Public Program, About all chakras 1986-04-02
2 अप्रैल 1986
Public Program
कोलकाता (भारत)
Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - Draft
Samast Chakra Date 2nd April 1986 : Place Kolkata Public Program Type Speech Language Hindi
सहजयोग की शुरुआत एक तिनके से हुई थी जो बढ़कर आज सागर स्वरूप हो गया है। लेकिन इससे अभी महासागर होना है। इसी महानगर में ये महासागर हो सकता है ऐसा अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है। आज आपको मैं सहजयोग की कार्यता तथा कुण्डलिनी के जागरण से मनुष्य को क्या लाभ होता है वो बताना चाहती हूँ। माँ का स्वरूप ऐसा ही होता है कि अगर आपको कोई कड़वी चीज़ देनी हो तो उसपे मिठाई का लेपन कर देना पड़ता है। किंतु सहजयोग ऐसी चीज़ नहीं है । सहजयोग पे लेपन भी मिठाई का है और उसका अंतरभाग तो बहुत ही सुंदर है। सहजयोग, जैसे आपने जाना है, सह माने जो आपके साथ पैदा हुआ हो। ऐसा जो योग का आपका जन्मसिद्ध हक्क है, वो आपको प्राप्त होना चाहिये। जैसे तिलक ने कहा था, बाल गंगाधर तिलक साहब ने भरी कोर्ट में कहा था, कि जनम सिद्ध हक्क हमारा स्वतंत्र है। उसी तरह हमारा जनम सिद्ध हक्क 'स्व' के तंत्र को जानना है। ये 'स्व' का तंत्र परमात्मा ने हमारे अन्दर हजारो वर्ष संजोग कर प्रेम से अत्यंत सुंदर बना कर रखा हुआ है। इसलिये इसमें कुछ करना नहीं पड़ता है। सिर्फ कुण्डलिनी का जागरण होकर आपका जब सम्बन्ध इस चराचर में फैली हुई परमात्मा की प्रेम की सृष्टि से, उनके प्रेम की शक्ति से एकाकार हो जाती है तब योग साध्य होता है और उसी से जो कुछ भी आज तक वर्णित किया गया है, वो जो सन्तों ने वर्णित किया हुआ है, जो मार्कसु ने कहा है, जो उस परमात्मा का साम्राज्य आपको प्राप्त हो जाता है। यह सब कुछ जो आप ही के अन्दर सुन्दर रचना है, उसीसे घटित हो जाती है। आज आपसे मैं जैसा कि इन लोगों ने बताया था; कुण्डलिनी के माध्यम से हम कैसे नानाविध लाभ उठाते हैं उसके बारे में बताऊंगी और दूसरी बात; एक बिनती भी है, कि जिससे हमारा आजतक कभी हित हुआ ही नहीं है और अगर हित ही हमारे अन्दर उत्तमोत्तम चीज़ है तो सब कुछ छोड़कर के हमें अपने स्वार्थ में उतरना चाहिये। स्वार्थ का अर्थ भी हमारे पूर्वजों ने बड़ा ही सुंदर बताया है। 'स्व' का अर्थ पाना ही स्वार्थ है। लेकिन हम स्वार्थ को उलटी तरह से समझते हैं; जिसने 'स्व' का अर्थ पा लिया वो स्वार्थ हो गया और स्वार्थ पाते ही जो कुछ स्वयं के लिये हितकरी है वो तो होता ही है और स्वयं से निगडित जो सब कुछ है, उसका भी हित हो जाता है । सर्वप्रथम कुण्डलिनी का जागरण होना जब शुरू होता है तो श्री गणेश मूलाधार चक्र में इसकी व्यवस्था करते हैं। जिस मनुष्य के अन्दर श्री गणेश की शक्ति बलवत्तर है उसकी कुण्डलिनी बहुत जल्दी ऊपर चढ़ती है और वहीं प्रतीक्षा में रहती है। जैसे कि छोटे बच्चे हैं, जिनके दिमाग में और कोई बातें नहीं हैं। जिनके हृदय में और कोई किल्मिष नहीं है । जिनके बातचीत में कोई कठोरता नहीं है। ऐसे अबोध बच्चों को कुण्डलिनी का जागरण बहुत लाभदायक होता है। और ऐसे लाभप्रद चीज़ को पाने के बाद ये बच्चे दुनिया के बहुत सी गंदी चीज़ों से अपने आप अछूते हो जाते हैं। वो गलत रास्ते पर जा ही नहीं सकते। वो अपने को दु:ख देने वाली या समाज को द:ख देने वाली कोई सी भी क्रिया कर ही नहीं सकते। उनका उधर मन ही नहीं जाता। वो सबके प्रति अत्यंत विनम्र और आदरयुक्त होते हैं। किसी का भी वो अपमान नहीं करते, किसी को वो दुःख नहीं देते । किसी को वो तकलीफ नहीं देते। सारी चीज़़ों के प्रति
उनकी दृष्टि अत्यन्त शुद्ध और निर्मल होती है । किसी की चीज़़ छू लेना, किसी को देना, किसी पर अपने गलतियों का बोझ डाल देना इन सब चीज़ों से परे होकर के वो एक समर्थ जीव तैयार होते हैं। और वो समर्थता ऐसी दूषण है कि उसमें वो अगर कोई गलत चीज़ देखते हैं तभी एकदम पूरा सीना तान कर ये बात कहीं पर भी कह देते हैं। इसका उदाहरण में हमारी जो नातीन है, छोटी सी थी, एक पाँच वर्ष की, तब उनके माता-पिता उन्हें लद्दाख ले गये थे। तो वहाँ पर उन्होंने देखा कि एक लामा साहब बड़ा सा एक चोगा पहन कर के बाल मुंडा-वुंडा के बैठे हुए थे। वो बिहार के रहने वाले हैं लोग तो। जब उन्होंने देखा कि सब लोग जाकर के ये महात्मा जी के पैर छू रहे हैं और उनके माँ और बाबुजी भी संकोच में आकर उनके पैर छूने लग गये, तब उनसे रहा नहीं गया, हालांकि बहुत छोटी सी थी, जाकर के उसने अपने हाथ ऐसे किये और वो एक टीले में बैठी हुई थी और उनकी ओर ऐसे गर्दन करके कहती है कि, 'सर मुंडा कर और ये चोगा पहन कर आप सबसे पैर छुआ रहे हैं। आप पार तो नहीं हैं।' पाँच साल की उमर में उन्होंने उनको सुनाया। ऐसे मुझे याद है, कि एक बार हमारे यहाँ पर जो बड़े महान महर्षि रमण हो गये हैं, उनके सौ साल की वर्ष गाँठ पर मुझे लोगों ने अपने यहाँ अतिथि बुलाया था। उस वक्त मैं बैठी हुई थी मंच पर । और वहाँ से मेरे पास में मेरी दूसरी नातिन बैठी हुई थी। तो वहाँ मेरे पास एक साहब बैठे हुए थे, एक बड़ा सा चोगा पहन करके और वो वहाँ के बड़े पण्डित माने जाते थे। मुम्बई के बड़े भारी पण्डित और बड़े आचार्य माने जाते थे| वहाँ से वो खड़े होकर के कहती है कि, 'नानी, ये जो मैक्सी पहन कर के बैठा है उनको भगाओ। इनसे इतनी गरमी आ रही है कि हम लोग यहाँ बैठ नहीं पाएंगे।' और वहाँ उस हॉल में बहुत से सहजयोगी बैठे हुए थे वो भी कहे, तो उन्होंने भी यूँ यूँ हाथ हिलाया कि, 'हाँ भाई , बड़ी गर्मी आ रही है इसको यहाँ से हटाओ।' इसमें ये समझना चाहिए कि वो बच्चे जो कि अत्यंत विनम्र हैं इतने सत्यप्रिय होते हैं, कि जब देखते हैं कि असत्य को मंच पर बिठा दिया गया है और सबके ऊपर उनका असर आ रहा है तो वो खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार उनमें धर्म की दृष्टि आ जाती है। जहाँ भी अधर्म होता है वहाँ वो खड़े हो जाते हैं । ये तो गणेश तत्त्व में जब आप भी जागते हैं तब आप भी एक बालक जैसे हो जाते हैं। ईसा मसीह ने कहा था, कि परमात्मा के साम्राज्य में आने के लिए आपको बालक जैसा होना चाहिये, अबोधिता आनी चाहिये। सारी चालाकी, ये होशियारी ये सब एक क्षण में विलीन हो जाते हैं। ये कुण्डलिनी तभी आपके अन्दर जागृत होती है जब आपके अन्दर गणेश जागृत होते हैं और जब गणेश जागृत होकर के अपनी माँ की लज्जा रक्षा करते हैं और तब कुण्डलिनी उनके आदेश पे ही जागृत हो जाती है। अब जब कुण्डलिनी उठकर के आपके स्वाधिष्ठान चक्र में आती है तो आपके अन्दर एक नया संसार बसने लग जाता है। सौंदर्य दृष्टि आपकी बड़ी सूक्ष्म हो जाती है। एक साहब मेरे पास आये और बोले कि, 'मेरे पास कोई नौकरी नहीं है।' तो मैंने कहा कि, 'आप कोई इंटिरिअर डेकोरेशन का काम क्यों नहीं करते ?' तो उन्होंने कहा कि, 'मुझे तो कौन सी लकड़ी क्या है ये भी नहीं मालूम तो मैं इंटिरिअर डेकोरेशन क्या करूँगा ?' मैंने कहा कि, 'तुम करो तो सही!' तो उन्होंने इंटिरियर डेकोरेशन किया। उसमें वो लाखोपति हो गये। मैंने कहा कि, सिर्फ जिस वक्त आप किसी भी चीज़ को सौंदर्यवान बनाने जाते हैं तो आप सिर्फ उस की चैतन्य लहरियाँ देखें। अगर उसमें से
चैतन्य की लहरियाँ आ रही है तो समझ लीजिये कि वो चीज़ बन गयी है। अगर नहीं आ रही है तो उसको मत बनाना। पर मुझको तो बड़ा आश्चर्य हुआ कि वो बनाने गये, बनाते गये, बहुत ही सुन्दर बनती गयी, कहीं भी वाइब्रेशन्स ने उन्हें रोका नहीं, कहीं उन्हें ऐसा नहीं लगा कि यहाँ गर्मी आ रही है, या यहाँ तकलीफ हो रही है। वो | सौंदर्य दृष्टि कभी-कभी इस तरह से विकसित होती है कि जो लोग कभी भी कविता नहीं लिखते थे, गणितज्ज्ञ हैं, कभी जनम में कविता क्या है उनको मालूम नहीं है, वो ऐसी सुंदर काव्य रचना करते हैं कि देखते ही बनता है। जिन्होंने कभी हाथ में कुछ भी नहीं लिया। कुछ भी जिन्होंने चित्रित नहीं किया वो ऐसी सुन्दर आकृतियाँ और ऐसे सुन्दर विषय पर इतने शुभदायी चित्र बनाते हैं कि वो सोचता है कि ये कहाँ से, रवि वर्मा फिर से आ गये हैं क्या इस संसार में! क्योंकि मनुष्य उसके तत्त्व में उतर जाता है और वो तत्त्व है सौंदर्य दृष्टि। सौंदर्य दृष्टि जो मनुष्य की होती है वो बढ़िया होती है। लेकिन जब वो पार हो जाता है उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है। उसको कोई अश्लील, भद्दी, सस्ती चीज़ अच्छी ही नहीं लगती है। वो जो भी चीज़ बनाता है एकदम गहन बनाकर रख देता है। उसको समझने वाला भी आत्मसाक्षात्कारी होना चाहिए। जैसे विलियम ब्लैक के नाम का एक बड़ा भारी कवि , सौ वर्ष पहले और इस कवि ने सहजयोग के बारे में इतनी बारीकी से लिखा है कि मैं जिस घर में रह रही हूँ उस इंग्लैंड में हुआ। घर का भी पता पूरा उस बारीकी से दे रखा है। इस विलियम ब्लैक की जो कुंचली है उसमें ऐसी चीज़े बनाकर रखी है कि सिर्फ इसे सहजयोगी ही समझ पायेगा या कोई आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष ही इसे समझ पायेगा। उन्होंने आज्ञा चक्र इतना सुन्दर बनाया, परमात्मा को बनाया जो दबा रहे हैंआज्ञा चक्र को, कि ऊपर से किसी तरह खुल जाये ये चीज़। लेकिन वो कौन समझ पायेगा। उसमें तो यही देख रहे हैं लोग कि मसल्स कैसे बनाया है, जो परमात्मा को दिखाया है उसका नाक कैसे बनाया है, उसका मुँह कैसे बनाया है। उसकी पूर्ण आकृति का जो coefficience है उससे कितना शुभ आ रहा है। जब मैं लंडन पहुँची तब सर्वप्रथम मैंने कहा था कि विलियम ब्लैक की सौ वर्षगाँठ हैं, उसमें मुझे जाना है। तो सब लड़के कहने लग गये कि माँ, आप तो कोई ऐसी वैसी जगह जाती नहीं। मैंने कहा कि, इसमें तो जाना है हमें| वहाँ पहुँचे तो सारा वातावरण इतना सुंदर लग रहा था कि हर तरफ से बहुत सुंदर चैतन्य की लहरियाँ बह रही थी और जैसे कि संगीत सा मुझे लग रहा था। लेकिन वहाँ लोग दूरबीन लगा कर के देख रहे थे कि कौन नग्न दिखाया गया, कौन बीभत्स दिखाया गया है, कौन कितने भद्दे ढंग से खड़ा हुआ है। ये उनकी दृष्टि में वो सौंदर्य था ही नहीं जिसको कि हम वहाँ उपभोग ले सके। अब आप जानते हैं कि परदेश में लोगों की दृष्टि बहुत खराब हो चुकी है। वो तो किसी भी चीज़ में अश्लीलता के सिवाय और कुछ देख ही नहीं सकते हैं। उनकी दृष्टि इतनी अधोगति से चली रही है, लेकिन आज मैं सहजयोग में देखती हूँ कि सहजयोगियों के तरीके, उनको वृद्ध स्त्री है बैठी हुई, उनको उसमें तक इतना सौंदर्य नज़र आता है। हृदय का सौंदर्य देखने की जो महानता है वो उन लोगों में बड़ी ही कुशलता से पता नहीं कैसे बाहर प्रदर्शित होती है और मुझे आश्चर्य होता है, कि ये लोग जो इतनी तुच्छित नज़र से संसार की ओर देखते थे, आज एक गौरव से देख रहे हैं कि देखिये संसार क्या है ! आपने सुना होगा कि 'मोनालिसा' नाम का एक पेंटिंग है जो कि लिओनार्दो-दा-विंसी ने बनाया है और जो कि पैरिस के बड़े वाले लुई के प्रदर्शनी में रखा गया है, जहाँ अनेक लोग जाते हैं उसे देखने के लिये। मैंने एक दिन कहा कि आप जा कर देखना कि, 'मोनालिसा' जो है
उससे वाइब्रेशन्स आते हैं। इतने सालों से बनी हुई चीज़ है। उसे देखने के लिए हजारो लोग आते हैं । उसकी वो आज कल के मॉडर्न सिनेमा की स्टार जैसी है, और काफ़ी भरभकम शरीर है और उनके मुख पर एक हँसी है, एक सादगी है और हज़ारों लोग इतने दिन से उसे देखने आ रहे हैं कि, मैंने कहा कि, 'आप भी जा कर के देखिये कि उसमें से चैतन्य की लहरें आती है या नहीं।' तो वो लोग जब पैरिस गये तो कहने लगे कि माँ हमें तो अन्दर जाते ही इतने वाइब्रेशन्स आ रहे थे कि हम तो अभिभूत होकर के उसे देखते रहे कि हमने कितनी बार इसका चित्र देखा पर कभी ऐसा लगा नहीं।' फ्रान्स से लोग जो कि माहिर है उत्सुकता में, जो कि बहुत ही गंदी बातों में उलझे हुए हैं, उनके साहित्य और उनके तौर तरीके इतने गंदे हैं कि उनसे कुछ सीखने का ही नहीं है। मैं तो उनको कहती थी कि है पूरा। आप तो पूरे बाथरूम कल्चर के लोग हो, आपको दूसरी कोई बात नहीं आती आपका तो बाथरूम कल्चर है। लेकिन आज जो स्वर्ग में बैठे हुए हैं और इतने सुन्दर लोग हैं, इतने सुन्दर हो गये हैं कि मुझे तो आश्चर्य लगता है कि जैसे ही उनके अन्दर आत्मा का दीप जल गया तो इनके इतने प्रेम के शुद्ध स्वरूप हैं, शुभ-अशुभ के विचार से प्लावित वो इतने कीचड़ में बैठे हुए ये कमल पता नहीं किस तरह से खिल कर सुरभित हो गये हैं। ये तो आपके स्वाधिष्ठान चक्र पर कुण्डलिनी के आने से होता है। जिसको संगीत नहीं सुनाई देता, अब जानते हैं आप कि बहुत से लोग क्लासिकल म्यूझिक ही पसंद करते हैं। अब ये तो ओंकार से आया हआ हमारा भारतीय संगीत है। हम लोग बहुत लड़ते हैं कि हम भारतीय हैं, हम भारतीय हैं करके। जिसको अगर हमारे यहाँ का संगीत समझ में नहीं आता, मैं तो उसको कभी भी भारतीय किसी भी प्रकार से नहीं मानूंगी। इस मामले में हम लेाग हमेशा विदेशों की ओर दौड़ते हैं। उनसे हम उनका संगीत सीखने का प्रयत्न करते हैं। इस घराने, इस महान योगभूमि ने इतना ऊँचा संगीत हमें दिया है, उसको हम समझ नहीं पाते हैं। हमारा लेक्चर हो रहा था दिल्ली में, अमजद अली साहब भी सहजयोगी हैं, उनके साथ के भी सभी लोग सहजयोगी हो गये हैं और उनके सारे बजाने में भी फर्क आ गया। लेकिन जैसे ही उन्होंने बजाना शुरू किया, आधे लोग उठ कर चले गये। कहने लगे कि, 'हम तो माँ को सुनने आये हैं।' मैंने कहा, 'मैं ही तो बोल रही हूँ, ये अमजद अली क्या बजा रहे हैं, मैं ही इसमें बोल रही हूँ। बैठो तो सही !' जिसको संगीत का जरा भी शौक नहीं है उसको सोचना चाहिए कि एक दिन ऐसा आयेगा कि ऐसा आपको शौक लगेगा कि चाहे संगीतकार उठ जाये पर आप नहीं उठेंगे। ये हाल हमारे सहजयोगियों का है। आज देश विदेशों में जहाँ-जहाँ सहजयोग पहुँचा है, हज़ारों के तादाद में, जहाँ भी होंगे। पण्डित भीमसेन जोशी, आप जानते हैं, महाराषट्र के बड़े भारी गवय्ये हैं जो कि श्री और मारवा जैसे राग कि जो बड़े-बड़े जानने वाले भी तंग आ जाते हैं। वो श्री मारवा मध्यम बजाते हैं और उसके स्थायी पर बैठे हुए आराम से पूरा मारवा का बांधना देखते हैं, जैसे कि कोई इमारत अन्दर बन्द रही हो। ये असली भारतीय है। इनको मैं असली भारतीय समझती हूँ कि जिनका कि ओंकार से सम्बन्ध है। ये ओंकार से भरा हुआ संगीत है जिसे भारतीय समझते हैं। अभी टटी बाबू आये थे दक्षिण से। उनका संगीत सुनते हुए सारे विभोर हो गये। हालांकि महाराष्ट्र से कोई जानता भी नहीं है कि साऊरथ इंडियन म्यूझिक क्या है। थोड़ा बहुत तो थिअरी में जानते हैं लेकिन सारे महाराष्ट्रियन और सारे परदेस के लोग; और सब बस बैठे ही रहे उनका कांड सुनते हुए, उनका बजाना देखते हुए वो खुद हैरान हो गये कि इतने तो मद्रास में नहीं मिलते माँ, जितने यहाँ बैठकर आपको सुन रहे हैं। उस सूक्ष्मता में मनुष्य उतर जाता है, जहाँ संगीत का, कला का, किसी भी सृजन का, क्रियेटिविटी का जो गाभा है, जो उसका अंतरंग है, उसे पकड़ लेता है, जहाँ आनन्द टिका हो। वो कैसे होता
है। क्योंकि जब आप कोई भी राग सुनते हैं, कोई सा भी गाना सुनते हैं, कौन सा भी संगीत सुनते हैं या आप कोई नाटक देखते हैं या कोई नृत्य देखते हैं, कोई सी भी चीज़़ तब आपके अन्दर विचार की शृंखला शुरू हो जाती है। जैसे आप 'माँ आप कब बोलेगे?' अब ये नृत्य चला है। मतलब आप अगली बात सोचने लग गये हैं। या आप फिर ये सोचते हैं कि इन्होंने नृत्य किया, अब इनको कहीं और क्यों ना नृत्य किया जाये, बड़ा अच्छा नृत्य किया । ये किसने नृत्य किया। हर तरह के विचार आपके दिमाग में घूमने लग जाते हैं कि आप सोचतें हैं कि इस नृत्य की छान-बीन होनी चाहिए और वो भी इस बुद्धि से। तो तो सारा आनन्द इसका खत्म हो जाता है। जब आप किसी चीज़ की ओर सोचने लग गये तो उस चीज़ को बनाने वाला जो कलाकार है जिसने जो कुछ बनाया और उसमें जो आनन्द उंडेला है वो खत्म हो गया। आपके विचार ही चलते गये, एक के बाद एक। कोई सी भी सुंदर वस्तु है, जैसे कोई सुन्दर सा बना हुआ कालीन। तो अगर हम उस कालीन की ओर नज़र करें और अगर हम देखते रहे और बस ने देखते रहें और ये न सोचें कि कितने का है? कहाँ से आया हुआ है? तो उसका जो आनन्द है उस कलाकार जिस आनन्द से उसे बनाया था वो पूरा का पूरा उपर से गंगा जैसे ऊपर से बहने लग जाती है। गंगा जैसे उपर से बहने लगता है। ये सिर्फ आत्मसाक्षात्कार के बाद घटित होता है। क्योंकि आप निर्विचार में समाधि होने से आप उसको पा सकते हैं। आगे चल कर के हम नाभि चक्र पर आते हैं। नाभि चक्र से ही कमल जैसे ब्रह्मा निकल कर के ये सृष्टि करते हैं जिनसे कि हम सौंदर्य दृष्टि को प्राप्त करते हैं। लेकिन जब हम नाभि चक्र पर आते हैं तो नाभि चक्र ये हमारे खोज का चक्र है। नाभि चक्र से हमने खोज शुरु किया । माने ये कि जानवर से ही सोच लीजिये कि इसने खोजना शुरू कर दिया है। में वो खाना पीना ही खोजता रहा जब वो मस्त्यावतार बन कर के, किसी ने एक कदम आगे बढाया शुरू कि आओ, जमीन पर आकर देखो, तब उसने जमीन पर कुछूवे जैसे चलने वाले, जमीन पर रेंगने वाले जानवर को बनाया। इस तरह से जानवर तैयार हुए। ये खोज बढ़ते-बढ़ते मनुष्य स्थिति में जब आ गयी तब उसके अन्दर धर्म की जागृती हुई। धर्म की जागृति ऐसी हुई कि हमारे लिए कोई चीज़ धर्म है और कोई चीज़ अधर्म है। ये बाते सिर्फ इन्सान ही सोच सकता है। जानवर कभी नहीं सोचता। हमारा जो एक छोटा सा सहजयोगी एक दिन मुझसे पूछता है कि, 'माँ, अच्छा बताईये कि शेर के बच्चों का क्या होता होगा ?' मैंने कहा, 'क्यों ?' 'क्योंकि शेर के बच्चों को शेर कहता होगा कि तुम ये गाय को खा लो, तो वो तो खाते ही होंगे। तो इनसे तो पाप हो जायेगा ना ?' मैंने कहा, 'बेटा, उनके लिए कोई पाप नहीं क्योंकि वो तो पशु है, उनके लिए कोई पाप नहीं है। मनुष्य को ही पाप की भावना होती है।' अब मनुष्य की ये अच्छे-बुरे की भावना अन्दर से ही प्रकाशित हुई हैं। और यही धर्म जो है वो जिस वक्त हमारे अन्दर जागता है तभी हम कहते हैं कि नाभि चक्र का धर्म, दस धर्मों में गये हैं और वो दस धर्मों पर, जो बड़े- बड़े दस महान आदिगुरु स्थापित किये गये हैं। उनको जगा देने से कुण्डलिनी हमारे अन्दर धर्म की स्थापना कर देती है। माने ये कि हमें कहना नहीं पड़ता है कि आप ये काम मत करिये। यहाँ पर जो कुछ सहजयोगी आये हैं उनसे भी अधिक परदेस में भी हैं और भी कहीं अधिक कोई और जगह। हमने कभी उनसे नहीं कहा कि आप शराब मत पीजिए। अगर इंग्लैंड में आप कहें कि आप शराब मत पीजिए तो आधे से ज़्यादा लोग तो उठकर चले जाएंगे। यहाँ भी कुछ ऐसा ही हाल होगा। लेकिन मैंने कभी नहीं कहा। मैंने
ये भी नहीं कहा कि, आप तम्बाकू मत खाओ। मैंने ये भी नहीं कहा, कि आप ड्रग मत लो। मैंने तो बस यही कहा, कि बस आ जाओ। और जैसे ही सहजयोग को उन्होंने प्राप्त किया दूसरे दिन से ही ड्रग छोड दिया। दूसरे दिन ही छोड़ दिया है। ये साँप है, इसको छोड़ो। अपने आप हटा, मैंने कुछ नहीं कहा उनसे। नाभि चक्र के जो कुछ भी दोष हैं, जैसे कि हम गलत गुरुओं के पास जाते हैं। एक गुरु के पास गये, जिसको देखो उसको हम नमस्कार करते बैठते हैं। तो गुरु तत्त्व जो है वो नाभि के चारों तरफ स्वाधिष्ठान के माध्यम से फैला हुआ है। स्वाधिष्ठान उसके चारों तरफ घूमता है और उसकी जो परिधि बनती है उसमें हमारा गुरु धर्म बनता है। तो खोज में आदमी फिर गुरु के पास पहुँचता है, पहले तो और जगह खोजता है। पैसे में खोजता है, सत्ता में खोजता है, इसमें खोजता है, उसमें खोजता है, पर जब वहाँ भी नहीं मिला, तो चलो भाई, किसी को गुरु बना लेते हैं । तो वो गुरु बनाने की जगह जैसे वो हम हमारे घर में एक नौकर रख लेते हैं, उसी तरह से वो गुरु रख लेते हैं। उनके यहाँ सब रुपये जाते रहते है। इसको इतना रुपया दो, उसको उतना रुपया दो, उसके खान-पान को दो। उनका खान-पान देखो तो आश्चर्य होता है, कि इतना कैसे खा लेते हैं। उनकी ये व्यवस्था करो, इनकी वो व्यवस्था करो और वो आराम से अपने बैंक में रुपये भेजते रहते हैं। उनको भी एक इतना सा भी विचार नहीं आता कि जो मैं व्यवहार कर रहा हूँ वो क्या गुरु का व्यवहार है। और जो उनके शिष्य हैं, जो उनके आगे नतमस्तक होकर उनके आगे- पीछे नतमस्तक होकर घूमते हैं, उनको भी ये विचार नहीं आता है कि इसका चरित्र एक गुरु जैसा है? इसका तो पूरा समय लक्ष्य हमारे जेब पर ही हैं। तो भी हम इसी की ओर क्यों जा रहे हैं? कहीं से वो चमत्कार दिखा दें। कहीं से कुछ ला दें तो उसी के पीछे लोग चले जाते हैं। धर्म टूटता है। तब अधोगति शुरु हो जाती है। तो जिस वक्त मनुष्य खोजने के बजाय इधर-उधर तब आपका गुरु भटकता है जिसे मैं राईट साइड़ और लेफ्ट साइड़ कहती हैँ, जब वह लेफ्ट साइड़ की ओर मुड़ने लग जाता है तो वो अपने सबकॉन्शस, और उसके बाद कलेक्टिव सबकॉन्शस माने सुप्त चेतन और सामूहिक सुप्त चेतन में उतरता हुआ वो उस लोक में जाता है जहाँ सब कुछ पहले मरा है, गत है, रखा हुआ है, पास्ट पूरा। और जो मनुष्य भविष्य की बात करता है, प्लानिंग करता है, आगे की सोचता है और उसमें खोजता है, या सत्ता में खोजता है या वैराग्य में और अपने शरीर को तंग करके सोचता है कि मैं तो बड़ा भारी सिद्ध ले लूँगा, इस तरह की बातें सोचता है वो राईट साइड़ को चला जाता है। अब गुरु लोग राईट साइड़ वाले भी हैं, लेफ्ट साइड़ वाले भी हैं। इसी प्रकार में कुछ ड्रग्ज हैं जो कि कुछ राईट साईड में डाल देती हैं, कुछ लेफ्ट साइड़ में डाल देती हैं। अब आपको आश्चर्य होगा कि कैन्सर जैसी जो बीमारी है ये साइकोसोमाटिक कही जाती है। बहत से लोग जो हैं वो सोचते हैं, कि कैन्सर जो है ये सिर्फ शारीरिक बीमारी हैं, बिल्कुल भी नहीं, ये साईकोसोमाटिक है । आपके राईट साइड़ में आप अपना शारीरिक और बौद्धिक कार्य करते हैं। और आपके लेफ्ट साइड़ में आप मानसिक कार्य करते हैं। अंग्रेजी भाषा तो ऐसी कमाल की है कि सबके लिए एक ही शब्द माहिर है। चाहे वो बुद्धि हो या चाहे वो मन हो। तो आप जो मन का काम करते हैं वो आप की लेफ्ट साइड़ है और जो आप बुद्धि और शरीर का काम करते हैं वो आपका राईट साइड़ है। अगर आप राईट साइड़ से बहुत ज़्यादा काम करते हैं, बहुत ज़्यादा परेशानियाँ उठाते हैं, जिसे कि मैं कहँगी कि नाभि चक्र में लेफ्ट नाभि है, लेफ्ट साइड़ में आपकी जो विशेष संस्था है, जिसे स्प्लीन कहा जाता है, प्लीहा कहते
हैं शायद हिन्दी में । जिसे आप अति, इस तरह से इस्तेमाल करते हैं, माने कि जैसे आप सबेरे उठते हैं, उठते ही साथ अखबार पढ़ते हैं, अखबार पढ़ते ही साथ वो गड़-गड़ होने लग गया, स्पिडोमीटर जो है वो हिलने लग गया, इसको मारा, उसको मारा, ये दुर्घटना हुई है, ये वो अखबार, विश्वमित्र जी के वो क्षमा करें, इनका ये sensationalization जो शुरु हुआ है। सन-सनी खेज, सनसनीखेज कि जो चक्र आपके पेट में जो बैठा हुआ है, जो स्पीडोमीटर है उसपे असर कर जाता है। उसके बाद उठे जल्दी जल्दी भागे , अपनी, आपने सोचा कि मोटर से जायें तो मोटर के सामने बहुत सारे चलाते-चलाते जेम हो रहा है । उसमें आप परेशान ही परेशान, पहुँचते पहुँचते दफ्तर में पहुँचे और फिर वहाँ से फिर परेशानियाँ। फिर खाना न ठीक से खाया न ब्रश किया । बिबी ने जो खाना दिया, बस उसी को मुँह में ठुसते जा रहे हैं। इसमें नुकसान ही है, इससे ब्लड कैन्सर होता है। पहले जमाने में भी इस | बंग देश में भी पति बैठता था आराम से, खाना खाने के लिये, नहा धो कर के इत्मिनान से बैठते थे । और पत्नी पंखा झरती थी। धीरे-धीरे खाना परोसती थी, उस पंखे की झलने में जो स्पीड़ थी वो स्पीड़ खाने की होनी चाहिये और वो धीरे-धीरे चबा चबा कर खाते थे। इत्मिनान से खा करके और फिर वहाँ जहाँ जाना है जाते थे। लेकिन अब तो वो चीज रह नहीं गये। अब तो वो चीज़ चलती नहीं। अब तो इतने कि जिसको कहते हैं हेक्टिक लाईफ कि अभी दौड़े यहाँ, वहाँ से दौड़े वहाँ, वहाँ से दौड़े वहाँ, इससे आपका स्पीडोमीटर खराब हो जाता है , जिसको कि आपके रेड ब्लड कॉर्पिसेलुस हैं जो रक्त की पेशियों को बनाना पड़ता है, वो पगला जाता है। उस पागलपन में, जिसे कहते हैं गोक्रेझी, और उस पागलपन में उसको समझ में नहीं आता कि उस पागल आदमी को किस तरह से मैं ब्लड सप्लाय करूँ। अब ये व्हलनरेबिलिटी, जिसको कहते हैं कि अब तैयारी हो गयी आपकी कैन्सर की। इस से कोई सी भी काली विद्या से कहिये, भूत विद्या से कहिये या गुरु प्रसाद से कहिये या और किसी ऐसी तरह की चीज़़ों से कहिये, कोई सी भी चीज़ आपके अन्दर आ जाए, आपके अन्दर ब्लड कैन्सर स्थापित हो जाता है। अगर कोई माँ इस तरह की हो, कि जो रात दिन आफत में मची हुई है कि आज पापड़ बेलना है, फिर कल और कुछ बनाना है, पती को वश में रखने के लिये औरतें यहाँ बड़ी होशियारी से काम करती है। तरह तरह के खाद्यान्न बनाने हैं। इसका प्लैनिंग करना है, उसका प्लैनिंग करना है, उनके बच्चों को भी हो सकती हैं अगर वो उस समय गर्भवती हो तो बच्चों को भी हो सकता है। अगर कोई बच्चा हो भी गया ठीक-ठाक पैदा, उसके पीछे लगे कि, 'उठो भाई , सबेरे उठो, जल्दी, जल्दी करो, चलो जाने का है स्कूल में, बड़ी मुश्किल से औडमिशन मिला, वहाँ इतना रुपया भर्ती किया। ये सारा समाज ही ऐसा बना हुआ है कि सब लोग उथलपुथल में चल रहे हैं। इस उथलपुथल कैन्सर के होने की बड़ी सम्भावना है। हम तो इत्मिनान में बैठे रहते हैं और इत्मिनान में बैठने से भी कोई चीज़ कम नहीं होती। सब चीज़ ठीक-ठाक चलती रहती है। हमारे विचार से तो ऐसी कोई बात नहीं कि जिसके लिये इतनी जल्दी मचाये या हड़बड़ी करें। से ब्लड मनुष्य अब इसका इलाज कैसे होता है? इलाज ये होता है कि जैसे ही कुण्डलिनी आपके नाभि चक्र में आ जाती है तो शान्ति प्रस्थापित हो जाती है। मनुष्य शान्त हो जाता है। शान्तिपूर्वक सब देखते रहता है। देखते रहता है और वो । शान्ति उससे कहती है कि, 'शान्त हो जाओ, शान्त हो जाओ ।' देखिये अब हमें तो जाना है प्लेन में और बाकी सब परेशान हैं कि, 'आपको जाना है, चलिये, चलिये । आखरी मिनट, ये छोड़ो, वो छोड़ो। भाई, मैंने कहा,
'जाना मुझी को है या आपको है?' मुझे जाना है। आप क्यों परेशान होते हैं! तो छोडिये आप। मुझे जाने दीजिये। मैं आराम से जाऊंगी। अब कभी - कभी मज़ाक भी हो जाता है कि बड़े जल्दी पहुँचे वहाँ, और देखा क्या कि प्लेन अभी आठ घंटे लेट है। मैंने पहले ही कहा था कि, 'क्यों इतने जल्दी जा रहे हो? घर से आराम से चलो। पहले पूछ ही लिया होता।' लेकिन वो जो हड़बड़ी का स्वभाव है, जो हड़बड़ हमारे अन्दर है एक उसका उदाहरण मैंने दिया कि आजकल के वातावरण में किस तरह से कैन्सर के आप एक, उसके आमन्त्रण के आँगन बन जाते हैं। जिससे कैन्सर आप पर असर कर जाता है। अब लन्दन में हमने तीन -चार लोगों का ब्लड कैन्सर ठीक किया। तो मैं ये नहीं कहूँगी कि मैंने किया। उनकी | कुण्डलिनी का जागरण करके वो ठीक हो गये। मैंने कुछ किया नहीं। जिसकी कुण्डलिनी जागृत हुई वो ठीक हो गये। लेकिन इस हड़बड़ के सिवाय अनेक प्रकार के हम दोष करते हैं। जैसे कि अब डॉक्टर लोग तो यहाँ एक से एक आप जानते हैं कि कितने बड़े बड़े डॉक्टर लोग हमारे साथ लगे हुये हैं। और उनको अगर हम समझाते हैं तो वो ऐसे मुँह फाड़ कर देखते हैं बात को कि माँ कैसे कह रही हैं? क्योंकि हम इसे सूक्ष्मता से जानते हैं। आपके अन्दर जो सूक्ष्म चीज़ है वो ये समझना चाहिये कि आपके शरीर में शान्ति होनी चाहिये। आपके मन में शान्ति होनी चाहिये। आपके सारे अंग जो है जो शान्ति से बने होने चाहिये। हडबड़ी करने से इस तरह का रोग हो जाता है। पर इससे भी बढ़ती, गहन बात एक ऐसी बताऊं कि सूक्ष्मता की, आपके यहाँ भी कुछ ऐसे डॉक्टर्स बैठे होंगे जो नहीं जानते हैं और न मानते भी शायद न हो कि जिस वक्त ये स्वाधिष्ठान चक्र चलता है इसको एक तो पेट के जितने भी ऑर्गन्स हैं उनको सम्भालना पड़ता है। माने लिवर हुआ, आपके पैन्क्रियाज हुआ और स्प्लन और किड़नी आदी सबको सम्भालना तो पड़ता ही है। इसके अलावा ये जो सर में जिसे मेंदू कहते हैं, जो मेद से बनता है, ये जो ब्रेन हमारे सर में है, इस ब्रेन के लिये इसको ग्रे मैटर, पेट की जो फैट है उसको परिवर्तित करके, ट्रान्सफॉर्म करके अपने ब्रेन में भेजना पड़ता है। ये उसका मुख्य काम नहीं है। एक और काम है। लेकिन जब आदमी बहुत सोचता है, आगे की सोचता है, प्लैनिंग करता है, ये करता है, वो करता है, हर समय उसकी खोपड़ी सोचती रहती है तब ये कार्य एकमात्र उसे करना पड़ता है। और बाकी सब काम बिल्कुल ठप्प हो जाते हैं। इसलिये लोगों को लिवर का ट्रबल हो जाता है। खास कर मैं देखती हूँ कि आपके कलकत्ते में लोगों को लिवर की बीमारी बहुत ज़्यादा है। क्योंकि ये सूर्य नाड़ी है और सूर्य नाड़ी बहुत चल जाने से मनुष्य को सूर्य की जहाँ बहुत ओर ताप हो और ऊपर से सूर्य नाड़ी बहुत चल जाये तो जरूरी है कि बेचारे इस स्वाधिष्ठान चक्र को इतनी मेहनत करनी पड़ती है कि वो जो एक लिवर है उसे देख नहीं पाता। इसलिये यहाँ लोगों को लिवर की बीमारी हो जाती है । डॉक्टर ने उसका नाम बनाया माइग्रेन। माइग्रेन वाइग्रेन कोई चीज़ है नहीं । सब बेकार की बातें हैं । इसमें सिर्फ आपका लिवर खराब होने से माइग्रेन होता है। या आप किसी भूत से पीड़ित हो तो भी हो सकता है। ये तो लेफ्ट साईड की बात हो गयी लेकिन राईट साईड़ की बात मैं कर रही हूँ। तो इस तरह से आपकी शारीरिक तकलीफें इसलिये ठीक हो जाती हैं कि आप निर्विचार हो जाते हैं। सहजयोग में आप विचार बहुत कम करते हैं। विचारों से परे आप रहते हैं तब प्रेरणा तक, प्रेरणात्मक जो विचार आता है उस विचार से ही आप बोलते हैं और उसी विचार से आप चलते हैं। विचार एकदम जैसे कि रुक जाते हैं। एक विचार
उठता है, गिर जाता है। दूसरा विचार उठता है, गिर जाता है। इसके बीच में जो जगह है इसे विलम्ब कहते हैं। ये विलम्ब जो है ये वर्तमान है। आज, अभी, इस वक्त, इस क्षण, ये ये जगह। हम या तो आगे की सोचते हैं या पीछे की सोचते हैं। तो इसी के कमांड पर, इसी के कक्ष से हम कूदते रहते हैं। हमारे पूरी समय मस्तिष्क चलते रहता है। खोपड़ी हमेशा घूमती रहती हैं। और उस वक्त बेचारा स्वाधिष्ठान मेहनत करके और इस मेद की पूर्ती करने के लिये हर समय तत्पर हो जाता है। फिर आपको डाइबेटिस होता है। डाइबेटिस भी इसीसे होता है कि आप अपनी पूरी शक्ति जो है स्वाधिष्ठान की, अपने सोचने में लगा देते हैं। देहात में, मुझे पता नहीं यहाँ है या नहीं, पर हमारे महाराष्ट्र में तो लोग इतनी चीनी खाते हैं देहात में कि कहते हैं कि चम्मच खड़ा हो जाना चाहिये चीनी में तब कहीं चीनी पड़ी। वो तो क्या पी रहे थे चाय या दूध है? इतनी चीनी खाते हैं, किसी को डाइबेटिस नहीं होता। देहात में किसी को डाइबेटिस होता ही नहीं। शहर वालों को ही क्यों होता है? और जो टेबल पे बैठ कर के रोज प्लैनिंग बनाते हैं और सबका कबाड़ा करते हैं। उनको क्यों होता है? उन्हीं को ये बीमारी क्यों होती है? वजह ये कि आप जरूरत से ज़्यादा सोचते हैं। इतनी सोचने की जरूरत ही नहीं। पर अगर कोई कहे कि, मत सोचो, तो हो ही नहीं सकता। एक साहब स्वित्झर्लंड में आये हमारे पास, बैरिस्टर थे। अब तो वो सहजयोग में आ गये। वो एक अल्जेरिया के बहुत बड़े बैरिस्टर हैं। वो स्वित्झर्लंड में आये और मुझे कहते हैं कि, 'माँ, चाहे मेरी गर्दन काट दो चाहे मेरा सर फोड़ दो पर ये विचार ठहराओ। मैं पागल हो जाऊंगा।' आज पार हो कर के बहुत बड़े आदमी हो गये हैं। अब उनका सारा कुछ डाइबेटिस वर्गैरा सब खत्म हो गया। उसके बाद आपको हाइब्लडप्रेशर भी इसीसे होता है। क्योंकि किडनी (की अनदेखी) निग्लेक्ट हो गयी। किडनी को आपने देखा नहीं। उसको आपने सम्भाला नहीं। तो वो भी आपको बीमारी हो गयी। अनेक बीमारियाँ इसलिये होती है और सहजयोग में जब कुण्डलिनी आपके नाभि चक्र को प्लावित करती है तो एकदम सारी ये बीमारियाँ भाग जाती हैं। और आपका चित्त बीच में स्थिर हो जाता है। जब आपके अन्दर धर्मशक्ति जागृत हो जाती है तभी फिर हम कहते हैं कि लक्ष्मी तत्त्व से आप महालक्ष्मी तत्व में उतर गये। जैसे कि जहाँ-जहाँ लोग पैसे वाले हो जाते हैं, अँश्युरन्स आ जाता है, वहाँ-वहाँ वो अजीब पागलपन में घूमते हैं। जैसे कि, आप अमेरिका में जाइये, तो जितने अमीर लोग हैं या तो वो बिल्कुल इग्नोर हो जाते हैं, इडियट, या वो नहीं है तो ऐसे-ऐसे बातें करते हैं जैसे कि किसी ने आत्महत्या कर ली , उपर से नीचे कूद मरे। और किसी ने अपने चार-पाँच बच्चे ही मार डाले। तो समझ में नहीं आता है कि पैसा हो जाने से अगर इतनी आदतें आती तो बेहतर है कि हम गरिबी में ही रहे। उन लोगों की अगर आप बातें सुने तो आप आश्चर्य करेंगे कि ऐसी तो भूतो न भविष्यति, कभी लोग संसार में आये ही नहीं जैसे हम देखते हैं। अमेरिका की ही बात नहीं है, आप फ्रान्स जाईये, कहीं भी जाईये। और यहाँ तक जहाँ कि लोग कहते हैं कि कम्युनिज्म बड़ा फैला हुआ है। ऐसे रशिया में भी एक- एक आफत है। आये दिन बीबी को छोड़ना, कल दूसरी शादी करना और बुढ़ापे में जाकर कहीं सब लोग कहीं ऑर्फनेज में बैठे हैं। दस हजबंड किये , दस बीबीयाँ करी सब ऑर्फनेज में जा के बैठे हैं। ऐसे समाज तैयार हो जाता है। ऐसे धर्म को पाने से वो लक्ष्मी स्वरूप नहीं होता।
बनायी हुई है हमारे पूर्वजों ने हमारे लिये कि लक्ष्मी जो है वो एक अब लक्ष्मी की व्याख्या कितनी सुन्दर कमल दल पे खड़ी हुई है। माने किसी पे अपना असर नहीं डालती। वो बड़ी सी अपनी मुठ्ठी ले जाकर के किसी को | दिखाती नहीं है, लक्ष्मी स्वयं हो कर के भी और एक हाथ उनका दान और एक हाथ उनका आश्रय में होता है। जिससे वो लोगों को दान देती हैं और एक हाथ से आश्रय देती है। और दो हाथ ऊपर में जिसमें हैं जिसमें कि दो हाथ में कमल है, गुलाबी रंग के। गुलाबी रंग का लक्षण होता है कि उनके हृदय में प्रेम है सबके लिये। इस कमल का ये अर्थ होता है कि ये कमल में अगर भँवरा, जिसके अन्दर इतने काँटे होते हैं! वो काला, कभी वो आकर के भी उसमें बैठ जाए तो भी वो अपने अन्दर उसे समा लेता है। अपनी सुंदर शय्या पे उसे सुला लेता है। वही लक्ष्मीपति हो सकता है जिसमें ये गुण हैं। लेकिन पैसे वाला, मैं उसको लक्ष्मीपति नहीं मानती। अगर किसी गधे के ऊपर आप रुपया टाँग दीजिये तो क्या वो लक्ष्मीपति हो सकता है? लक्ष्मीपति होने के लिये कम से कम ये चार गुण में होने चाहिये। इस तरह से लक्ष्मी जो है फिर जागते-जागते महालक्ष्मी तत्त्व को आती है । तब मनुष्य मनुष्य खोजने लग जाता है। और जब वो खोजने लग जाता है तब वो ऊपर की ओर उठता है। जिस वक्त वो उठता है तब श्री जगदम्बा जो है वो हमारे हृदय चक्र में रह कर के अकेली सब दुष्टों से जो जो ऐसे साधकों को सताता है उन सबका खण्डन करती है। मार डालती है। उनका नि:पात कर देती है। खत्म कर देती है। उनको किसी से डर नहीं लगता। और खड़े हो कर के, आपको आश्चर्य होगा कि कल परसों तो मैंने तांत्रिको पे ही कहा था, १९७३ में हमारे यहाँ एक बड़ा कावसजी जहाँगीर हॉल है, मैंने खड़े होकर एक के एक -एक दुष्ट गुरुओं का नाम कौनसे राक्षस पड़े थे, कौन नरकासुर था, कौन रक्तबीज था, कौन दूसरे असुर था, ऐसे सबके नाम लेकर के कहा। तो हमारे पति के पास खबर गयी कि, 'इनको तो कल मार देंगे लोग पकड़ के।' मैंने कहा, 'मारे तो सही। हाथ तो उठाये मेरे ऊपर में।' लेकिन किसी ने भी अखबार में या किसी ने भी किसी कोर्ट में जा कर के कुछ दाखिल नहीं किया। क्योंकि ये सत्य की बात है। तो यहाँ जगदम्बा खड़ी होकर के अकेली और सारे दुष्टों का सामना करती हैं कि मेरे ये बच्चे परमात्मा को खोज रहे हैं वो पूर्ण आरक्षित ऊपर आ जायें। उनको कोई तकलीफ न हो। उनको कोई परेशानी नहीं । उनके आँचल में छिपे हये ऊपर की ओर उठते चले। वो जगदम्बा का चक्र यहाँ पर बना हुआ है। इसके बारे में मेडिकली इस तरह से समझाया जा सकता है कि हमारा जो यहाँ पर स्टर्नम नाम की हड्डी है, यहाँ (हृदय में) इसको स्टर्नम बोन कहते हैं, और इस हड्डी में जगदम्बा जो है जिसको की भ्रमरांबा कहते हैं वो भ्रमर बनाती है। जिसको कि मेडिकल साइन्स में अँटीबॉडीज कहते हैं, यहाँ पैदा हो जाती है। और ये जो होती है, ये हमारे अन्दर अगर कहीं से भी आक्रमण हों तो उस आक्रमण को पूरी तरह परास्त कर सकती हैं और उनसे लड़ती है। ये हमारे स्टर्नम बोन में बारह वर्ष की उमर तक बनती है। और उसके बाद सारे शरीर में फैल जाती है। और जैसे की कोई आफत सामने से आयें तो एकदम ये हड्डी जोर से ऊपर-नीचे होने लग जाती हैं। और उसका जो संदेश हैं, उसका जो मेसेज है वो उन अँटी बॉडीज में पहुँच जाता है, वो तैयार हो जाते हैं। और तैयार होने के बाद वो लड़ते हैं और परास्त कर देते हैं। लड़ते रहते हैं। जब तक कोई भी परेशानी मनुष्य को रहेगी ये देवी के भ्रमर लड़ते रहते हैं । ये तो देवी की व्यवस्था है हमारे लिये। लेकिन जब मनुष्य दैवी स्थिति में आता है तो उसके अन्दर माँ का प्यार उमड़ पड़ता है। अपने माँ को भी पहचानता
है। हमारे पति भी, लोगों को बहुत प्यार हो जाता है। और वही प्यार अब वो दुनिया को बाँटना चाहता है। उससे रहा नहीं जाता। कोई आदमी परेशान है, दुःखी है, हर इन्सान जहाँ भी बैठा होगा, 'भाई तुम्हे क्या तकलीफ हैं, तुम्हें क्या है?' उसके लिये दौड़ता है और मेहनत करता है। एक जिसे हम करुणा कहते हैं, कम्पॅशन कहते हैं, वो मिशनरीओं जैसे लोगों को घर में ला कर के, मरते हये लोगों को ईसाई धर्म नहीं सिखाते। और फिर उसके बाद नोबल प्राईज मिलता है ऐसे लोगों को। ऐसा नहीं करता । वो जो उसके अन्दर कम्पॅशन है, वो करुणा है, उस करुणा की शक्ति से लोगों को उनकी बीमारी , उनकी तकलीफें उनसे बचाता है। उनको ठीक करता है। ये नहीं कि उनके ऊपर लगा दिया कि तुम हिन्दू हो, तुम मुसलमान हों, तुम ख्रिश्चन हो... ये कुछ नहीं। इसका क्या मतलब है। गधे के ऊपर कुछ भी लगा दीजिये तो गधा तो गधा ही रहता है। लेकिन उसको वो महामानव बना देते हैं। बहुत से लोग हमारे पास बीमारी के लिये आते हैं। और आज वो बड़े-बड़े सहजयोगी बने बैठे हैं । उसकी करुणा इतनी शक्तिशाली होती है कि कहा जाता है देवी के लिये 'कटाक्ष कटाक्ष निरीक्षण' एक कटाक्ष ही ऐसे आदमी का किसी पर पड़ जाए तो वो एकदम स्वस्थ हो जाता है। स्व...स्थ, स्व में जो स्थित है स्वस्थ है। हमारे यहाँ जितने भी शब्द हैं उनको आप देखें तो सब स्व पे ही आते हैं। स्वस्थ। वो आदमी स्व में स्थित हो जाता है । और आप उसकी शकल से पहचान सकते हैं, 'अरे अभी तो आप बीमार थे और ये क्या हो गया?' इसमें कोई चमत्कार-वमत्कार कुछ नहीं। जो बात आप जानते नहीं वो बात आपके लिये जरूर चमत्कार ही लगेगा, वो दूसरी बात है। लेकिन ऐसा कोई चमत्कार नहीं है। आपके अन्दर ये सब चीजें हैं। जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तो आपके अन्दर अपने आप ही स्वस्थता आ जाती है। अब बहत से औरतों को आपने सुना है कि ब्रेस्ट कैन्सर की बीमारी हो जाती है। ये क्यों होती है? वजह ये है कि पति जात किसी तरह से स्त्री को रक्षित भावना नहीं देता सेन्स ऑफ सिक्युरिटी नहीं देता है। या उसका पिता या किसी तरह से स्त्री हर समय इनसिक्युअर अरक्षित महसूस करें तो उसको ये बीमारी हो जाती है क्योंकि उसका जो मातृत्व है वो ही हिल जाता है। मातृत्व के ऊपर का विश्वास चला जाता है। जैसे एक कवि ने कहा है, 'हाय अबला, तेरी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।' ऐसी बात है कि स्त्री के जब आरक्षित स्वभाव को आप हिला देते हैं तो उसको ये बीमारी हो जाती है। वो शायद इसको जानती न हो । अब राइट साइड़ में जो हमारे, जिसे हम कहते हैं कि राइट हार्ट, हालांकि हार्ट राइट में नहीं होता है। लेकिन 6. इसका जो हार्ट चक्र का, हृदय चक्र का, जिसे अनहत भी कहते हैं वो राइट हिस्सा है उसमें अगर त्रुटियाँ आ जायें तो अस्थमा की बीमारी हो जाती है। अब ये श्रीरामचंद्र जी का चक्र है। हम श्रीराम, श्रीराम, श्रीराम तो बहुत करते रहते हैं लेकिन ये श्रीराम हमारे अन्दर राइट हार्ट में है और जो लोग श्रीराम, श्रीराम, श्रीराम ज़्यादा करते हैं उनको ये बीमारी ज़्यादा होती है। इसका और एक कारण है श्रीराम हमारे पिता हैं। हमारे अगर पिता का स्थान किसी तरह से खराब हो गया हो, अगर हमने अपने पिता को बचपन में ही खो दिया हो या हम भी एक बुरेसे पिता हो या हम अपने बच्चों को छोड़-छाड़ के दूसरे की चीज़ों में व्यस्त रहते हैं और पति होकर के भी पत्नी की ओर हमारी दृष्टि ठीक नहीं, उसको हम तंग करते हैं। पत्नी की तरफ से हम परेशान हैं तो भी जैसे कि श्रीराम वन में भटकते रहे ऐसे अब जो अपनी पत्नी के लिये वन में भटक रहा हो या पत्नी की तरफ से तकलीफ पा रहा हो या तकलीफ दे रहा मनुष्य हो, तो पति और पिता का स्थान श्रीराम का जो चक्र है, जिसे हम राइट हार्ट कहते हैं उसके कारण ये बीमारियाँ हो
सकती हैं। हमारे अन्दर अनेक सी बीमारियाँ ऐसी हैं जो सहज में ठीक हो सकती हैं। अगर हमने श्रीराम को खड़ा कर दिया तो फिर आपको अस्थमा कैसे हो सकता है। लेकिन सबसे ज़्यादा ये बीमारी जो सरकारी नौकर हैं, ब्यूरोक्रॅट्स या जो सत्ताधीश हैं या सत्ता से गिर गये पर अभी सत्ता के पीछे लगे हुये हैं या जिसे हम लोग कहते हैं पोलिटिशिअन्स इनको ज़्यादा होती है। श्रीराम जो हैं वो सॉक्रेटिस के वर्णित बेनोवेलंट किंग है। बेनोवेलंट किंग, जो बेनोवेलंट पे विश्वास करते हैं। लोगों का हित ही जिनका एक लक्ष्य है ऐसे श्रीराम सॉँक्रेटिस ने वर्णित कर रखे हुे हैं। लेकिन ऐसे कितने हैं। इन ब्यूरोक्रॅट्स में ऐसे कितने लोग हैं कि जो ये सोचते हैं कि हम इनके बेनोवेलन्स के लिये हैं, हम इनके हित के लिये हैं। हिन्दुस्थान में तो जैसे, भगवान ही बचाये रखे, मुझे तो समझ में ही नहीं आता कि इस ब्यूरोक्रॅट्स का क्या हाल होने वाला है। और इन पॉलिटिशिअन्स का भी क्या हाल होने वाला है। बड़ी घबड़ाहट होती है एक माँ की दृष्टि से। क्योंकि एक छोटीसी चीज़ है, एक जमीन खरीदनी है । तो उन्होंने कहा, 'माँ, ये तो मिल नहीं सकती जमीन।' मैंने कहा, 'भाई, पैसे दे रहे हैं तो जमीन क्यों नहीं मिलेगी?' 'ना, उसमें आप तो वो पैसे खाते हैं।' 'पैसे क्या खाते हैं । उनको खाना - वाना भेज दो। पैसा क्यों? वो पैसा खाते हैं, वो पैसा खाते हैं, वो... सब पैसा ही खा रहे हैं!' में नहीं हैं। श्रीराम का भजन करने से आप हितकारी राजा नहीं हो सकते हैं! हितकारी जो राज्य श्रीराम तुम करेगा, वही इन्सान श्रीराम के साम्राज्य में भी उनका सेवक हो सकता है। इनमें से कोई लोग हैं उनको इस कदर भूत सवार होता है कि इस चोर को पकड़ो, उस चोर को पकड़ो, उस चोर को पकड़ो, एकदम पागल के जैसे हो जाते हैं। इस पकड़ धकड़ में खुद करके ही उनके अन्दर श्रीराम लुप्त हो जाते हैं। श्रीराम ने ये जो सबका उद्धवार किया था। उनकी जो उद्धारक शक्ति है वो आपके अन्दर जागृत हो जाती है। जैसे कि वाल्मीकी का उद्धार हुआ। अहिल्या का उद्धार हुआ। और वो प्रेम की शक्ति जहाँ की शबरी के बेर इतने प्रेम से खायें, इतने चाँव से खाये। वो सादगी जहाँ पैर से चप्पल उतार कर के, जूते उतार कर के और जमीन पर चल कर के घूमते रहे। सारे महाराष्ट्र में हमारे उन्होंने अपने चरण के जो सुन्दर चैतन्य थे वो छोड़े है। वो श्रीराम अगर हमारे अन्दर जागृत हो जाये तो ये बीमारियाँ हमारे अन्दर आ नहीं सकती। अब लेफ्ट हार्ट माँ का स्थान है। अगर आपकी माँ बचपन में मर गयी हो, आपने अपनी माँ को देखा ही नहीं । जिसने माँ का प्यार जाना ही नहीं वो अच्छा पति नहीं हो सकता। अगर किसी का माँ दुष्ट होगी तो उसका पति भी बड़ा ही दुष्टता का ही होगा। जिसकी माँ ने उसे प्यार दिया, दुलार दिया, प्रेम से रखा वही पति अपनी पत्नी को भी प्यार कर सकता है। पर लेफ्ट हार्ट जो है बहुत ही नितान्त गहन चीज़ है। क्योंकि इसका सम्बन्ध माँ से है। जैसे आप जानते हैं कि भारतीय संस्कृति माँ पर आधारित है। मातृत्व भाव से भरी हुई है संस्कृति गणेशजी भी सिवाय अपने माँ के किसी को भी नहीं मानते थे। क्योंकि माँ से ही बाप को जाना जा सकता है। इसलिये माँ की धारणा अपने देश में विशेष मानी जाती है। लेकिन जब आपका हार्ट पकड़ जाता है, लेफ्ट हार्ट, तो सबसे पहले आप पर जो आघात आता है वो ये कि आप शुष्क स्वभाव के हो जाते हैं। आपमें शुष्कता आ जाती है। वो आर्द्रता नहीं जो देवी का सांद्र करुणा, जिसकी कोना में आर्द्रता है। वो आर्द्रता आपमें नहीं रहती। आप शुष्क इन्सान हो जाते हैं। ऐसे कि
अगर आपको जगाना भी हो तो एक लकड़ी से जगाये तो अच्छा है नहीं तो उठ के मारने को दौड़ेंगे। बात करने जाये तो खाने को दौड़ेंगे। एक शुष्क व्यक्ति आप हो जाते हैं। और इस शुष्कता को भरने के लिये आपको अपने माँ का स्मरण करना चाहिये कि जिसने कितना आपको प्यार दिया और कितने दुलार से आपको बड़ा किया । एक साहब थे। जिनका नाम था धर्मदास और वो बहुत गलत काम करते थे। शास्त्रीजी की बात मुझे याद है। वो जब आये तो उनसे कहने लगे कि, 'धरमदास जी आपके माँ ने क्या सोच के आपका नाम धरमदास रखा?' हम लोगों के नाम ऐसे हैं, करुणासागर, और हाथ में लकड़ी लेकर करुणासागरजी खड़े हुये हैं। तड़ातड़ मार रहे हैं। तो इस तरह के विपर्यास जो जीवन में हम देखते हैं इसका कारण ये है कि मातृत्व के प्रति आदर नहीं। खास कर के मुसलमानों ने जो हमारे ऊपर अपकार किया वो ये है, मैं तो मानती हूँ कि उनकी भी बड़ी तपस्या थी जिन्होंने इस धर्म को बनाया और पनपाया है। लेकिन उनके जो अनुचर थे, उन्होंने , जैसे हम लोगों ने भी बहुत गलतियाँ की, उन्होंने बड़ी भारी गलती की कि स्त्री का मान नहीं किया। स्त्री का मान नहीं है, माँ का मान नहीं है। माँ कोई चीज़ ही नहीं होती। हाँ, अगर माँ दुष्ट हो, खराब हो, उसके अन्दर गन्दगी हो, वो बूरी चीजें करती हों तो ठीक है, उस माँ को भी, जैसे भरत ने अपने माँ को सुनाया था और उसको दूर रखा था। उसको छोड़ करके और राम के पादुकायें ले कर के रामराज्य किया था। वो बात दूसरी है। पर इस देश की माँ ऐसी नहीं है। और इस देश में कुछ एकाध ऐसी हो भी जाए तो भी बाकी सब लोगों को देखते हये समझ लेना चाहिये कि जिसने माँ के चक्र को दुखाया हो या जो माँ से वंचित रहा हो, जिसे प्यार नहीं मिला हो और इससे बहुत ही नज़दीक हृदय का ही ऑगर्गन है, हृदय ही है। अब हृदय की पकड़ जब आदमी या मनुष्य को क्यों होती है। क्योंकि जब वो अति कर्मी हो जाता है। अति कर्म में जब बाह्य, बाह्य की तरफ जाते जाता है, अपनी आत्मा को भूल जाता है। या किसी गलत इन्सान के सामने इस सर को झुकाता है। इसलिये आप देखिये , कि कहा गया है कि, किसी के सामने सर को झुकाना नहीं चाहिये। मैं आपसे भी यही कहती हूँ कि मेरे सामने सर मत झुकाईये । मेरे पैरों को आप मत छुईये। अभी कोई छूने की जरूरत नहीं। क्योंकि ये जो मस्तिष्क है, ये जिसके सामने झुक गया, गलत लोगों के सामने , तो हार्ट में पकड़ आ जायेगी लेफ्ट साइड से और राईट साइड की पकड़ उसमें आती है जो अतिकर्मी होता है । जिसका चित्त बाहर की ओर होता है। और आत्मा की ओर चित्त नहीं होता है। आत्मा की ओर चित्त करने के लिये आपको कुण्डलिनी का ही जागरण करना पड़ेगा। जब तक कुण्डलिनी का जागरण नहीं होगा आत्मा एक हवाई चीज़ हो जाती है। ये समझ नहीं पाते कि आत्मा क्या चीज़ है? ये परमात्मा का हमारे अन्दर प्रतिबिंब है। और जब हमारा चित्त बाहर की ओर दौड़ता है तब हम अपनी आत्मा की ओर दृष्टि नहीं दे पाते। जब हम अपनी आत्मा की ओर दृष्टि नहीं दे पाते तो आत्मा रुष्ट हो जाता है और जब वो रुष्ट हो जाता है तो हृदय का स्पंदन भी गड़बड़ हो कर के कभी-कभी तकलीफ हो जाती है। या हम गलत तरीके से आत्मा की ओर दृष्टि देते हैं। किसी गलत अनधिकार किसी आदमी के पास जाते हैं। जो आदमी अनधिकार चेष्टा करता है ऐसे आदमी के पास जाकर के हम दीक्षायें लेते हैं, उनके पाँव पर गिरते हैं तब ये आत्मा रुष्ट हो जाता है। कि क्यों ये देखता है कि ये किसके पैर छू रहा है? तू मानव है। तुम्हारे अन्दर मेरा वास है। जब तक तू ऐसे लोगों के पैर छूता रहेगा में तुझसे रुष्ट रहूँगा।' इसलिये आत्मसाक्षात्कार के बाद ही ये सब व्याधियाँ छूट सकती हैं। नहीं तो नहीं छूट सकती।
एक महाशय हमारे पास आये थे। वो कहीं रोटरी क्लब के प्रोग्राम में मिल गये। बड़े पीछे लग गये। 'माँ, हमारे हार्ट की हमें तकलीफ है अन्जायना की और हम जा रहे है बोस्टन। तो बहुत रुपया-पैसा खर्च होगा। अगर आप मेहरबानी करें।' मैंने कहा, 'अच्छा, आ जाईये।' पूना में हमारे पास आयें। पूना में आ कर के और उन्होंने हमसे कहा कि, 'आप हमारा कुछ इलाज करिये।' मैंने कहा, 'अच्छा!' उनकी जब हमने कुण्डलिनी जागृत कर दी। तो एकदम से उनको थोड़ा सा दर्द हुआ। और फिर से हार्ट अटैक आ गया। और मैं उठ के चल दी। मुझे दूसरी जगह जाना था। जैसे कहते हैं ना 'रमते राम', वैसे ही। जब में बाहर जाने लग गयी। तो एकदम ड्रे, दुःख में मुझे देखने लगे कि, 'माँ ऐसे कैसे छोड़ के जा रही है।' मैं वापस आयी।| मैंने कहा, 'भाई तुम ठीक हो गये हो। जाकर के डॉक्टर को दिखाओ।' 'ठीक हो गये हैं', मैंने कहा, 'जाओ दिखाओ!' जब डॉक्टर के पास गये, तो डॉक्टर कहने लगे कि, 'भाई, ये तुम्हारे ही एक्सरे थे क्या?' और अच्छे घूम रहे हैं आजकल। ऐसे बहुत से लोग ठीक हो गये। लेकिन मैंने उसमें कुछ नहीं किया। सिर्फ आपका चित्त जो है आत्मा की ओर आकर्षित किया । पर इन महाशय को तो दूसरी बीमारियाँ थी। वो सब गलत-सलत लोगों के पीछे दौड़ते थे। और उन्होंने मंत्र भी गलत लिये थे। जब मंत्र आप गलत करें तब लेफ्ट विशुद्धि और हार्ट इसकी जब पकड़ हो जाती है तो अन्जाइना की बीमारी हो जाती है। लेकिन अगर आपका हृदय ऐसी चीज़ों की ओर नहीं खींचता है, परमात्मा की कृपा से कहिये, पूर्वजनम के सुकृत से, किसी भी तरह से ऐसी जगह आपका दिल नहीं जाता है। ये तो पाखण्डी है, ये तो झूठा है, ये तो ढोंगी है इसके पास में नहीं जाने का मुझे। तब हृदय सच्चे रहता है 'दास कबीर जतन से ओढी, जैसी की तैसी रख दी नीचे चदरिया।' जब ऐसे घटित होता है तब हार्ट अटैक आने की कौनसी बात है। आत्मा संतुष्ट है आपसे| आप सब यहाँ में बैठे हैं, जब मौका आयेगा कुण्डलिनी जागृत होगी ही । और आप फटाक् से पा लेंगे। इसे आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। विशुद्धि चक्र जो है श्रीकृष्ण का चक्र है। इसमें सोलह कलायें हैं। इसी प्रकार सोलह सब प्लेक्सेस, जिसको कि हम पंखुडियाँ कहते हैं, हमारे अन्दर हैं। और जो कुछ भी हमारे अन्दर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, आदि जितने भी हमारे अन्दर, जिसे वॉवेल्स कहते हैं वो हैं। वो सारे इसके बीज मंत्र हैं। जिस वक्त आप कोई गलत मंत्र | कहते हैं तो वो मंत्र की वजह से कोई गलत इन्सान की प्रेतात्मा यहाँ आ के बैठ जाती हैं। जब आप गलत पूजन करते हैं गलत तरीके से आप किसी भी मेडिटेशन को या किसी भी गलत गुरु के पास जा कर के और दीक्षा लेते हैं ये आपका चक्र पकड़ जाता है। ये चक्र पकड़ जाने से आपको अनेक बीमारियाँ होती हैं। उसमें से विशेष करके तो बीमारी होती है, जिसे हम थ्रोट कैन्सर कहते हैं। जो आपके कंठ के पास शुरू होता है और धीरे-धीरे, बढ़ते -बढ़ते नीचे की ओर बढ़ता हुआ सारे आपके लंग्ज को पकड़ लेता है। पागल जैसे कुछ बॉँध लिया सिर पे, भगवान के नाम पर गले में कुछ लटका लिया, चिल्लाना शुरू कर दिया, हरे राम, हरे राम'। ये सब नाटक करने की क्या जरूरत है! परमात्मा अन्दर है, सबकुछ अन्दर में ही होगा, बाह्य में इस तरह के अनेक नाटक करना, कभी कुछ करना, कभी दूसरा तमाशा करना। अन्दर ही में जान पड़ता है कि कोई गलत काम कर रहे हैं और इसलिये मनुष्य कभी-कभी दोषी महसूस करता है। और कभी-कभी तो लोग सभ्यता की दृष्टि से सोचते हैं कि हमेशा दोषी रहना ही अच्छा है। जैसे सवेरे उठकर उनसे बात करो तो, 'माफ करो, माफ প
करो, माफ करो, माफ करो'। 'भाई , ऐसा क्या हो गया ? क्यों ऐसे बात कर रहे हो? ठीक से तो बात करो।' सबेरे से उठते ही लगता है कि मैंने कुछ गलती कर दी है। अंग्रेजी भाषा भी ऐसी है कि बोलते वक्त 'I am afraid' मैंने कहा कि, 'भाई, किस के लिये अफ्रेड? आप से तो दुनिया अफ्रेंड है।' सत्रह मतेबा 'I am sorry, I am sorry, I am sorry, I am sorry', sorry है तो क्यों ऐसा काम करते हो। तो जिस आदमी में इस तरह की न्यूनता की भावना आ जाती है वो भी लेफ्ट विशुद्धि जब साफ होती है तो आश्चर्य होता है लोगों को कि लेफ्ट विशुद्धि पकड़ लेती है। सहजयोग में लेफ्ट विशुद्धि जब साफ होती है तो आश्चर्य होता है लोगों को कि, 'माँ, सब तरह की स्पॉन्डिलाइटिस, सब तरह की परेशानियाँ, माँ, पता नहीं कहाँ भाग जाती है!' और ये विष्णुमाया का स्थान है। जो कृष्ण की बहन है। जिनसे बहन और भाई का विचार नहीं होता, जो दूसरी औरतों की तरफ गन्दी निगाहों से देखते हैं, उनका ये चक्र पकड़ जाता है, जिनमें वो पवित्रता की भावना नहीं होती है उनका भी ये चक्र पकड़ जाता है। क्योंकि अन्दर से वे जानते हैं कि वो गलत काम कर रहे हैं तो वो जो गलत काम कर रहे हैं अन्दर से वो भावना बन जाती है। कभी-कभी झूठ-मूट में ही बनती है और कभी-कभी सचमुच में, चाहे जो भी हो वो बनती है, चाहे जो भी हो उसे निकालना आसान है। सब से तो बुरी बात ये है कि सुबह से शाम तक बताया जायेगा कि तू बड़ा पतित है और मेरे लिये अगर पाँच सौ रूपये ला दीजिये तो मैं तुम्हारा पाप मोचन कर दूँगा। माने आपका पैसा मोचन होते ही आपका पाप मोचन हो जायेगा ? और फिर रात-दिन यही खोपड़ी में ड्राला जाता है कि, 'तुम पापी हो, तुम पापी हों, तुम पापी हो, तुम पापी हो...' तो मनुष्य सोचने लगता है कि, 'मैं पापी हूँ।' इसमें भी मैं देखती हूँ कि कैथलिक धर्म में तो कितनों की तो लेफ्ट विशुद्धि हमेशा पकड़ी रहती है। जैसे, इनको तो जाकर के कन्फेशन करना पड़ता है कि, 'मैंने पाप किया' और अगर नहीं भी किया होगा तो भी कहना ही पड़ता है क्योंकि जिस दिन चर्च जाओ, तो ये कहना ही पड़ता है। अजीब-अजीब परम्परा से भी मनुष्य इसे पाता है। गलत मंत्र कहने से होता है। अनेक चीज़ों से लेफ्ट विशुद्धि पकड़ी जाती है और कहना चाहिये कि आज भी सबकी वही ज़्यादा पकड़ी हुई है। सिगारेट पीने से, तम्बाकु खाने से सब से लेफ्ट विशुद्धि पकड़ी जाती है। अब राईट विशुद्धि तो ऐसे लोगों की पकड़ती है जो कि बहुत जोर जोर से डाँट कर बोलते हैं, चिल्लाते हैं और बिगड़ते हैं। और जिनका गुस्सा बड़ा तेज़ होता है। और जो प्रेम से बात करना जानता ही नहीं है । और जो बहुत ज़्यादा भाषण देते हैं, जिनको कोई ज्ञान नहीं, जिन्होंने आत्मा को पाया नहीं, तो भी लेक्चर झाड़ते हैं, उनकी भी राईट विशुद्धि पकड़ती है। और राईट विशुद्धि जो है वो विठ्ठल का स्थान है, श्री विठ्ठल का स्थान है। इसको विठ्ठल के मंत्र से ठीक किया जा सकता है। इससे लोगों को अनेक तरह की बीमारियाँ हो जाती है। इस तरह गले से सम्बन्ध है। बीच में श्रीकृष्ण का स्थान है। जिस वक्त कुण्डलिनी श्रीकृष्ण के स्थान पर स्थिर होती है तब मनुष्य साक्षी हो कर के उस योगेश्वर की लीला देखता है। यह सारा संसार लीलामय है। इसमें इतनी हड़बड़ाहट, इतनी परेशानी की कौनसी बात है। ये तो बस नाटक, सब नाटक देखते जाओ। इस नाटक को देखते ही बन जाता है। जब आप देखते हैं कि नाटक है, थोड़ी देर तो गड़बड़ाते है, उसके बाद जब स्थिर हो जाते हैं, जब आप स्थापित हो जाते हैं तब आप जानते हैं कि ये नाटक है और इस नाटक को प्राय: ही जान लेना आपके लिये बड़ा ही सुखदायी होता है। क्योंकि
फिर जो स्थितप्रज्ञा की भाषा है जिसे श्रीकृष्ण ने बताया है वो सिद्ध हो जाती है । कहना नहीं पड़ता है कि अब आप परेशान मत होना। ऐसा आदमी कोई परेशान नहीं होता है। हमें तो आश्चर्य ही होता है कि क्यों सब परेशान हो रहे हैं। परेशान होने से तो कोई बात होने वाली नहीं। तो क्यों बेकार में परेशान हों और बर्बाद करे अपने एनर्जी को लेकिन वो कहने से नहीं होता, जिसको आदत है वो परेशान होगा ही और हमें तो कोई कोई लोग कहते हैं कि क्योंकि आप अपने लिये परेशान नहीं होते इसलिये हम आपके लिये परेशान होते हैं। तो मैंने कहा कि, 'ठीक है, अगर आपको परेशान होना है तो होते रहिये, ऐसी तो कोई परेशानी की बात ही नहीं है।' अब ये मैं बताऊंगी कि आज्ञा चक्र जो है वो यहाँ पर है। और ये महाविष्णु का स्थान है। आज्ञा चक्र आपका बहुत जोर से चलना शुरु हो जाता है, जिस वक्त आप बहुत ज़्यादा सोचते हैं। आगे में, यहाँ पर जब बहुत ज़्यादा सोच शुरू हो जाती है तब आज्ञा चक्र चलता है। आज्ञा चक्र तब भी चलता है जब मनुष्य बहुत ज़्यादा अहंकारी होता है। जब उसमें अहंकार आ जाता है तो उसका आज्ञा चक्र बहुत चलता है। और ऐसा आदमी जब अहंकार के दमन का प्रयत्न करता है तो वो अपने ही छाया के साथ लड़ते रहता है। अहंकार भी अपनी छाया मात्र मिथ्या है। वो कोई और चीज़ है नहीं। तो वो अपनी ही छाया के साथ लड़ते रहता है और वो उससे लड़ते-लड़ते, झूझते-झूझते वो और भी थक जाता है और तब वो दूसरे मार्ग ढूंढता है, जैसे कि वो शराब पीने लग जाता है या किसी और औरतों के घर जाना शुरू कर देता है, भागने के लिये, अपने से पलायन करने के लिये क्योंकि वो देख नहीं पाता है अपने अहंकार को और ये स्थिति बहुत लोगों की हो जाती है, वो तंग आ जाता है। अपने अहंकार से कि बाप रे ये कितना खाया जा रहा है हमें। ये एक बड़ी बीमारी अब आने वाली है जो कि मैंने अमेरिका में बतायी है, एड्स के बारे में बताया था। और इसके बाद में एक नयी बीमारी अल्झाइमर, अब जो शुरु हुई है। उसके बारे में बताया था और अब तीसरी बीमारी के बारे में बता रही हैँ कि ऐसे लेगों को पैरेलिसीस हो जाएगा, जिसका आज्ञा चक्र बहुत जबरदस्त चलेगा और जिनमें अहंकार बढ़ेगा उन्हें पैरेलिसीस होने के बाद वो इस तरह को पैरेलिसीस हो जायेगा कि वो चेतन बुद्धि से कॉन्शस माइंड से अगर कोई काम करना चाहेगा तो कर नहीं पायेगा। ऐसे तो चलते-फिरते रहेंगे औ फिर जब सोचेंगे कि मैं चल रहा हूँ तो एकदम से गिर जायेंगे। और वो बीमारी अब शुरू ही हो गयी है और अब दो-चार पेशंट अब देखना भी शुरू कर दी है। सो अहंकार से लड़ने से नहीं होगा। अहंकार से झुंझने से नहीं होता है। ये गलतफहमी है कि हम अहंकार से लड़ सकते हैं। अहंकार तो हमारे ही बनायी हुई मिथ्या बात है कि हम दुनिया भर की आफत उठाये जा रहे हैं। मैं कभी-कभी एक कार्य बताती हूँ कि कुछ लोग प्लेन से जा रहे थे, देहाती थे। उनसे कहा कि, 'इतना सामान नहीं ले जाना।' तो कहा कि, 'अच्छा, ठीक है।' और फिर वो प्लेन पर बैठे और सामान अपने सर पर रख लिया और कहने लगे कि, 'हम तो अपने सामान का बोझ ढो रहे हैं।' अरे, जिस प्लेन ने आपका बोझ उठाया हैं वो ही इस प्लेन का बोझ उठा रहा है। जिसने आपको बनाया है, जो कर्ता-भोक्ता है। वही सब कुछ करता है । सबकुछ सिर्फ कहने से कुछ नहीं होता है। ये तो आपकी स्थिति है, जब ये स्थापित हो जाती है। जब कुण्डलिनी का जागरण होता है और आज्ञा को लाँघ जाती है तो निर्विचारिता आपमें स्थापित हो जाती है। उसके उलटे अगर आपके पिछले हिस्से में ये चक्र गर आपमें पकड़ा जाये तो डाइबिटीस की वजह से यहाँ पर जब वो पकड़ा जाता है (पीछे
की आज्ञा) तो आज्ञा चक्र के चारों ओर फैला हुआ स्वाधिष्ठान जब पकड़ा जाता है तो आँखों का नुकसान हो जाता है। तो उससे भी ज़्यादा आपको अगर आप गलत गुरुओं के पास गये तो आपकी आँख अंधी हो सकती है। आँख में अंधापन आ सकता है। आँख की कमजोरी सी आ सकती है। आपके बच्चे अंधे हो सकते हैं इससे क्योंकि आप अंधेपन से वहाँ गये थे। तो पक्का अंधापन आपके अन्दर आ सकता है। लेफ्ट आज्ञा, जिसे हम कहते हैं पिछला आज्ञा है। इसके पकड़ने से अनेक अनेक बीमारियाँ हो सकती है। अब इस वक्त समय नहीं है इसलिये मैं बताती नहीं हूँ लेकिन इसके साफ होते ही मनुष्य की दृष्टि में एक चमक आ जाती है। एक ज्योत आँख में आ जाती है। और जिसके आज्ञा की चमक आ गयी ऐसे आदमी की दृष्टि भी अत्यंत होती है। ये इतनी शुभदायी होती है कि ये जिस पर पड़ जाये उसका शुभ हो जाये । ऐसी व्यक्ति की सारी आकृति ही शुभदायी होती है। उस आकृति को काँटजाँच करने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि वो आकृति ही ऐसी बनी रहती है। उसके खड़े होते ही उसमें वो व्यक्तित्व होता है कि मनुष्य एकदम से ही उसको पा करके उसका शुभ शुद्ध का लाभ उठा सकता है। अरे आप शुभ की बात बहुत करते हैं लेकिन आप ये तक नहीं जानते हैं कि शुभ और अशुभ क्या होता है। जब कोई चीज़ शुभ होती है तो उसमें से चैतन्य बहना शुरु हो जाता है। उसमें से चैतन्य जब बहे तो सोच लेना कि ये चीज़ शुभ है और नहीं तो नहीं। तो ये पहली चीज़ है जो हमारे अन्दर आती है, जिसे कि निर्विचार समाधि कहते हैं। जिसे कि पहले के जमाने में बहुत लोग पाते थे वो आप को एकदम स्थापित है और आप निर्विचार समाधि में जाते हैं। और इसको पाने के लिये कोई सा भी विचार मन में आया तो 'उसको क्षमा कर दिया, क्षमा, क्षमा' ये ईसामसीह ने हमको सिखाया है। ईसामसीह दूसरे तीसरे कोई नहीं है, ये श्रीगणेश का अवतरण इस संसार में है। सारे उनका वर्णन गर आप पढ़ें महाविष्णु का, देवी महात्म्य का तो आप जान हुआ जायेंगे कि, ये साक्षात वही है। न तो वो ईसाईयों के हैं न तो वो हिन्दुओं के हैं न मुसलमानों के हैं, लेकिन वो सहजयोगियों के हैं। उनके सबसे बड़े भाई हैं औ वही जिस तरह श्री गणेश सब से पहले सहजयोगी है, उसी प्रकार ईसामसीह भी है। इस मसीह का नाम भी सुन्दर लिखा गया है। क्योंकि उनका नाम क्रिस्त है। क्रिस्त; हिब्रू में इन्हे क्रिस्त कहते हैं। क्रिस्त: श्रीकृष्ण से आया। राधाजी का भी स्वरूप महालक्ष्मी का था और राधाजी का स्वयं महालक्ष्मी का रूप था और राधाजी ने ही मेरी के नाम से ही जन्म इस संसार में लिया और उन्होंने ही ये जान लीजियेगा और ये उस राधा का ही पुत्र है जो श्रीकृष्ण से पैदा हुआ और जब वो बाप की बात करते हैं तो वे सिर्फ श्रीकृष्ण की बात करते हैं। ईसामसीह की सिर्फ दो उंगलियाँ ऐसी रहती है (अनामिका और मध्यमा वाली उंगली) ये उंगली (अनामिका) श्रीकृष्ण की है और ये ( मध्यमा) नारायण की है। दूसरा नाम उनका जो जेसू है उसको हिब्रू में येशु कहते हैं। आप जानते हैं यशोदाजी का नाम येश ही होगा, उनको येशु पुकारते थे , इसलिए राधाजी ने सोचा कि इनका नाम येशु लिखें। अभी ईसाईयों को कौन जाकर बताये और हिन्दुओं को कौन जाकर बताये? अगर मैं वहाँ ईसामसीह की बात निकालती हूँ तो लोग कहते हैं कि माँ आप तो सब लोगों को ईसाई बना रहे हैं। और जब मैं वहाँ श्रीकृष्ण की बात निकालती हूँ तो लोग कहते हैं कि मैं उनको हिन्दू बना रही हूँ। मुझे किसी को कुछ बनाने का नहीं है। मुझे सिर्फ आप जो हैं, आप की जो चीज़ खोयी है वो आपको देने की है, बस! इन सब झगड़े बाजी में मैं हूँ नहीं। आपकी जो अन्दर सुंदर स्थिति है उसको आपके लिये उसकी कुँजी जो है वो मुझे आप तक पहुँचानी है।
अब सबसे आखिर में सहस्रार आया, सहस्त्रार माने ये कि हजार पंखूड़ियों से बना हुआ सहस्त्रार है, जिसको कि अगर हम ब्रेन को अगर transuersection में काटे तो आप देख सकते हैं कि जैसे, पंखुड़ियाँ जैसे उसके हजार इस तरह से अलग-अलग खंड दिखाई देते हैं साफ तौर पर। अब डॉक्टरों का झगड़ा है कि नौ हजार अठानवे ही उसमें ये हैं, नाड़ियाँ और दो कम है इसलिये झगड़ा करेंगे। नौसो अठानवे, इससे पहले तो आपको छ:सौ ही मिली हुई थी। उसमें क्या रखा हुआ है। जिस वक्त यह सहस्र खुलता है तो जैसे कोई बड़ी सुन्दर दीपशिखायें जो कि शान्त, तापहीन है और जो कि अनेक रंगो से प्लावित है, सात ही रंग जिस में चमक रहे हैं, इस तरह से दिखाई देता है। कमल, सहस्रार का कमल इस तरह से खिलता है। और उसके अन्दर कुण्डलिनी जैसे कोई टेलिस्कोप खुलता है, उस तरह से खट्, खट्, खट् ऊपर आकर के और सोने ढक्कन जैसा जो ये आज्ञा चक्र है जो कि सूर्य का बिम्ब उसमें है उसको छेद करके यहाँ पर जो कि लिम्बिक एरिया है जो कि बीच में इस तरह से खोखली जगह है, जिसे लिम्बिक एरिया कहते हैं, उसमें से निकल करके और सहस्रार यूँ खुल जाता है। उसकी वजह ये है कि जैसे ही आज्ञा चक्र को भेदती है कुण्डलिनी, वैसे ही हमारे अन्दर जो इगो और सुपर इगो इस तरह की जो अवस्थायें बनी हुई है वो खींच जाती है इसलिये कर्म आपके सब खाली है। कुण्हलिनी ने और आपके अन्दर जितने भी कुसंस्कार थे सब खा लिये। और दोनो के दोनो इस तरह से पीछे हट जाते हैं और इस तरह से सहस्रार खुल के और आपके ब्रह्मरंध्र से आपको कुण्डलिनी की ठण्डी-ठण्ही हवा मिलने लग जाती है। कभी - कभी विशुद्ध चक्र खराब होने से हाथ में ठण्डी-ठण्डी लहरें महसूस नहीं होती है। विशुद्धि को ठीक करते ही आप इसे महसूस करते हैं। इनको कैसे ठीक करना है वरगैरे वगैरे। ये सब आपको ये लोग यहाँ बतायेंगे । अब आखिर में मैं बहुत आभारी हूँ आप सब के कि आपने इतने देर तक बैठकर सुना मुझे। ये ज्ञान हमारे मूल का है जिसकी सारे संसार को आज जरूरत है । वो हमें उन्हें देना है। उनको गणेश सिखाते सिखाते तो सात साल बीत गये हैं औरउसके बाद उनका विष्णु जी सिखाते-सिखाते और सात साल बीत गये। बारह वर्ष का वनवास मैंने कर लिया और पता नहीं अब और कितना वनवास करना पड़ेगा। लेकिन अगर आप लोग सुसज्ज हो जाये तो आप इनको ये सारी बातें बहुत सुन्दरता से समझा सकते हैं। अनन्त आशीर्वाद !