Public Program

Public Program 1986-10-12

Location
Talk duration
80'
Category
Public Program
Spoken Language
Hindi

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12 अक्टूबर 1986

Public Program

कोलकाता (भारत)

Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - Reviewed

1986-10-12 Calcutta Public Program (Hindi)

और आप सबसे मेरी विनती है, कि जो लोग परमात्मा की खोज में भटक रहे हैं, उन्हें भी पहले संगीत का आश्रय लेना पड़ेगा - उसके बगैर काम नहीं बनने वाला। क्योंकि अपने भारतीय संगीत की विशेषता यह है कि यह अत्यंत तपस्विता से और मेहनत से ही मिलती है। उसकी गंभीरता, उसकी उड़ान, उसका फैलाव, उसकी गहराई, उसकी नज़ाकत, सब चीज़ों में परमात्मा के दर्शन मनुष्य को हो सकते हैं। और सारा ही संगीत उस ओम(ॐ) से निकला है, जिसे लोग रूह के नाम से जानते हैं। इसलिए, जब इस संगीत से मनुष्य तल्लीन हो जाता है, उसके लिए आसान है कि वो परमात्मा को पाए। शायद आपको मेरी बात कुछ काव्यमय लगे और कुछ यथार्थ से दूर प्रतीत हो, शायद ऐसा अहसास हो कि मैं कोई बात को इस तरह से कह रही हूँ, जैसे कि संगीत कलाकारों को आनंद आये, किन्तु यह बात सच नहीं है। अपने अंदर भी सात चक्र हैं और सब मिला कर के बारह चक्र हैं, उसी प्रकार संगीत में भी सात स्वर और पांच और स्वर मिला कर के पूरा एक स्केल बन जाता है। हमारे चक्रों में जब कुण्डलिनी गति करती है, और जो स्वर उठाती है, वही स्वर हमारे संगीत में माने गए हैं। हमारा भारतीय संगीत बड़े दृष्टों ने, ऋषियों ने, मुनियों ने पाया हुआ है। वह चाहे किसी भी धर्म के रहे हों, वह किसी भी देश के हिस्से में पैदा हुए हों, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम वह कहीं भी उनका जन्म हुआ हो, लेकिन उन्होंने आत्मा को नींव समझ करके ही सारी संगीत की इमारत बाँधी हुई है। हवा में चीज़ उड़ने नहीं दी जैसे वेस्टर्न म्यूजिक का है। वेस्टर्न म्यूजिक तो कटी पतंग की तरह बहती रहती है, कभी ठंडी हो जाएगी, कभी गरम हो जाएगी, कभी कहीं बहेगी, कहीं कहीं बहेगी। लेकिन हमारा भारतीय संगीत एक चीज़ से हमेशा बँधा रहता है, और वो चीज़ है, हमारी आत्मा। अब आजकल मैं देखती हूँ कि लोग-बाग इस संगीत को पसंद नहीं करते ख़ास, न ही उसके समझने की इच्छा रखते हैं। उसकी वजह यह है कि हम लोगों के लिए कोई नई चीज़ आ गई है जो दीखने में आसान नज़र आती है। लेकिन आत्मा को पाना भी तो मनुष्य भूल गया है। आत्मा की बात करना भी पुरानी हो गई और आजकल फैशन में नहीं है। आजकल अगर कोई आत्मा की बात करता है, तो लोग सोचते हैं कि माताजी भी क्या पुराने ज़माने की बात ले बैठे, ये आत्मा-वात्मा कोई चीज़ है या नहीं और परमात्मा भी नाम की कोई चीज़ है या नहीं। लेकिन अब भी इस भारतवर्ष में कितने भी लोग परमात्मा की ओर से मुँह मोड़ चुके हों तो भी, उनकी डोर तो उन्हीं के हाथ में है, और कितना भी आप दूर चले जाएँ, इस भारतवर्ष की ज़मीन ऐसी है, कि आप भगवान को भूल नहीं सकते। ऊपरी तरह से आप कुछ भी कहते रहें, कि परमात्मा नहीं है, उनकी कोई शक्ति नहीं है, और हम उनको मानते नहीं, और हम तो अपनी ही शक्ति को मानते हैं, लेकिन अभी तक मैंने ऐसा कोई भारतीय देखा नहीं, कि जो एक हद्द पर पहुँच कर कहता है कि, "भई होना चाहिए भगवान नाम की चीज़।" और हम कहते हैं कि चीज़ ही नहीं है, भगवान तो सर्वव्यापी शक्ति हैं। और उस शक्ति को पाने के लिए, उस शक्ति को जानने के लिए, हम लालायित नहीं होते। न ही हमें उसके लिए कुतूहूल होता है और न हम समझते हैं कि ऐसी कोई शक्ति है जो हमारे अंदर से प्रवाहित हो जाती है। वजह ये है कि इसपर बहुत ही कम लिखा गया और जो भी कहा गया है, बहुत गुप्त रूप से कहा गया है। जिस चीज़ को हम इस देश की सम्पदा या संपत्ति या बड़ी भारी जिसे परंपरा समझते हैं, उस परम्पराओं में भी, इस चीज़ के बारे में कहा तो गया है लेकिन यह चीज़ घटित कैसी होती है, इस पर बहुत ही कम प्रकाश पड़ा है। उसकी वजह ये है कि जब इसका समय आएगा तभी ये बात उद्घाटित होगी। ये सोच करके और ये समझ करके ही लोगों ने इस बात को गुप्त रखा। सबने कहा है कि परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति इस संसार में विचरण करती है। और हम भी रोज़मर्रा देखते हैं कि जितनी जीवित व्यवस्थाएँ हैं, जितना भी जीवित कार्य है, वो एक शक्ति कोई न कोई करती है और वो शक्ति एक फ़ूल में से फल निकाल देती है, एक बीज में से वृक्ष निकाल देती है। सारे जितने जीवन्त कार्य हैं, वो शक्ति करती है और वो शक्ति जो भी है, उसे हम जानते नहीं हैं, और उसे हम पा नहीं पाते। ये कार्य हम कर नहीं सकते और ये हमसे ऊँची चीज़ है। इसको पाने के लिए अगर मनुष्य ने एक चीज़ ऐसी तय कर ली कि, "साब ये चीज़ कोई है ही नहीं," तब तो फिर ऐसे इंसानों से बात करना ही व्यर्थ है। क्योंकि अँधेरे में बैठे हुए लोग अगर कहें, कि सूरज नाम की कोई चीज़ है ही नहीं, तो फिर वो आगे बढ़ेंगे कैसे ?

लेकिन दूसरे लोग ज़रूर ऐसे हो सकते हैं, कि वो सोचते हैं कि, "अच्छा, इन सब लोगों ने कहा है कि, सूरज नाम की कोई चीज़ है, तो उसे देखा क्यों नहीं जाए, उसे जाना क्यों न जाए ?" और सबने क्या कहा है, किस तरह से जाना जाता है ? किसी ने ऐसा नहीं कहा है कि, आप सर के बल खड़े हो जाइये, तो आपको परमात्मा मिल जायेगा या नाक में रस्सी डाल के खींचिए , तो आपको परमात्मा मिल जायेगा। इस तरह की विक्षिप्त क्रियाएँ करने से परमात्मा मिलता है, ऐसे किसी ने नहीं कहा। ये तो कोई नई-नई चीज़ रोज़ निकलती रहती है। सब अपने शरीर को पाने की, ज़मीन-जुमला और दुनिया भर की बेकार की चीज़ें जोड़ने की व्यवस्था में लगे रहते हैं। लेकिन जिसको जुटाना है, उधर हमारी दृष्टि इसलिए नहीं है, कि कोई ऐसा मिलता भी तो नहीं जिसने जुटाया है। जो भी बात करता है, मुझे ही पता होता है, किसी जेल से छूटा हुआ फरारी या कोई पैसा कमाने वाला यहाँ आदमी पहुँचा हुआ है। बात तो परमात्मा की करता है और घर में ठगी करता है इसलिए भी परमात्मा से विश्वास टूटना, बिलकुल सही बात है, बिलकुल सही बात है। लेकिन इसमें परमात्मा का क्या दोष है? परमात्मा ने तो आपको एक अमीबा से इंसान बना दिया है। उसने आपको ये सुन्दर सृष्टि रच दी है। ये सारे रंग और ये स्वर और यह और सारा मधुर संगीत, परमात्मा ही के चरणों से आया है। उसने ही इसका आनंद उठाने की शक्ति दी हमारे अंदर। इसने ही हमें अपने माँ-बाप, बच्चे सबको पहचानने की, उनको प्रेम करने की भी शक्ति दी है। उसी ने हमारे खाने-पीने की और हर चीज़ की व्यवस्था कर रखी है लेकिन अगर हमीं अपने आपस में लड़-झगड़ करके, सिर फुटौअल करते हैं, उसे परमात्मा क्या करे? ये सब मनुष्य की बनाईं समस्याएँ हैं। परमात्मा ने हमारे लिए कोई समस्या नहीं बनाई, कोई सी भी नहीं। पर, एक बार माँगने की बात है और आप जान सकते हैं कि वह परमात्मा क्या है और आपका आत्मा क्या है? इतने सुन्दर तरीके से अपने अंदर उन्होंने पूरा यन्त्र बिठाया हुआ है। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे हम लोग उत्क्रांति कर चुके, एवोल्यूशन होते रहा वैसे-वैसे, धीरे-धीरे, हमारे अंदर यह सब संस्थाएँ एक के बाद एक जुटती गई। और ये सब चक्रों द्वारा हमारे अंदर प्रस्थापित। बड़ी मेहनत से ये यंत्र को बनाया गया, बड़े संजो कर इसे बनाया गया, कि अंतिम लक्ष्य ये है, कि जो बाह्य में मनुष्य दिखाई देता है, वह महा-मानव हो जाए। जो सर्व-साधारण और तुच्छ और हीन माना जाता है, वो अत्यंत उच्च कोटि का साधन परमात्मा का बन जाए। लेकिन मनुष्य का स्वभाव ऐसा है कि, वो सब चीज़ को अपना साधन बनाना चाहता है,किसी का साधन नहीं बनना चाहता। उसके स्वभाव से विपरीत है। किसी का साधन वो क्यों बने? पर जिसने आपको साधन स्वरुप बनाया है, उसके तो आपको साधन बनना ही पड़ेगा? अगर आप उसका भी साधन बनने के लिए तैयार नहीं हैं, तो आपने जितने साधन जुटायें हैं, ये सब व्यर्थ हैं। इनसे आपको कोई सुख की प्राप्ति और आनंद की प्राप्ति नहीं हुई, न होगी। आप उन देशों में जा कर देखिये जहाँ उन लोगों ने हज़ारों साधन जुटा लिए हैं। पच्चीसों तरह के साधन जुटा लिए हैं। आप अगर जाइए तो एक ऐसी मोटरें हैं, कि बैठे-बैठे आप उसको दरवाज़ा खोल लीजिए, उसका कमरा बना लीजिए, उसका ये कर लीजिए - इसमें रखा क्या है? इस सब तमाशे-बाजी में रखा क्या है? ऐसे-ऐसे मकान आप हैं, कि जहाँ आप जाइए, तो आपको वहाँ पर एक ही जगह में स्विमिंग-पूल भी मिल जाएगा, और एक ही जगह में आपको बैठे-बैठे, आप अपने मोटर भी चलवा लें, सब करवा लें - तो फायदा क्या है?

ये सब तमाशे-बाजी करके इन्सान को मिला क्या? इससे किसी को आनंद की उपलब्धि हुई ? आनंद की बात छोड़िये, मैं तो यहाँ तक कहतीं हूँ, कि किसी के अंदर किसी भी प्रकार की सुज्ञता आई है? और सुज्ञता की भी बात न करें, तो किसी के अंदर शान्ति है? जब युद्ध नहीं होता, तो युद्ध की तैयारियाँ होतीं हैं और फिर उसके बाद, युद्ध होने के बाद, फिर युद्ध की तैयारियाँ। यह तो मनुष्य की सुज्ञता हो गयी हुई है इन देशों में, और शान्ति की बात ये है कि, दो इंसान झगड़ा किए बगैर, इन देशों में, पाँच मिनट से ज़्यादा नहीं रह सकते। ऐसी दशा में ये सोचना चाहिए, कि जितना कुछ हमारे लिए बहुमूल्य है, जिसकी हमें चाहत है, वो छोटी-छोटी चीज़ें तक वहाँ नहीं मिल सकतीं, जैसे कि, एक माँ का प्यार, एक बाप का आश्रय, एक बच्चों का दुलार और उनकी आज्ञाकारिता - कुछ भी नहीं। आप सब चीज़ों से अछूते, इन पैसों से बनाई हुई, चमकती हुई, कृत्रिम दुनिया में, झूठी दुनिया में रह रहें हैं। इससे परे परमात्मा की सच्ची दुनिया है, उसका सच्चा राज है, उसकी सच्ची मोहब्बत है। उसको आपने अभी तक जाना ही नहीं है, उसको आपने देखा ही नहीं है, इसलिए इन सब चीज़ों को आप बहुत ऊँची चीज़ समझते हैं। लेकिन ये चीज़ें किसी भी प्रकार आपको सुख नहीं दे सकतीं। अभी देखिये, आप यहाँ संगीत सुन रहे थे - जिन्होंने बजाया दूसरों को आनंद देने के लिए, वो सुखदायी चीज़ होगी। लेकिन अगर आप आज इस कारपेट के धनी हैं, तो आपके लिए सरदर्द की चीज़ हो जाती है। आप सोचते हैं, कि ख़राब न हो जाए, कहीं बिगड़ न जाए माताजी इस तरह से बैठीं हैं, कहीं इसके रेशे न टूट जाएँ, न जाने कितने रूपये का आया। हाय-तोबा लगी रहेगी कि भई ये चीज़ ली इसको अब कैसे बिछाएँ। अगर आपने इस चीज़ की परवाह नहीं की तो दूसरी चीज़ चल पड़ेगी कि और क्या चीज़ लाएं? ये पड़ोसियों के यहाँ ये चीज़ है, ये हमारे यहाँ कब आएगी ? इस उलझन में, और इसी उधेड़ बुन में, सारी ज़िन्दगी बीत जाएगी। अंत में पता हुआ, कि जनाबे-अली स्वर्ग सिधार गए और नहीं तो पागलख़ाने में दाखिल हो गए। इस हालात को देखते हुए इंसान को सोचना चाहिए कि भई क्या हम इसलिए पैदा हुए हैं, क्या परमात्मा ने हमको इंसान इसलिए बनाया, कि हम पागल-ख़ाने चले जाएँ, और आपस में लड़ते झगड़ते रहें, क्रोध करते रहें, किसी भी चीज़ का मज़ा न उठायें, इंसान का मज़ा न उठायें - आखिर हो क्या गया है? हम लोगों में कौन सी चीज़ ऐसी बच गई है, रह गई है, जो अछूती है, जिसके कारण हम इस तरह से हो गए हैं, कि हमें अपने से परे दुनिया दिखाई ही नहीं देती है ? इतना स्वार्थ, इतनी अंधता, इतना अत्याचार क्यों आ गया? कभी तो इंसान को एक तरफ बैठ के ये भी सोचना चाहिए। हर समय वो यही सोचते रहता है, कि मेरे साथ क्या ज़्यादती हुई, उन्होंने मेरा कितना घाटा किया, उन्होंने मुझे कितनी तकलीफ़ दी। और आपने क्या किया है?

फिर ये भी सोचने लग जाए, कि मैंने कितनी तकलीफ़ दी है, तो भी वो सोच हो गया और ये भी एक सोच हो गया। दोनों तरह से आदमी शोक में ही डूबा हुआ है। तो क्या परमात्मा ने आपको इसलिए इंसान बनाया, कि आप बैठ करके हर समय यहाँ पर रोया करें और शोक मनाया करें? क्या यही परमात्मा की इच्छा थी, कि ऐसे शोकग्रस्त, पीड़ित, दुखी, रोगी, ऐसे लोग बनायें ? या इस तरह के लोग, जो अपने अहंकार में डूबे हुए हैं, जो चाहें सो करें? महा बेवक़ूफ़। एक साहब एक दिन आये और उलटे कोट-वोट पहन के। मैंने कहा कि, "साहब, उल्टा कोट क्यों पहन लिया?" कहने लगे, "इसमें क्या ख़राबी साहब, आप क्यों कहते?" मैंने कहा, "ख़राबी नहीं है लेकिन सीधा दिखने में अच्छा लगता है, क्या हर्ज़ है?" "तो आपने क्या समझ रखा है? हम चाहे जो करें, आप कौन होतीं हैं कहने वाली?" मैंने कहा, "ठीक है। बात ये है आँख में दिखाई देता है इसलिए कह दिया, आगे नहीं कहेंगे।" पता हुआ कि ये बहुत रईस आदमी हैं। तो रईस आदमी ये सोचता है कि वो जो चाहे सो करे। क्योंकि ये बहुत रईस है, ये सोचते हैं, चाहे जो समझ लें। दूसरे जो अपने को गरीब कहते हैं, उनका हाल और अच्छा है। अब आजकल निकला है, गरीबों की मदद करो, गरीबों की मदद करो।' भई मुझे तो गरीब दिखाई नहीं देते, क्योंकि किसी को सौ रुपया दे दीजिए, तो वह सीधे जाता है, कहाँ, तो शराब के दुकान पे। ये अगर आदमी गरीब होता, तो ये सौ रुपया ले के शराब की दुकान पे क्यों तशरीफ़ ले जा रहा? इसको तो चाहिए, कि घर जाए अपने बाल-बच्चों को खाना पीना दे। लेकिन ये चले सीधे शराबखाने। इसका मतलब ये क्या गरीब हैं?

'स्ट्राइक करो, स्ट्राइक करो, भत्ता बढ़ाना चाहिए, बड़ी मँहगाई हो गई, बड़ी मँहगाई हो गई।' अच्छा भई भत्ता बढ़ गया। जा कहाँ रहे हैं ? वही शराबखाने। पूछा, "भई तुमने भत्ता क्यों बढ़वाया?" "माताजी आपको पता है, शराब की बोतल की कीमत बहुत बढ़ गई है।" आपको तो पता नहीं, आप पीते नहीं, आपको क्या मालूम? "ठीक है भैया, हम तो अज्ञानी हैं।" सो ऐसे गरीबों से भी क्या किया जाए? और गरीबों में एक अहंकार है कि, 'हम गरीब हैं।' ये भी एक अहंकार होता है गरीबों में। जैसे भिखारी है, आएगा, "आप साहब दो रुपया दे दीजिए।" "भैया, दो नहीं एक है, एक ले लो।" "अरे, क्या समझते हैं आपको, अपने लिए रखिये, पान बीड़ी खाइएगा।" इस तरह से अहंकारी, आपको सब आजकल गरीबों ने भी अपना एक स्थान बना लिया कि, 'हम गरीब हैं।' अच्छे साब गरीब हैं ! गरीबी की नम्रता तो कहीं दिखाई नहीं देती, उलटे इस कदर खोपड़ी पर चढ़े हुए हैं कि, ये गरीब कैसे और ये रईस कैसे, कुछ समझ में नहीं आ रहा ? न बाप-बेटे का सहूर रहा, न माँ-बहन का ख्याल रहा। देखने में ये बातें आप लोगों को लगतीं है, कि माँ बहुत पुरानी बातें कह रहीं हैं, लेकिन जो कुछ अपना पुराना था, वो बहुत ज़रूरी था आज के लिए। बहुत ज़रूरी है। एक बार फिर मुड़ करके आप सोच लीजिये। जो कुछ हमने खो दिया है, वो आज मैं खोज रहीं हूँ आपके अंदर। बगैर उसके ये कार्य हो नहीं सकता। जो लोग अपने को अहंकार में, बहुत बड़ा आदमी समझ रहे हैं, उनके लिए सहज योग नहीं है, और जो गरीब होकर के ये सोच रहे हैं, कि वह गरीब होकर सबकी खोपड़ी पे लद सकते हैं, उनके लिए भी सहज योग नहीं है। सहज योग उनके लिए है जो समझदार, गहरे, गंभीर और धार्मिक लोग हैं। धर्म का मतलब ये नहीं कि, आप सुबह से शाम तक माला जपिए, लेकिन धार्मिक का मतलब ये है कि, जो अपने अंदर एक संतुलन से रहते हैं। कोई अतिक्रमण नहीं करे। जितने भी लोग अपने को फैनेटिक समझते हैं, वो तो काम से गए ही, उनसे हमारा मतलब नहीं। अब ये सोचना चाहिए कि, हम लोगों की आदत जो पड़ गई है, हमेशा जब भी ऑडियंस होगा, तो जो वक्ता होगा वो यही सोचेगा कि भई ये ऑडियंस को मुझे जीतना है क्योंकि इनको मुझे वोट देना है। वोट नहीं देना हो तो कुछ न कुछ रुपया जमा करना होगा - कोई न कोई मतलब से ही ऑडियंस इकठ्ठा होता है, बेमतलब नहीं। ऑडियंस से, जो वक्ता होता है, उसे कोई न कोई मतलब होता है, तभी ऑडियंस इकठ्ठा होता है, लेकिन जब संगीत होता है, तब वो ऑडियंस इकट्ठा होता है, जो चाहता है कि आनंद को उठाये। जब कोई कला का कारी होता है, तो वह ऑडियंस इकठ्ठा होता है, जब सोचता है कि भई कलाकार का महत्व ज़्यादा है हमसे। ऐसी दशा में थोड़ा आगे जाकर आप सोचिए, कि जब आप कुण्डलिनी के जागरण के लिए यहाँ आये हैं, तो समझ लीजिये, कि आप लोग अपने फायदे के लिए आये हैं, मेरे नहीं। आपको अपना फायदा कर लेना है। कुण्डलिनी की गंगा आप ही के अंदर है। वह जागृत भी हो सकती है और आप पार भी हो सकते हैं, इसमें कोई नवीन बात अब नहीं रह गई क्योंकि समां आ गया है। ऐसे विक्षिप्त समय में, ऐसे भयानक समय में अगर ये कार्य नहीं होगा, तो कब होगा। यही समय है जब कि यह कार्य होना था और होने वाला है और इस वक़्त आदमी जो है, बहुत बड़े भ्रान्ति में, बहुत बड़े कन्फूशन में फँसा हुआ है। इस वक़्त वो यह नहीं समझ पा रहा सही कौन है और ग़लत कौन है। लेकिन एक बात आप जान लीजिए कि जब मुझे आपसे कुछ लेना ही नहीं है, तब आपको मुझे देखना है कि, आपमें से सही कौन है, और ग़लत कौन है। आपको यह नहीं देखना कि मैं सही हूँ या ग़लत हूँ क्योंकि मुझे तो कुछ लेना देना है नहीं आपसे। इस बात को पहले समझ लेना चाहिए, क्योंकि अधिकतर, हम यह देखने आते हैं कि यह सही हैं या ग़लत हैं। लेकिन इस वक़्त थोड़ी नज़र अपनी और होनी चाहिए, कि क्या हम सही हैं? जिस चीज़ के लिए आये हैं यह कितनी बड़ी चीज़ है! आत्मा का साक्षात्कार, जो सबसे महान चीज़ है। इससे बढ़कर संसार में पाने के लिए कोई चीज़ ही नहीं और अगर वह चीज़ माताजी देने के लिए बैठीं हुईं हैं, तो क्या वाकई हम इस योग्य हैं? मैं कहतीं हूँ हैं, और बिलकुल हैं। अपने प्रति आस्था रखें और ये कार्य हो सकता है। परमात्मा ने बहुत सोच समझ कर के आपको बनाया है। ऐसा बनाया है कि मैंने इंसान को देखा है, वो कितना भी गिरा हुआ हो, कितना भी दुष्कर हो, उसकी कुण्डलिनी जगा सकते हैं। पता नहीं कैसे !

ऐसी कमाल हो गई है परमात्मा की, इसकी मेहर ऐसी कमाल है, आपसे बतातीं हूँ, कि जिसके लिए लोग आ के बताते हैं कि, माताजी ये तो इतना गया बीता आदमी है, इसको छोड़ दीजिए आप, वह तक पार हो जाता है। क्या कमाल है! मेरे ख्याल से, परमात्मा ने यही सोचा होगा कि इस वक़्त नहीं इनको पार कराएँगे, तो ये गए सब लोग काम से और मैंने जो इतनी बढ़िया चीज़ बना के रखी है, मेरी जो इतनी उत्तम कृति मनुष्य है , वो सर्वनाश होने से, मेरी सारी सृष्टि ही ख़तम हो जाएगी। और इसीलिए यह कार्य बड़े ज़ोरों में हो रहा है। लेकिन इंसान ख़ोजता क्या है और जानना क्या चाहता है, यह वह अपनी बुद्धि से ठहराता है। जिस चीज़ को आपने बुद्धि से ठहरा लिया है, वह सब सीमित बात है, आपकी अपनी बनाई हुई बात है। लेकिन जो सच है, जो यथार्थ है, उस असलियत को पाने के लिए, पहले यह सोचना चाहिए कि हम उसे जानें, देखें, परखें, क्योंकि असलियत अपनी जगह मुक्कमिल है। उसको आप हासिल नहीं कर सकते जब तक आप उसको न माने कि वह अपनी जगह है। वह ठहरी हुई है अपनी जगह और उस चीज़ को पाने के लिए आपको वहाँ तक पहुँचना होगा न कि वो चीज़ आपके पैरों पे गिरेगी कि, 'साहब, मुझे आप अपने सर उठा लीजिए।' मैं माँ हूँ और माँ बच्चों को कभी-कभी सुझाव देती है और समझाती है और कभी-कभी, कभी-कभी डाँटना भी पड़ता है। बच्चे नासमझ हैं। उनको बहुत प्रेम और बुद्धिमत्ता से परमात्मा की ओर ले जाना है क्योंकि उसके सिवाय और कोई चारा मुझे दिखाई नहीं देता है। उसको पाए बगैर इंसान तहस-नहस हो जाएगा। आत्मा को पाए बगैर, आप चाहे कुछ कर लीजिए, आप अपने को दूर हटा के रखिए, कुछ भी कर लीजिए, आप ख़त्म हो जाएँगे। परदेसी देशों में जहाँ-जहाँ आप जा के देखिएगा, आपको आश्चर्य होगा, कि किस रफ़्तार से ये लोग जहन्नुम में जा रहे हैं, दोज़ख़ में जा रहे हैं, कि ज़िन्दगी कहाँ खत्म हो रही है इनका हाल क्या है, क्योंकि इन्होंने अपनी आत्मा को नहीं पाया है। एक पेड़ बाहर से दिखाई देता है, उसको ही सब कुछ मान लेने से नहीं होता है - उसकी जो जड़ें हैं, उसको ख़ोजना होगा। जब तक उसके जड़ में आप नहीं उतरेंगे, तब तक इस पेड़ का कोई माना नहीं होता है और वो जड़ हमारे अंदर है, ख़ासकर इस योग भूमि में है। आप चाहे सूट पहन लीजिए, चाहे आप टाई लगा लीजिए और अपने नाम-धाम भी बदल लीजिए - आखिर इस देश के आप बच्चे हैं, और ये देश एक योगभूमि है। इस देश के अंदर ऐसी शक्ति है, कि इस देश के रहने वालों पे एक विशेष तरह का अधिकार है, कि वह परमात्मा को प्राप्त करें - आप विश्वास नहीं करेंगे। लेकिन जब तक आपके अंदर प्रकाश नहीं आता, मेरी बातें आपको शायद सच न लगें, और शायद अच्छी भी न लगें। लेकिन जो भी है, यह समझ लेना चाहिए कि आप में एक विशेष रूप से अधिकार है, कि आप परमात्मा को पा लें। यह आपकी धरोहर है, ये आपका हेरिटेज है, ये आपको दिया हुआ वर है परमात्मा का, कि आप इस महान शक्ति को अपने अंदर पा लें। इस प्रेम की महान शक्ति को आप पाकर फिर खो ज़रूर जल्दी देते हैं, जैसे हम लोग भी स्वतंत्रता को पाकर अब खोने पर आमादा हैं। लेकिन यह बहुत आसानी से एक हिंदुस्तानी के हाथ लग सकती है। इतना आसान नहीं है कि परदेस में यह काम हो सके। लेकिन मैं परदेस काफी घूमती हूँ। वजह ये, कि वहाँ का एक आदमी अगर पार हो जाए, तो वह एक पेड़ बन के खड़ा हो जाता है और हिंदुस्तान में हज़ारों बीजों को अंकुरित करिए, उसमें कहीं एक-आद होता है जो पेड़ बनता है। अपने बारे में हमें प्रतिष्ठा नहीं है। हम अपने को आँकते नहीं, अपने को समझते नहीं, हम अपने को जानते नहीं। छोटी-छोटी चीज़ों में हमने अपना जीवन व्यर्थ कर रखा है। कोई भी जीवन में, हमारे लक्ष्य में, यह नज़र नहीं आता है कि उसमें कोई महान, कोई उदात्त, कोई ऊँची, कोई बढ़िया चीज़ हमने सोची हुई है। आज समय आ गया है कि इंसान को सोचना पड़ेगा और नहीं सोचिएगा तो आगे का हाल बहुत बुरा है। अभी जो बिगड़ा है, वो भी सुधर सकता है, वो भी ठीक हो सकता है, इसलिए सब से पहले, आत्मा को आप प्राप्त करें। अब कैसे प्राप्त करें? सब लोग कहेंगे, "माँ कैसे?" उसकी आपको चिंता करने की ज़रुरत नहीं। आपके अंदर ये शक्ति निहित है, आपके अंदर आत्मा निहित है। जैसे ही ये शक्ति उस आत्मा से सम्बंधित हो जाती है, ये चारों तरफ छाई हुई, ये परमात्मा की परमेश्वरी शक्ति आपके अंदर महसूस होने लग जाती है। एक बीज होता है, उसे आप किस तरह से पनपाते हैं? बस उसको आप माँ के उदर में छोड़ दें, और वह अपने आप, अपने आप सहज - सहज माने, 'सह' माने साथ और 'ज' माने पैदा हुआ - आप ही के साथ पैदा हुआ है ये अधिकार, कि आपका योग, आपका मिलाप, उस परमात्मा की शक्ति से हो जायेगा। और जैसे कि योग घटित होता है, उसमें पहली मर्तबा, आपके हाथ वह शक्ति मिल जाती है, जो सर्वव्यापी है। उसको आप जानने लग जाते हैं, समझने लग जाते हैं। धीरे-धीरे ये शक्ति बढ़ती है, और आप इसका काम समझते हैं, कि किस तरह से चलती है, इसको किस तरह से इस्तेमाल करना चाहिए और जैसे जैसे आप बढ़ते है, ऐसे-ऐसे एक बीज का एक वृक्ष खड़ा हो सकता है। इस विभाग का विशेष कारण ऐसा है, कि न जाने कैसे हमें यहाँ पर एक आश्रम की जगह मिल गई। पहले भी हमें गवर्नमेंट ने जगह दी हुई है, लेकिन ऐसी दी हुई है, कि कुछ समझ में नहीं आता। सब्ज़ी मंडी में जगह दी, जहाँ पर कि बैल बैठे रहते हैं और वहाँ पर गाड़ियाँ छोड़ी हुईं हैं। पता नहीं गवर्नमेंट का दिमाग कैसा है? हमने कहा, "भई हम तो यहाँ मैडिटेशन करने वाले हैं, तो ये कौन सी आपने जगह हमारे लिए ख़ास ढूँढ कर दी है?" इस प्रकार उन्होंने हमें बड़ी बढ़िया जगह दी थी। बहरहाल, अभी कोशिश कर रहे हैं वह कि और कोई बढ़िया जगह ढूँढें। भगवान जाने अब और कहाँ पहुँचा देंगे। गवर्नमेंट की बुद्धि जैसे चलेगी वैसे ही चलेगी, अब हम तो कुछ कर नहीं सकते। बहरहाल, परमात्मा की कृपा से ही, यह जगह हमें यहाँ मिल गई - छोटी सी जगह है। लेकिन कब मिली इस आपके एन्क्लेव में, यह जगह का होना, कुछ मायना रखता है। कोई न कोई आप लोगों की पूर्व पुण्याई है, कोई न कोई विशेषता आप लोगों की है, इसलिए यहाँ पर ये जगह हो गई है। इसमें आपको पैसा देना नहीं है। एक बात समझ लें, कि परमात्मा को पैसा नाम की चीज़ मालूम ही नहीं है। यह इंसान समझ ही नहीं सकता है, उसकी खोपड़ी में नहीं घुस सकता है कि परमात्मा का कार्य बगैर पैसे के होता है। आप किसी फूल को पैसा देते हैं जब वह फल बन जाता है या किसी पेड़ के सामने आप ले जा के पैसा रख दीजिए, तो वह क्या समझता है कि यह पैसा है, कि मिट्टी है, कि क्या है? परमात्मा ने पैसा नहीं बनाया है, आपने पैसा बनाया हुआ है, आप ही जानें उसकी दशा। इसके लिए आप पैसा नहीं ले सकते न दे सकते। हाँ एक बात दूसरी, कि आप मेरे लिए फूल ले आए, चलो ठीक है। फूल के लिए आपने दो पैसे खर्च कर दिए, ठीक है। ये बनाया है, इसके लिए आपने पैसा, ठीक है। लेकिन आपकी कुण्डलिनी जागरण के लिए आपको पैसा नहीं देना है - ये लोग समझते नहीं। खासकर, हम देहातों में जाते हैं, तो लोग पाँच पैसे ले के आए। एक देवीजी बुढ़िया सी आईं, बड़े प्रेम से मुझे पाँच पैसे दिए। मैंने कहा, "भई ये क्या कर रही हो?" तो व्यवस्थापकों ने कहा कि, "भई, पैसा मत दो।" उन्होंने कहा, "अच्छा भई, माताजी को पाँच पैसा नहीं पसंद तो दस पैसा ले लो।" अब उनसे क्या कहा जाए? अकल ही इतनी बड़ी तरह है कि उनकी समझ ही में नहीं आता है, कि जो जीवंत कार्य है, उसमें पैसा कैसे चलेगा?

समझ लीजिए किसी का श्वास ठीक नहीं चल रहा। आप उसके सामने पैसा दिखाईये, वह श्वास चल जायेगा? हाँ, दूसरी तरफ से आप चल सकते हैं, कि अगर डॉक्टर से दवा लाएँ, ये करें वो दूसरा बात। लेकिन जब वो श्वास उसका ख़राब है, जो जीवंत कार्य है, उसको बदलने के लिए आप पैसा नहीं दे सकते। दूसरी चीज़ ये है, कि जितनी भी ज़रूरतें इंसान की हैं, और जो सबसे महत्वपूर्ण क्रियाऐं हैं, वो सब अपने आप होतीं हैं। उसमें मेहनत करने की ज़रुरत नहीं। जैसे कि हमारा श्वास ही ले लीजिए। इसके लिए अगर हमें किताबें पढ़नी पड़ीं, तो हम कितनी देर जीवित रह सकते हैं? बहुत से लोग ये सोचते हैं, कि किताब पढ़ कर के परमात्मा मिलेगा - ये तो और भी पागलपन की बात है। कबीरदासजी ने कहा है कि, "पढ़ी, पढ़ी पंडित मूरख भए।" तो मेरी पहले समझ ही नहीं आता था, कि पंडित कैसे मूरख हो जायेंगे? समझ में नहीं आया। अब मैं ऐसे बहुत देखती हूँ कि, 'इस किताब में ये लिखा है, उस किताब में ये लिखा है' अरे भाई, ज़िन्दगी की किताब में क्या लिखा है, वह देखो। किताब तो जिसके पास थोड़ा सा पैसा हो, वह लिख देगा। आजकल तो ऐसे, ऐसे लोग किताब लिखने वाले मिल गए हैं - एक साहब ने हमसे भी कहा कि, "आप हमें इतने हज़ार रुपया दीजिए, तो हम आपके बारे में किताब लिखेंगे।" मैंने कहा, "मुझे आप माफ़ करिए।" सो किताब लिखना तो कोई बड़ी भारी बात नहीं और किताब पढ़ के परमात्मा को पाना, यह भी जो कल्पनाएँ हैं, बिलकुल गलत हैं। इस किताब में लिखा है, वो किताब में लिखा है - सही है कि नहीं, ये कैसे जानिएगा? कोई सी भी किताब हो, मैं तो कहतीं हूँ, दुनिया की। आपके बच्चे कल कोई भी किताब को नहीं मानने वाले। आप उनके सामने ले जाकर कोई भी किताब रखिए तो कहेंगे, "काहे पर से यह बात कही है? ये किताब काहे पर से कही है?" क्योंकि, जिसको आप पढ़ते हैं, आपने कौन से तीर मार लिए, इसको पढ़ के आपकी कौन सी खोपड़ी ठीक चल रही है? आपमें कौन से गुण आ गए हैं? आप तो जैसे थे वैसे ही हैं। बस किताबों का बोझा ज़रूर हो रहा है और घर से पैसा ...। बजाय इसके कि आप पहले से ज़्यादा नम्र हो जाएँ और आपके अंदर बहुत घमंड आ गया है, और आप बहुत गुस्सैले हो गए हैं, और आप अपने को सोचते हैं, कि आप तो के भगवान से भी बढ़के हो गए हैं, तो ऐसी किताब हम क्यों पढ़ें? जो भी किताब हम पढ़ते हैं, वो सही है या नहीं है, ये जानने का भी तो कोई तरीका नहीं है। सब चीज़ों का एक ही तरीका है। जो अपने अंतर आत्मा है, वह एक है, एब्सोल्यूट है। उसको जान लेने से, जो एक एक चीज़ होती है, जिसका दूसरों से परस्पर सम्बन्ध नहीं होता, जो सम्पूर्ण होती है, वो चीज़ समझ में आ जाएगी। अब जैसे, आज यहाँ संगीत हो रहा था। मैंने देखा कोई लोग चल के चल दिए यहाँ से, परेशान भी हो गए होंगे, जिनको क्लासिकल म्यूजिक नहीं अच्छा लगता, वो सोच रहे होंगे, "क्या माताजी ने शुरू कर दिया, कुण्डलिनी बताने आईं थीं, इनका टुन-टुन चला दिया।" अब जो परदेसी लोग यहाँ बैठे हुए हैं, यह तो समझते भी नहीं इस टुन-टुन को, ये कौन सा राग है और ये कौन सा ताल है लेकिन ये मज़े में सुन रहे थे और बहुत हमारे सहज योगी भी सुन रहे थे। वजह ये है कि ये संगीत आत्मा को छू रहा था। अभी तक जब तक वो जागृत नहीं हुआ, तब तक ये टुन-टुन ही दिखाई दे रहा है। जिस दिन जागृत हो जायेगा, उस दिन इससे जो आपपर असर हुआ है, वो कैसे जानिएगा?

इसका असर एक सहजयोगी समझता है कि उसके अंदर से चैतन्य की लहरियाँ बहने लग गईं और बढ़ती गईं और बढ़ती गईं और आनंद आता गया। तो परमात्मा की शक्ति कार्यान्वित होती है, वो बोलती नहीं है, कार्यान्वित होती है, कार्य को करती है। वो जैसे मनुष्य सोचता है कि, "अब मैंने बैठे-बैठे सोच लिया।" अच्छा सोच लिया, तो क्या? सोचने से आपकी मोटर चलेगी? चला के दिखाइये। मोटर में बैठे और सोचते रहे, सोचते रहे, सोचते रहे। "मैंने सोचा," - गया। आपने सोचा, माने इस बुद्धि से? इसमें कितनी सीमाएँ हैं, आप जानते हैं? "हम तो सोचते हैं।" आप कैसे सोचते हैं ? उस सोचने से, आप कौन से कार्य को कर सकते हैं? ज़्यादा से ज़्यादा, आप मरी हुई चीज़ की मरी हुई चीज़ .... और खुद भी उनको इस्तेमाल कर-कर के, मरगिल्ले हो जाते हैं। माने ऐसे, कि अब आपने मोटर बनाई, अब मोटर से आप चलने लगे। आप, मोटर के हो गए आप गुलाम। क्योंकि दो टांगें आपकी गईं काम से और अगर किसी दिन मोटर फेल हो गई, तो आपकी हालत खराब। फिर उसके बाद आपका चलना बिलकुल मुश्किल और आप बैठ गए एक जगह। जितनी आपने इस तरह की चीज़ें बनाई हुईं हैं, ये आपकी खोपड़ी पे लदीं हुईं हैं और उसको लदाने से, आप सोचते हैं कि आप बहुत बढ़ गए हैं। सो आप बाहर बढ़ गए - अंदर इतने से हो गए हैं, छोटे से। आपकी अपनी कोई शक्ति नहीं रही। अपनी शक्ति सिर्फ आत्मा से आती है और उसको प्राप्त होना चाहिए - ये एक इच्छा पहले करनी चाहिए। पहले ये इच्छा करनी चाहिए कि, "माँ, मैं आत्मा हूँ और मेरे चित्त में आत्मा का प्रकाश आने दीजिए।" जब तक ये इच्छा आपके मन में नहीं होगी, तब तक मेरा हाथ नहीं चलने वाला। पहले इच्छा होनी चाहिए कि, "मैं आत्मा हूँ और मैं इस आत्मा को प्राप्त करूँगा।" अब माँ का जैसा हाल होता है, कि वह कैस्टर आयल भी पिलाना चाहे, तो उसमें कुछ कहानी बता के, और कुछ मीठा-वीठा मिला के चढ़ा देती है। लेकिन सच बात आपसे बताऊँ, कि आत्मा को मिलते ही आप पाइएगा, कि आपका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, जितना भी क्लेश और जितना भी संघर्ष है सब ख़तम हो जायेगा। जो कुछ भी आप दो-चार पीड़ित हैं, वो सब ख़तम होकर के एक आप दूसरे ही सतह पर, एक दूसरी नगरी में जा के बैठेंगे, एक दूसरे हो जायेंगे। इसीलिए, जिसने ब्रह्म को जाना, उसे द्धिज कहते हैं, माने जिसका जनम दूसरा हुआ है। और बहुत से लोग ऐसे अमेरिका में देखे मैंने, जो अपने इश्तेहार लगा के घूमते हैं कि, 'हमारा जनम दूसरा हो गया। "भई कैसे?" भई, आपने कहा कि, 'जनम दूसरा हो गया' तो उसके कुछ दिखना भी तो चाहिए आसार, कि आप कैसे कह रहे हैं आपका जनम दूसरा हो गया। तो इंसान का जब जनम दूसरा हो जाता है, तो उसकी जो चेतना है, उसकी जो अवेयरनेस है, वह जो महसूस करता है, वो सब कुछ सार्वजानिक हो जाता है, सामूहिक हो जाता है, कलेक्टिव हो जाता है। जैसे बैठे-बैठे यहाँ से आप बता सकते हैं, कि फलाँ-फलाँ इंसान के कौन से चक्र पकडे हुए हैं। सब जानकारी इससे हो सकती है क्योंकि सब चीज़ को जानने वाला आपका आत्मा है। आपकी बुद्धि, बुद्धि तो यह भी है और वह भी है। इसी से आदमी संभ्रान्त है। लेकिन जो सिर्फ है, वो आत्मा जानता है और जो सच है, वो आत्मा बताता है। हम लोग यह बहुत कुछ सुनते आए हैं, अभी तक हर तरह से लोगों ने समझाया। उसमें सच भी बोलने वाले बहुत थे और झूठ बोलने वाले भी बहुत हैं। बहुत से झूठ बोलने वाले तो ऐसी कॉपी करते हैं सच बोलने वाले की, कि सच बोलने वाला ही अवाक् रह जाता है, कि ये कैसे मेरी ही बात दोहरा रहे हैं, इतने ज़ोर-ज़ोर से और हिम्मत के साथ। और परदेसी लोग तो सोचते हैं, कि भई ये जब बोल रहा है, तो सच ही होगा, ऐसे झूठ कैसे बोल सकता है? उनको नहीं मालूम कि हम लोग झूठ बोलने में कितने माहिर हैं। इसलिए जो कुछ कहा गया, उसका यथार्थ होना चाहिए, उसका अनुभव आना चाहिए। अब बहुत टाइम हो गया है। जो कुछ काम मुझे करना था वह मैंने संगीत में ही कर दिया है, सिर्फ एक १०-१५ मिनिट में आप लोग की जागृति हो जाएगी। इसमें कोई मुझे शंका नहीं है, लेकिन उसके बाद योग का जो दूसरा अर्थ है, युक्ति - 'ऐसी युक्ति करो नन्दलाल' ऐसी युक्ति, जिससे कि आप अपने आत्मा के बारे में सब कुछ जान लें, उसकी शक्तियों को पहचान लें, उसको इस्तेमाल कर लें और सब को इसका लाभ दें। जब तक यह नहीं होगा, उसकी कुशलता, जिसे डेफ्टनेस कहते हैं, जब तक आप नहीं सीखिएगा, तो वैसा ही है कि आपके लिए मोटर ला के रख दी और खड़े खड़े जंग खा गई। ऐसा ही योग होता है। हिन्दुस्तानियों पे अधिकतर योग ऐसा ही देखा है मैंने, कि फिर आ कर के मेरे सामने जंग की कार खड़ी हो गई, और कहने, "माँ,मैं आपके पास बीस साल पहले आया था, दस साल पहले आया था, लेकिन फिर वही जैसा के तैसा हो गया।" सो ये बात नहीं है। आपको लगना पड़ेगा, जुटना पड़ेगा, जानना पड़ेगा, क्योंकि यही एक जानने का है, बाकी कुछ जानने का नहीं है। इसको जान लिया तो आपने सब कुछ जान लिया। छोटे-छोटे बच्चे भी इसको जान सकते हैं, अनपढ़ लोग भी इसको जान सकते हैं। एक बहुत अनपढ़ आदमी है उन्होंने न जाने हज़ारों लोगों को सहजयोग के अभ्यास से तंदरुस्त कर दिया, उनकी बीमारियाँ ठीक कर दीं, कैंसर जैसी बीमारियाँ ठीक कर दीं। वह डॉक्टर नहीं है, वह डॉक्टरी सीखा नहीं है लेकिन तत्व पे उतर के उसने ये काम कर के दिखाया है। आप भी सब कर सकते हैं। सबसे पहले आप अपने को ठीक कर लीजिए, अपनी आत्मा से आप इस परम तत्व को पा लें, उसके बारे में बाद में आप सीख लें। खासकर, आप लोगों के लिए यहाँ पे इतने नज़दीक मंदिर आया हुआ है, कि आप पैदल भी चल के आ जाएँ, तो भी आप यहाँ पहुँच जायेंगे। यहाँ पर आपको रुपया-पैसा देना नहीं है, पहले ही कहा गया है। सिर्फ आस्था से, अपनी ओर नज़र कर के, थोड़ी मेहनत करनी है। ऐसे हर रविवार को दस बजे सवेरे यहाँ पर प्रोग्राम होता है। आपको कुछ भी देने का नहीं है, सिर्फ आपको लेने का है और इसलिए अपनी घाघर खाली कर के यहाँ पर आयें और जो कुछ सीखना है, धीरे-धीरे सीख लें। आपको आश्चर्य होगा कि परमात्मा की कृपा कितनी अपरम्पार है और जो इंसान पार हो जाता है उसकी परमात्मा कितनी परवाह करता है और वह कितना महत्वपूर्ण है। आशा है आप लोग मेरी बातों की ओर ध्यान कर के और हर रविवार दस बजे इस जगह आयें और सहजयोग के बारे में जानें और सीखें। अब सिर्फ आप लोग मेरी ओर ऐसे हाथ कर के और आँख बंद कर के बैठें और अपना चश्मा उतार लें। बंगाल के (अस्पष्ट) लोगों को हमारा प्रणिपात। सर्वप्रथम माननीय श्री भगवती प्रसाद जी बनर्जी को मैं बहुत धन्यवाद देतीं हूँ, कि वह इस गड़बड़ के और परेशानी व्यस्त जीवन से भी निकल कर आज हमारे बीच आए और इतने गहरे ज्ञान के शब्द आपको सुनाए। ऐसे लोग आजकल बहुत कम होते हैं। मेरा हमेशा विश्वास रहा है कि जो लोग, लीगल या लॉ प्रोफेशन में रहते हैं, उनमें धर्म किसी तरह से बसा रहता है। मेरे पिता भी लॉयर थे, मेरे पति भी लॉयर थे, मेरे ससुर भी लॉयर थे। मैं लॉयर की फॅमिली से आतीं हूँ और मेरे घर में सभी लोग लॉयर्स हैं। और एक तरह का धर्म के प्रति जागरूकता मैंने अनेक लॉयर्स में, यहाँ भी और बाहर हर जगह देखा है। हमारे अंदर धर्म की जो व्यवस्था है उसी से लॉ तैयार होता है। हमारे अंदर दस धर्म जो कि हमारी दस वैलेंसीस हैं। जैसे कि कार्बन की चार वैलेंसी होती है, ऐसे मनुष्य की दस वैलेंसी होतीं हैं। जब मनुष्य उत्थान की ओर आया, जिस वक़्त उसकी उत्क्रांति हुई, उसका एवोलूशन हुआ, जब वह एक कार्बन से मनुष्य बना, उस वक़्त अनेक तरह की घटनाएँ घटित हुईं, अनेक अवतरण संसार में हुए, और अंत में वो मनुष्य स्थिति में पहुँच गया। मनुष्य स्थिति में आवश्यक है कि हमारे अंदर धर्म स्थापना होनी चाहिए। लेनिन के बारे में मैं इतना कहूँगी कि लेनिन को मैंने, उनका शरीर देखा है, मैं रूस गईं हूँ अपने पति के साथ वह, आपको आश्चर्य होगा, कि वह साक्षात्कारी पुरुष थे। साक्षात्कारी थे। बाद में पार्टी की ज़बरदस्ती से वह इस उस में पड़ गए पर उन्होंने जो धर्म के बारे में कहा था, उसका कारण ऐसा है, कि उस वक़्त रूस में कोई धर्म नहीं था पहले। और उसके बाद ज़ार ने कहा कि, "सबसे पास कुछ न कुछ धर्म है, हमारे पास भी धर्म आना चाहिए।" धर्म के बारे में ये लोग कुछ जानते नहीं हैं, इनमें कोई गहराई से किसी ने देखा नहीं, इनमें कोई दृष्टा हुए नहीं। अपने यहाँ जैसे बड़े संत-साधु हो गए इस तरह के वहाँ बहुत ही कम लोग हुए हैं और वह जब बोलते थे, तो उनको लोग पागल ही समझते थे। वहाँ का धर्म जो था, जिसे कहते हैं, बड़ा ओर्गनाइज्ड, बड़ा सुव्यवस्थित बनाया हुआ। उन्होंने परमात्मा को भी सुव्यवस्थित बनाने का प्रयत्न किया हुआ है। इसलिए लेनिन ने उस वक़्त जो बात कही वह सही है, एक माने में, क्योंकि जब उनके पास कोई धर्म व्यवस्था नहीं थी तो ज़ार ने कहा कि कुछ न कुछ धर्म व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिए। और इसका मैंने ख़ुद पडताला लिया हुआ है। जब हम लोग वहाँ थे तो मैंने कहा कि, "अच्छा आपके यहाँ ये जो प्रीस्ट लोग हैं वहाँ मैं जाना चाहती हूँ और यहाँ के चर्च मैं देखना चाहती हूँ।" जब हम गए वहाँ, तो आपको आश्चर्य होगा कि, वहाँ पर एक ही धर्म है, जिसे कि आप ऑर्थोडॉक्स ग्रीक क्रिश्चियनिटी कहते हैं। और उसमें दो तरह के आर्डर होते हैं - एक तो ब्लैक और एक वाइट - बहुत ज़्यादा ओवर ओर्गनइजेड़ चीज़ होती है। और वह महाशय जब हम वहाँ पहुँचे, क्योंकि हम लोग वी आई पी थे, तो वह स्वयं आए और वहाँ के जो मुख्य थे उन्होंने हमसे कहा कि, "आजकल हम फास्टिंग कर रहे हैं लेकिन इसकी वजह से हम वेजीटेरियन खाना खाएँगे।" तो हमने कहा, "वो तो बहुत अच्छी बात है वेजीटेरियन खाना खाएँगे।" लेकिन उनको वेजीटेरियन खाना खाने में हर्ज़, मतलब नॉन-वेज खाने में हर्ज़ नहीं था, लेकिन वह शराब इतनी पी गए, इतनी शराब पी गए वह महाशय, कि जब हम आने लग गए तो उनको होश ही नहीं था कि चीफ गेस्ट जा रहे हैं या उनको सी ऑफ करना चाहिए - इतनी शराब वो पी गए। तो मैंने पूछा कि, "ये कैसे लोग यहाँ आ गए, ये क्या है?" तो उन्होंने बताया, कि जब ज़ार ने ये इच्छा प्रदर्शित की कि, यहाँ पर कोई तो भी धर्म होना चाहिए, तो कहने लगे, "अब कौन सा धर्म करें?"

तो उन्होंने कैथोलिक से पूछा, तो कैथोलिक ने कहा, "भई हमारे धर्म में एक बात है, तुम शराब तो पी सकते हो लेकिन तुम दूसरी शादी नहीं कर सकते।" ज़ार ने कहा, "ये तो नहीं सम्भव क्योंकि हमारे पास तो बहुत शादियाँ करने के प्रस्ताव होते हैं तो ये कैसे हो सकता है, ये हमें चलेगा नहीं।" इसलिए उन्होंने उसको मना कर दिया। दूसरे उन्होंने कहा, "अच्छा, अगर ये चीज़ नहीं, तो दूसरा धर्म कोई देखें।" मुसलमान आए। मुसलमानों ने कहा, "भई हमारे यहाँ व्यवस्था है, आप अधिक शादियाँ कर सकते हैं, लेकिन हमारे यहाँ शराब पीने की व्यवस्था नहीं है।" शराब नहीं पी सकते। उन्होंने कहा, "ये तो बिलकुल हमारे यहाँ चल ही नहीं सकता धर्म।" तो तीसरा, एक ग्रीक ऑर्थोडॉक्स एक धर्म नया निकला था, वह आया। उसने कहा, "भई, हमको कुछ नहीं मतलब। आपको जो करना है करो, सिर्फ हमें पैसा देते रहो," - जैसे आजकल के गुरु हैं। जब उसको लेकर के अगर लेनिन ने यह बात कही तो सत्य बात है। उन्होंने जो बात कही थी वो इंटरमीजियरी बात थी। हम लोग न तो कैपिटलिस्ट हैं, न कम्युनिस्ट हैं, और हैं दोनों ही। जब आपके पास सब शक्तियाँ आ जातीं हैं - समझ लीजिये हमारे पास सब शक्तियाँ हैं, तो हम कैपिटलिस्ट हो गए, लेकिन चैन से बैठा नहीं जाता बांटे बगैर, तो कम्युनिस्ट हो गए। जब शेयरिंग के बगैर चैन ही नहीं आ रहा, तो कम्युनिस्ट हो गए। असल में जो कुछ आपकी थियोरीस हैं, उसकी रियलिटी आपको जो है, असलियत, जब आप आत्मज्ञान पाएँगे तब होगा क्योंकि ये भी सब आपके अचेतन से, अनकॉन्ससियस से आई हुई धारणाएँ हैं, कि हम कम्युनिस्ट हैं, कोई कहते हैं हम कैपिटलिस्ट हैं - ये सब बाह्य की बातें - काहे का कैपिटल है इनके पास - ये पत्थर? इनके पास अगर कैपिटल होता तो आज क्यों रोते रहते? जो बड़े भारी कैपिटलिस्ट हो गए हैं, ऐसे तीन देश आप जान सकते हैं स्विट्ज़रलैंड, नॉर्वे और स्वीडन। तीनों देशों में कॉम्पिटेशन ये उन लोगों में रहता है, कि कौन पहले मरेगा और कौन आत्महत्या करेगा? ये क्या कैपिटैलिस्म है? उनको तो कोई भोग नहीं हुआ उसका। जिसने भोगा ही नहीं, उसका कैपिटल किस काम का? तो हमारी भी जो कल्पना है, कि हमें पैसा मिलने से या आर्थिक व्यवस्था ठीक हो जाने से, हम बिलकुल बढ़िया हो जायेंगे - बिलकुल ग़लतफहमी है। क्योंकि हम पैसा नहीं बर्दाश्त कर सकते। आप किसी आदमी को 100 रुपया दे दीजिए, फ़ौरन वो जायेगा शराब पीने के लिए। कोई सा भी गलत काम। जितने पैसे वाले लोग हैं, वो गलत काम में फँसे रहते हैं। उनके अंदर कभी पैसे की वजह से कोई सुबुद्धि आते हुए आपने देखा है? फिर लोग ये सोचते हैं कि चलो नहीं सत्ता ले लें। जिसके पास सत्ता आ गई, वो तो बिलकुल पागल आदमी हो जाता है। उससे तो आप बात भी नहीं कर सकते। इसलिए सत्ता की ओर भी जिनका ध्यान है, कि हम सत्ता को पाकर के ही खुश हो जाएँ, सो भी बात नहीं। कोई कहते हैं कि, "चलो हमारे माँ- बेटे, हमारी माँ-बहन इनको संभाले" - अपने देश में तो पागलपन लोगों पे सवार है। 'मेरा बेटा, मेरी बेटी, मेरा, मेरा,' इतना ज़्यादा है कि उसकी भी अतिशयता है। इसपे श्री कृष्ण ने बहुत अच्छा दर्शन दिया हुआ है, कि संसार में तीन तरह के लोग हैं, तीन ही जाति हैं। जो हम लोग जाति-जाति का झगड़ा करते हैं, इतनी जाति नहीं हैं - सिर्फ तीन जाति हैं। चौदह हज़ार वर्ष पूर्व मार्कण्डेय स्वामी ने कहा था, 'या देवी सर्व भूतेषु जाति रूपेण संस्थिता' तीन ही देवियाँ हैं - महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती - तीन देवियाँ हैं। उसी के अनुसार तीन गुण हमारे अंदर होते हैं। एक तो तामसिक, एक राजसिक और एक सात्विक। जो तामसिक लोग होते हैं, वह गलत चीज़ को ही सही समझ लेते हैं। अपने देश में अधिकतर लोग, मेरे ख्याल से, तामसिक हैं। कोई भी आदमी जेल से छूट के आए, गेरुआ वस्त्र पहन ले, और लगे उसके पैर छूने। वह आदमी कौन है, कहाँ से आया है, क्या करता है, पता नहीं। तांत्रिकों से तो, मुझे लगता है, कलकत्ता भरा पड़ा है। जिस इंसान को मैं मिलतीं हूँ कहे, "मैं तो दीक्षित हूँ," और कुण्डलिनी तो जमी हुई है, दीक्षित कैसे हैं आप? गलत चीज़ के पीछे में पड़े रहना, ये तामसिक लक्षण है। गलत चीज़ को सही मान के उसके लिए अपना जीवन दे देना, तामसिक लक्षण है। फिर कोई लोग हैं अपनी पत्नी के लिए करते हैं, कोई अपने बेटे के लिए करते हैं। कोई न कोई इस तरह की गलत चीज़ ले कर के काम करना, जिसका सामूहिक से कोई सम्बन्ध नहीं है, जिसका कलेक्टिव से कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसे कार्य करना, ये तामसिक लक्षण है। और राजसिक लक्षण ये होता है कि जैसे पाश्चिमात्य देशों में लोग होते हैं कि उनको सही और गलत दोनों का फर्क ही नहीं मालूम। अगर आपसे, जैसे लंदन में कुछ लोग हमारे पास आए, तो गुलाबी रंग के बाल, यहाँ पर उन्होंने पिने लगाई हुईं हैं, यहाँ पर ४-५ पिने लटक रहीं, मैंने कहा, "भई, ये क्या अवतार है?" तो उन्होंने पूछा, "व्हाट'स रॉन्ग - इसमें खराबी क्या है?" अब क्या कहा जाए बेवकूफ़ों को, कि इसमें क्या खराबी है। आप सारी पिनें यहाँ से लटका लीजिए सब, तो उसको क्या खराबी हो सकती है?

लेकिन इन लोगों को यही नहीं पता - आप लोग क्यों वेस्टर्न लोगों को फॉलो कर रहे हैं? इनको तो यह नहीं पता, कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है? महामूर्ख की स्थिति है, महामूर्खता। उनकी बातें सुनिए तो आश्चर्य होता है। एक से एक बढ़के हैं। हम बोस्टन गए थे। वहाँ कहा गया कि, "माताजी आईं हैं, तो उनके लिए ऐडवरटीसमेन्ट रखेंगे।" उन्होंने पूछा, "उनके पास कितने रोल्स रॉयस हैं?" तो वह तो पैसा-वैसा लेते नहीं, उनके स रोल्स रॉयस कहाँ से ?" कहने लगे, "फिर हमको ऐसे आदमी में इंटरेस्ट नहीं जिसके पास रोल्स रॉयस नहीं।" उन्होंने कमर्शियल इतना बना दिया है, कि भगवान भी कमर्शियल हो गया है। और इसीलिए यहाँ से जितने कमर्शियलाईजेड गुरु थे, सब जाके वहाँ बैठ गए अपना नसीब है। लेकिन अब समझना यह चाहिए, कि तीसरा जो था, वो सात्विक है। सात्विक आदमी जो होता है वो जानता है, अच्छा क्या और बुरा क्या। धर्म क्या है, अधर्म क्या है? दोनों चीज़ को जो समझता है, वही सात्विक आदमी है और ऐसे आदमी का उत्थान हो सकता है। और ऐसा ही आदमी आत्मा को प्राप्त कर। बहुत से लोग ये भी पूछते हैं, "माँ धर्म की स्थापना क्यों करें? हमारे अंदर जो दस वैलेंसीस हैं, इनको हम क्यों स्थापित रखें?" वजह ये है, कि गर आपको आत्मा बनना है, अगर आकाश में उड़ना है, तो आपको चाहिए कि आपको संतुलित हो जाएँ। और इसीलिए हमारा जो कायदा है, कानून है, यह संतुलन पे बना हुआ है कि असंतुलन में कहीं भी एक्सट्रीमस पे चले जाइए - राइट साइड में आप चले जाते हैं जबकि आप राजसिक हो जाते हैं, तो आप दूसरों पे इस तरह से अमानुष अत्याचार करते हैं, उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं और उनपर हावी रहते हैं, उनपर अग्रेशन करते हैं। और जिस वक़्त में आप तामसिक हो जाते हैं, तो आप अपने ही को मारते हैं, अपने ही साथ दुष्टता करते हैं, खाते नहीं, पीते नहीं, उपास करते हैं, दुनिया भर की चीज़ें करते हैं जिससे अपना शरीर नष्ट हो जाए। इतनी गलत धारणाएँ अपने देश में बनीं हुईं हैं, कि उसको एक-एक को तोड़ते-तोड़ते, हमारे तो बारह-चौदह साल का हो गया तब लेकिन अब मुझे ये है कि मैं आज प्रथम आप लोगों के सामने आई हूँ, इसलिए मुझे आपसे विनती है, कि एक सिर्फ आप अपने अंदर धारणा रखें, कि जो बात हम जानेंगे अनुभव से, वही बात सही है। अनुभव शून्य बातचीत, सिर्फ बातचीत रह जाती है, जिसे कि शंकराचार्य ने कहा, 'ये शब्द जालम है'। फिर बहुत से आडम्बर लोग करते हैं, दुनिया भर के तमाशे - कोई इस तरह का नाचना, कूदना - ये सब आडम्बर है। योग अंतर्योग है, अंतर योग है। आपके अंदर ये घटना घटित होती है, जो कुण्डलिनी का जागरण है। मैंने तो ऐसी भी किताबें देखीं हैं जिसमे लिखा है कि, कुण्डलिनी के जागरण से ये बीमारी होती है, वो होता है - कभी भी नहीं होने वाला। क्योंकि कुण्डलिनी जो है ये आपकी अपनी माँ है। हर एक आदमी के पास उसकी कुण्डलिनी त्रिकोणाकार अस्थि में बैठी हुई है इस इंतज़ार में, इस मौके का वह इंतज़ार कर रही है, कि ये मेरा बेटा कब इस ओर मुड़ेगा और कब उसे मैं पुनर्जन्म दे सकती हूँ। ये आपकी शुद्ध इच्छा है। बाकी जितनी भी इच्छा संसार में होती है वो अशुद्ध हैं, शुद्ध नहीं हैं। उसकी वजह ये है कि आप जानते हैं कि इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्र) में ये माना जाता है कि जो इच्छाएँ हैं, डिसायअरस हैं, वो आपकी, इन जनरल, माने पूरी तरीके से कभी भी नहीं होतीं हैं लेकिन हाँ एक दो हों इन पर्टिक्युलर, वह ख़तम हो जातीं हैं। माने ये, कि आज हम कहेंगे कि, "हमारे लिए मोटर चाहिए," मोटर आ गई, फिर हमको घर चाहिए, फिर घर चाहिए तो हमको ये चाहिए - ये इच्छाएँ चलतीं रहेंगीं। पर जो शुद्ध इच्छा है, वो आपकी कुण्डलिनी है। ये परमात्मा की शक्ति है। ये आदिशक्ति की आपके अंदर उसका प्रतिबिम्ब है। इस आदिशक्ति को सिर्फ एक ही चीज़ चाहिए। वह एक ही चीज़ मांगती है कि उस निराकार ब्रह्म से एकाकार हो जाए। परमात्मा की जो सर्वव्यापी शक्ति है, उससे मैं एकाकार हो जाऊँ। बस यही एक शुद्ध इच्छा है। जब तक वो इच्छा पूर्ण नहीं होती, तब तक बाकी सब इच्छाएँ आती हैं, जातीं हैं, ख़तम हो जातीं हैं। लेकिन जब ये इच्छा जागृत हो जाती है - और मनुष्य तब उसको साधक कहतें हैं - और इसकी जागृति के बाद जब मनुष्य उसे पा लेता है, पाने के बाद फिर उसे पाने का कुछ नहीं रह जाता, फिर देने का हो जाता है। जैसे कि एक दीप है, जब तक नहीं जला है, तब उसे सजोया गया, बनाया गया, उसमें तेल डाला गया, बाती जब उसको बार दिया, तब उसका काम शुरू हो गया देने का। इसी प्रकार मनुष्य को भी परमात्मा ने इतना सुन्दर बनाया है इतना संजो कर बनाया है ये कहना कि परमात्मा नहीं है, इसमें भी कोई हर्ज़ नहीं। कहो चाहे न कहो, है तो है। लेकिन जब कोई कहता भी है, "परमात्मा नहीं है," तो भी वो कहता है कि है। नहीं कहने का मतलब भी है, होता है। और इसलिए जो मनुष्य कहता है कि परमात्मा है ही नहीं, उसकी सिद्धता देने का आज समय आ गया है। हाँ, पहले एक दो लोग ही पार होते थे, एक दो ही संत होते थे, एक ही दो लोगों को ये प्राप्त होता था। क्योंकि जैसे जीवन्त कोई पेड़ हो, उसके अंदर पहले एक दो ही फूल लगते हैं पर जब बहार आ जाती है, अनेक फूल जब उस पेड़ पर आ जाते हैं, तब अनेक उसमें से फल निकलते हैं। इसीलिए सहज योग आज समुदाय में होता है, सामूहिक। ये एक दो के लिए नहीं, यह समाज की तरफ उन्मुख है। समाज की तरफ इसकी दृष्टि है। इसकी वजह से अगर समाज में शुद्धिकरण नहीं होगा, तो सहज योग व्यर्थ है। यह शुद्धिकरण का एक मार्ग है, मनुष्य के परिवर्तन का, पूर्णतया उसके पुनर्जन्म का एक मार्ग है, जिससे मनुष्य पूर्णतया बदल जाता है। जो आदरणीय ट्रस्टी साहब ने बात कही, कि हमारे अंदर इक्वालिटी आनी चाहिए। इक्वालिटी बाह्य से, और सिर्फ मेन्टल प्रोजेक्शन से या थॉट(विचार) से कभी भी नहीं आएगी। जो भी आएगी, वह सिर्फ दिखने वाली होएगी। मैंने ऐसी इक्वालिटी कहीं दुनिया में नहीं देखी। लेकिन जब आपका आत्मा जागृत हो जाता है, तब आपके अंदर एक नया आयाम, एक नया डायमेंशन, आपके सेंट्रल नर्वस सिस्टम पे , आपके नसों पे आ जाता है, और आप महसूस करते हैं कि आप सामूहिक चेतना से चेतित हुए हैं। यह कोई दिमागी जमा खर्च नहीं रहता। ये वासत्विकता आप महसूस करते हैं, कि दूसरे आदमी के चक्र कहाँ पकड़ रहे हैं, आपके चक्र कहाँ पकड़ रहे हैं, उनकी कुण्डलिनी कहाँ है, आपकी कुण्डलिनी कहाँ है - जैसे कि दूसरा कोई रह ही नहीं जाता। लोग बहुत से, आपने सुना होगा कि, मिशनरी जैसे काम करते हैं, कि गरीबों को उठा के लाओ, उनको ये करो, वो करो, इसमें परमात्मा का कोई हाथ नहीं। गरीबी आपने बनाई हुई चीज़ है, परमात्मा ने किसी को गरीब नहीं बनाया था। वो गरीबों को उठा के उनकी मेडिसिन दे दी और उसको परमात्मा का नाम देने की कोई ज़रुरत नहीं। जिस वक़्त आप आत्मसाक्षात्कारी होते हैं, आप किसी को कुछ देने की ज़रुरत नहीं होती, अपने आप घटित होता है। हो सकता है, कि आज यहाँ बैठे हुए लोग बहुत सारे स्वस्थ हो जाएँ। ऐसी आपकी कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी, आपकी तंदरुस्ती ठीक हो जाएगी। इससे जितने भी दुर्धिर, जैसे कि कैंसर, जिसको कहा जाता है कि इनक्योरिबल डिजीजेस, ऐसे कितने ही इससे ठीक हो जाते हैं। क्योंकि आपकी जो शक्ति कुण्डलिनी जागृत हो गई, तो उसने वह सारे चक्रों को प्लावित कर दिया और उसकी वजह से वह चक्रों में बैठे हुए जो देवता हैं, वो जागृत होने से, आप फिर से स्वस्थ हो गए। इसमें कोई विशेष बात नहीं, इसमें कुछ करना नहीं होता, मेरा लेना देना कुछ नहीं लगता। मेरा तो ये कहना है कि अगर एक ऊँगली में दर्द है, और दूसरी ऊँगली से अगर उसको रगड़ दिया जाए, तो क्या ये ऊँगली उसके लिए उपकार मानेगी या कुछ? वह तो करना ही है, वह तो करना ही है क्योंकि वो शरीर का एक अंग प्रत्यंग जब हो गया। इसी प्रकार आप दूसरे ही नहीं रह जाते और ये दशा आने पर यह नहीं रहता कि मैंने आपके ऊपर उपकार किया है, कि मैंने आपके साथ भलाई करी है - ये भाव ही छूट जाता है। ये तो सिर्फ बहते रहता अकर्म में, जैसे सूर्य का प्रकाश बहता है। लेकिन, तो भी, हमारी बुद्धि जो है बड़ी तीक्ष्ण है। हर एक चीज़ हम बुद्धि से देखते हैं और बुद्धि से जानने के प्रयत्न में रहते हैं। हाँलाँकि सहज, सहज माने, 'सह' आपके साथ जन्मा हुआ, ऐसे ये योग का अधिकार, आपका अपना स्वयं है। ये आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वातन्त्र जिसे हम कहते हैं, वह स्वातन्त्र अभी तक नहीं मिला। अगर मिला होता, तो ये हालत अपने देश की न होती। शिवाजी ने कहा था जिस वक़्त उनका राज्याभिषेक हुआ - तो रामदास स्वामी स्वयं ब्राह्मण थे - लेकिन उन्होंने आकर के शिवाजी से यह बताया कि, 'स्व धर्म जागो (अस्पष्ट - आवा ? )', स्व का धर्म जागृत करो, स्व का धर्म जागृत जब तक नहीं होगा, तब तक देश का कल्याण नहीं होगा। स्वतंत्रता तो हो गई, लेकिन उन्होंने कहा, कि यह तो स्वातन्त्र है। स्व तंत्र होना चाहिए। 'स्व' माने आत्मा का जो तंत्र है, तकनीक, जब तक उसे नहीं जागृत करोगे तब तक ये कार्य नहीं होगा। हाँलाँकि महाराष्ट्र में, इस पर बहुत कार्य हुआ है कुण्डलिनी पर। वजह ये है कि उस देश में बड़े-बड़े संत-साधुओं ने इस पर बड़ी मेहनत करी हुई है। खासकर ज्ञानेश्वर जी ने कहा है कि जो, उन्होंने कहा है कि 'अब विश्वातपक जो है वो खुश हो हमसे और खुश हो कर के तोषावे'। तोश - तोश के साथ हमे पसायदान दें। माने ये वाइब्रेशन्स दें, ये चैतन्य दें। और 'स्वधर्म सूर्य विश्व पाहुक' - माने स्वधर्म का सूर्य सारा विश्व जाने। जिस वक़्त यह स्वधर्म का हमारे अंदर जागरण नहीं होता है, हम सिर्फ ज़बानी, मेन्टल प्रोजेक्शन में कहते रहते हैं, कि हम भाई-भाई हैं। हम कहते थे 'चीनी, हिंदी भाई-भाई' कहाँ गया वो?

हम आपस में ही भाई-भाई नहीं। आपस में नहीं। आपस में हिन्दुस्तानियों के लिए तो विशेषता है कि, एक दूसरे का जब तक गर्दन नहीं काटें, उनको चैन नहीं आए। तो कहाँ हुए हम भाई-भाई? कहने की बात है कि हम भाई हैं और दोस्ती है। दोस्ती कहीं नहीं हो सकती जब तक आप आत्मा में जागृत हो नहीं सकते। क्योंकि आपके अंदर जो सामूहिक व्यष्टि है, जो, वो समष्टि जो आपके अंदर है, वो आत्मा से ही पाई जाती है। जो आपके अंदर कलेक्टिव बीइंग है, वो आत्मा है। वो जब तक आपने पाया नहीं, आप सब भिन्न-भिन्न अलग हैं और उसका भी कारण है, सब को अलग बनाया गया, इसलिए कि हर आदमी अपने व्यक्तिगत दिशा में पहले ये जान ले, अच्छा क्या, बुरा क्या? अपनी पहले स्वतंत्रता को जाँच ले। अगर वो मध्य मार्ग में रहता है, तो फिर वो उस आत्मा को प्राप्त कर सकता है, जिस आत्मा से वह सारे कलेक्टिव में जागृत हो जाता है। तो जो बातें हम लोग सोचते हैं कि सब समाज के लिए होनी चाहिए, वो कैसी होंगी? कोई तरीका है, आप बता दीजिए? कोई आदमी कि जिसको आपने सत्ता पे बैठा दिया, वो बिलकुल ही निःस्वार्थ, बिलकुल ही किसी आइडियोलॉजी के बगैर, बिलकुल ही किसी एक डोग्मा के बगैर, कभी रही नहीं सकता। उसके दिमाग में वह बनता ही जायेगा, क्योंकि अभी उसका ब्रह्मरंध्र का छेद नहीं हुआ है। जब ब्रह्मरंध्र छिद जाता है, तो वह उस परमात्मा के असीम, ऐबसोल्यूट, एकमेव शक्ति से एकाकार होता है। उसमें दो सवाल नहीं होते। सत्य दो कभी नहीं होते। अब आपसे हम ऐसे बताएँ, कि जैसे कि आपने किसी आदमी को देखा, तो क्या आप बता सकते हैं ये आदमी अच्छा है, बुरा है? नहीं बता सकते। एक आदमी कहेगा, "बड़ा अच्छा है," एक कहेगा, "बुरा है।" लेकिन जब आप आत्म का साक्षात्कार पाते हैं, तो आपके अंदर चैतन्य की लहरियाँ बहने लगतीं हैं, अगर वह आदमी ख़राब होगा, तो आपकी लहरियाँ एकदम बंद हो जायेंगीं। मानो कि एक आप कंप्यूटर हैं। आप वैसे भी कंप्यूटर ही हैं। इतने विशेष कंप्यूटर हैं, कि बगैर कुछ सोचे समझे, कुछ प्रोग्रामिंग के ही, कोई चीज़ देखते ही आप जान जाते हैं, हाँ आप क्या हैं। लेकिन वह कंप्यूटर चलने तब लगता है जब कि उसका सम्बन्ध मेंस से हो जाता है। जैसे ये भी एक है इंस्ट्रूमेंट(यन्त्र) यहाँ। जब तक इसका कनेक्शन मेंस से नहीं होगा, ये व्यर्थ है। इसी प्रकार हमारा भी कनेक्शन मेंस से होना चाहिए। अब भक्ति में लोग भगवान का नाम लेते हैं, चिल्लाते हैं, चीखते हैं। आप ऑक्सफ़ोर्ड स्ट्रीट में देखिये तो आप शर्म से मर जाएँ, कि वह लोग धोती पहन-पहन कर के, और बाजार में उनकी बोदियाँ मिलतीं लगा-लगा करके, रास्ते में ढोलक बजा-बजा करके, और सब धोती भी गिरती, साडी भी गिरती, कोई तमीज़ नहीं, कुछ नहीं, बुद्धू जैसे, 'हरे रामा, हरे कृष्णा' करते हुए भीख मांगते हैं। वह जो कृष्ण जो साक्षात लक्ष्मीपति हैं, उसके ये भक्त लोग इस तरह से भीख माँगते हैं। भीख माँगना लक्ष्मीपति के पुत्र को शोभा नहीं देता। लेकिन ये है नहीं, ये कोई जमात और है, जो गलत चीज़ के पीछे में पड़ी हुई है। श्री कृष्ण ने साफ़ कहा है 'योगः क्षेमः वहामयम'। हम इस बात को भूल जाते हैं कि कृष्ण डिप्लोमेट थे, डिप्लोमेसी का एक आवेषण थे। वो जानते थे कि मनुष्य ज़रा डाँवाँडोल चलता है। इससे सीधी, सीधी ऊँगली घी नहीं निकलेगा। उन्होंने साफ़ कहा था, 'योगः क्षेमः वाहमयम'। पहले योग को प्राप्त करिए फिर क्षेम होगा। 'क्षेम योग' कभी नहीं कहा या 'क्षेम' भी नहीं कहा कि उस समय (अस्पष्ट - वहन?) करता। 'योगः क्षेमः वाहमयम' भक्ति पर भी उन्होंने कहा है कि, 'पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयम,' जो भी दो ले लूँगा लेकिन कौन सी भक्ति चाहिए 'अनन्य'। मतलब ये, कि जब आत्मसाक्षात्कार में आप अनन्य, जब कोई - अनन्य मानें, जब दूसरा कोई नहीं रह जाता है। तो दशा ये है, कि उस वक़्त दूसरा कोई नहीं रह जाना चाहिए, आपकी एकाकारिता परमेश्वर से होनी चाहिए। दिखने को बात लोगों को लगता है कि, "माँ ऐसे कैसे, इतने सरल कैसे हो सकता है?" खासकर जो बुद्धिवादी होते हैं, वह कहते हैं, "इतना सरल कैसे हो सकता है?" लेकिन यह जीवन्त क्रिया है। जीवन्त परमात्मा की जीवन्त क्रिया हमेशा सहजयोग ही है। आप सोचिये कि हमारे श्वास-ओ-श्वास के लिए हमें अगर किसी गुरु के पास जाना पड़े और कोई किताब पढ़नी पड़े और उसके लिए इनीसिएशन लेना पड़े तो क्या फायदा, कोई जी सकता है? कोई सी भी जीवन्त क्रिया आप देख लीजिए। एक बीज है उसको आप सिर्फ इस माँ के गोद में डाल दीजिए, वह अपने आप अंकुर जाता है। कैसे अंकुरता है, कोई बता सकता है?

क्यों अंकुरता है, कोई बता सकता है? कोई नहीं बता सकता। साइंस नहीं बता सकता इस बात को, कि वह किस तरह से, क्यों, किस शक्ति की वजह से अंकुरता है। उसमें कौन सी ऐसी शक्ति है जिससे वह अंकुरता है। हम तो कोई भी जीवन्त कार्य नहीं करते लेकिन इतना अहंकार हमारे अंदर है जिसकी कोई हद्द नहीं। हम लोग अब समझ लीजिए एक पेड़ है गिर गया उससे हमने बना दी कुछ बना दिया, समझ लीजिए, स्टेज बना दिया, तो हम सोचते हमने बड़ा भारी काम कर दिया। ये पत्थर पड़े थे उससे अगर बिल्डिंग बना दी - मरे से मरा बनाया आपने - जीवन्त कार्य आजतक कौन सा किया आपने? सिर्फ जब आप आत्मसाक्षात्कारी होते हैं, तब आप जीवन्त कार्य कर सकते हैं, क्योंकि आपके हाथ से कुण्डलिनी का जागरण होता है। अब इसके बारे में कितना भी बताया जाए, तो भी आपके समझ में नहीं आएगा जब तक आपको इसकी अनुभूति नहीं आएगी। अनुभूति ज़रूर आनी चाहिए। बगैर अनुभूति के बातचीत करने में सिर्फ समय बर्बाद करना है। जैसे समझ लीजिए कि आपको इस कमरे मैं आना है, और आपने पूछा कि, "माँ, ये लाइट कैसे जलाना है?" मैंने कहा, "अच्छा बेटे, वो जो स्विच है उसको ऑन कर दो।" आपने जा के स्विच ऑन कर दिया, हो गया। लेकिन यह मतलब नहीं इस लाइट के पीछे में कोई और लाइट नहीं है, इसके पीछे में कोई और बड़ी भारी संस्था नहीं है, और उसके पीछे में बड़ी भारी हिस्ट्री नहीं है और इसका बड़ा भारी एक शास्त्र नहीं है - सब है, लेकिन आपके लिए सारा आसान बना दिया है, क्योंकि जब सामूहिक पर कार्य होना है, तो इसको आसान ही बनाना पड़ेगा। सर्वजन साधारण को जब तक कुण्डलिनी का जागरण नहीं मिलेगा परमात्मा का नामों-निशाँ शायद संसार से मिट जाए। सर्वजन साधारण को इसका लाभ होना चाहिए और यही मेरा प्रयत्न रहा। मैं जब पैदा हुई थी, पिता मेरे बारे में जानते थे कि मेरा क्या कार्य है और उन्होंने मुझे बताया था कि, "बेटी तुमको चाहिए कि तुम अभी कुछ बातचीत नहीं करो, इसके बारे में कुछ मत बोलो, क्योंकि दूसरा गीता और बाइबिल और कुरान लिखने से कोई फायदा नहीं। आप कृपया ऐसा करिए कि पहले जन-साधारण की कैसी जागृति होगी, जो आपका कार्य है, जिसके लिए आप संसार में आईं हैं, उसका पता लगाइये। उस वक़्त मैंने मनुष्य के अंदर की व्यवस्थाएँ देखीं, उसकी कार्य-प्रणाली देखी, उसकी सब तरीका देखा, और फिर मैंने ये सोचा, कि क्यों न हम लोग कुछ ऐसा तरीका निकाल सकते हैं, कि जिसके करने से ही जन-साधारण एकदम से पार हो जाए। और ऐसी व्यवस्था बन पड़ी और मुझे एक बात समझ में आ गई जिसकी वजह से ये कार्य नहीं हो रहा था कि सहस्त्रार टूटे बगैर मनुष्य पार नहीं हो सकता, क्योंकि इस सहस्त्रार में सातों चक्रों का वहाँ पर पीठ है और जब तक ये इंटीग्रेशन, ये समग्रता, हम साध नहीं सकते, तब तक ये कार्य नहीं होगा। और जब यह कार्य सिद्ध हुआ तो मैं बड़े आश्चर्यचकित हो गई, मैं स्वयं आश्चर्यचकित हूँ कि हज़ारों लोग एक क्षण में पार हो जाते हैं, हज़ारों लोग, पर शहर में ज़रा मुश्किल है। शहर के लोग ज़रा इधर-उधर से ज़्यादा होशियार होते हैं, ज़रुरत से ज़्यादा अपने को समझते हैं। जैसे आपने कहा कि हमारे अंदर ईगो आ जाता है और बहुत सारी ऐसी चीज़ें हैं और जिनको ईगो नहीं आता, वो किसी न किसी गलत धारणा में फँसे रहते हैं। लेकिन गाँव के सीधे-साधे लोग - महाराष्ट्र में दस-दस हज़ार लोग एक साथ पार हो गए। दिखने में बड़ी आश्चर्यजनक चीज़ है, लेकिन ये घटित होता है। होता है, इसमें कोई शंका नहीं। इसके लिए आप रुपया-पैसा कैसे दे सकते हैं? परमात्मा क्या रुपया-पैसा जानते हैं? यह तो आपने बनाई हुई चीज़ है। जो लोग आपसे रुपया-पैसा लेते हैं भगवान के नाम पर, उस आदमी को कभी भी आप परमात्मा का आदमी न समझें। सिर्फ जो आदमी आपको परमात्मा से मिलाए, वही परमात्मा से आया हुआ इंसान है। क्योंकि उसको पैसे से क्या मतलब है? उसको आप ही बताइये, कि जब आप समझ लीजिए, कि आप तो एक बीज हैं, उसको अगर आपको चाहिए कि इसको जीवित करें या उसमें से एक कोमल सा अंकुर निकले, तो क्या आप उसको पैसा देते हैं क्या इस मदर अर्थ को आप पैसा देते हैं, क्या आप सूर्य को पैसा देते हैं, या जिस हवा के सहारे हम जीते हैं, इस पानी को, इस गंगा को क्या पैसा समझ में आता है? जो पवित्र चीज़ परमात्मा की है, उसे पैसा नहीं समझ में आता है। पहली चीज़ ये समझना चाहिए, कि जो आदमी किसी चीज़ के लिए पैसा माँगता है और जिसे कहता है परमात्मा, गलत चीज़ है। दूसरे यह, कि इसमें एफ्फोर्ट्लेस है, सहज है। एफ्फोर्ट्लेसली होना चाहिए। अब कोई कहेगा, "आप सिर के बल खड़े हो जाओ, तुम्हारी कुण्डलिनी जागृत हो गई।" ऐसी-ऐसी किताबें लोगों ने निकाल रखीं हैं और विशेष करके जो लोग बुद्धिवादी हैं, उनको इस तरह की नई फैशन की किताब बड़ी अच्छी लगती है। कोई भी आ जाए नई फैशन - रजनीश आ गया, फलाना आ गया, ढिकाना आ गया। उसका कोई शास्त्राधार नहीं है। यह तो सारा एवोल्यूशनरी है। शास्त्र जो है एवोल्यूशनरी है। इससे शुरुआत हुई, उससे शुरुआत हुई, आगे ये हुआ, उसका कुछ न कुछ पाया होना चाहिए। एकदम हवा से चीज़ निकाल के बता दी लोग मानने लग जाते हैं। जिस तरह से हमारे महाराष्ट्र में, ब्राह्मण लोगों में बहुत बुद्धिवान हैं, उनके लिए भी उनका एक कर्दन काल आदमी निकल आया है। उसने किताब लिखी है, उसको कहते हैं, 'करुणोपाय अरुणोपाय करुणोपाय' मैंने कहा, "भई ये क्या, ये क्या है ?" कहें, "हम उनपे शक्ति पाथ करते हैं।" हमने कहा, "ये शब्द कहाँ है, शास्त्र में कहाँ है?" शक्ति पाथ, शब्द ही नहीं है। शक्ति पाथ क्या शब्द है?

कितना गन्दा शब्द है, शक्ति पाथ। ये कैसे हो सकता है? मतलब अपना महत्व दिखाना कि हम उसपे शक्ति पाथ करते हैं। मैंने कहा इसका कोई शास्त्र का आधार नहीं है, ये सब आपका कर्दन काल है। और जो लोग हमारे पास आए, उनको हाई ब्लड प्रेशर, पैरालिसिस, दुनिया भर की बीमारी। मैंने कहा, "आपके गुरु अगर आपकी तबियत भी नहीं ठीक कर सकते, तो उनको काहे के लिए आप परेशान होते हैं? और वे एक साहब को लंग (फेफड़े) में कैंसर था। मैंने उससे पूछा, "आपके लंग का कैंसर कैसे हो गया?" उन्होंने कहा कि हमारे जो गुरु थे बड़े भगत आदमी थे, वो किसी के हाथ का खाते नहीं थे, और हम लोगों को वो पाँचवे माले पे रहते थे और हम लोग नीचे खाना उनके लिए गीले बदन से ऊपर ले जाते थे रोटी और उनको देते थे। उसमें मुझे पहले निमोनिआ हो गया। मैंने कहा, "ठीक है, अपने गुरु के लिए तो ऐसा सैक्रिफाइस (त्याग) करना ही चाहिए। उसके बाद अब कैंसर भी हो गया।" मैंने कहा, "यह भी आप सैक्रिफाइस कर रहे हैं ?" जो गुरु आपसे सैक्रिफाइस करवाए, उसको सोचना चाहिए गलत है। सैक्रिफाइस चीज़ बाह्य की नहीं होती, बाह्य की नहीं होती। कि दिखाई दिया, गेरुए वस्त्र पहन लिए, मैंने ये सैक्रिफाइस कर दिया, वो सैक्रिफाइस कर दिया। क्या सैक्रिफाइस कर रहे हैं पत्थर? सैक्रिफाइस चीज़ अंदर की होती है। जो आदमी अंदर से छूटा हुआ है, उसको किसी चीज़ का मोह होता ही नहीं। बड़ी मुश्किल चीज़ है मोह करना ऐसे आदमी के लिए। उसको बड़ा मुश्किल होता है कि कोई चीज़ हमें देगा। इन चीज़ों का एक ही मुझे तो कारण दिखाई देता है कि ये चीज़ आप किसी को दे सकते हैं, इसमें आप अपना प्यार भर सकते हैं। एक छोटी सी जैसे शबरी ने बेर राम को खिला दिए, ऐसी ही चीज़ है, सारे संसार में सब शबरी के बेर हीं हैं। वो किसी को माँ के प्यार में हम दे दें, तो हमें बड़ी ख़ुशी हो। चीज़ें उलटी हो जातीं हैं ना। तो ये चीज़ जब तक हमारे अंदर नहीं आएगी, तब तक हमें मानना नहीं चाहिए कि हमने कुछ पाया है। लेकिन ऐसे भी लोग बहुत से होते हैं, कि वह कहते हैं कि हमारी कुण्डलिनी जागरण हो गई। ऐसे भी बहुत से लोग होते हैं। कुछ तो कहते हैं, "इसमें बड़ी तकलीफ़ होती हैं और ऐसी-ऐसी परेशानी होती है।" जिन लोगों का इसको अधिकार नहीं हैं, जो पवित्र नहीं हैं, जो इसकी ओर एक गन्दी दृष्टि से देखते हैं, और जिनको इसके बारे में कुछ भी मालूमात नहीं, वह अगर कुण्डलिनी पे आघात करें, तो ये तो श्री गणेश का हाथ है, जो मारता हैं तड़ाक से - जिसको कि हम सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम के प्रोब्लेम्स कहते हैं, वह खड़े हो जाते हैं। और इस तरह से आदमी में अनेक तरह की विकृतियाँ - चिल्लाना, चीखना, दुनिया भर की चीज़। एक महाशय आए, तो वह मेरी तरफ बैठे तो मेरी तरफ उन्होंने दोनों पैर ऐसे किये, तो लोगों ने कहा, "माँ की तरफ ऐसे पैर करके नहीं बैठते, आपको तो पता है, आप हिंदुस्तानी हैं, आप आराम से बैठिए," तो उन्होंने कहा कि, "नहीं, मैं बैठ नहीं सकता, मेरी कुण्डलिनी जागृत हो गई है। मैं अगर ऐसे बैठ जाऊँ तो पालथी मार के, तो मैं कूदने लगता हूँ मेंढक के जैसे।" तो मैंने उसको बुलाया, "इधर आओ, तुम क्या मेंढक होने वाले हो? अब तुमको क्या होने का है?" तुमको तो महामानव होने का है। जिसको महामानव होने का है, वह मेंढक के जैसे कैसे कूदेगा? इस तरह से अत्यंत विपरीत और विप्रयास किये हुए अनेक आपको ऐसे ग्रन्थ भी मिलेंगे, जिसमें अंट- शंट दुनिया भर की चीज़ें लिखीं। लेकिन जो कुछ सब लिखा है, शास्त्र नहीं है, यह मानना चाहिए। जो कुछ लोग कहते हैं, वह ब्रह्मवाक्य नहीं है। सबसे पहले आप जब तक आत्मा का अपने अंदर जागरण नहीं करते हैं, जो कुछ आप जानते हैं, जो कुछ भी आपने पाया, कुछ भी नहीं पाया क्योंकि सब मिथ्या है। ब्रह्म को पाए बगैर सब मिथ्या है। पहले ब्रह्म को पाइए, फिर आपको असलियत पता हो जाएगी कि ये चीज़ क्या है? अब हम कहते हैं कि कामाख्या देवी का मंदिर है, फलाना मंदिर है, तो क्या?

ये मंदिरों में कुछ नहीं रखा क्योंकि वहाँ सब भूत बैठ करके पैसा कमा रहे हैं। तो ज़रूरी तो ये देखिएगा किसी ने कहा कि, "ये क्या कामाख्या देवी का मंदिर, किसी काम का नहीं।" लेकिन ये बात नहीं। जो आदमी आत्मसाक्षात्कारी होगा, वो देखके कहेगा, "हाँ, ये स्वयंभू है।" ये स्वयंभू हैं, पृथ्वी तत्व से निकला हैं। अब यह बातें सच हैं, या झूठ हैं, या कैसीं हैं, आप कैसे जानिएगा? हमारी बातचीत से तो आपको मान नहीं लेना चाहिए। ये आप स्वयं इसकी प्रचीति लें, आप स्वयं उस चैतन्य को पाएँ और आप खुद जा कर के देख लीजिये ये क्या चीज़ है ? इतना आप जागरूक हो जाते हैं, इतनी जागरूकता आ जाती है, कि आप फ़ौरन समझ जाते हैं, कि आप कहाँ हैं और दूसरा कहाँ है और उसकी क्या दशा है। दूसरी बात कि इसमें लक्ष्मी तत्व का जागृति होती है। ख़ास कर बात बताएँगे जब लक्ष्मी की जागृति हमारे अंदर होती है तो मनुष्य का क्षेम बन जाता है। लंदन में आप जानते हैं कि कितनी बेरोज़गारी है, बहुत ज़्यादा अनएम्प्लॉयमेंट है, लेकिन हमारे सहज योगी करीबन तीन-चार हज़ार सहज योगी होएंगे, उसमें से एक भी बेरोज़गार नहीं है। सब के पास रोज़ी है, कोई बेरोज़गार नहीं और सहज योग में नियम है, कि जो भी आदमी आये, कोशिश करे रोज़गारी पा ले और रोज़गारी पा लेते हैं। इतनी तरह-तरह से परमात्मा की हमें मदद होती है। उसकी वजह ये है कि, जिसे हम कहते हैं कारण और परिणाम, कॉज एंड इफ़ेक्ट, उससे परे आप चले जाते हैं। कुण्डलिनी जो है, वह उससे परे है। उस परमात्मा के साम्राज्य में आप चले जाते हैं, जो कॉज एंड इफ़ेक्ट के बाहर है। हम लोग तो लड़ते रहते हैं कारण से या उसके परिणाम से। जैसे अब गरीबी है, गरीबी की वजह से खराब है। तो गरीबी से परे उठने का तरीका सिर्फ कुण्डलिनी जागरण है - सच बात है। जब तक आपके यहाँ ये तांत्रिक बने रहेंगे इस बंगाल में, कभी भी यहाँ लक्ष्मी का राज्य नहीं आ सकता। आपको मालूम नहीं इधर से तांत्रिक आया और उधर से लक्ष्मी जी चलीं गईं। इतने तांत्रिक भरे हुए हैं इस बंगाल में, कि यहाँ कैसे होगा। वही हाल मैंने केरला में देखा था, कि केरला में लोग घर में ही मुर्दे गाड़ते हैं और इतनी काली विद्या वहाँ करते हैं। जहाँ-जहाँ काली विद्या होएगी - आप देश के कहीं कोने में चले जाइये जहाँ काली विद्या होएगी, वहाँ कभी भी लक्ष्मी जी का राज्य नहीं होगा। इसीलिए हम, आप जानते हैं, कि जिस दिन दिवाली होती है, तो सब दूर लाइट जला देते हैं, जिससे लक्ष्मी जी अंदर बनीं रहें। उनको बिलकुल पसंद नहीं कि हम ऐसे काले लोगों के पास जाएँ, पर इसका यहाँ इतना ज़ोर बंधा हुआ है और गलत गुरु इतने ज़्यादा हैं कि मैं बहुत यहाँ आने से डरती थी। आपको मालूम है मैंने करीबन चौदह साल से सहज योग हिंदुस्तान में शुरू किया लेकिन आज इतने दिनों के बाद आने की वजह यह थी, कि मैंने सोचा कि यहाँ पाँव कहीं धरने की जगह मिले, तो फिर ज़रूर आयें। मुझे आशा है कि आप लोग इस ओर अपनी दृष्टि करेंगे, क्योंकि आप स्वच्छ, शुद्ध, शाश्वत, अविनाशी आत्मा हैं। उस आत्मा को पाना, ये आपका, स्वयं का जन्म सिद्ध अधिकार है। उसके लिए हम कुछ नहीं कर रहे हैं। ये आपके पास है, तैयारी है, आपको सिर्फ प्राप्त करना है। लेकिन उस वक़्त अपना दिमाग खुला रखना चाहिए। अगर आप साइंटिस्ट हैं, तो साइंटिस्ट चाहता है कि मैं अपना दिमाग खुला रखूँ। उस दिमाग को खुला रख करके आपको सोचना चाहिए, कि जो माँ कह रही है यह बात है या नहीं। जैसे कि जिसे हाइपोथिसिस कहते हैं, धारणा कहते हैं, उस तरह से आप मेरी बात सुनिए। उसके बाद वह सिद्ध होने पर आपको मानना चाहिए। पर शुरू से ही आप 'नाहीं नाहीं' करने लग जाएँ तो चीज़ कैसे अंदर जाएगी ? हाँलाँकि इसका बुद्धि से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। ऐसे भी लोग मैंने देखे हैं कि जिन्होंने बहुत ओप्पोसिशन(विरोध) सहज योग को किया। खुद हमारे जो डॉक्टर वारेन हैं, इन्होंने बहुत शुरू में परेशानी उठाई थी लेकिन आज देखिये, कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं, कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं । क्योंकि ये अनुभव है। अनुभव को भी अगर आप कहें, "हाँ, तो क्या, हमारे हाथ में ठंडी हवा आ गई तो क्या?" सिर्फ सहजयोग का जो सबसे बड़ा दोष ये है, कि सहजयोग के लिए हर आदमी खुला है। हर तरह का आदमी इसमें आता है। इसके लिए सबके लिए दरवाज़े खुले हैं। हो सकता है, इसमें एक-आद दो गलत आदमी भी आ जाएँ। एक-आद दो ढोंगी भी आ जाएँ, एक-दो बनाने वाले भी आ जाएँ। लेकिन जब आपकी जाग्रति होकर के ये अवस्था आ जाएगी, आप फ़ौरन ताड़ जाईयेगा कि ये आदमी कैसा है, इसके विब्रेशन्स कैसे हैं। लेकिन ये जब तक आपके अंदर उत्थान होता नहीं, उत्क्रांति होती नहीं, आप अधूरे रह गए, आप मनुष्य ही की दशा में रह गए। जिस लिए आपको मनुष्य बनाया था, वह चीज़ आपने पाई ही नहीं- वह है आत्मा को पाना। और फिर कहना चाहिए कि हमारा ये धरोहर है, ये हमारा हेरिटेज है। ये हमारे भारतवर्ष का हेरिटेज है। ये किसी के पास नहीं। ये जो बाहर के देशों ने जितनी भी आपने देखी है कि बड़ी डेवलपमेंट हो गई और ये ये सिर्फ, पेड़ जैसा बढ़ जाए बगैर किसी जड़ों के और एक दिन उलट के गिर जाए, और अभी उनके दिमाग ठनके हुए हैं सबके और सोचते हैं कि हम किसी तरह से विनाश की ओर दौड़े चले जाएँ, क्योंकि आपने अपनी जड़ें नहीं खोजीं और जड़ इस देश में है और हम लोग उनके चरण छू रहे हैं, तो क्या होगा ? जब जड़ें इस देश में हैं तो आपको पाना चाहिए। वहाँ तो गणपति का 'ग' से उन्हें शुरू करना पड़ता है, धार्मिकता से शुरू करना पड़ता है। मेरे हाथ टूट जाते हैं लोगों को वहाँ पार कराते-कराते।

Kolkata (India)

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