लैट होती है, आप देख रहे हैं, त्रिकोण बना है। और इस त्रिकोणाकार आकृति की वजह से ही, आप में बहने वाली शक्तियाँ चार हो कर के बहती हैं, क्योंकि प्रिजम के जैसा होता है। जैसे कि पिरामिड होता है, उस तरह से होता है ब्रेन। इसीलिये ये चार इसमें शक्तियाँ बहने लग जाती हैं। जैसे मैंने कहा, तीन तो शक्तियाँ आपकी जो मैंने बतायी हुयी हैं, इडा, पिंगला और सुषुम्ना है। और पीछे में वो है, जो हमने आज तक इन्सान के रूप में कमाया हुआ, सेंट्रल नर्वस सिस्टम। ये चारों शक्तियाँ हमारे अन्दर इसलिये बहने लग जाती हैं कि हमारे अन्दर तीन परत, ये पिरामिड आपने देखा है, इसके तीन साइड्स होते हैं। प्रिजम के तीन साइड्स होते हैं। और उसका अॅपेक्स एक होता है, उसका एक शिखर होता है। जिसे कि कबीर ने शून्य शिखर कहा है। उसके अन्दर से कुण्डलिनी गुजर के और इस त्रिकोणाकार अस्थि में बैठ जाती है। जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है, तब यही कुण्डलिनी उसके सर पे मंडराती रहती है। उसके सर से निकल के जाती है, वही इसको गाइड करती है। और आत्मा भी उसके साथ है। वो आत्मा, वो कुण्डलिनी और हमारे अन्दर के चार तत्त्व, उसमें से पानी का तत्त्व भी धीरे-धीरे घटते ही जाता है। पृथ्वी तत्त्व घट जाता है। इस प्रकार जीवात्मा तैयार हो के और मृत्यु लोक को प्राप्त होता है। तो ये जो हमारे अन्दर परमात्मा ने स्वतंत्रता दी है, इसको हम जिस तरह से इस्तमाल करते हैं, वो जाहिर है। उसको हमने एक अजीब तरह से इस्तमाल किया हुआ है। कि जब ये दोनों भी, अहंकार और प्रतिअहंकार बॅलन्स में रहते हैं और आपके भवसागर के हिस्से में, आप धर्म पे रहते हैं, तो कुण्डलिनी का उठना बिल्कुल ज्ञात नहीं होता। और एक क्षण में इन्सान पार हो जाता है, एक क्षण के अंदर। और उसको ये भी नहीं पता चलता कि वो पार हो गया। क्योंकि मैंने आज ही बताया, कि जो एरोप्लेन बहुत ही स्मूद (Smooth) होता है, उसमें आप बैठे रहिये पता ही नहीं चलता कि आप प्लेन में चल रहे हैं। ये बहुत ही बढ़िया एरोप्लेन होते हैं कि उसमें पता ही नहीं चलता कि आप उसमें चल रहे हैं। लेकिन जब आप अपनी स्वतंत्रता को ठीक से नहीं इस्तमाल करते , माने पहले तो आप देख लीजिये, कि हमारी लेफ्ट साइड की स्वतंत्रता को हम कैसे इस्तमाल नहीं करते हैं।

एक तो आजकल के युग में किताबें छपने का एक धंधा निकल गया है। उसको लगता क्या है? छापखाने। आपके पास पैसा है, आप अपने किताबें निकालिए। किताबों पे किताबें हर एक चीज़ पर, विशेषतः भगवान पर और धर्म पर, हज़ारों किताबें लिख डालीं। उसमें से अधिकतर अनधिकार हैं, अनधिकार, बिल्कुल। गुरु नानक जी के समय में उन्होंने इस बात को महसूस किया, कि हर तरह का आदमी छापा दे रहा है। उसी वक्त उन्होंने समझा था। इसलिये उन्होंने जितने रियलाइज्ड सोल्स थे उन्हीं की किताब ले कर के गुरु ग्रंथसाहिब बना दिया कि इसके अलावा और कुछ नहीं पढ़ो। और इसमें जो लिखा है वैसे आप व्यवहार करो। लेकिन उसमें भी घोटाला ही है। आप जानते हैं, कि पढ़े जा रहे हैं, उसमें भी घोटाला हो गया। बाइबल लिखा गया, उसमें भी घोटाला हो गया, उसमें भी गड़बड़ है। कुरान लिखा गया, उसमें भी गड़बड़ियाँ हो गयी। क्या वजह हो गयी? क्योंकि हमारे अन्दर इन किताबों से जो सुसंस्कार आने चाहिये थे, वो आने की जगह कुसंस्कार हम लोगों ने ले लिये। वो इस प्रकार - हालांकि दोष कोई आप निकाल नहीं सकते उसमें। लेकिन इस प्रकार, जैसे समझ लीजिये कि हम कहें कि उनका एक भजन है, ‘काहे रे बन खोजन जाये’। उसमें उन्होंने कहा है, कि कहे नानक, बिन आपा चीन्हे, मिटे न भ्रम की काई। अब इससे ज्यादा और क्या वो कहते भई, कविता में। मतलब एक सादी बात कह दी, कि आप सेल्फ रियलाइजेशन लीजिये। और इससे ज्यादा कुछ कहा जाता है? लेकिन अब वो बैठे रट रहे हैं, नहीं तो अखंड पाठ करा रहे हैं। अब जब मैं कहती हूँ कि नानक साहब से जयादा तो किसी ने साफ और लिखा ही नहीं है। और उसको भी लोग इसी तरह से कह रहे हैं कि भई उसको आपा चीन्हे बगैर होता नहीं। समझ लीजिये आपके सर में दर्द है। हम लिख दें कि एक दवा लीजिये, अॅनासिन दवा लीजिये, समझ लीजिये। तो आप रटे जा रहे हैं, कि अॅनासिन ले लो, अॅनासिन ले लो। तो क्या आपका सरदर्द जायेगा? इससे ज्यादा साफ़ और कुछ लिखने की बात है ही नहीं। हाँ, कृष्ण ने जरूर गीता में बहुत चलाया है। उसकी भी अभी मैं बताऊंगी कृष्ण की बात। तो इस तरह से रट-रट कर के हमारी हम विशुद्धि खराब कर लेते हैं, लेफ्ट विशुद्धि। ये कंडिशनिंग है। फिर किसी-किसी को मंत्र बोलने की बड़ी आदत है।

एक साहब आये कहने लगे, ‘मैं गायत्री बोलता हूँ।’ ‘मैंने कहा किसने कहा आपको बोलने को?’ कहने लगे, ‘माताजी, मैंने किताब पढ़ी। मैंने बोलना शुरू कर दिया। ‘अरे भाई, किताब पढ़ी, किसने लिखी? क्या पढ़ी? गायत्री की तुमको जरूरत है या नहीं? क्यों बोल रहे हो गायत्री? गायत्री का क्या अर्थ है? कुछ समझते नहीं ‘मैं तो गायत्री बोलता हूँ।’ और मेरे से भी बोल रहे हैं तो गायत्री बोल रहे हैं। वो चुप ही नहीं हो रहे सकते थे। सब से अच्छा उदाहरण इसका ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ वाले हैं। वो ऑक्सफर्ड स्ट्रीट में इतनी बदुतमीजी करते हैं। इतनी शर्म आती है उनके उपर। धोती, साड़ी पहन कर के, ना धोती पहनना आती है ना साड़ी पहनना आती है। वो बोदियाँ खरीद-खरीद कर के लगाते हैं। और सब से रुपया ले-ले कर के, बड़े-बड़े हॉटल बना कर के, हॉटल चला रहे हैं। वो तो जो भी कर रहे हैं करें, मुझे कोई हर्ज नहीं है। लेकिन रात-दिन वो बोलने से उनको कैन्सर ऑफ़ द थ्रोट का हो रहा है। मेरे पास आते हैं फिर ठीक कराने के लिये। तो फिर ये पूछते हैं कि, ‘माँ, हम तो कृष्ण का ही नाम ले रहे हैं। आप कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण यहाँ बैठे हुए हैं, तो फिर हमारा क्यों खराब हो गया? तुमको किस ने अधिकार दिया इतनी बदत्तमीज़ी करने का, वहाँ जा कर के। ऑक्सफर्ड स्ट्रीट में इस तरह से उपर से चीपली (cheaply) इस तरह से बोलने का? क्या वो आपके क्या नौकर हैं? फिर कैन्सर ऑफ द थ्रोट हो गया। तो समझ में नहीं आता उनको हम कैसे ठीक करें! इसी तरह से मंत्र का प्रकार है। जब तक मंत्र प्रबुद्ध न हो, जीवित नहीं हो। वो एक मृत चीज़ को आप ले कर के बैठेंगे। तो जरूरी है कि वो आपका जो विशुद्धि चक्र है उसे फेकेगा।

अब विशुद्धि चक्र पे श्री राधा-कृष्ण का मंत्र कहना चाहिये। लेकिन प्रबुद्ध मंत्र होना चाहिये, प्रबुद्ध कैसे होगा। रियलाइज्ड सोल (realized soul) ने अगर आपसे कहा है। वो भी आपको नहीं कहेंगे, जब तक आपका थ्रोट (throat) नहीं खराब हो। आपका पेट खराब है, आप राधा-कृष्ण का नाम ले रहे हैं, क्यों भई? क्योंकि हम वृंदावन में रहते हैं, बताईये। कोई सा भी मंत्र जाप करने से हमेशा लेफ्ट विशुद्धि पकड़ती है, क्योंकि सिद्ध मंत्र नहीं है। ये इसकी बारिकी है, अब बोलो। आज कल तो ये धंधा ही निकला हुआ है, कि मंत्र देने के लिये गुरु कर लीजिये। भई, एक सीधा हिसाब मैं पूछती हूँ कि ऐसे नाम देने के लिये गुरु काहे को चाहिये? कोई गधा भी दे सकता है। उसके लिये गुरु काहे को चाहिये? और फिर उनको पैसा देने को काहे को चाहिये? करोड़ों रुपया इन लोगों ने बना लिया, मंत्र दे दे कर के। आपको मालूम है, करोड़ों रूपया। क्या आपने गवर्नमेंट में, मुझे पता नहीं, कायदे कानून इन्सान के मैं समझती नहीं हूँ। क्या ऐसा कोई कायदा नहीं कि ऐसे बेवकूफ़ बना कर के कोई आदमी करोडो रुपया बनाये तो उसको पूछना चाहिये, कि ये मंत्र क्या दे रहे हो तुम? ये मंत्र देना सिर्फ भूत देना है। आपके अन्दर उस नाम का एक भूत बिठा देते हैं। मैंने आपसे कल भी बताया, और आज भी बता रही हैूँ। सब मंत्र का बहुत बड़ा ज्ञान है। और जो इसे जानता है वही विद्या है, बाकी सब अविद्या है। लेकिन कौनसा चक्र खराब है, कि जो मंत्र देता है उससे वो सिद्ध है या नहीं। जिस आदमी का स्वयं चरित्र अच्छा नहीं है, जो दूसरों के पैसों पे नज़र रखता है और पैरासाइट जैसे अपनी जिंदगी बिताता है। उस आदमी को किसी भी तरह से उससे कुछ भी चीज़ लेना ये महापाप है। मंत्र तो अधम चीज हो जायेगी। पैसा दे कर लोग मंत्र लेते हैं। जैसे जाईये, वहाँ पे बड़ी-बड़ी पेटियाँ रखी रहती हैं कि सेवा। सेवा के लिये है, शब्द सेवा हो गया। भई, कहाँ से कोई चीज़़ का हिसाब जोड़ना चाहिये, ये सेवा के लिये है। किस की सेवा कर रहे हो? इन अधम लोगों की जो कि भूतविद्या, प्रेत विद्या, पिशाच्च विद्या कर रहे हैं और आपको भरमा रहे हैं। मंत्र आपको दे दिया राम का और चक्र पकड़ गया राम का और विशुद्धि लेफ्ट क्योंकि वो उसने मंत्र दे दिया, दो चक्र पकड़ गये। श्रीकृष्ण का मंत्र हो तो कम से कम एक ही चक्र पकड़ता है। पर वहाँ इतना जोर का बांधता है मैंने बताया आपको कि कैन्सर हो जाता है थ्रोट का, बहुत डेंजरस चीज़ है। इसी प्रकार जो आप गंडे-डोरे, अब काशी का गंडा है, गले में पहन के चल रहे हैं। ये बड़ी सेन्सिटिव चीज़ है और सूक्ष्म चीज़ है समझ लेना चाहिये। ये काशी के गंडे बेचने वाले, इनसे बढ़ के महादुष्ट आपने कहीं देखे हैं क्या?

सारे वृंदावन के पंडे जितने भी हैं राक्षस हैं, राक्षस! महा राषक्षस हैं ये। सारे कंस के अनुचर वहाँ बैठे हुए हैं। और उनसे आप लोग गंडे-दोरे और तावीज लेते हैं। किसी भी परमात्मा के, किसी भी स्वरूप में आये हुए, किसी भी प्रॉफिट (prophet) ने या गुरु ने या किसी भी अवतार ने गंडे-डोरे किसी को दिये थे। और इन पंडों से आप लेते हैं, जिनको कि आपको तो देखना भी नहीं चाहिये। नजर पड़े तो आँख धो डालिये। सबेरे देखिये तो दिनभर खाना नहीं मिलेगा। मैंने पिछले साल कहा था कि एक दिन गंगाजी इनको खायेगी, और हुआ ही ऐसे। मैंने बीबीसी में देखा था तो सब खोमचे उठा के भाग रहे थे। सहजयोग का मतलब सिर्फ इतना ही नहीं कि आपका एक अंतर्योग होगा, पर एक बड़ा भारी ये रिवोल्यूशन ( revolution ) है। इनको क्या अधिकार है कि ये परमात्मा के दरवाजे पर बैठे। जब तक आदमी में पवित्रता नहीं होगी, तो इन मंदिरों में बैठने का इनको कोई अधिकार नहीं है। इन मंदिरों में क्या है? लोग पूछेंगे कि, ‘माँ, क्या ये मंदिर सही हैं?’ हाँ, सही हैं। पृथ्वी के अन्दर से, पृथ्वी तत्त्व से ही ये उद्भूत हुए हैं। ये सही बात है, इसमें कोई झूठ नहीं। जैसे कि अष्टविनायक हैं, ज्योतिर्लिंग हैं, ये सब सही हैं। लेकिन उनकी मूर्तियाँ बनाना ये सही नहीं है। जो काबा में भी पत्थर है, वो भी शिवस्वरूप है। वो भी स्वयंभू है, वाइब्रेशन्स हैं उसके अन्दर। जो बड़े-बड़े साधु-संत पहले चलते थे वो वाइब्रेशन्स देख कर बताते थे कि ये कोई स्वयंभू चीज़ है।

एक छोटी सी जगह है मुसलवाडी कर के। यहाँ पर सहजयोग का हमारा बड़ा भारी सेंटर चलता है, बहुत बड़ा है वहाँ। बहुत ही बढ़िया सेंटर है, है गाँव छोटा सा। तो वहाँ पर हम पहुँचे। तो लोगों ने बताया कि, माँ, यहाँ एक ऐसी जगह है कि वहाँ कुछ पत्थर निकल आये हैं। और वो ऐसी जगह है कि अंग्रेजों के जमाने में, यहाँ पर लोगों ने कहा था कि एक बड़ा सा वो बना दें, धरण। जिसे आप कहते हैं, डैम (dam)। और उस डैम को बनाने के लिए उन्होंने बड़ी कोशिश की। लेकिन उस जगह पे जब भी मिट्टी डालने की कोशिश करते थे, तो वहाँ से मिट्टी उड़ के दूसरी जगह चली जाती थी। और जो गधे ले जाते थे, वो बेहोश हो जाए। किसी तरह से उस जगह मिट्टी नहीं पड़ती थी। वो लोग तंग आ गये, उन्होंने लोगों से पूछा, ये क्या बात है ? वहाँ एक साधु आये उन्होंने कहा कि ये जगह यहाँ से बहुत चैतन्य आ रहा है। ये कोई बड़ी पवित्र जगह है, इसको मत छुईये आप। तो मैंने अपनी आँखों से देखा कि वहाँ पे ऐसा उन्होंने डैम की जगह में इस तरह से गोल बना के वो उतनी जगह छोड़ दी। और दूसरी तरफ में डॅम बनाया, ये अपनी आँख से देखने की चीज़ है। जब मैंने जाके वाइब्रेशन्स देखे तो बहुत ही ज्यादा। आदिशक्ति का ही वहाँ पे हुआ है। और इसलिये मुसलवाडी में हमारा सबसे ज्यादा सहजयोग भी चलता है, इतने वाइब्रेशन्स हैं उसमें। लेकिन इसको समझने के लिये रियलाइज्ड सोल होना चाहिये ना! बगैर रियलाइजेशन के आप कैसे समझियेगा, किस चीज़ में वाइब्रेशन्स हैं, किस में नहीं। मैंने आपको काश्मिर का किस्सा बताया था, फिर से मैं आपको बताती हूँ। मैं काश्मिर गयी थीं तो एक जगह एकदम से मुझे बहुत वाइब्रेशन्स आयें। तो हमने ड्राइवर से कहा कि, ‘भई यहाँ कोई बड़ा भारी मंदिर है, या कोई चीज़ है? यहाँ पूजा अर्चना कोई होती है कुछ? तो उसने कहाँ, ‘यहाँ तो कुछ भी नहीं।’ तो उसने कहा, ‘यहाँ से दो मील दूरी पे एक मुसलमानों का स्थान है, जिसे हजरत बल कहते हैं।’ अभी भी कहते के साथ वाइब्रेशन्स खड़े हो जाते हैं। ये मोहम्मद साहब की महिमा है। उनका नाम लेते ही मेरा तो बदन कॉप उठता है। नानक साहब का, कोई ग्रन्थ साहब का भी नाम लेले तो भी बदन में से धड़-धड़ वाइब्रेशन्स शुरू हो जाते हैं। तो मैंने कहा, ‘चलो, वहीं चलो फिर मुझे वहीं जाने का है।’ मेरे पति कहने लगे कि, ‘वहाँ तुम्हें जाने कौन देगा?’ मैंने कहा, ‘चलिये तो सही।’ आश्चर्य, किसी ने मुझे रोका नहीं, कुछ नहीं, मैं अन्दर तक चली गयी। तो इस तरह की चीजें होना चाहिये, कि जिसका कि आपको पता लगना चाहिये। वो तभी लग सकता है, जब आपके आत्मा की आँखें खुले। जब तक आत्मा की आँख नहीं खुलती आप धर्म को नहीं समझ सकते, ना परमात्मा को समझ सकते हैं। ना ही उस विश्वव्यापी शक्ति को जान सकते हैं।

अब देखिये इस जगह आप कुछ लग रहा है कि कोई चित्र वित्र है। कोई नहीं देख रहा है कि कोई चित्र है, वो दिखता नहीं है न। आप यहाँ टीवी लगा लीजिये, अभी आपको टीवी में चित्र आ जायेगा। इसी प्रकार है जब आपका कनेक्शन हो जाता है, तब आपके भी अन्दर वाइब्रेशन्स आने लग जाते हैं। सब चीज़, सर्वव्यापी वो शक्ति है। लेकिन आपके अन्दर अभी तक उसका ज्ञान नहीं, बोध नहीं हुआ। इसलिये उसके बारे में बात करना सब बेकार है, बिल्कुल बेकार बात है। उस शक्ति को प्राप्त होना चाहिये, उसमें समा जाना चाहिये। आत्मा को प्राप्त किये बगैर मनुष्य इतना अधूरा रह जाता है, कि वो कुछ भी हाथ-पैर टांग मारे, कुछ उसमें फर्क नहीं पड़ने वाला। अब ये विशुद्धि चक्र पे परमेश्वर साक्षात् श्रीकृष्ण के स्वरूप में इस संसार में आये थे, जो कि विराट हैं। जब श्रीकृष्ण संसार में आये थे, तब विराट की शक्तियाँ कार्यान्वित हुई। जैसे कि आपसे मैंने बताया था, कि शिवजी का काम है हमारा एक्झिस्टंस (existence) बनाना। हमारा अस्तित्व बनाना, जो कि लेफ्ट साइड की नाड़ी से होता है। और ब्रह्मदेव का कार्य है कि सृजन करना, क्रियेशन बनाना।

शिवजी कभी अवतरित नहीं होते हैं, एक बार हुए थे। लेकिन होते नहीं हैं समझ लीजिये (..अष्पष्ट)। वो क्या होना न होना बराबर ही था उनका। ब्रह्मदेव एक बार हुए थे, आपको आश्चर्य होगा। हजरत अली के रूप में हुए थे। किसी ने उनको पहचाना नहीं, मुसलमानों ने भी उनको पहचाना नहीं। एक ही मर्तबा ब्रह्मदेव ने अवतरण लिया था। और अवतरण सिर्फ विष्णु का होता है, विष्णु तत्त्व का होता है। वही बार-बार अवतार ले कर के और आपको इस संसार, भवसागर से पार कराते हैं। वही अनेक बार इस संसार में आते हैं और आपका नेतृत्व करते हैं, आपकी लीडरशिप (leadership) करते हैं। ये जो तत्त्व है, इसी तत्त्व के कारण आप इवॉल्व (evolve) हुए हैं। यही उत्क्रांति का इवोल्यूशनरी (evolutionary) तत्त्व है। अमिबा से भी इन्सान आप इसी तरह से बनें, क्योंकि वो धर्म की धारणा करते हैं। और हर एक चीज़ का धर्म बदलते-बदलते इन्सान के धर्म पे वो आ जाते हैं, यही आपका मानव धर्म है। लेकिन मानव धर्म पूरी तरह से तभी प्लावित होता है, जब कि वो आत्मा से प्रबुद्ध हो जाये।

अब ये जो विशुद्धि चक्र है, इस विशुद्धि चक्र में मानव विराट के संबंध से जुड़ जाता है। जैसे आपने मेरी ओर हाथ किया है। अब इस हाथ करने में, बैठिये, ऐसा हाथ करना अच्छा रहेगा। इसी हाथ से जो एक नाड़ी आती है यहाँ, और यहाँ, ये विशुद्धि चक्र में होती है। तो सर्वप्रथम इन्हीं हाथ से, देखिये मनुष्य का हाथ और जानवर का हाथ बहुत ही अंतर है। जानवर के पास तो हाथ पैर में तो कोई अंतर ही नहीं है । मनुष्य का हाथ कितना सुन्दर है, और कितना सुबक है। और उसमें कितनी ज्यादा कला कौशल्य है। कभी हम इसको समझते नहीं, टेकन फॉर ग्रांटेड ( taken for granted)। इतना इस हाथ का कमाल है। इस हाथ से मनुष्य चाहे तो न जाने क्या-क्या बना के रख दें। पर इन हाथ को हमने मैला कर दिया। इसी से हम दूसरों की मृत्यु कराते हैं, दूसरों को सताते हैं। जो हाथ परमात्मा ने सुख और आनन्द देने के लिये बनाये हैं, उसी हाथ से हम बहुत बुरे कर्म करते हैं। और इन हाथ का संबंध सबसे पहले विशुद्धि चक्र से होता है। अब इसको जरा बारीक चीजें समझने की कोशिश करें, विराट और हमारा संबंध। विराट जो है, ये प्रायमॉडिअल बिईंग (primordial being) हैं, सबसे बड़ा। और उसके अन्दर छोटे-छोटे हम उसकी पेशियाँ, माँस पेशियाँ, रक्त पेशियाँ सब हैं। समझ लीजिये, अंग्रेजी में जिसे कहते हैं कि माइक्रोकोसम - मैक्रोकोसम (microcosm-macrocosm)..... (अस्पष्ट)। जब मनुष्य जागृत हो जाता है। तब वो विराट से एकाकार हो जाता है, तब तक नहीं। जैसे कि, अपने ये नाखून हैं, उसका जो अग्रभाग होता है, उसमें अगर कोई चोट भी लग जाये तो कुछ महसूस नहीं होती, झड़ जायेगा। उसी प्रकार मनुष्य होता है, जब तक वो प्रबुद्ध नहीं होता। जब तक वो पार नहीं होता, उसके अन्दर कोई भी संवेदना उस विराट की नहीं रहती। थोड़ी बहुत झाँकी मिलती रहती है पर नहीं रहती।

अब जो लोग सामाजिक कार्य में संलग्न हैं, सामाजिक कार्य करते हैं। वो इसी झाँकी के कारण सोचते हैं कि जब तक समाज कल्याण नहीं होगा, मेरा भी कल्याण नहीं होगा। जरा ठहर जाईये(अस्पष्ट ...).. सब का ध्यान वहीं जायेगा क्योंकि चित्त अभी दोनों का स्थिर नहीं है। आप लोग कोई भी बंधन वगैरा मत दीजिये, फौरन लोग आँखें घुमाने लग जाते हैं। जरा चित्त को थोड़ा स्थिर कर के सुनिये बात। चित्त की स्थिरता भी बहुत कठिन है। इस मॉडर्न जमाने में, बहुत ही स्थिर रहना पड़ता है, तब कहीं जा कर के ये चीज़ बनती है। लेकिन तो भी सोचिये, कि बहुत लोग पार हो ही जाते हैं, तो आप जरा चित्त को स्थिर करें। अब जब आदमी प्रबुद्ध हो जाता है तब उसका संबंध परमेश्वर से जुड़ सकता है। लेकिन उसके पहले से थोड़ी-थोड़ी झाकियाँ उसके अन्दर आती हैं। माने एक विचार उठता है और खत्म हो जाता है। दूसरा विचार उठता है फिर खत्म हो जाता है। हम लोग विचार का उठना देख सकते हैं, उसका गिरना नहीं देख सकते। जब विचार उठता है तब तो हम एक नाड़ी पर होते हैं और जब गिरता है तो दूसरी नाड़ी पे चले जाते हैं। एक विचार से दूसरे विचार में जाने पर जो बीच में जगह होती है, उसे विलंब कहते हैं। यही जगह है, इसको पकड़ना पड़ता है कुण्डलिनी के जागरण में। एक विचार उठा खत्म हो गया वो चला गया, लेफ्ट साइड में। दूसरा विचार उठा तब हम राइट साइड में आ गये फिर से जब वो विचार ख़त्म हुआ फिर उसको भेज दिया लेफ्ट साइड में फिर आ गए राइट साइड में। विचारों पे हम कूदते रहते हैं। एक विचार को फेंक दिया लेफ्ट में, दूसरे विचार को फेंक दिया लेफ्ट में। लेकिन जो बीच में जगह है वही वर्तमान, प्रेझेंट (present) हैं। वो बहत थोड़ी हैं हमारे अन्दर।

विलंब की जगह बहुत थोड़ी सी होती है। इसलिये हमेशा हम फ्यूचर की सोचते रहते हैं। कभी-कभी पास्ट की सोचते हैं, कभी फ्यूचर की सोचते हैं। पर जो बीच की जगह है उसे हम नहीं पकड़ पाते हैं। ये दोनों ही चीज़ विशुद्धि चक्र से हमारे अन्दर उठती हैं। ये विशुद्धि चक्र से ही होता है। उसका कंट्रोलिंग पॉइंट तो ये है। लेकिन विशुद्धि चक्र से ही हम अपना इगो और सुपर इगो बनाते रहते हैं। आप विराट से एकाकार होने के लिये ही मोहम्मद साहब ने बताया कि ऐसा हाथ रखना चाहिए। सारा नमाज जो है वो ऐसा ही है। क्योंकि इन पाँचों उँगलियों में पाँच चक्र हैं। आप किताब ले लें तो आपको पता चल जायेगा, मैं क्या कह रही हूँ। इस चक्र में स्वाधिष्ठान चक्र है। जो कि आपको दिखाया है यहाँ, ये स्वाधिष्ठान चक्र है। पहले मूलाधार से शुरू होता है, ये मूलाधार चक्र है। ये स्वाधिष्ठान, ये नाभि, ये हृदय और ये विशुद्धि। कृष्ण के इस हाथ में सुदर्शन चक्र रहता था। ये विशुद्धि चक्र है और ये आज्ञा और ये सहस्रार है। और ये वोयड (void) है दिखाया गया है यहाँ पर, ये गुरु के तत्त्व हैं सारे। इस प्रकार पूरे हाथ में ही इन्सान की पूरी डेस्टिनी है। उनका पूरा सब कुछ चित्र इस हाथ में है और पैर में भी है। लेकिन पैर में फर्क है, हाथ में फर्क है। पैर के बारे में बाद में बताऊंगी, हाथ इस तरह के होते हैं। अब इस हाथ में, जब आप ऐसे हाथ करते हैं, तो आपके जो सिम्परथैटिक (sympathetic) जो चक्र हैं, जो लेफ्ट और राइट सिम्परथैटिक से है। इस तरह से समझ लीजिये कि ये लेफ्ट है, राइट है, दो हैं सिम्परथैटिक। ये लेफ्ट है, ये राइट है। ये जब घूमते हैं इस तरह से, और जब बहुत ज्यादा घूमने लग जाते हैं, तो टूट जाते हैं। इसी के अन्दर में डेईटिज (deities) होते हैं, इसी के अन्दर में देवता होते हैं। जब आपने ये ज्यादा घुमाया तो भी टूट जायेगा, ये ज्यादा घुमाया तो भी टूट जायेगा। अति ज्यादा टूटने से आदमी टूट जाता है। टूटते ही साथ वो अलग हट जाता है। और विशुद्धि चक्र जो है जब टूटता है, तब आदमी आर्बिट्री हो जाता है। अब जैसे आदमी इगो ओरिएंटेड है, तो उसका इगो बढ़ता गया। इगो बढ़ते बढ़ते बढ़ते बढ़ते सारा छा गया। तो उसका संबंध एकदम टूट गया विराट से। कोई भी उसे संवेदना नहीं रही। वो सोचता है मैं ही हूँ। एक पागलपन होता है, आपको पता नहीं, एक पागलपन होता है। इगो होना भी बड़ा पागलपन होता है। वो जो रहते हैं इगो में उनको नहीं पता चलता। पर आपको उसके एक-दो बतायें चुटकुले, कैसा होता है। कहते हैं, एक बार जवाहरलाल जी खुद गये थे, किसी ल्युनायटिक असायलम ( lunatic asylum) में। तो जवाहरलाल जी से एक आदमी बदत्तमीजी करने लग गए। तो उन्होंने कहा कि, ‘देखिये, ऐसा न करें आप।’ जब सबने कहा कि, ‘भई, ये कौन हैं पहचाने तुम?’ कहने लगा, ‘कौन?’ कहने लगे, ‘जवाहरलाल जी हैं’, अपने प्राइम मिनिस्टर साहब।’ तो कहने लगा, ‘ठीक हो जायेंगे, ठीक हो जायेंगे, मैं भी ऐसे ही कहता था।’

दूसरे मैंने आपको पीए साहब की बात बतायी थीं कि कोई मिनिस्टर साहब से मिलने गये थे। वहाँ एक पीए साहब बहुत कूद रहे थे। वो किसी से ठीक मुँह बात ही न करे। तो उन्होंने पूछा कि, ‘भई आप क्यों कूद रहे हैं? क्या बात है? आप इतने नाराज क्यों होते हैं?’ (देखिये चित्त को जल्दी-जल्दी न हटाए, हम बात कर रहे हैं न, इधर उधर न हटाए। कोई इधर हम बात कर रहे हैं कोई उधर बात कर रहे हैं। जब मैं बात कर रही हूँ तो चित्त को हटाना नहीं चाहिए। ये बहुत जरूरी है क्योंकि कुण्डलिनी को मैं चला रही हूँ, बात कर रही हूँ लेकिन कुण्डलिनी हटा रही हूँ, आपकी विशुद्धि साफ़ कर रही हूँ। हाँ, तो कहने लगे आप उछल कूद क्यों रहे हैं। कहने लगे आपको पता नहीं मैं पीए हूँ।’ कहने लगे, ‘हम को क्या पता था, कि आप पिये हुये हैं, हम नहीं आते साहब। माफ़ कर दीजिये, जा रहे हैं अपने घर।’ तो ये बिल्कुल बन्दर की आदत है। बिल्कुल बन्दर हो जाते हैं। और आपने पढ़ा ही होगा रामचरितमानस में भी। रामायण में भी वर्णन है, कि नारदमूनि को एक दिन इगो हो गया, तो कैसे बन्दर हो गये थे। अन्त में उनका इगो कैसे उतारा गया था। तो इगो ओरिएंटेड जब आदमी होता है, तो भगवान बचाये रखें। आपको अगर इस रास्ते से आता हो, तो आप दूसरे रास्ते से चले जाईये। क्योंकि वो तो घोड़े पे सवार होते हैं, उनको तो होश नहीं रहता। वो सोचते हैं कि हम से बढ़ के कोई नहीं दुनिया में। तो इस चीज़ की वजह से आदमी जो होता है आर्बिट्री हो जाता है। माने उसके देवता टूट गये, वो अकेला ही अपना दौड़ता है। मैं ये करूँगा, वो करूँगा, हिटलर इसका बड़ा अच्छा उदाहरण है। और बड़ा वो, उसको लगता है कि मुझसे बढ़ के अच्छाई कोई कर ही नहीं सकता। सब अच्छाई मैं ही करता हूँ। अगर मैंने ज्यूज (jews) खत्म कर दिया तो बड़ा भारी धर्म कार्य कर दिया। अगर मैंने सबको गैस चेंबर में मार डाला, इससे भी बड़ा मैंने धर्मकार्य किया। अगर मैंने जर्मन रेस को उठाना चाहा, तो बड़ा ही धर्मकार्य किया। उसकी समझ में नहीं आता है, वो अन्धा हो जाता है, आर्बिट्री हो जाता है। इसको आप कह सकते हैं कि मॅलिग्नंट (malignant) हो जाता है। माने वो कैन्सर का एक सेल हो जाता है। कैन्सर भी इसी तरह से हमारे अन्दर बनता है। कैन्सर हर समय हमारे अन्दर बनता है और टूटता है। जैसे कि ये मैंने आपसे दिखाया नां, अब कौन सी भी आपकी गति ज्यादा हो जाये, सिम्पथैटिक की, लेफ्ट या राइट, कोई सी भी ज्यादा गति हो जाये, तो उस गति के चलन वलन से देवता सो जाते हैं। उसके बाद आप अलग हो गये, चाहे जो करिये। अब वो सेल्स मैलिग्नंट हो गये। अगर अतिकर्मी आदमी होगा तो उसको कैन्सर की बीमारी हो सकती है। क्योंकि वो बहुत ज्यादा कार्य में लगा हुआ है। और कार्य करते वक्त में उसने देवता से संबंध नहीं रखा, छूट गया। जैसे ही छूट जायेगा, उसमें कैन्सर बढ़ सकता है। क्योंकि उसके सेल्स जो हैं, वो मैलिग्नंट हो गये, ऑन देअर ओन (on their own)।

इंग्लंड में तो हर एक आदमी, पाश्चिमात्य में हर एक आदमी ऑन देअर ओन है। ग्यारह साल का बच्चा भी ऑन देअर ओन है। बच्चा पैदा हुआ तो दूसरे कमरे में माँ-बाप पहले ही छोड़ देते हैं। कमरे में कुत्ते-बिल्ली सुलाते हैं, बच्चे को दूसरे कमरे में सुलाते हैं। कुत्ते-बिल्लिओं को ज्यादा प्यार करेंगे, बच्चे को कमती करेंगे। अजीब तरह की हालत है वहाँ। वहाँ सब लोग ऑन देअर ओन। हम लोग भी यही सोचते हैं की ऑन अवर ओन होना चाहिये। ये बहुत गलत कल्पना है बच्चों के मामले में। लोग सोचते हैं, बच्चों को खराब कर रहे हो, क्या इतना उनका दुलार। बच्चों को बहुत ज्यादा प्यार देना चाहिये। बच्चे को बहुत प्यार करना चाहिये। जो बच्चा माँ-बाप का प्यार पाता है, वो दुनिया में बहुत प्यारा होता है और उसको सब प्यार करते हैं। हाँ, उसको गंदी आदतें नहीं होनी चाहिये। एक साहब ऐसे थे, वो कहने लगे, ‘मेरा लड़का बारह साल का है। मैं बड़ा फ्री आदमी हूँ।’ मैंने कहा, ‘अच्छा, क्या किया आपने?’ कहने लगे, ‘उसको मैंने बीयर की बोतल दे दी। कहा, जा तेरे दोस्तों को बुला के ला, जो करना है कर। मैंने कहा, ‘वाह, भाई!’ उनको धर्म तो सिखाना ही होता है। क्योंकि जो धर्म बचपन में सिखाया जायेगा, उसका लेफ्ट साइड ठीक रहेगा, सुसंस्कार होंगे।

फ्रॉइड साहब का कहना है, कुछ मत सिखाओ। क्योंकि उन्होंने दूसरी साइड देखी नहीं। कुछ नहीं सिखाओ तो सिर्फ इगो बढ़ जायेगा। सुसंस्कार बच्चों को देने चाहिये, बड़़ों को बताना बेकार है। आज हमारे बच्चों को देखिये आप, इनके क्या संस्कार हैं। छोटे बच्चों के सुसंस्कार करना बहुत ही आवश्यक है। इसलिये बच्चों को अपने घर में रखें, उनको सुसंस्कृत करें। जो बच्चा बचपन में ठीक रहता है, उसको रियलाइजेशन भी जल्दी होता है। जिस बच्चे के माँ-बाप नहीं रहते वो आदमी ऊपर से कितना भी अच्छा दिखे, बड़ा ही यशस्वी भी दिखे, लेकिन आप उसके घर में जा के पूछिये, या तो उसके बच्चे, या तो उसकी बीवी बतायेगी, कि बड़े ही कड़क आदमी है। बड़ा ही अजीब तरह की दुष्टता है इसके अन्दर। इसलिये बच्चों को बहुत प्यार देना चाहिये। जिससे उनका इगो और सुपर इगो बना रहें। ठीक से बना रहें, जिससे उनको बैलन्स बना रहें।

इगोइस्टिकल पना, दूसरी ही चीज़ होती है जैसा मैंने कहा। अहं भाव कि मैं ही ये कर के दिखाऊंगा, मेरे ही हाथ से ये होगा। आपने विराट से अपने को अलग कर दिया। इसलिये मैं गवरमेंट सर्वंट से कह रही थी, कि भई, एक परमात्मा भी है, श्रीकृष्ण हैं, उनके हाथ में दे दो न, थोड़ा सा काम। वो इसको कर लेंगे, देखो कैसे करता है। ये बहुत मुश्किल है मनुष्य के लिये। या तो निठल्लू होंगे, और या तो वो अहंकारी होंगे। बीच में जब तक आप नहीं रहेंगे, तब तक ठीक नहीं होगा। इसका मतलब ये नहीं कि आप निठल्लू हो जाईये। जो मनुष्य परमात्मा का होता है, वो सब से ज्यादा काम करता है बाह्य में। जैसे आप हमें देखिये, तो आप कहेंगे, ‘माताजी, आप इतना करती हैं, इतनी मेहनत करती हैं, ये करती हैं। हमको समझ में नहीं आता किधर क्या कर रहें हैं? अगर सूर्य को देखिये तो एक-एक पत्ते में रंग बदलते रहता है। आप सूर्य को पूछियेगा, तो कहेंगे, सूरज ‘हमको तो मालूम नहीं। हम तो अकर्म में बैठे हैं। ये तो हमारे अन्दर से जा रहा है, अपने आप हो रहा है। घटित हो रहा है, हो रहा है। सब से ज्यादा कार्यान्वित होता है, सूर्य ही एक उदाहरण लीजिये। ये सूर्य नाड़ी की ही बात मैं कर रही हैूँ और सूर्य का उदाहरण दिया। यही बात श्रीकृष्ण ने हमें बतायी। श्रीकृष्ण ने हमसे यही बतायी है, गीता में, कि हमें अकर्म में उतरना चाहिये। अकर्म का मतलब होता है, कि आप अन्दर से तो इनअंक्टिव हैं, लेकिन बाहर से आप अॅक्टिव हैं। लेकिन गीता को समझने के लिये भी रियलाइजेशन चाहिये।

मैंने सुना है, बहुत लोग लेक्चर देते हैं। गीता पे पाँच सौ टीका लिख दी। लेकिन अभी तक कृष्ण को कोई नहीं समझा है। गीता बहुत पहले गीता बहुतहोशियारी से पढ़नी पड़ेगी। क्योंकि कृष्ण बहुत बड़े डिप्लोमॅट हैं। वो समझ गये कि इन्सान जो है सीधे हाथ नहीं आने वाला, टेढ़ी खीर है ये। इसको अगर सीधे मैं बताऊँ, तो मानने नहीं वाला। उसकी वजह ये, कि जब कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, ‘तू साक्षी हो जा।’ पहले उन्होंने कह दिया, उन्होने कोई बाद में नहीं कहा। पहले ही कहा कि परमात्मा को पाना, उनका ज्ञान प्राप्त करना यही परम है। पहले ही उन्होने कहा है, कि प्रबुद्ध हो जाओ, साक्षी हो जाओ। तो वो पूछते हैं, अब यही है, नासमझी। उन्होने ये पूछा कि, इधर तो आप कह रहे हैं कि परमात्मा को पा लो, साक्षी हो जाओ। और उधर आप कह रहे हैं, कि आप युद्ध में जाओ। ये दोनों चीज़ का मेल कैसे बैठने वाला है? युद्ध में जाओ, इधर परमात्मा को पा लो, साक्षी हो जाओ, ये तो कोई समझ में नहीं आयी बात। तो उन्होने आँक लिया, कि जो अर्जुन सब से ऊँचे इन्सानों में से थे उनकी ये हालत है। तो बाकिओं की क्या होगी? तो फिर उन्होंने गीता कही। अब इस में बड़ी भारी डिप्लोमसी है। वो मैं आपको समझाती हूँ। समझ लीजिये, एक बेटा बाहर बैठा हुआ है, गाड़ी हाँक रहा है और घोड़ा पीछे में है। तो पिता आयेंगे बाहर और उनसे कहेंगे कि, ‘बेटा, देखो, घोड़ा आगे कर लो, नहीं तो गाड़ी नहीं छूटेगी।’ वो कहेगा कि, ‘भई नहीं, मैं तो ऐसे ही चलाऊंगा। ये कैसे आप कह रहे हैं कि घोड़ा भी आगे करो और गाड़ी भी चलाओ। तो ये कैसे होगा? तो पिता ने समझ लिया, कि अभी इनकी खोपड़ी ठीक नहीं हुयी। तो कह दिया, अच्छा, ठीक है तुम इसी को पिटते रहो। लेकिन चित्त अपना घोड़े पे रखना। अब देखिये, कर्मवाद को जो लोग बोलते हैं, बहुत समझने की चीज़ है। बहुत बारीक चीज़ है, आप समझ लें। कर्म करते रहो, लेकिन फल परमात्मा पे रहो। ये बहत ही डिप्लोमॅटिक बात है, ये अॅबसर्ड ( absurd) कंडिशन (condition) है। डिप्लोमसी बेस्ट होती है जब आप अॅबसर्ड कंडिशन सामने रख दीजिये और आदमी इस चक्कर में आ जाये, हो ही नहीं सकता ये। जब तक आपके अन्दर इगो है, तब तक ये हो ही नहीं सकता, कि आप कर्म करते रहो और फल परमात्मा पर छोड़ो। हाँ, लोग कहेंगे कि, ‘माताजी, हम जो भी कार्य करते हैं, परमात्मा पे छोड़ते हैं’, झूठ बात है, हो ही नहीं सकता। क्योंकि आपके अन्दर में इगो अभी बना हुआ है, सुपर इगो भी बना हुआ है। आप कहे, ‘माताजी, मैंने किताब पढ़ी पर मेरे पे असर हुआ’, हो ही नहीं सकता। हाँ दो-चार का तो नहीं होगा, एक-दो का तो होगा ही। क्योंकि आपके अन्दर सुपर इगो बना है, इगो बना हुआ है। अब अॅबसर्ड कंडिशन डाल दी उन्होने। अब लोग कह रहें हैं, ‘हम सारा करम करते हैं, परमात्मा पे छोड़ें।’ और लोग कहते हैं कि, ‘इतने ये अहंकारी आदमी हैं, कि भगवान बचाये रखे उनसे।’ तो परमात्मा पे छोड़ना तभी घटित होता है, ये घटना है। जब कुण्डलिनी सहस्रार को छेद देती है, जब आप पार हो जाते हैं, उससे पहले नहीं होता। अब पार होने पर लोग कैसी बात करते हैं, आप देखें। माँ, जा रहा है, आ रहा है। ये हो रहे हैं, नहीं हो रहे हैं। इनका नहीं बन रहा है, कुण्डलिनी फँसी हुयी है। थर्ड पर्सन में बातचीत शुरू हो गयी। कोई ये नहीं कहता, मैं कर ये रहा हूँ। मैंने इनकी बीमारी ठीक कर दी। इनके चक्र में ठीक कर रहा हूँ, कोई नहीं कहता। इनका ये पकड़ा है, चक्र पकड़ा है, या खुल गया। थर्ड पर्सन में बात होती है, आप नोटीस करियेगा। आपका अपना बेटा होएगा अगर पार नहीं होगा, तो नहीं है पार। कोई नहीं कहेगा कि ये पार है। अपने यहाँ तो उल्टे वसूल हैं। अपना अगर बेटा है, तो उसको दुनियाभर का दे दो और दूसरे का बेटा चाहे मरे। इसमें अगर चाहे तो भी आप अपने बेटे को नहीं दे सकते। क्योंकि इसमें वैसी चाहत आने का मतलब ही समझ में आ जाता है ना, कि कुण्डलिनी जब नहीं उठती तो फिर क्या करें, बेटा होगा तो होगा अब हम क्या करें?

हम अमेरिका गये थे, हमारे साथ एक गये थे वहाँ, गुजराती। उनकी बीवी मुझे कहने लगी, ‘माताजी, मेरे लड़के को जरूर पार करा देना।’ मैंने कहा, ‘भाई ये क्या कह रहे हो तुम’? पार हो जायेगा तो हो जायेगा, नहीं हो जायेगा तो नहीं होगा। ये तो तुम जानती हो। नहीं पर करा देना माताजी, आपकी इच्छा होगी तो। मैंने कहा, ‘मेरी तो कोई इच्छा नहीं, तुम जानती हो। तुमही इच्छा करो, अगर हो गया तो हो गया, देखो।’ जब वहाँ पहुँचे तो वो साहबजादे पार नहीं हुये। वो बहुत दुःखी हो गयी, ‘माताजी, ये पार नहीं हुये।’ मैंने कहा , ‘बेटे, तुम ही सर्टिफिकेट दे दो कि पार हो गये। तुम तो खुद पार है। कहने लगा, ‘झूठा सर्टिफिकेट कैसे दूँ?’ मैंने कहा, ‘यही है, कि सहजयोग में आप झूठा सर्टिफिकेट नहीं दे सकते।’ चाहे आपका बेटा हो, वैसे लोग अपने बेटे को झूठा देते हैं। (..अष्पष्ट) झूठा बना कर के, अपने बेटे के लिये मार खजाना भरते रहते हैं। इसमें आप नहीं भर सकते हैं। इसमें बेटा-शेटा नहीं चलता, इसमें कोई रिश्ता नहीं चलता है। सिर्फ परमात्मा से रिश्ता चलता है। जिसका परमात्मा से रिश्ता है, वही पा सकता है और बाकी नहीं पा सकते। आपकी भी कोई पूर्वसंपदा होनी चाहिये। अगर आपके बेटे की कोई पूर्वसंपदा नहीं, कुछ नहीं हो सकता। आप छोड़ दीजिये उसे, बिल्कुल छोड़ दीजिये। जब वो आयेंगे तब होंगे। आप जबरदस्ती नहीं कर सकते, आप कोई फोर्स नहीं कर सकते। यही कर्मवाद की बात है, कि जब कृष्ण ने कहा कि, कर्म करो और फल छोड़ो तो वो हो ही नहीं सकता। ये अॅबसर्ड कंडिशन डाल दी। आप समझ पा रहे हैं इस बात को, जरा गहरी बात है। क्योंकि आज तक हम दूसरी बातें सुनते आये हैं, कि भाई, कर्म करो, परमात्मा पे छोड़ो। लगे भजन गाने सब लोग बैठ के। कर्म करो और फल परमात्मा पे छोड़ो, कैसे? तो परमात्मा ने यही कहा कि श्रीकृष्ण पितास्वरूप थे। चलो, चलने दो थोड़ी देर। छह हजार वर्ष पहले आप को पढ़ाया, आप अभी तक वही रट रहे हैं, वही रट रहे हैं। लेकिन हम माँ हैं, माँ कहती है बहुत हुआ। अब इनको असलियत बता दों, कि ये हो नहीं सकता, बेटे सामने ले आओ घोड़ा,। ये सब झूठी बातें हैं, छोड़ो इसको, क्या रखा है? क्योंकि मनुष्य झूठ पे पहले चलता है, ये मनुष्य की विशेषता है। सच पे कम चलता है।

अभी में दो सींग लगा कर के और बैंड बाजा लगा के, कुछ प्रोग्राम करू, तो बहत लोग आ जायेंगे। अगर कहा कि, यहाँ रुपया-पैसा नहीं लेते, तो बेकार ही होगा फिर। किसी काम का ही नहीं होगा, पैसा ही नहीं लेते वो माताजी। तो क्या देंगी, जब पैसा ही नहीं लेती। उनके पास है ही क्या? उनके पास कुछ नहीं तभी पैसा नहीं लेती, वो बिल्कुल सीधीसादी हैं। और उनकी शादी वादी हो गयी, बाल-बच्चे हैं। कोई संन्यास का कपड़ा नहीं पहनी, कुछ नहीं। तो वो क्या देंगी आपको? जब तक कोई झूठ आप लादिये नहीं, तब तक इन्सान उसको मानता नहीं। इसलिये कृष्ण ने कहा, कि कर्म का फल परमात्मा पर छोड़ो, वो हो ही नहीं सकता। वो सिर्फ पार होने पे होता है। फिर आप किसी चीज़़ का भी अपने ऊपर ना तो अपने ऊपर उपकार लेते हैं और ना ही कोई उसका आप हिसाब जोड़ते हैं। अब कोई कहें, कि ‘माताजी, आपने आज तक इतने लोगों को ठीक कर दिया।’ मैंने कहा, ‘भई, पता नहीं।’

आज ही एक देवीजी आ के मुझ से नाराज हुई। ‘क्या आपको पता ही नहीं कितने लोग आते हैं, कितने लोग जाते हैं? और कितने फॉरेनर्स आये, मैंने कहा, ‘आज भी मुझे पता नहीं है।’ अब क्या इसका हिसाब लिखती बैठी रहूँ, कि कितने लोगों को प्यार दिया, पता नहीं। आप लोग प्यार तो समझते हैं न! कि कितने बच्चों को निवाले खिलाये। सो, प्रेम का जब कार्य होता है, तब उसमें कोई भी उपकार नहीं पड़ता। कोई उपकार नहीं होता है। हम प्यार करते हैं, इसलिये कार्य कर रहे हैं। जो भी जिसे आप कार्य कहते हैं, हम तो प्यार ही कर रहे हैं। (..अष्पष्ट) हमारा मन कर रहा है प्यार करने को और आपको अगर कुछ उसमें लगता है कि आपको मिल रहा है तो हमारा ही लाभ है उसमें। जब विराट के आप अंग-प्रत्यंग हैं, अगर आप हमारे हाथ, उँगलियाँ ही हैं। तो अगर इस उँगली में चोट आयी, तो हमने इसे रगड़ा तो हमने किस पे उपकार किया। हमने तो अपने ही उपर उपकार किया है। इसमें रगड़ रहा है इसमें ठीक नहीं करें तो जायें कहाँ। तो इसमें उपकार का सवाल ही कहाँ आता है, कहे सब पे उपकार करो। ये इतनी भ्रामक कल्पनाये हैं मनुष्य के अन्दर में।

बहुत से फिलॉन्थ्रॉफिक इन्ट्यूशन्स (philanthropic institutions) बने हुये हैं। सब का विशुद्धि चक्र पकड़ता है, मिशन ये वो। तुम कौन होते हो भैय्या उपकार करने वाले? बिल्डींग बना दी, भूखों को खाना दे दिया। भई, तुम कौन होते हो? तुम तो एक बीज भी नहीं उगा सकते। पर अगर कोई आदमी से कहो, कि नहीं ऐसा कहो, कि ये हमने परमात्मा के लिये जो उन्होंने दिया वही हम कर रहे हैं। तो वो कहेंगे जरूर, लेकिन वो घटना जो होगी वो इगो ओरिएंटेड ही होगी। वो नहीं छूटता जब तक आप पार नहीं हो जाईयेगा। ये बात सही है, इसको मान लेना चाहिये। माने, आप सूक्ष्म में बैठा रहेगा इगो आपका, मतलब जड़ में भी बहुत होता है।

कोई साहब हैं वो अपनी किताब छपवाते हैं। उसमें अगर उनका नाम भी जरा सा मिसस्पेल हो जाये तो उनके बापदादे खड़े हो जायेंगे आप से लड़ाई करने के लिये। बहुत सी ऐसी चीजें मनुष्य ने बनायी हैं, जिससे आपका इगो खूब पैंपर हो। जैसे कि एक ‘हू इज हू’ (who is who) किताब है। उसमें आपको लिखेंगे साहब हम आपके बारे में छापने वाले हैं। लोग कहते हैं, ‘अहाहा, मैं क्या हो गया! फिर वो कहते हैं, कि हाँ लेकिन किताब की किमत सिर्फ १०० पौंड है, या ५० पौंड है। वो ५० पौंड आप भेज दीजिये आपको हम छपवा देंगे। वो सोचेगा, वाह-वाह वा, मेरा नाम ‘‘हू इज हू’ में छप गया। उन्होंने आपको बेवकूफ बनाया और आप अपनी इगो में फॅस गये, ये आपकी समझ में नहीं आया। इसी प्रकार सारा फिलॉन्थ्रॉफिक वर्क है। क्योंकि जिसने वो किया वो भी पकड़ में आ गया और जिसके लिये किया वो भी पकड़ में आ गया। अब आप कहिये, ‘क्या माताजी, सारे ही बंद कर दें फिलॉन्थ्रॉफिक वर्क?’ सभी सवाल लोग मुझसे पूछते हैं कि, ‘क्या सब बंद कर दें फिलॉन्थ्रॉफिक वर्क?’ मेरे से अगर पूछे तो बंद ही कर दीजिये। और सहजयोग में लगाईये, सब को पार कराईये अब। सारे फिलॉन्थ्रॉफिक छोड़ के सबको पार कराईये। आप बीमारियाँ ठीक करते हैं, खट् से इसमें बीमारी ठीक हो जायेगी। अभी यहाँ बैठे हैं, इनसे पूछ लीजिये। एक सेकंड में ठीक हो सकते हैं, सहजयोग में आने से। कोई सी भी बीमारी हो हम, कहते हैं कि, हर तरह की बीमारी सहजयोग में ठीक होती है। सिवाय दो-चार बीमारियाँ हमने देखी जो नहीं होती। अधिकतर बीमारियाँ इसमें ठीक हो जाती हैं। तो आप काहे की फिलॉन्थ्रॉफिक ले के आप बैठे हो। पर इसमें आप पैसा नहीं ले सकते, इसमें डॉक्टर लोग फिसल जायेंगें। आपको कोई मेंटल प्रॉब्लेम है, कोई आपको दिमागी जमाखर्च है, या हो सकता है कि आप वाकई में पागल हों, तो भी आप सहजयोग में आईये। आपका पागलपन ठीक होता है। पचासों पागल भी ठीक हो गये। आपको शांती नहीं है, आप परेशान हैं।

कल वो स्त्री आयी थीं आपको मालूम है आधे घंटे बैठी रहीं, वो कितने साल से सोये नहीं, एम.डी. हैं, वो एम.डी. हैं। अब इनको इतनी जोरों की नींद आयीं कि यहाँ से उठ नहीं पाई, वो कहे यही सो जाते हैं हम तो इतनी नींद आने लगी है। ये सब चीज़ सहजयोग में घटित हो सकती है। क्योंकि वो समय आ गया है कि ये सब चीज़ को आप प्राप्त करें। लेकिन अपने अन्दर ये इगो इकठ्ठा करने से कोई फायदा नहीं। हालांकि वो बाह्य से नहीं दिखायी देगा। कोई-कोई लोग ऐसे बड़े ही नम्र होते हैं, बाह्य से देखिये तो, लेकिन अन्दर उसका सटल (subtle) जो असर होता है, कि उनकी कुण्डलिनी जो है वो बार-बार टूटती है। उपर चढ़ाते हैं, फिर खिंचाती है,उपर चढ़ाते हैं, फिर खिंचाती है। और उसका प्रवाह जोर से नहीं चलता है। और जब आप अच्छे से पार हो जाये, हमारे यहाँ ऐसे लोग हैं आप जानते हैं, जिन्होंने हजार-हजार लोगों को ठीक किया है। हजार-हजार लोगों को, एक-एक आदमी को। सिर्फ यूँ ऐसे हाथ कर के, वाइब्रेशन्स दे के, चक्र ठीक कर के। तभी जो कृष्ण ने कहा था कि कर्म का फल परमात्मा पर छोड़ो, और नहीं तो कहाँ छोड़ो। हालत ही ये हो जाती है, और किस पे छोड़ियेगा आप? क्योंकि हम तो कर ही नहीं रहे हैं, हमारे अन्दर से बह रहा है। आप लोग भी क्या कहते हैं, हमारे अन्दर आ रहा है। आप ये तो नहीं कहते, कि माँ, हम अपने अन्दर ला रहे हैं। वो शब्द ही चले जाते हैं कि, मैं कर रहा हूँ। हो रहा है, घटित हो रहा है। चल रहा है, बन रहा है, नहीं बना। भक्ति में भी बहुत कृष्ण की कमाल है, इसको समझना चाहिये। खुश हो रहे हैं हालांकि हम बता रहे हैं आपको, सबके विशुद्धि चक्र खोल रहे हैं। (..अष्पष्ट) उन्होंने कहा, ‘पुष्पं, फलं, तोयं, जो भी कुछ है, हमें आप दे दीजिये,’ ठीक है। लेने देने के वक्त तो ठीक है, देने के वक्त ‘(..अष्पष्ट) । बहुत एक शब्द पे नचा के रखा है सब, वो शब्द आप लोग नहीं पकड़ पाये। अनन्य भक्ति करो, अनन्य, जब दूसरा कोई नहीं होता। जब तुम ही तुम हो जाते हो। माने रियलाइज्ड होते हो, तब भक्ति करो। अब इस शब्द पे पकड़ा।

लोग कहते हैं, हम अनन्य भक्ति कर रहे हैं। अरे भाई, ये अनन्य भक्ति कैसे? फिर रो क्यों रहे हो? कभी इनकी अनन्य भक्ति वाले, जो ये घिघिया के रोते हैं, ‘भगवान, कब मिलोगे?’ जो सेपरेशन के कवि हैं, वो क्या अनन्य भक्ति करेंगे। मुझे तो बड़ी घबराहट हो जाती है बाबा इन लोगों से। इतने रोते हैं कि, मानो जैसे आँख निकाल के, उसे धो के निकाल के फैंक देंगे। इतने घिघियाने की क्या जरूरत है, अनन्य भक्ति करो। जब अनन्य में उतरो, तब भक्ति करो। तो फिर कबीर की वाणी होएगी, नानक की बाणी होएगी। तब ईसामसीह जैसे लोगों की बातचीत होगी। ये लोग ऑथॉरिटी से बात करते हैं, दुविधा नहीं रहती इनमें। पूरी ऑथोरिटी के साथ में, कि ये होगा, वो होगा। ऐसे होना चाहिये, लेकिन कबीर को कोई नहीं मानते। विशेष कर हमारे हिंदी के जो कवी हैं, जो कि रोना ही पसंद करते हैं। वो सूरदास और कबीर का वर्णन दोनों में कम्पॅरिजन करके कहते हैं, कि इनकी (..अष्पष्ट सदूकड़ि) भाषा है, और सूरदास जो हैं वो बहुत ही ज्यादा मधुर हैं। मैं तो कहूँ बहुत रोने हैं उन्होंने ही खुद लिखा है, सूरसागर लिखने के बाद, ‘सूरदास की सभी अविद्या दूर करो नंदलाल।’ उन्होंने कन्फेशन दे दिया, कि अभी अविद्या में बैठे हैं। लेकिन हम क्योंकि विरह में हैं, हमें विरह वाले कविता अच्छी लगती हैI जब आप विरह से उठ जाते हैं तब आपको विरह वाले लोग बिल्कुल नहीं अच्छे लगते। लगता है, कि ये क्या रो रहे हैं बाबा, सुबह से शाम तक। जैसे कोई शादीशुदा, अभी नयी शादी हो गयी हो। और उनके कोई पड़ोस में मर जाये तो कैसा बुरा लगता है। कहाँ से मनहूसियत आ गयी, वैसा ही लगता है। फिर आदमी को मजा आता है झेन पढ़ने में, खलील जिब्रान को पढ़िये आप। पार होने के बाद खलील जिब्रान को पढ़िये आप। सारा सहजयोग है खलील जिब्रान। झेन को पढ़िये, झेन तो पूरा ही सहजयोग है। फिर आप की रुचियाँ बदल जाती हैं, साहब आप की प्रायॉरिटिज (priorities)बदल जाती हैं। आप एक दूसरे तरह से दुनिया को देखने लगते हैं।

पहले आप मांगते हैं, फिर आप देते हैं। (..अष्पष्ट) अभी आप माँग रहे हैं, दूसरे हाथ से दीजिये। ये जब घटना घटित होती है, तभी आप साक्षी हो जाते हैं। इसे श्रीकृष्ण ने कहा हुआ है, कि आप को साक्षी हो जाना चाहिये। श्रीकृष्ण को संपूर्ण अवतार इसलिये मानते हैं क्योंकि उनके लिए ये सारी सृष्टि एक लीलामात्र है। रामचंद्र जी ने भी सारा नाटक ही खेला था। पर वो इतना बढ़िया नाटक खेला कि ऐसा प्रतीत होता है, कि वो साक्षी नहीं थे। इसलिये उनको मर्यादा पुरूषोत्तम ही कहा गया है। लेकिन ये नाटक है पूरी तरह से, श्रीकृष्ण ने सिद्ध कर दिया। इसलिये श्रीकृष्ण को पूर्ण अवतार मानते हैं, कि वो पूर्ण अवतार हैं। उनके लिये सारी सृष्टि सब लीला ही है।

सहजयोग के बाद आप भी साक्षी स्वरूप हो जाते हैं। अब देखते हैं वाह अच्छा नाटक चल रहा है साहब। क्योंकि आप हैं, ना तो आगा सोचते हैं ना पीछा। आप देख रहे हैं, चलने दीजिये नाटक, स्थिर बुद्धि होके आप देखने लग जाते हैं। आप नाराज भी हो तो भी आप अन्दर नाराज नहीं रहते। अन्दर से आप देखते रहते हैं, कि हम कैसे नाटक खेल रहे हैं, नाराज होने का। कृष्ण का संहार भी वैसा ही है, सारा ही लीलामय। संहार भी करना ही पड़ता है। बहुत से लोग हैं अहिंसा करते हैं, कि मच्छर को भी न मारो, खटमल को भी न मारो। ऐसे भी लोग हैं दुनिया में आपको नहीं मालूम। एक ब्राह्मण को पकड़ के ले लायेंगे, उसको एक झोपड़ी में रखेंगे, और उसमे सब खटमल छोड़ देंगे। और खटमल उसका ये खा लें और कहेंगे वाह, हमने कितना हिंसा का महत् कार्य किया। अब ये बताईये, कि रियलाइजेशन क्या खटम लों को देना है या मच्छरों को देना है? इनको बचा के क्या करने वाले हैं आप? अहिंसा सिर्फ मनुष्य की होती है। जानवर की अहिंसा का कोई अर्थ मुझे आज तक समझ में ही नहीं आया। हाँ, कोई-कोई जानवर खाने से नुकसान होता है इसलिए वो नहीं खाइये, वो दूसरी बात है। पर जानवर को मार देने से वो तो उत्क्रान्ति के पथ पर आ जाता है, जिसे की हलाल कहते हैं। अब बैठ के कोई मारते रहे, तो वो तो हिंसा की चीज़ है। वो तो आप किसी भी चीज़ को मारे, आपके अन्दर हिंसा है, उसे आप निकाल रहे हैं। वो बात दूसरी हुई, लेकिन कोई हिंसा के लिये नहीं जानवर को मारते हैं। एक आदमी दूसरे आदमी से जब कटुता व्यवहार करता है, तो वो कम से कम सौ गैय्या खा लेता है, ये समझ लीजिये। अब गाय है, गाय के प्रति हमारी इतनी श्रद्धा है, क्यों? गाय के प्रति हमारी इतनी श्रद्धा क्यों है? कोई खास जानता नहीं है इस बात को, ये बहुत ऊँची बात है। क्योंकि गाय, आदिशक्ति का अवतरण एक बार सुरभि के रूप में हुआ था, गाय के। उस बात की याददाश्त के लिये हम सब गायों को मानते हैं। क्योंकि उन्होंने एक बार इस में अवतरण लिया हुआ था। सुरभि का नाम शायद आप लोगों ने सुना नहीं होगा। हम तो बहुत मॉडर्न हैं, हम तो बहुत एन्शिएंट आदमी हैं। सुरभि नाम की एक गाय थी। उसने सब से प्रथम तैंतीस करोड़ देवता अपने अन्दर बिठा कर आदिशक्ति का अवतरण गाय स्वरूप में हुआ था। इसलिये हम गाय को देवता मानते हैं, अब भी।

दूसरी बात ये है कि भारतवर्ष की गायें घरों में बँधी रहती हैं, उसी का दूध हम पीते हैं। रोज माँ के जैसे उन्हें देखते हैं, इसलिये हम मानते हैं। पर इंग्लंड की गाय बिल्कुल भैंस जैसी दिखती है, बिल्कुल भैंस। उसको किसी भी प्रकार से आप गाय नहीं कह सकते। मेरे बच्चे आये थे तो मुझे कहने लगे, ‘नानी, यहाँ की जो भैंसे हैं, ये सफ़ेद कैसी हैं? हिन्दुस्तान की गाय एक विशेष चीज़ है। क्योंकि सुरभि का इस संसार में आने की वजह से उन सब में ही वो देवत्व आया हुआ है। इसलिये हमारे यहाँ गाय बहुत पूजनीय है। और यहाँ की गाय का रूप ही बड़ा सौम्य होता है और सुंदर होता है। इसलिये हम गाय का (..अष्पष्ट...) वज्ज्य मानते हैं। वो हिन्दुस्तान और भारत के लिये ही सीमित है, ये बात आप जान लीजिये। इस तरह की अहिंसा आप मत चलाईये, लोग भूखे मर जायेंगे। ग्रीनलैंड में, जहाँ कि, कहने को तो ग्रीनलैंड है और एक भी ग्रीन पत्ता उन्होंने नहीं देखा, बेचारों ने। वहाँ से एक मेरे शिष्य आये थे, आई थीं देवी जी। वो मुझ से कहने लगे, ‘माँ, लोग कहते हैं कि तुम लोग तो वेजिटेरियन हो। हमारे यहाँ तो वेजिटेबल ग्रो ही नहीं होता। तो भगवान ने हमको ऐसे कर्सड (cursed) जगह क्यों तुम भेज दिया? मैंने कहा, ‘उसमें कोई हर्ज़ नहीं। ये सब कल्पनायें हमारे अन्दर इतनी जटिल हो गयी हैं, इससे बचना चाहिये। इससे हम सारे मुसलमानों को काट देंगे, सभी ईसाईयों को काट देंगे। बहुत से हिन्दुओं को काट देंगे। जपानियों को काट देंगे, रशियन्स को काट देंगे। सब को काट के सिवाय थोड़े से बम्मन, वो भी चोरी-छुपे खाते होंगे। इसके सिवाय और कोई नहीं...(..अष्पष्ट...) ... गया, ये गलत बात है। हाँ, शराब जरूर, शराब बिल्कुल गलत चीज़ है। जैन लोग हैं मच्छर को नहीं मारेंगे, और शराब पीते हैं। शराब जरूरी चीज़ है। और आज कल तो, आप जानते हैं, पूना में एक दुष्ट राक्षस जैसे बैठे हुये हैं। जिनके पास बहुत से अंग्रेज लोग जाते हैं। इनको मैंने भेजा था, इनमें से एक लेखिका हैं, हमारे साथ आयी थी, ‘जा के देख के आओ से क्या करते हैं?’ ये बता रही थीं, कि बेचारों का हाल खराब है। एक तो सबको वहाँ सब्जी खाने को देते हैं, जबरदस्ती। अब ये लोग सब नॉनवेज खाने वाले लोग हैं, तो वैसे ही भूखे मरते हैं। उसमें वो कहते हैं, कि नमक नहीं डालो और फिर उबला हुआ खाना दो। तो कहने लगी, कि सब ऐसे दुबले-पतले हो गये। हालत खराब, लतर पतर। और नौ-नौ घंटा हर एक से वो काम लेता है वो आदमी। एक आदमी है वो सब्जी ही काटते रहता है। उसका हाथ तक छील गया, नौ घंटे। अब जब वो आदमी बिल्कुल ही कृश हो गया और उसकी बिल्कुल ही दशा खराब हो गयी , तब उसमें भूत भर दो लो, खतम। वो अपने गले में माला डाले, वस्त्र पहने, घूमा करता है, और उसका सारा पैसा खींच लिया। बड़ी बड़ी औरतों को बेवकूफ़ बनाया है ये कर के(..अष्पष्ट )। और ये बड़े-बड़े लोग करते हैं। मैं आपको सब की पोलपट्टियाँ बताऊंगी, एक दिन। उस पर भी एक दिन लेक्चर करना चाहिये। कि ये लोग जो अपने को बड़े भारी धर्मात्मा समझते हैं। अब लामा लोग आप सोचते हैं, बड़े धर्मात्मा हैं। मुझे आज तक एक नहीं मिला। धर्मात्मापना जो, ये अन्दर की चीज़ होती है। इसमें इस तरह से लोग कठोरता करते हैं, इतनी कठोरता करते हैं। कि मनुष्य के साथ इतनी कठोरता, और जानवर के साथ इतना ज्यादा प्रेम। एक मनुष्य जो है, हजारों योनियों में से गुजर के मनुष्य बनता है। उसके अन्दर इतने चक्र बनते हैं। उसके पाँव के धूल के बराबर भी ये हजारों जानवर नहीं होते, इतनी बड़ी ये चीज़ है। उसको तो आप दुःख देने में, तकलीफ़ देने में, उसके साथ में परेशानी करने में, जरा सा भी आपको समय नहीं लगता है। और मच्छरों की आपको फिकर है और खटमलों की आपको फिकर है। मुँह पर पट्टियाँ बाँध के लोग घूमते हैं, बेवकूफ़ कहीं के। अपनी जिंदगी बर्बाद, दूसरों की जिंदगी बर्बाद। ये करने की क्या जरूरत है। हाँ, लेकिन अगर आपको कोई चीज़ खाना पसंद नहीं है, आप उसको नहीं पसंद करते, नहीं खाईये। आपको जो चीज़़ पसंद है, वो खाईये। जो आपको सूट करता है प्रकृति को, वो खाईये। वो दूसरी बात है, लेकिन इसकी इतनी ज्यादा जबरदस्ती लोगों पे करना कि उनका खाना – पीना हराम हो जायें। वो भूखे मरें, ये कौनसी शराफ़त हैं। मैं कहती हूँ, ये एक तरह का अँग्रेशन (aggression) ही है। हाँ, आपको पसन्द नहीं है, आप नहीं खाईये। वो दूसरी बात है, लेकिन जबरदस्ती आप किसी के पीछे पड़े रहें।

सब का डिस्क्रिमिनेशन (discrimination) का पॉइंट (point) होता है। और ये आपको विशुद्धि चक्र से पता चलता है, ‘नीरक्षीरविवेके तु।’ संस्कृत में एक श्लोक है, कि नीर, क्षीर का विवेक जब होता है, जब पानी और दूध का फर्क आता है तब हंस जो होता है, वो सिर्फ दूध पी लेता है। और जो बक: होता है, बगला होता है, उसकी समझ में नहीं आता है, वो दूध भी पीता है, पानी भी पीता है, उसको समझ में नहीं आता। तो ‘नीरक्षीरविवेके तु हंसो हंस:, बको बक:। नीर क्षीर विवेक होना चाहिये। आप कोई चीज़ का एकदम (..अष्पष्ट) बना देना चाहिये। बुद्धि से आप समझ सकते हैं, थोड़ा नीर-क्षीर करें। और सब से बड़ी चीज़ है दया, आपस में, मनुष्य में दया होनी चाहिये। दयालुता मनुष्य पे पहले करिये न! और दया करने में भी लोग उपकार समझते हैं। अगर कोई मोटर में एक बार लिफ्ट दे दे, तो सोचता है मेरा गुलाम हो गया। दयालुता जो है ये भी बड़ा अन्दर का गुण है। मैंने आपसे कल बताया था, कि जब आदमी जागृत होता है, तो उसमें दया आ ही जाती है। जैसे कि जब फूल खिल जाता है, तो उसमें से सुगंध और सुरभि बहने लग जाती है और सारा वातावरण सुरभित हो जाता है। इसी प्रकार जब आदमी जागृत हो जाता है, प्रबुद्ध हो जाता है, उसके लिये कसम खाने की जरूरत नहीं। आप यहाँ कस्तुरी रख दें, तो कोई कसम खाने की जरूरत थोड़ी है, कि यहाँ कस्तुरी रखी है। आप खूद ही समझेंगे, कि हाँ, यहाँ कस्तुरी है। पर किसी की नाक बंद हो तो उसे क्या किया जाये! नाक भी बहुत बंद हो गयी आज कल लोगों की। तो भी आज तक मनुष्य उतना नहीं गिरा है, कि सच्चाई को नहीं पहचानें। थोड़ी देर चक्कर काटता है, फिर सच्चाई पे आ ही जाता है। ये भी श्रीकृष्ण का ही वरदान है।

सारा डिस्क्रिमिनेशन जो है, वो श्रीकृष्ण के ही चक्र से होता है और उन्होंने वो चक्र अपना बढ़ा के यहाँ रखा है। अब इस चक्र का कोई नाम नहीं दे सकते। क्योंकि श्रीकृष्ण का ही यहाँ पर गुजरा हुआ, उनके हाथ ही समझ लीजिये यहाँ पर पहुँचे हये हैं, हंसा इसे लोग कहते हैं लेकिन ये चक्र होता है।, ये चक्र जब खराब हो जाता है तो आदमी में डिस्क्रिमिनेशन नहीं रहता है। वो उसी का सब चक्र है जो श्रीकृष्ण है। तो वो विराट हैं, और वो लीलामय हैं। वो लीला करते हैं, और हम उनके अंग-प्रत्यंग हैं। जब हम जागृत होते हैं, तब हम उनसे एकाकार होते हैं। और तब वो हमें कार्यान्वित करते हैं। उन्हीं को मोहम्मद साहब ने अकबर कहा है। इसलिये यहाँ का मंत्र, एक बहुत सुन्दर मंत्र ये है, कि दोनों उंगलियाँ कान में ड्राल के ऊपर हाथ कर के ‘अल्लाह हो अकबर’ कहें। जिस-जिस का ये चक्र पकड़ा हो वो उसका एकदम खुल जायेगा। पूना में बहुत (..अष्पष्ट) लोग से करवाया मैंने। ये उँगली श्रीकृष्ण की है, इसी से उन्होंने गोवर्धन पर्वत पकड़ लिया था। इसी उँगली पर वो अपना सुदर्शन घुमाते हैं। श्रीकृष्ण के बारे में इतनी मिथस (myths) हैं, और इतनी उनके बारे में इतनी गलतफहमियाँ हैं। उसमें से कुछ मैं चाहुंगी कि आपके सामने बयाँन करूँ। क्योंकि आज उनका ही थोड़ा सा उद्घाटन हुआ है। एक तो सब से पहले ये कि सोलह हजार उनकी पत्नियाँ थीं। इस पर बहुत ज्यादा लोगों को ऑब्जेक्शन (objection) है। वो तो योगेश्वर श्रीकृष्ण थे, योगेश्वर थे।

आपको तो किस्सा पता होगा कि एक ऋषि के पास कुछ औरतें जा रही थीं, उनकी पत्नियाँ, पाँच पत्नियाँ थीं। वो उनकी पाँच, पंचमहाभूत। तो नदी चढ़ आयी तो वो क्रॉस (cross) नहीं कर पा रही थीं। कृष्ण से कहा कि, ‘हम उस पार कैसे जायें?’ तब उन्होंने कहा कि, ‘उसमें क्या मुश्किल है? आप नदी, तापी नदी से कहिये कि, ‘आप कृष्ण अगर योगेश्वर हों, और उन्होंने किसी भी स्त्री का संग न किया हो, तो आप नीचे उतर जाईये’, तो नदी नीचे उतर गयी। लोगों ने कहा, देखिये, झूठ बोलने की भी हद होती है। ये हमारे पति हैं, और ये क्या कहती, और उस पार चली गयी। ऋषि जी का उन्होंने बड़ा भारी सत्कार किया, उनको खाना पीना खिला दिया। खूब खाया ऋषिजी ने बैठ कर के। जब लौट के आयीं तो उन्होंने देखा कि नदी फिर चढ़ गयी। तो जा कर उन्होंने ऋषि जी से पूछा कि, अब क्या करें? नदी फिर चढ़ गयी। इस नदी को कैसे उतारें?’ तो कहने लगे कि, ‘तुम आयी कैसे? तो कहने लगी कि, ‘उन्होंने, कृष्ण ने ये कहा, कि तुम नदी से जा कर कहो, कि अगर कृष्ण संपूर्ण योगेश्वर हों, साक्षात् योगेश्वर हों, तो तुम उतर जाओ। तो वो उतर गयी। समझ में तो आया नहीं हमारे। कहने लगे, अच्छा, तुम नदी से जा के कहो, कि अगर हमने खाने का एक इतना सा अन्न भी ग्रहण किया हो, एक कण भी ग्रहण किया हो, तो तुम कह दो कि उन्होंने एक भी अन्न का कण ग्रहण नहीं किया, उतर जायेगी नदी। इन्होंने जा के कहा कि, ये ऋषि ने कोई भी हमारे अन्न का कोई भी कण भी नहीं ग्रहण किया। तो नदी उतर गयी। उनको कुछ समझ में आया नहीं। सब खा गये और ऊपर से ग्रहण ही नहीं किया। और इनकी हम पत्नियाँ, सोलह हजार वो थीं, पाँच ये हम हैं और उनसे कोई संग ही नहीं हुआ। ये कैसे क्या, योगेश्वर हैं। समझने की बात है, कि सोलह हजार श्रीकृष्ण की शक्तियाँ हैं। हम लोगों के सब के विशुद्धि चक्र में सोलह हजार नाड़ियाँ कार्यान्वित हैं, सोलह हजार। सोलह उनकी पंखुड़ियाँ हैं, आप जानते हैं कि उनको सोलह कला कहते हैं। विशुद्धि चक्र में सोलह कला हैं, उसी तरह से जो यहाँ का प्लेक्सस (plexus) है, इसे सर्वायकल प्लेक्सस (cervical plexus) कहते हैं, उसके भी सोलह हैं सब-प्लेक्सस (sub- plexus) हैं। जैसे कि हमारे, सटल में हैं, वैसे हमारे ग्रोस में हैं, जैसे हमारे सूक्ष्म में हैं, वैसे हमारे जड़ में भी। और इनकी एक-एक कला की एक-एक हजार, क्योंकि हमारे सर में जो सहस्रार है उसकी हज़ार नाड़ियाँ हैं और एक-एक नाड़ी में कृष्ण की सोलह-सोलह नाड़ियाँ दौड़ती हैं। तो सोलह हज़ार उनकी नाड़ियाँ हमारे अन्दर यहाँ पर हैं। ये चक्र कितना महत्त्वपूर्ण हैं आप समझ लें। इससे हमारे नाक, आँख का बाहरी हिस्सा, मुँह, कंठ, दाँत, जिह्वा (स्किन) skin सब कुछ इसी से कार्यान्वित हैं, Forehead भी। इसके अलावा इगो और सुपर इगो भी इसी से कंट्रोल होते हैं। ये इतना महत्त्वपूर्ण है, सोलह हजार नाडियों वाला, और श्रीकृष्ण को धूमिल कहा गया है। धूमिल दिखायी देते हैं, इसलिये लोग उनको कहते हैं काले, श्रीकृष्ण धुमिल कलर के। नीला, धुमिल कलर है उनका। और उनको धुँआ बिल्कुल पसंद नहीं, सिगरेट का। तम्बाकू उनके बस की नहीं। अगर आपने तम्बाकू खायी तो आपका ये गया, खायी तो और पेट गया। कुछ नहीं माताजी, पान में थोड़ी सी मैं तम्बाकू खाता हूँ, वैसे तो मैंने सब त्याग दिया।

एक साहब आये, बहुत अच्छे सहजयोगी हैं, बड़े शरीफ आदमी हैं। मैंने कहा, ‘नहीं- नहीं, ये छोड़ो तम्बाकू, ठीक नहीं है, उससे तकलीफ़ हो जायेगी’। उन्होंने तो भी कुछ उसको सिरीअसली (seriously) नहीं लिया। फिर एक दिन आये, मुझ से कहने लगे, ‘माताजी, बड़ी गड़बड़ हो रही है।’ मैंने कहा, ‘क्या हुआ बेटा’? कहने लगे कि जब मैं ध्यान में बैठता हूँ न, तो मुझे ऐसा लगता है, कि हनुमान जी का मुँह मेरे अन्दर बना जा रहा है इतना बड़ा, बड़ा, बड़ा, बड़ा। और फिर छोटा हो जाता है। फिर मैं ध्यान में बैठता हूँ तो ऐसा लगता है कि मुँह ऐसा होते जा रहा है। फिर मैं ध्यान में बैठता हूँ, तो मुँह ऐसा-ऐसा टेढ़ा-टेढ़ा होता है। मैंने कहा , ‘तुम झूठ बोलते हो न, तुम तम्बाकू खाते हो कि नहीं’। तो कहने लगे, ‘हाँ, मैं खाता हूँ।’ मैंने कहा, ‘कान पकड़ो आज से। अगर तुमने फिर से तम्बाकू खायी है, तो फिर से तुम हनुमान जी बन जाओगे। तुम्हारा मुँह बिल्कुल हनुमान जी जैसे हो जायेगा। बेचारे बहुत सीदे सरल आदमी हैं। हालांकि उन्होंने हजारों लोगों को पार किया, बाद में। बहुत बड़े आदमी हैं वैसे! लेकिन एक ये तम्बाकू पे अटके थे देखिये, ये मनुष्य की हालत होती है। छोड़ दी उन्होने तम्बाकू, गयी।

अब ये तम्बाकू चीज़ जो है ये बहुत ही खराब चीज़ है, ये इनसेक्टिसाइड है। जो इनसेक्ट्स को मारता है, वो हमारे सेलस को भी तो मार ही डालेगा। और ये इतनी गंदी चीज़ है कि इसको खाने को किसने बताया था आपसे। पता नहीं कहाँ से समझ गये कि इसको खाने का है। आदमी पता नहीं क्या-क्या खाते रहता है? वो ये क्यों नहीं सोचता है कि ये कहीं ये लिखा है, कि तम्बाकू खाओ! तम्बाकू खा-खा कर के जो हालत आपने अपनी कर ली है। तो कुण्डलिनी तो उठती नहीं है, उलटे आपको दुनियाभर की बीमारियाँ हो जाती हैं। फिर सिगरेट, ये भी एक चक्कर है। इंग्लंड में अब ये हालत हो गयी है कि लोग लिख देते हैं, कि भई ये सिगरेट पीने से, पॉइजन (poison) है, आपको कैन्सर हो सकता है, लिख देते हैं। तो भी लोग पीते हैं, उसमें चोरी छिपे। कोई भी लंडन आयेगा तो हमसे कहेगा भई कि, ‘यहाँ की बढ़िया वाली जरा हमें सिगरेट दे दीजिये जिससे हमारी तबियत खुश हो जायेगी।’ मैं तो देखती ही रहती हूँ, बड़े-बड़े लोग, बड़े-बड़े अफ़सर। बहुत बड़े जो आपके बहुत बड़े-बड़े अफ़सर माने जाते हैं, वो लोग भी। एक तो उनको विस्की चाहिये और एक उनको सिगरेट चाहिये। ये लोग क्या अफ़सरी करेंगे और ये क्या जन का कल्याण करेंगे? मेरी कुछ समझ में आता नहीं। ये तो इनसेक्टिसाइड ( insecticide) है, इसको खाना और उसको पीना किसने बताया आपको भाई? मैं बहुत से पूछती हूँ कि कौन से शास्त्र में लिखा है? ये बात आपको आश्चर्य होगा, कि ये गुरु तत्त्व के विरोध में बहुत बैठती है तम्बाकू। इससे पहले तो विशुद्धि चक्र पकड़ता है, ये मैं मानती हूँ, पर बाद में नाभि के पास में ऐसा मैल बैठ जाता है। सिगरेट में जो कैन्सर होता है, मैं तो कहती हूँ कभी-कभी कि इसके आपको फिल्मस बना के लोगों को दिखानी चाहिये। तो पहले तो वो आपकी यहाँ से नली काट देते हैं, या तो यहाँ छेद करते हैं। फिर धीरे-धीरे पेट की चीज़े निकलती जाती हैं,और इसका कैन्सर इतना बढ़ता है। क्योंकि विराट में, आप सोचिये कि जो उसका मुख्य स्थान है विशुद्धि चक्र वही जब पकड़ गया, तो सारे शरीर में वो ऐसा खौलता है। और ये धुँआ जो है लंग्ज में ऐसे भर जाता है कि कुछ पूछिये मत, बहुत ही डेंजरस चीज़ है। इससे अच्छा तो जहर खा के एक बार मर जाईये। अगर आपको इतना ही मरने का शौक है। लेकिन ये ऐसे कट-कट के जो आप मर रहे हैं, ये क्यों मरते हैं बाबा! लेकिन कहने से नहीं होगा ये भी मैं जानती हूँ। ये तो छूटना पड़ता है, वो भी सहजयोग में ही घटित होगा। वो भी सहजयोग का ही एक कार्य है।

हमारे यहाँ मैंने बताया कि जो विदेश के लोग बैठे हैं, इनमें से कुछ-कुछ तो ड्रग्ज (drugs) तक बहुत लेते हैं। क्योंकि इनके यहाँ सब चीज़ रिलेटिव चलती है, कि शराब से ड्रग अच्छा, तो ड्रग लो। पर शराब इतनी गंदी चीज़ है, उसको ही क्यों नहीं छोड़ देते। मैंने कहा, रिलेटिव मामले में है ड्रग के। और सिगरेट तो वो सोचते हैं, कि बहुत ही सीधी चीज़ है। लेकिन ये इतनी घातक चीज़ है सिगरेट। और दूसरा ये कि इसलिये घातक है, कि कम से कम शराब पीने के लिये आपको बोतल खोलनी पड़ेगी। उसके वो कुछ ग्लास वलास लगेंगे। लंडन में तो आप देखेंगे, कि उसका स्पेशल ग्लास। वो भी एक उन लोगों ने बनाया हुआ है एक ट्रिक, कि आपको बरँडी पीना है तो ऐसे पिओ, वो पीना है तो ये पीओ। जिससे उनके क्रिस्टल बेचे जायें यहाँ पर। हर एक का अलग-अलग है। शराब भी पीने के लिये भी तरह-तरह की चीज़। उसका भी बड़ा, फ्रेंच में बड़ा शास्त्र है। अब बहुत उसको ऐसा बताया है कि अहाहा, जैसे इस से बढ़ के सायन्स मनुष्य ने कोई बनाया ही नहीं। इतनी बड़ी-बड़ी किताबें लिखी हैं। और नाम भी ऐसे-ऐसे रखे हुए हैं, भगवान बचाये रखे। और फिर उसके एक तरीके से पूछना। और बातचीत करना कि साहब, आप क्या पीजियेगा? और ऐसे नखरे से, समझ में नहीं आता मेरे जैसे इन्सान को।

लंडन में एक प्रथा है हाथ मिलाने की, वो ठीक है। मैं तो उसमें जागृति देती हूँ, जाते वक्त तो ठीक रहते हैं। जब रिसेप्शन में खड़े रहिये, पाँच सौ - पाँच सौ आदमी मेरी तो जड़े ही तोड़ डालते हैं। वो तक तो ठीक है, लेकिन जब पी के आते हैं तो भगवान ही बचायें रखें। आप किसी से भी बात वहाँ पियाये बगैर नहीं कर सकते। क्या तमाशा है! और ये सिगरेट। अगर आपको किसी से बात करनी है तो सिगरेट ऑफर करिये। नहीं तो बात ही नहीं, देअर इज नो कम्यूनिकेशन (there is no communication)। जब तक आप जहर किसी को न दीजिये, मनुष्य का मनुष्य से कम्यूनिकेशन होता नहीं। क्या अकल है साब इन्सान की। मेरे जैसे इन्सान को नहीं समझ में आती ये बात। फिर औरतों का सिगरेट पीना, और भी कमाल है। साड़ी पहनेंगे बिल्कुल, नाक में नथनी भी लगायेंगे। आज कल वो भी चल रहा है, और ऊपर से सिगरेट। कैसा मेल बिठाये कुछ समझ में नहीं आता है कि अपनी संस्कृति में कभी औरतें सिगरेट पीती थी क्या? हाँ, कहने लगे, ‘नेपाल में वो देहात में लौट के पीती हैं।’ अब क्या वो होने जा रहे हैं क्या? आप क्या अब जंगली होने जा रहे हैं? कहने लगे वो आदिवासी हैं। अब क्या आदिवासी होने वाले हैं आप लोग क्या? क्योंकि आदिवासी ऐसे करते हैं तो तब आप आदिवासी हो जाईये। वहाँ बहुत से लोग, इंग्लंड में तो खासकर हैं। अब हम प्रिमिटिव होना चाहते हैं। हमने कहा प्रिमिटिव हो ही नहीं सकते, अशक्य है। क्योंकि आपका दिमाग ही प्रिमिटिव हो नहीं सकता। तो आप भूत होंगे, प्रिमिटिव नहीं होंगे। भूत जैसे बाल बड़ा लिये खूब, ऐसे एकदम। उन पे भूत ही बैठेंगे कि नहीं, बताईये आप। भूत देखते रहते हैं, हमारे जैसे कौन घूमता है। उनको ही पकड़ेंगे भूत। अरे भाई, कायदे से कपड़े पहन के जाओ तो भूत भी भागेगा। आप अगर शराबी होंगे तो आपके ऊपर एक शराबी आ के बैठे जायेगा। और आप इतनी शराब पियेंगे कि आपको पता नहीं। आप अगर स्मोकिंग करते हो तो सिगार पीने वाला आ जायेगा। हाँ, आपको पता नहीं, ये भी होता है। अब जब सिगार पीने वाला आपको सिगार नहीं मिली, तो आप खतम्। कुछ मजा ही नहीं आने वाला जिंदगी का। सारी जिंदगी आप रोते रहेंगे कि हमें सिगार ही नहीं मिली। सिगार पे आपकी सारी जिंदगी है। कि कितनी डेंजरस चीज़ है इसको आप समझ लें। शराब पहले अंग्रेज इतना सा पीता था। तिसरे जनरेशन में सब लोग पब में मरेंगे। अपने देश में भी ये बहुत ही डेंजरस चीज़ है। एक बार किसी के चढ़ जायें तो आप किसी भी अफसर को खरीद सकते हैं, मिनिस्टर को खरीद सकते हैं। अगर वो शराबी है, कमजोरी है। इतनी कमजोर चीज़ होती है। कितनी कमजोरी इन्सान के अन्दर डाल देता है। बहुत कमजोर कर देती है इन्सान को। क्योंकि उसको आप खरीद सकते हैं, एक बोतल पर। मोरारजी भाई कहते हैं, करूँगा। पता नहीं कब शुरू करने वाले हैं। आप लोग उनके खिलाफ़ इतनी-इतनी बातें लिखते हैं, इसलिये वो नहीं कर रहे हैं। कि कहने लगे उसे एक और भी एक बूट लेगिंग (bootlegging)..... होगा। होगा दो दिन होगा फिर खत्म हो जायेगा। मरने दीजिये उनको, अरे ऐसे तो मरने ही वाले हैं। बूट लेगिंग से मरने दीजिये, कल्याण होगा, उनका भी और हमारा भी। और एक्स्प्लनेशनस ( explanations) तो और लोग देते हैं, कि ये इससे बढ़ेगा, कभी नहीं बढ़ने वाला। एक जनरेशन में नहीं, दो जनरेशन में नहीं, तीन जनरेशन में बिल्कुल लोग शराब छोड़ देंगे। शुरू तो कर के देखिये। हम से तो अच्छे पाकिस्तानी हैं, जो डंडे लगाते हैं। औरतों की दुर्दशा हो जाती है, घर की दुर्दशा हो जाती है।

हमारे पति एक ऑफिस चलाते थें। उसमें, उन्होंने पता नहीं वो बहुत सोशलिस्टिक (socialistic) हो गये, तो उन्होंने ड्रायवरों की तनख्वा हजार रुपये कर दी। उनकी बीवियाँ आयी हमारे पास चार-पाँच महिने में, कहने लगी, ये क्या साब ने कर दिया ये आफ़त कर दी। मैंने कहा, ‘क्यों?’ कहने लगी, ‘पहली चीज़ शराब, दूसरी चीज़ औरतें। और अब तीसरी चीज़ ये, है कि अब घर पे आते ही नहीं, गुत्ते पे ही पड़े रहते हैं। मोटरें इनकी दबादब टूटने लग गयीं दफ्तर की। और उनके बच्चों को खाने को नहीं। बोतल घर में आयी और बच्चे भूखे मरें। ‘उससे अच्छा,’ कहने लगी कि, ‘साहब, हजार रुपये देने के अलावा ये करते हैं कि हमारे बच्चों का एज्यूकेशन का पैसा दे देते। कुछ और फायदा कर देते। रुपया दे दिया हो गया, अब ये रुपयों के लिये लड़ते हैं न सब लोग। तनख्वा बढ़ाईये, किसी की भी मत बढ़ाना। शराब पियेंगे और कुछ नहीं करेंगे। उनको और कुछ दीजिये, उनको घर दीजिये, कपड़ा दीजिये। पैसा भी तो उठाना आना चाहिये। किसी नौकर को आप ज्यादा पैसा दे दीजिये। बड़े आप दया-धर्म करते हैं उनपे, उपकार करते हैं। आप देखिये नां आपके छक्के पंजे छुड़ा देंगे। लक्ष्मी को भी तो स्वीकार्य करने में एक डिग्निटी होनी चाहिये, कोई प्रतिष्ठा बढ़नी चाहिये। रुपये-पैसे से आप कभी भी नहीं आप इम्प्रूवमेंट कर सकते। इनको खाने को दीजिये, ठीक है। लेकिन उनको भिखारी मत बनाईये। भिखारी को आपने चवन्नी दी, वो सिनेमा का टिकट ले के बैठ गया, देख लीजिये आप। इसलिये पैसे का भी संतुलन समझना चाहिये, कि जिस पैसे से इस तरह की गंदी चीजें खरीदी जाती हैं, उसके वितरण से या उसके वृद्धि से कोई देश समृद्ध नहीं होगा। समृद्ध तो मनुष्य से होता है।

अभी हमारी जो एक कल्पना है, कि अगर हम अपने देश को ऐसे डेवलप (develop) कर लें, आपके पास सिवाय प्लास्टिक के और कुछ नहीं आ सकता। और उनके पास है क्या? पत्थर। समृद्ध मनुष्य को होना चाहिये। आदमी एक-एक बादशाह होना चाहिये, खुद बाद्शाहीयत होनी चाहिए ( ...अष्पष्ट )। ऐसे, जैसे कृष्ण थे कि गोपों में और जंगलों में गैय्यां चराते थे, और राजा के राजा थे। सोते थे जमीन पर और बादशाह थे, ऐसी बादशाहत होनी चाहिये तबियत की। ना की इन प्लॅस्टिक की चीज़ों की। जो आदमी चीज़ों के पीछे में भागता है, और हीरे-जवाहरात के पीछे में दौड़ता है और दूसरों को नोचता खचोटता है। इससे बढ़ के भिखारी और दरिद्री कौन हो सकता है, ये दरिद्रता का लक्षण है। एक संतोषी जीव जो होता है वो असल में बादशाह होता है। ऐसी बादशाहत हमारे भारतियों की होने में कोई भी समय नहीं लगने वाला है। जरा सी इस ओर नजर करें, कि जिन्होंने इतना पाया भी है वो आज कहाँ बैठे हैं। श्रीकृष्ण के अनन्त उपकार इस संसार पे हैं। महान उपकार उनके संसार पे हैं कि उन्होंने अवतार ले कर के और हमारे अन्दर ये चेतना भरी कि हमें परम को पाना चाहिये और परम ही को स्वीकार्य करना चाहिये। और उसी की सत्ता और शक्ति में पनपना चाहिये। और उनको शरण जाने से हमारी विशुद्धि पूरी तरह से खुल जाती है और हम एक साक्षी स्वरूप हो जाते हैं। उन्हीं को वंदन कर के हम अब ध्यान करेंगे।

New Delhi (India)

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