Public Program, Kundalini Ke Jagran Ke Bad Labh

Public Program, Kundalini Ke Jagran Ke Bad Labh 1989-03-16

Location
Talk duration
65'
Category
Public Program
Spoken Language
Hindi

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16 मार्च 1989

Public Program

Noida (भारत)

Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - Draft

Kundalini Ke Jagran Ke Bad Labh Date 16th March 1989 : Noida Place Public Program Type Speech Language Hindi

सब से पहले तो कहना है कि नोएडा का कुछ ऐसा नसीब है, कि कितनी भी कोशिश करिये आप जल्दी (अस्पष्ट)। कब से वही इंतजार कर रहा था नोएडा, मुझे भी और आप को भी। क्योंकि बिना वजह की देर हो गयी। रास्ते में कोई वीआयपी साहब अगर दिल्ली में आ जाये तो सब रस्ते बंद हो जाते हैं। फिर कोई आदमी हिल नहीं सकता। इसी प्रकार न जाने कितने लोगों को अपना समय बर्बाद करना पड़ता है। आप लोग भी बहुत देर से इंतजार कर रहे थे और मैं भी, कि कब हम पहुँच रहे हैं, कब हम पहुँच रहे हैं। पर कुछ ऐसा ही नसीब है कि नोएडा में आने में एक इंतजार का भी मजा उठाना पड़ता है। आप लोगों की भी कमाल है कि आप इतनी देर से बैठे रहे। और अपनी माँ को मिलने के लिये तो सभी बहुत लालायित होते हैं, पर कलियुग में ऐसा ही सुना था कि बच्चे तो माँ की परवाह ही नहीं करेंगे। मैं तो उल्टा ही हाल देख रही हूँ। इसका मतलब कलियुग भी खत्म हो गया, कृतयुग भी खत्म हो गया और ये सत्ययुग आ गया है। कृतयुग में परम चैतन्य जो है वो कार्यान्वित होता है। ये तो आप जानते हैं कि परम चैतन्य का कार्य शुरू हो गया है। अगर परम चैतन्य कार्य न करते तो हम इतने लोगों को पार नहीं करते। उनके कार्यान्वित होने में इतनी मदद मिली है कि हजारों लोग भी अगर प्रोग्रॅम में आ जाये तो वो आपको दर्शन को प्राप्त करते हैं । हालांकि हमारे अन्दर जो कुण्डलिनी है ये अनेक जन्मों से इस दिन का इंतजार कर रही है, कि जब अपने आत्मसाक्षात्कार को आप प्राप्त होते हैं। कुण्डलिनी जो है वो हमारी शुद्ध इच्छा है। जैसे कि हर एक इच्छा मनुष्य की पूरी हो जाती है, पर उसकी इच्छा पूरी नहीं होती। ये शुद्ध इच्छा है। जब मनुष्य को ये शुद्ध इच्छा का फल मिल जाता है, तब उसके बाद सारी ही इच्छायें गौण हो जाती हैं। इसके बारे में हम जानते नहीं। बहुतों ने तो कुण्डलिनी का नाम भी नहीं सुना । बहुत सोचते हैं कि मैंने कुण्डली देखी है। जो शादी के वक्त देखी जाती है। इतना हमारे यहाँ अज्ञान है शास्त्र का। ये शास्त्र गुपित शास्त्र था एक जमाने में। लेकिन इसके बाद कितने तो भी लोगों ने बड़ा व्याख्यान किया है। लेकिन अंग्रेजी किताबें पढ़ने से, अंग्रेजी भाषा सीखने से, अंग्रेजी तहजिब में बह जाने से हमारे देश की जो विशेषता है, जो धरोहर है उसको हमने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की। उसकी ओर हम मुड़े भी नहीं। ये सब अपने शास्त्रों में भी लिखा है । इसके अलावा हमारे जो बड़े बड़े कवि हो गये, संत कवि हो गये, जैसे मार्कडेय स्वामी को कहते हैं चौदह हजार वर्ष पूर्व हो गये। उसके बाद कितने ही संतों ने आत्मसाक्षात्कार के बारे में लिखा। फिर धीरे धीरे कुण्डलिनी के बारे में भी लिखना किया। लेकिन हम कह सकते हैं कि आदि शंकराचार्य ने तो बहुत साफ़ तरीके से बताया कि आपको शुरू कुण्डलिनी का जागरण करना चाहिये। कुण्डलिनी जागरण के सिवाय आप परम को पा नहीं सकते। लेकिन आदि शंकराचार्य जाने के बाद कोई भी ऐसा शंकराचार्य नहीं हुआ, जिसने इस ओर लोगों को मोड़ा है। शायद किसी को मालूम ही नहीं था कि कुण्डलिनी का जागरण कैसे करना चाहिये। मंदिर बनाये, पूजा पाठ, दुनियाभर की चीज़ें

शुरू की। पर जो वास्तविक चीज़ है कुण्डलिनी का जागरण वो किसी ने नहीं किया । उसके बाद हमारे यहाँ बारहवी शताब्दि में एक बहुत बड़े कवि महाराष्ट्र में हो गये। इनका नाम था ज्ञानेश्वर। उन्होंने ने भी कुण्डलिनी के बारे में बहुत स्पष्ट रूप से ज्ञानेश्वरी में छठे अध्याय में बताया । इसके अलावा उन्होंने बड़ी सुन्दर किताब लिखी है, जिसका नाम है अमृतानुभव। ये किताब तो ऐसी अद्वितीय है, कि मेरे ख्याल से कबीर साहब, नामदेव, अध्यात्म पर इतनी गहरी किताब मैंने आज तक देखी नहीं। इसके बाद नानक साहब, तुकाराम ऐसे अनेक लोगों ने कुण्डलिनी के बारे में लिखा। पर आश्चर्य की बात है, कि दूसरे ही धर्मों में जैसे इस्लाम में, ये लिखा गया है, कि जब कियामा आयेगा, जिस वक्त आपके पुनरुत्थान का समय आयेगा, तब आपके हाथ बोलेंगे। तब कियामा पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा था। कुण्डलिनी का उन्होंने आज तक नहीं कहा। और ईसाई धर्म में भी कहा है कि ये ट्री ऑफ लाइफ है और जिस वक्त तुम्हारे अन्दर आत्मदर्शन होंगे, तब तुम्हारे अन्दर परमात्मा का जो दर्शन होगा वो ऐसा लगेगा , जैसे कि बहुत से प्रज्वलित ऐसी दीपशिखा है और ये होता है ये दिखायी देता है। आप लोगों को भी बाद में दिखायी देगा। अब इसके बारे में राजा जनक से ले कर के अभी तक हर आदमी ने अपनी तरह से इसको लिखा है, जैसा समय था, जैसी स्थिति थी। लेकिन तब भी ये जनसाधारण की शक्ति है, जिसे जनसाधारण प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा जरूर लिखा गया था, लेकिन वो कैसे होगा इसके मामले में कुछ लिखा नहीं। ज्ञानेश्वरजी ने एक बहुत सुंदर कविता लिखी है, उसका नाम है 'पसायदान' । उसमें उन्होंने सहजयोग पूरी तरह से वर्णित किया है और पूरी तरह से ये कहा है, कि ऐसे दिन आयेंगे। वो कहते हैं कि चलिये, वो सहजयोगियों को वर्णन करते हैं, कि आप चलिये । आप कौन हैं? आप जंगल के जंगल हैं, कल्पतरुओं के। कल्पतरु तो आप सब लोग जानते हैं। कल्पतरु के आप सब जंगल के जंगल हैं। आप लोग चलिये। फिर वो कहते हैं कि आप लोग, माने सहजयोगी लोग अमृत के भरे हये ऐसे महासागर है, जो कि बोलते हैं । चंद्रमा जैसी आपकी शकल, जिस में कोई लांछन नहीं है। और सूर्य जैसे आप देदिप्यमान, लेकिन आप में ताप न है। ऐसे आप सहजयोगी, चलिये, चल के ये पसायदान, ये अमृतदान सब को दीजिये। पर उस पर भी इंग्लंड में एक कवि हो गया| ऐसे तो अनेक कवियों ने लिखा। पर एक कवि ब्लीज कर के हआ है। उसने तो साफ़ साफ़ सहजयोग का प्रोसेशन इस तरह से होगा, उसका ..(अस्पष्ट) इस तरह से लिखा जायेगा | याने हमारा भी वर्णन है उसमें। ये सौ साल पुराना कवि है। इसके अलावा अपने हिन्दुस्थान में ही बड़े भारी कवि उनको हम मानते हैं, रविंद्रनाथ टागोर । उन्होंने गणपतीपुळे का पूरा वर्णन कर दिया, कि भारत के किनारे पर स देश के लोग आयेंगे। माँ जाग उठी है। विश्व की माँ जाग उठी है। और सब अपनी छोटी छोटी मर्यादायें भूल कर के एकजात उठेंगे। देखिये कितने बड़े बड़े द्रष्टा अपने देश में हो गये| रविंद्र बाबू तो हमारे ही सामने। और विल्यम ब्लैक कर के एक बड़ा भारी कवि इंग्लंड में हुआ। उन्होंने सौ साल पहले लिख दिया था, कि ऐसा ऐसा होने वाला है। भृगु मुनि ने अपनी जो किताब नाड़ी ग्रंथ है, एक किताब आप जानते हैं, कि उन्होंने कुण्डलिनी के बारे में लिखी थी, जिसे भृगु संहिता कहते हैं। पर एक किताब उन्होंने नाड़ी ग्रंथ नाम की लिखी है। उसमें पूरा सहजयोग का वर्णन है, कि मनुष्य की कुण्डलिनी सहज में जागृत हो कर के उसकी तंदुरुस्ती ठीक हो जायेगी। वो बिल्कुल ठीक

हो जायेगा और उसके लिये कोई भी ऐसी जिसको अस्पताल वरगैरा, संस्कृत में दुसरा ही शब्द है, इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। और बिल्कुल सहजयोग का इतना सुन्दर वर्णन। पता नहीं चौदह हजार की बारह हजार वर्ष पूर्व ये हुये। इन्होंने ये बात कलियुग के लिये कही। और अभी कुछ दिन पहले मैं, एक अॅस्ट्रोलोजर हैं कोई अमेरिका में, उनका वो पढ़ रही थी। में हैरान होगी। सत्तर साल से हमने ये कार्य शुरू किया, बराबर सत्तर साल से उन्होंने ये होगा, होगा, ऐसा होगा, वैसा होगा, इस तरह से बढ़ेगा, इस तरह की तरक्की आयेगी । सब कुछ लिख रखा है। बहुत आश्चर्य की बात है, कि इन लोगों को इतनी चीज़ें कैसे दिखायी दी। लेकिन विल्यम ब्लैक ने तो हमारा घर कहाँ होगा? उसमें कौन लोग काम करेंगे? सब कुछ वर्णित किया है । जैसे कि खड़े थे वहाँ और देख रहे थे कि किधर किस तरह से बन रहा है? ये सब होते हुये भी और अनेक इस प्रकार की चीज़ें ह्यी हैं। आप लोगों को कभी मौका मिलेगा तो देखियेगा कैसे फोटो आये हैं, कि जहाँ हमारे हृदय पे ही सूर्य है। हमारे हाथ पे सूर्य है। पाँव पे चाँद है। पीछे में चाँद-सूरज हैं। तरह तरह के प्रकाश सर से निकल रहे हैं और चारों तरफ़ प्रकाश है। कहीं हम बैठे हये हैं तो तो उस जगह सिर्फ चैतन्य ही चैतन्य है। इस तरह से अनेक फोटोग्राफ़्स है। आप के आज कल के कैमरा में आ रहे हैं। उसके लिये जरूरी नहीं की बहुत महंगा कैमेरा हो या कोई बड़े पहुँचे हये फ़ोटोग्राफर हों। सर्वसाधारण एक छोटासा बच्चा खींच लेता है उसमें आ जाता है। कोई एक छोटासा विद्यार्थी कोई खींच लेता हो उसके पास फ़ोटोग्राफ आ जाते हैं। तो इस तरह की बहत सी पहचान आज मानव के लिये सहजयोग में है। इसके अलावा जो जो प्रयोग किये गये सहजयोग से बीमारियों के या जो जो प्रयोग किये गये अँग्रिकल्चर में या किसी भी चीज़ का, उस पर इतना ज्यादा यश मिला है, कि कोई सोच भी नहीं सकता कि इतना यश किसी सर्वसाधारण बुद्धि के आदमी से मिल सकता है। इसका मतलब एक तो है ही कि हमारे अन्दर कुछ तो भी अज्ञान से ढका हुआ था, जो खोलना पड़ा। और दूसरी बात ये भी है कि हमारे अन्दर बहुत सी शक्तियाँ हैं, सुप्तावस्था में, जो कुण्डलिनी के जागरण से जागृत हो गयी। आज आपको मैं यही बताना चाहती हूँ, कि कुण्डलिनी के जागरण से क्या क्या बातें हो जायें । पूरा तो बता नहीं पाऊंगी। उसके लिये कोई ग्रंथ लिखना होगा। पर आपको थोड़ा थोड़ा समझाते हैं। कुण्डलिनी के जागरण से सर्वप्रथम हमारी तंदुरुस्ती ठीक हो जाती है। हम स्वस्थ हो जाते है। कैसी भी बीमारी हो मनुष्य स्वास्थ्यपूर्ण हो जाता है। पर इसे ध्यान करना पड़ता है। इसे बार बार अपनी कुण्डलिनी को सहस्रार से ब्रह्मरंध्र का छेदन करवाना पड़ता है। इस तरफ थोडी सी मेहनत करनी पड़ती है। अगर उसपे थोड़ी सी मेहनत की तो वो उस स्थिति को प्राप्त होता है, जिसे हम निर्विकल्प समाधि कहते हैं। पहले वो निर्विचार होता है। जिसे कोई विचार नहीं आता है। इसका मतलब ये नहीं की विचार नहीं करते। पर जब भी चाहे वो विचार कर सकता है, और जब भी चाहे वो विचार नहीं कर सकता। पहले तो हर समय पागल जैसे हम विचार करते ही रहते हैं, एक क्षण भी नहीं रुकते, वो सारे ही विचार हमारे उपर जो मंडराते रहते हैं, वो हट कर के एक स्वच्छ आकाश सा हमारा हृदय और मस्तिष्क हो जाता है। फिर जब चाहे हम विचार कर सकते हैं। जब न चाहें नहीं करते हैं। और निर्विचार में शांत, अपनी शांति में खड़े हैं। अब बहुत से लोगों को मानसिक व्यथा है। बहत से लोग आते हैं, उनको डिप्रेशन हो गया। मैं तो पहले ही कहती थी कि सब पे आप इंप्रेशन मारते हैं इसलिये डिप्रेशन में आ गये। क्योंकि आपका

इंप्रेशन लोग मानते नहीं, फिर आपको डिप्रेशन आ जाता है। तो आप इंप्रेशन ही लोगों पर क्यों मारते हो? कुछ लोगों को डिप्रेशन और भी किसी वजह से आता है। सब से पहले हमारी तंदरुस्ती ठीक हो जाती है और उस पे हमने थोड़ा सा अभ्यास किया तो हमेशा के लिये हम ठीक हो जाते हैं। फिर हमे कोई भी बीमारी नहीं लग सकती। एक साहब ने मुझे कहा कि, उनको कैन्सर हो गया था। उससे तो ठीक हो गये। अब उनको टी. बी. हो गया। तो मैंने कहा कि, 'क्या आप रोज ध्यान करते थे ?' उन्होंने कहा, 'हाँ मैं तो करता ही था।' मैंने कहा, हाँ, यही तो है। आप फँसते जा रहे हैं। मतलब ये कि अब तो सिर्फ मजाक की चीज़़ हो गयी ध्यान करना। आप एक जिम्मेदारी की चीज़़ समझ कर के, आप करते नहीं थे। और करते थे तो कभी भी किडनी की शिकायत नहीं होती थी। और बहुत से लोग जिनको बताया गया था कि आप एक साल में ही मर जायेंगे। एक महिने में ही मर जायेंगे। वो अच्छे भले घूम रहे हैं। उनको कुछ नहीं हुआ। सालों बीत गये। अच्छे से घूम रहे हैं। जिनकी उम्र, बतायी गयी थी कि पचास साल में ही दुनिया से चले जायेंगे, वो सत्तर, पचहत्तर के करीब है । और दिखने में भी इतनी उमर नहीं लगती। बताना पड़ता है, कि कितने वर्ष के है। जितना आप सहजयोग में सहकार्य करेंगे, जितना आप दुनिया को प्रकाश देंगे, उतना ही आपको इस से लाभ होगा। आपको तो पैसा लेना नहीं है ना आप दे सकते हैं। आप से कुछ भी नहीं चाहिये । सिर्फ ये चाहिये कि आप अपने (अस्पष्ट) करें और सामूहिक रिति से मिल कर के, जहाँ भी आपका सेंटर हो वहाँ जायें और वहाँ जा कर के ध्यानधारणा करें। इतनी सी बात। अगर इससे आपकी जिंदगी विशेष रूप से एक नया रूप धारण कर सकती है, तो क्यों न की जायें। डॉक्टर नहीं चाहिये, दवाईयाँ नहीं चाहिये, कुछ नहीं चाहिये। आराम से आप बैठिये। एक खर्चा तो यही बचता है। दूसरा खर्चा, जैसा मैंने कहा कि किसी को मानसिक क्लेश है। अगर किसी स्त्री में मानसिक क्लेश है, किसी पुरुष में मानसिक क्लेश है, या उसे कोई आदतें, शराब पीना है, जुगार खेलना है। पता नहीं क्या क्या आदतें होती हैं दुनियाभर की। सिगरेट, पान, तंबाकू, ये, वो दुनियाभर की चीज़़ । जिस पे कि हम पैसा खर्चा कर के अपना नुकसान करते हैं। अपना नुकसान और अपने घर वालों का नुकसान और उनके सामने कोई ध्येय भी नहीं रहता। ये सारी आदतें एकसाथ छूट जाती हैं। मानो की कोई आदत ही नहीं रह गयी। जैसे बहुतों को आदत है सबेरे उठ के | | चाय पीने की। याद ही नहीं कि चाय पी, की नहीं पी। ली, कि नहीं पूछते हैं। पता नहीं पी, कि नहीं पी? नाश्ता किया, कहाँ किया नाश्ता ? ऐसा. दिन ऐसे कि हमें इस चीज़ का शौक है, हमें वो चीज़़ अच्छी लगती। काफ़ी लोग ऐसे होते हैं। अब किसी को बेसन के लड्स अच्छे लगते हैं। तो सब लोग उनके लिये बेसन के लडू ले कर जा रहे हैं। 'क्यों भाई?' 'उनको बेसन के लड्ड पसंद खाना है खा लेंगे। फिर खाना खाते वक्त भी याद नहीं रहा खाना खाना है। तो बीत जाते हैं कि पता नहीं कल का खाना खाया कि नहीं खाया और नाश्ता किया की नहीं किया। अब ये है।' अब वो मरते दम तक उनको बेसन के लड्ड देंगे। और अगर डॉक्टर ने मना कर दिया तो उसी की भूख में मरते हैं और फिर भूत बन कर के आते हैं कि मुझे बेसन के लड्ड दो। इस तरह के शौक हैं कि इसको ये अच्छा लगता है, उनको ये पसन्द है। अपने इधर नॉर्थ इंडिया में बहुत ज्यादा है। किस को क्या पसन्द है। हर आदमी एक दूसरे की चापलूसी में लगा रहता है, कि इनको ये चीज़ पसन्द है तो उनको वो चीज़ पसन्द है। फिर पसन्द-नापसन्द कोई

जानता ही नहीं। हमारी लड़कियों को खाना बनाने का बहुत शौक है । मैंने कहा, 'तुम तो अपने डैडी के लिये इतनी चीजें बनाती हो। मेरे लिये क्या बनाती हो?' कहने लगी, 'मम्मी, तुम को कौन सी चीज़़ पसन्द है। हमें तो पता ही नहीं। तुम्हें तो सभी चीज़ पसन्द है और कोई चीज़ पसन्द भी नहीं। जो मिले तुम खा लेती हो।' तो मैंने कहा, 'ये बात है भाई, हमें तो कुछ याद नहीं रहता, हमें क्या चीज़ पसन्द है।' तो इस प्रकार अपनी पसन्द या जो आदतें और जब तक आप अपने समाज में रहते हैं तो ऐसी ही बातें जो करते हैं कि, 'साहब, मुझे तो बढ़िया घी खाये बगैर खाना ही नहीं।' मतलब बड़े घमण्ड से कहते हैं। और 'साहब, मैं सुबह-दोपहर दूध पी सकता हूँ।' और क्या क्या आप खा सकते हैं बताईये? बड़ी घमण्ड से बताते हैं। 'और साहब मुझे बाथरूम ऐसा चाहिये की चकाचक ।' 'कौन साफ़ करता है आपके यहाँ?' 'मेरी बीबी!' 'और खाना?' 'वो भी मेरी बीबी।' 'आप क्या करते हैं?' 'मैं नौकरी करता हूँ, सुबह-शाम तक। और फिर सिगरेट पीता हूँ। कभी शराब पीता हूँ और कभी इधर-उधर टहलता रहता हूँ।' बस। ये सब आदतें मनुष्य अपनी कोई अर्थ नहीं। इसी तरह से हमारे यहाँ आदमी और औरत जीते हैं। अगर आप पार होने के बाद लगता है कि (अस्पष्ट) कि मैं क्या क्या करता हूँ। अपने जीवन का ... पागल है क्या ? इनके जीवन का कोई अर्थ है या नहीं? ये ज्यादा आपको विदेश में देखा जायेगा। कोई बोट होगी उसमें खड़े हैं घण्टों। मैंने कहा, 'कर क्या रहे हैं?' कहने लगे, 'नहीं, ये बोट मैं बैलन्स कर रहा हूँ।' मैंने कहा, 'भाई, किसी को कामधंधा और नहीं?' नहीं कहने लगे कि 'मजा उठा रहे हैं।' जैसे कि हम बेवकूफ़ जैसे खड़े है बोट को ऐसे पकड़े ह्ये और घण्टों। ऐसे तो कोई मछली नहीं कर सकती। कोई जानवर नहीं कर सकता। ये आदमी है कि क्या है ! एक साहब थे। कहने लगे, 'मुझे जाना है लंडन। जरूरी जाना है कल। मुझे टिकट मिलना चाहिये । मैंने बुकिंग करायी है तीन तीन बार फोन कर के।' तो मैंने कहा, 'भाईसाहब, ऐसी जल्दी क्या है?' 'अरे भाई, मुझे वहाँ पे एक बॉल अटेंड करने का है।' (डान्सिंग)। उसमें चार घण्टे जा के नाचेंगे| पाँव दुखा के और शराब पी के मस्त हो जायेंगे। लेकिन वो सोचते हैं कि हमारा जीवन जो है इसी में है। इस तरह से इतना हम जीवन बर्बाद करते हैं बात बात पे, बात बात पे। हमारे हिन्दुस्थान में लोग इतने फैशनेबल भी नहीं। वहाँ तो एक काटा, एक चम्मच, एक छूरी इतना ही नहीं रहता। पाँच कॉटा इधर, पाँच छूरियाँ उधर, दो-तीन चम्मच उधर। आपको समझ में नहीं आता है, क्या क्या खाने का है? इतनी सी चीज़ खाने के लिये दो-दो चम्मच लगायी है, काँटे लगाये हये है। सीधे से थाली लगाओ और खाओ। उससे अच्छा ये है कि केले का पत्ता रखो और खाना खाओ। सरल बात है। खाया और केले का पत्ता फेंक दिया। काम खत्म। लेकिन नहीं। इतना उसमें समय बर्बाद करेंगे और जैसे ही उनके घर आप जाईये, वो फौरन बताना शुरू कर देंगे, कि ये प्लेट फलाने जगह की है, ये अमका है, तमका है। और अगर आपके घर आयेंगे तो प्लेट उठा के देखेंगे कि उसके पीछे क्या लिखा है। आप क्या वो दुकान खाने वाले हैं? उसमें कौनसी कंपनी का बना हुआ है। ये देखेंगे कि ये बढ़िया कंपनी का बना है कि नहीं। ऐसी चीज़़ों की गुलामी इन्सान करता है, कि कुछ पूछे नहीं। और उसमें इतनी ज़्यादा शो बाजी और आपस में इतनी खींचा - तानी, कॉम्पिटिशन की पूछे नहीं। इस तरह से मनुष्य अपना जीवन इतना बर्बाद करता है। आदमी लोगों का क्या कहना! वो तो आपसी रस्सी खेंच में ही मारे जाते हैं। अरे भाई, वो आदमी कैसे गायब हो गया ? वो आदमी कैसे गोल हो गया ? उसका कैसे बड़ा कैसे बनूँ? लेकिन बड़ा हो गया? उसका कैसे छोटा हो गया ? रातदिन ये फिकर रहती है कि मैं नौकरी में

कितना भी बढ़ता गया, समाधान तो मैंने देखा नहीं। वो जब तक कब्र में नहीं जाता है, एक टॉँग इधर और एक टॉग उधर, तब तक वो सोचता है कि मेरा प्रमोशन हो जाना चाहिये। अब लास्ट प्रमोशन हो रहा है। लेकिन तो भी वो सोचता है कि बड़ा प्रमोशन हो। औरतों को दूसरी चीज़ से फुर्सत नहीं। औरतों को ये है कि इसने ऐसे बाल बनाये तो मैं क्यों न बनाऊँ ? उसने ऐसा किया तो ऐसे क्यों न करूँ, उसमें वैसा है तो वैसे क्यों न करूँ। कभी मैंने ये नहीं देखा कि आपस में तुलना हो कि वो इतना भला मानूस है, इतना भला है, मैं क्यों न भला हूँ। ऐसे मैंने किसी को नहीं सुना। आज तक नहीं सुना। सहजयोग में है। सहजयोग के बाहर कोई आदमी, औरत ऐसा नहीं कहती कि, 'मैं इतनी अच्छी औरत हूँ। कितनी भली औरत है। इतनी दाता है। मैं भी कुछ ऐसा हे जाऊँ। मैं भी कुछ ऐसे करूँ।' ऐसी इच्छा मैंने किसी को करते देखा नहीं। और इस तरह से हम अपने जिंदगी का अर्थ क्या निकालते हैं। इसका कोई मतलब ही नहीं लगता। इस जिंदगी को चार चाँद लगते हैं, जब आप पार हो जाते हैं। क्योंकि आपके अन्दर से शक्ति बहने लग गयी| हाथ उठाईये, कुण्डलिनी को उठा सकते हैं। दूसरों को आप पार करा सकते हैं। जीवंत क्रिया आप कर सकते हैं । लोगों को इतना दान दे सकते हैं। इसके लिये पैसा नहीं, कुछ नहीं। आपके हाथ के इशारे पे कुण्डलिनी चलती है। न जाने आप कितने लोगों को ठीक कर सकते हैं। एक आदमी न जाने क्या से क्या कर सकता है। पर वो सोच लें कि अब हम तो हो गये योगी, पूरी तरह। और इस बात को अपने जीवन में पूरी तरह उतारें और ठान लें, कि हम तो योगी हैं और हमारी जात ही अलग है। हमारा धर्म ही बिगड़ गया। हम तो दूसरे धर्म में आ गये। जब वो इस बात को ठान लेता है, तो एक आदमी काफ़ी है, सारे हिन्दुस्थान को नचा सकता है। अगर मैं ही सब काम कर सकती थी तो मुझे क्या जरूरत थी इतने सहजयोगियों को इकट्ठे करने की। दरबदर ठोकरे खाने की। हर जगह दौड़ कर जाने की। काम तो आपसे होने वाला है। जैसे कि बिजली का स्रोत कहीं है, लेकिन यहाँ पर तो आपको दीप ही जलाने पड़ते हैं। तो स्रोत यहाँ लाने से फायदा क्या? उससे क्या लाइट होने वाली है? ऐसे ही दीप चारों तरफ़ जलाने पड़ेंगे। तभी प्रकाश ठीक है। इसी प्रकार आप लोग भी उसी एक स्रोत से प्रकाश पाने वाले एक दीपक है और दीपक को चाहिये कि अब प्रकाश हो। इसके बाद भी आप रो रहे हैं, कि मुझे ये चाहिये, मुझे वो चाहिये। अब देने का काम है। पहले लेते रहें। अब देना सीखो। अपने गौरव को और अपने सत्य को देखो, कि आप में कितनी शक्ति है। आप क्या क्या कर सकते हैं। पर अब भी हम देखते हैं कि बहुत से लोग रोते ही रहते हैं। माताजी, मेरा ऐसा हुआ। माताजी, मेरा वैसा हुआ। कुछ लोग समुद्र में गिर जाते हैं और भूल जाते हैं और कुछ लोग पत्थर की तरह बाहर ही पड़े रहे हैं। इसकी एक ही वजह है कि आप अभी तक समझे नहीं सहजयोग का मतलब। आपने अपना भी मतलब नहीं जाना। आप समर्थ नहीं हैं। अपने स्व का अर्थ आपने नहीं जाना। इसलिये ऐसी बात हो रही है। अच्छा ये तो थोड़ीसी बाहर की बात हयी कि शारीरिक व्यथा ठीक होती है और मानसिक व्यथा ठीक होती है और आप स्वतंत्र हो जाते हैं। स्वतंत्र का अर्थ ये हुआ, एक तो ये कि आप किसी भी आदत की गुलामी नहीं करते। आप कहिये समुद्र के किनारे सो जायें। आप कहिये तो रात भर जग लें। जो कहिये शरीर हमारा है। ये हमारा गुलाम है। हम इसके गुलाम नही। शरीर की गुलामी एकदम से छूट जाती है। जो रात-दिन कहते रहता है कि भाई, मेरे तो पैर में दर्द है। मेरे तो सर में दर्द है। सारे दर्द अपना बोरिया बिस्तर

बाँध के रफूचक्कर हो जायेंगे। और आप दूसरों का दर्द ढूँढ सकते हैं। अब आपके पास ये शक्ति आ जाती है कि आप दूसरों का दर्द देखें। स्वतंत्रता का दूसरा एक और अर्थ है, कि 'स्व' का तंत्र जानना। 'स्व' माने आत्मा और आत्मा का तंत्र जानना माने उसका मेकॅनिजम जानना। आत्मा का कार्य कैसे चलता है? उससे हम क्या क्या कार्य कर सकते हैं? जब आत्मा हमारे चित्त में आता है, तो हमारे चित्त का क्या हाल होता है? इन सब चीज़ों को जानना ही स्वधर्म जानना है और स्व तंत्र को जानना है। ये भी हो जाता है। आपने अपने को जाना ही नहीं। जानने में सब से बड़ी बात तो आप यही जानियेगा, कि आप बहुत शक्तिशाली है। हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। वाकई में हम हैं। ये तो ऐसा ही हुआ कि किसी को ले जा कर के .... (अस्पष्ट) दिखाया। पता नहीं ये क्या चीज़ है। किस को दिखा दिया। मैं (अस्पष्ट) कर के बैठा हूँ। और बार बार उठ खड़ा हो रहा है। अब बिराजो। अब बिराजने | का समय आ गया है। अब बिराजो आराम से, शांति से बैठो। अब किस की मजाल है कि तुम को छू लें या तुम्हें सतायें या परेशान करें। जो तुम्हें सतायेगा एक दिन वो तुम्हारे चरणों में गिर के रोयेगा, 'बाबा, मुझे इस तकलीफ़ से बचाओ।' तो इस प्रकार आप परमात्मा के साम्राज्य में चले जाते हैं और परमात्मा के साम्राज्य में जाने पर बड़ा आश्चर्य होता है कि हर चीज़ को आप देना चाहते हैं। कोई ऊपर से मिल जाती है। आपको कोई काम करना है तो एकदम बन जाता है। आप कहीं बजार में जाईये तो आपको देख के कहेंगे, 'बैठिये, चाय पीजिये।' दूसरे को भगा देते हैं। 'भाई, क्या बात है?' 'आपकी शकल से ही लग रहा है कि आप शरीफ़ आदमी है।' शकल से ही लगने दिखने में लगेगा। फिर आपका बोलना, चलना इतना प्यारा, मधुर हो जाता है। एक तरह से इतना प्रेम भाव, एक बड़ा अजीब सा आकर्षण। वो आकर्षण ऐसा है। जिसमें किसी प्रकार की..... (अस्पष्ट)। आकर्षित होता है मनुष्य ऐसे आदमी की तरफ़। और देखता है कि इस आदमी में कौनसा ऐसा गुण है जिससे मैं इसकी तरफ़ इतना आकर्षित हूँ। कहते हैं कि कस्तुरी का सुगंध आ रहा है तो उसे कसम लेने की जरूरत नहीं। जिस मनुष्य में प्रज्ञा होती है, जिसकी जागृत चेतना होती है, उसके लिये कसम लेने की जरूरत नहीं पड़ती। और आपको ये नहीं कहना पड़ता, कि साहब ये आदमी .....(अस्पष्ट) है। हाँ, जानबूझ कर के आप आग खेलना चाहे तो दूसरी बात है। या बेकार ही में विरोध करना चाहे, झगड़ा करना चाहें तो दूसरी बात है। तो ये सोचना चाहिये, कि हमारे लिये एक बड़ा भारी नया आयाम खुल जाता है और उस आयाम में हमारे अन्दर कलेक्टिव कॉन्शसनेस जिसे कहते हैं सामूहिक चेतना प्रस्थापित होगी। आप जानते हैं उस पर कौन से आदमी में चक्र पकड़ रहे हैं। आपके कौन से चक्र पकड़ रहे हैं। और आप अपने से अलग हट जाते हैं। आ कर ये कहेंगे, माँ, मेरा आज्ञा चक्र पकड़ रहा है। बहुत जोर से। इसे ठीक कर दो। माने ये कि ये जो अन्दर अहंभाव है, जो अहंकार है। अहंकार में है। इसका मतलब अहंकार है। लेकिन कहेगा, सरदर्द हो रहा है। जरा आज्ञा चक्र ठीक कर दीजिये। माने अहंकार है । कोई आदमी ऐसा कहेगा कि ये अहंकार है । तो ऐसा ठिकाना लगायेगा आपको। बस आपको पता चल जायेगा कि अहंकार का नाना है ये। लेकिन मनुष्य तभी कहता है कि मेरे अन्दर ये बात है। क्योंकि उसको महसूस होता है, एहसास होता है। जानता है। उसको दुःख होता है, तकलीफ़ होती है और उससे वो निकलना चाहता है। अपने को ही जानता है और अपना न्याय करता है। यही जिसको कहते हैं कि लास्ट जजमेंट है, आखरी न्याय का समय आ गया है। अब आप ही अपना न्याय करिये। वो किस प्रकार? आपके उँगलियों के

किनारे आपको बतायेंगे कि ये आपने गलती की। दूसरों के बारे में बतायेंगे। लेकिन आप फोन पर से बात कर के उनकी तकलीफ़ निकाल दे सकते हैं। उनको बगैर बताये ही निकाल दे सकते हैं । एकदम से आप देखेंगे कि वो आदमी कितना बढ़िया है। आप पहचान भी नहीं पाईयेगा। बहुत बार ऐसा होता है कि किसी आदमी को पार करने ... लगाये रहता है । तो मैं सोचती हूँ कि के बाद, अगर मैं उसे सालभर बाद मिलूँ तो वो मुझे पाँच साल और आपके बड़े भाईसाहब आये थे। लेकिन आज आप पहली मर्तबा आये। 'नहीं, माताजी, मैं ही था।' इतनी शकल पर रौनक और एक शोभा आ जाती है। मनुष्य के स्वभाव में इतना परिवर्तन हो जाता है। जो मनुष्य कंजूष होता है वो दोनों हाथों से लुटाने लगता है। उसी में उसको आनन्द आता है। जो मनुष्य क्रेझी होता है वो मनुष्य एकदम शांत, गंभीर। उसकी गहराई से जान लेगा। अरे भाई, मैं इतना गहरा हूँ। जो जैसे बबूले हैं वो एकदम खत्म हो जाते हैं। और वो आदमी एक बड़ी शांति, गंभीरता लिये खड़ा है सामने और आप हैरान हो जाते हैं कि ये जो कल इतना कूद रहे थे उनको कौनसा साप सूँघ गया। साप नहीं सूँघा उसे। अपनी स्वतंत्रता में खड़े हुये हैं। अपनी शांति में | विराजमान है। जिसे हम कहते हैं कि शांति, शांति, वो सब हमारे अन्दर है। जब ये सुरक्षा और शांति हमारे अन्दर बिराजती है, उसके प्रकाश में हम शांति महसूस करते है। अब दुनिया भर में इतनी बड़ी बड़ी संस्थायें बनायी हैं जिसे कहते हैं, फौंडेशन ऑफ पीस, फलाना, ठिकाना। शांति , शांति, शांति.... । सबको यही विचार है कि कैसे किस का गला काटूँ। और उससे क्या आपको शांति मिलेगी, जिसके हृदय में शांति नहीं । फौंडेशन बना रहे हैं बेकार में, झूठ-मूठ का। तो इस प्रकार मनुष्य इस झूठी चीज़ों पे जीता है। इन झूठी तसल्लिओं पे वो अपना आयुष्य बेकार में व्यर्थ कर रहा है। उसको पता नहीं है असल में। एक छोटी सी बात, आजकल पॉलिटिक्स में झगड़ा, कि कम्युनिस्ट कौन है? हम कहेंगे कि हम बड़े भारी कॅपिटलिस्ट है। क्योंकि हमारे पास सारी शक्तियाँ हैं, हमारे पास सारी संपत्तियाँ हैं। तो हम सब से बड़े कॅपिटलिस्ट हैं। लेकिन हम सब से बड़े कम्यानिस्ट भी है । क्योंकि ये बाँटे बगैर मजा ही नहीं आता। जो धनसंपत्ति हमारे पास में है, और जो हमारे पास में शक्तियाँ है, वो बाँटे बगैर चैन नहीं आती तो हम से बढ़ के कोई कम्युनिस्ट है और हम से बढ़ के कोई भी कॅपिटलिस्ट| ऐसा ही आपका हाल है। आपको पाने के बाद ऐसा लगता है कि किसे बाँटे, किसे दें। किस को दें। किस से कहें। कैसे बतायें। और दिल खोल के आप बतायें । और ऐसी ताकद अन्दर से आ जाती है, कि मुझे स्वयं आश्चर्य होता है, कि प्रकाश के कैसे चमचमा रहे हैं। एक हमारे यहाँ मछली पकड़ने वाली जात होती है। उसे कोली (कोळी) कहते हैं। धंधा उनका यही है। इनके बारे में बता रहे थे कि ये नाव ले कर दूसरे देश में जा रहे थे। और एकदम से बादल छा गये। और उसमें से बिजलियाँ चमकने लगी। ऐसा लगा कि अब ये जा नहीं सकते, इतना बड़ा तूफ़ान खड़ा हो गया। तब बताया लोगों ने, वो खड़े हो गये और कहा, देखो तुम बादल वगैरा सब हट जाओ। मैं माँ के काम से जा रहा हूँ। खबरदार मेरे सामने रुकावट आ गयी तो। और ये गये। उन्होंने पूरा काम किया। वहाँ जा कर के सब से बातचीत की। सब को रियलाइजेशन दिया। सब कुछ कर के घर पे आये, ये छ: बजे की बात है। आ कर । ये शक्तियाँ आपके अन्दर आ सकती है। लेकिन सब से बड़ी जो शक्ति के सब खाना वर्गैरा खा कर क....... आपके अन्दर आती है, वो है प्रेम। प्रेम की शक्ति इतनी आह्वाददायिनी है । इतनी आह्वाददायी, की आप भूल जाते हैं। आँखों से आँसू बरसते हैं। और ऐसा लगता है कि इन प्रेम के सागर को मिलने के लिये तुषार हैं जो आँखो से

बह रहे हैं। छोटी छोटी बूंद। इतना उमड़ता है हृदय। इतना शांत कर देता है और एक अजीब सी अनुभूति प्यार की। ऐसा सुन्दर, मनोरम जीवन बना देता है। तो फिर कोई आराम अच्छा ही नहीं लगता। बस यही प्यार ही आराम है, प्यार ही देना है और प्यार ही का खाना है । और कोई भी चीज़ उसमें अच्छी नहीं लगती। आज तक हमने कभी प्यार की शक्ति को इस्तेमाल नहीं किया। सिर्फ द्वेष की शक्ति को इस्तेमाल कर रहे हैं। अब आप प्यार की शक्ति को इस्तेमाल कर रहे हैं। बहुत से लोग ऐसे सोच रहे होंगे कि माताजी सब बातें कर रही हैं ये कौनसी दुनिया की कर रही है? इसी दुनिया की! यहीं पर। इसी जगह में नोएडा में हो गया। यहीं पे हो गया आप देख सकते हैं। आप सब मिल कर के ये सुवर्णयुग आने वाला है। इसके आप अधिकार होंगे और उस पे आप बैठेंगे। जो कुछ संक्षिप्त में बताना था वो मैंने कह दिया। किंतु इसका कितना भी वर्णन किया जायें वो कम है। क्योंकि किसी भी चीज़ की ओर आप देखते हैं, कितना सुन्दर यहाँ फूलों का मेरे प्यार में बनाया| अब मैं देखती नहीं, मैं सोचती नहीं। निर्विचार देख रहे हैं। देखना मात्र बनता है। जिन्होंने भी प्यार से बनाया, मानो सारा प्यार ही आनन्द बन के फूलों में समाये। और कुछ सोचना ही क्या! इसी की अनुभूति ले रहे हैं। कितने प्यार से मेरे बच्चों ने सजाया। कितने प्यार से इन्होंने ऐसी चीज़ की है। और वो प्यार क्या शब्दों में बताया जायें या विचारों में लाया जायें, उसका मजा ही कुछ और है। जैसे किसी चीज़ का स्वाद लेते वक्त कुछ सोचते नहीं ऐसे ही इसका स्वाद आ रहा है। इस प्यार का और इस आनन्द का स्वाद आ रहा है। आपके प्यार का और आनन्द का स्वाद हम ले रहे हैं। और आप सारे प्यार और आनन्द का स्वाद! ऐसी सुन्दर, इतनी मधुर हमारी ये बड़ी सुन्दर सभा है। और अब एक (अस्पष्ट) तैयार हो रही है सहजयोग में। इसका भी वर्णन है कि ऐसे लोग संसार में आयेंगे। और वो आये हैं और सब लोग मिल कर के आप इसे सुदृढ करें। इसमे शक्ति भरें। उसमें बड़ी भारी हमें कहना चाहिये कि एक .... स्वास्थ्य लायें। और जो गंदी चीजें हैं जैसे एकदूसरे की निंदा करना, एकदूसरे का बूरा सोचना, एकदूसरे पे चीखना, चिल्लाना और पैसा देना सहजयोग में, ये महज बेवकूफ़ी की बात है। एक सहजयोगी का व्यवहार, उसका बोलना, चालना, बड़ा सुचारु और सुन्दर है। इसमें जंगलीपन सारा चला जाये। जैसे कि पहले तो काँटे आते हैं, लेकिन काटे के उपर जो फूल आते हैं, वो कितने सुन्दर हैं। इसी प्रकार हालांकि हम पहले काँटे रहे होंगे, लेकिन हमें अब फूल बनना चाहिये और फूलों से फिर फल बनना चाहिये। और वैसे अपने आप होता है। धीरे धीरे अपने व्यवहार में बदल आने लगता है। बहुत से लोगों को गुस्सा आना बंद ही हो जाता है। कहते हैं कि मेरा गुस्सा कहाँ गया? और देखते ही की समय बहुत अच्छा चल रहा है। लोग सब से ज्यादा प्यार से बात करते हैं। किसी के रोबदाब से नहीं, सिर्फ प्यार से। और दूसरी बात ये है कि आप घड़ी भूल जाते हैं। टाइम जाते हैं। लेकिन काम शुरू रहते हैं। काम नहीं खत्म होते। जिस वक्त आपके कुण्डलिनी का जागरण होगा, उसी वक्त ये होगा। और फिर ऐसे वैसे वक्त होने नहीं वाला। अगर हमें देर करनी हैं तो करनी ही है। इसके लिये परेशान करने से क्या फायदा। सबेरे से सोच रहे हैं कि बैठे होंगे सब लोग हम भी इसका इंतजार, वो भी हमारा इंतजार...। और फिर जिस वक्त होना है उसी वक्त होना है। इसमें परेशान होने की कौनसी बात है। आखिर हम और | समय में भी क्या करते हैं? कौन सा विशेष काम कर रहे हैं? यहाँ कम से कम भाई-बहन प्यार से बैठे हये हैं। सब लोग व्यवस्थित इतनी शांति से बैठे ह्ये हैं। इससे ज्यादा क्या चाहिये?

ऐसा समागम, आपको आश्चर्य होगा कि हर साल ७० शादियाँ होती हैं। ७०- ७५ शादियाँ होती हैं गणपतिपुले में। और तीस देशों की लोगों में आपस में शादियाँ होती हैं। उसमें से एक- दो शादियाँ खराब होती हैं। ज्यादातर शादियाँ इतनी सुन्दर होती हैं। वहाँ मानो एक स्वर्ग सा खड़ा है। इतने सब लोग सुन्दर दिखायी देते हैं। और देखने लायक चीज़ है । आप सब लोग गणपतिपुळे आईये। जैसा भी बन पड़ेगा हम इंतजाम करेंगे। और जैसा भी रहना पड़े। मंडप वरगैरा डाल देंगे आराम से रहिये। वहाँ ये नहीं देखना है, कि हमें कमरा कौनसा मिला? और हमें पलंग कौनसा मिला ? और चद्दर कैसी थी? दिल्ली वालों के लिये ये बड़ी परेशानी है। दिल्ली वाले आते हैं तो बम्बई वाले भाग कर के गाँवों में घुस जाते हैं, कि बाबा, हम को नहीं रहने का । हम नहीं रहना चाहते। क्योंकि ये हमें यहाँ रहने नहीं देंगे और उनको तो हर एक चूभती है। हमारे यहाँ एक पेशवा थे, बाजीराव। वो अटक से कटक तक घूमते थे। और उन्होंने मस्तानी नाम की औरत से शादी की। चाहे पंजाब की होगी, कोई जात हो, चाहे कोई भी हो, पर वो इतनी नाजूक थी की, कहते थे कि, वो जब चलती थी तो उनके पैर मखमल से भी छिल जाते थे। इतनी नाजूक थी। और वहाँ तो महारानी है चाहे कुछ है। हाथ में तलवार ले कर के और घोड़े पे बैठ के और उनकी तो कमर ही लटक जाती थी बार बार । एक-दो महारानियाँ देखती थी आ कर के कि ये कौन सी चीज़ है कि जैसे कोई म्यूजियम में पक्षी रखा होगा । उस प्रकार उनका वर्णन है। वो ये कहती थी, कि जब मैं पान खाती हूँ तब पान की लाली भी मेरे अन्दर दिखायी देगी। और ऐसे नज़ाकत थी पूछिये नहीं। सोचते थे कि भगवान ने ऐसी अजीब चीज़ बनायी होगी। उस बेचारी के प्रति बहत सहानुभूति होती थी कि क्या करे? बेचारी का शरीर ही ऐसा है। उनको बड़ी दया लगती थी। मराठी औरतों को बड़ी, आप जानते हैं मराठनों को एक से एक होती है। आदमी अगर ... (अस्पष्ट) लौट आयें तो उनकी गर्दन काँट के रख देंगी। नहीं तो ठीक है। कोई भी आपने धसधसपना किया फिर मराठी औरत ढीठ हो जाती है। तो ये जो चीज़ें थी, कि मेरा लड़का वहाँ गया, मेरा पति वहाँ गया ये सब हमने कभी सुना नहीं। ये तो हम सुनते हैं। मेरा बच्चा इंग्लंड चला गया। यहाँ ये सब किसी को मालूम है। इंग्लंड जाना ही पड़ेगा। वहाँ पढ़ना पड़ेगा। देश का नाम बढ़ाना पड़ेगा। और उसी तरह से जीवन एक आदर्श बनता रहा। अब पता नहीं वहाँ सिंधी लोग आ गये हैं, पंजाबी भी आ गये हैं। अब छोड़िये वहाँ पे.......(अस्पष्ट)। तो ये सब चीजें जाती हैं। अगर जरूरत पड़ी तो घर की रानी बन सकते हैं, और जरूरत पड़े तो घर- छूट गृहस्थी के लिये गृहलक्ष्मी भी बन सकते हैं। पुरुषों के लिये भी औरतों का मान होता है। ्त्रियों का मान करना, बच्चों का मान करना। जैसे कि यहाँ मैंने देखा है, कि आदमी लोगों को अपनी लड़की से बहुत प्यार है, लेकिन अपने बीबी से नहीं । आश्चर्य की बात है। किसी को बताओ तो महाराष्ट्र के लोग विश्वास ही नहीं करेंगे । अपनी बीबी से ज्यादा लड़की से प्यार है। बिटिया को क्या हुआ? बिटिया को ये दो। पता नहीं किस चीज़ का असर है। जिसका जो धर्म है वो निभाये। पति है तो पति धर्म है। बाप है तो बाप का धर्म है। लड़का है तो उसके लिये पिता का | धर्म है। सब का धर्म पूरी तरह से संतुलित तरीके से चलता है। ये नहीं की मेरा बेटा। फिर उसकी बह आये तो उसे मार मार के निकाल दे। अब वो तुमसे शादी करी है उसने । उसकी आयी है उसे रहन दो। इन सब चीज़ों का बह (अस्पष्ट) है वो भी निकल जायेगी। बड़े अड़खल होते संतुलन आ जाता है। और महाराष्ट्रियन लोगों की जो

है। उनको किसी से ठीक से बात करना तो आती नहीं। जैसे किसी मराठी दुकानदार के यहाँ आप जायेंगे। 'क्या चाहिये आपको?' 'एक साड़ी चाहिये।' दे देंगे। 'इसमें गुलाबी रंग है?' 'नहीं है, भागो।' उसके पास सिंधी बैठा होगा, नहीं तो पंजाबी बैठा होगा, तो कहेगा, आओ जी, बहेन जी, माता जी, पिता जी । कर कर के आपको अन्दर बुलायेगा। ढोल पीट पीट के। फिर उसके बाद में अच्छे से दिखायेगा। फिर उसके बाद चाय देगा । ये कीजिये, वो लीजिये, जो चाहिये ले जाओ | चंदेरी की साडी उसने कभी जिंदगी में देखी भी नहीं । पर आपको चार-पाँच साड़ियों के बगैर जाने नहीं देगा। तो मराठी लोगों में ये बहुत बड़ा दोष है। उनको बिल्कुल बिजनेस नहीं आता । फड़ाफडू बोल देंगे। तो ये चीज़ें आप लोगों ने सीखनी हैं। और इनसे भी आपको बहत कुछ सीखना है। तो इस तरह है बातचीत का ढंग। ये तो हमने आपको बाहर का व्यवहार बताया। पर अन्दर का अपने प्रति जो व्यवहार होता है, कि मनुष्य को अपने प्रति ........ (अस्पष्ट)। कोई अगर आपको रुपया दे रहे हैं। आप किस बात के लिये रुपया दे रहे हैं? क्यों साहब? कोई किसी से उधार नहीं लेता। कोई किसी की बीबी की ओर बुरी नज़र नहीं करें। आँखों में सभ्यता हो। पवित्रता आनी है। ना कोई औरत की नज़र खराब होगी, ना कोई आदमी की नज़र खराब होगी। आपस में इतना शुद्ध रिश्ता बन जायेगा। विलायत में शुद्धता क्या चीज़ है मालूम ही नहीं। उन्होंने कभी सुना भी नहीं। वो लोग जब इतने शुद्ध हो गये। और बिल्कुल उनको ध्यान ही नहीं रहता कि कौन हमारी बहन है? और किस से हमें व्यवहार कैसे करना चाहिये? यहाँ तो राखी तक का व्यवहार मनाते हैं। माय राखी सिस्टर। ये कौन भाई? ये हमारी राखी की सिस, फलानी भी राखी सिस है। इतना वो इसे समझते हैं| हमारा देश इन्हीं सब चीज़ों के सहारे जिया है। आपको पता होना चाहिये कि अलेक्झांडर तक...। जब अलेक्झांडर यहाँ आये थे तो पंजाब में एक राजा ने हराया। उस राजा ने जब हरा दिया। तो उसे उन्होंने गिरफ़्तार कर दिया। पुरु नाम है उनका। पुरु राजा ने उनको गिरफ़्तार कर दिया। और गिरफ्तार कर के उनको कहने लगे, 'अब आप यहीं जेल में बंद रहिये, नहीं तो हमारा सारा देश जो है उसको जीत लेंगे और फिर हम लोग आप के गुलाम हो जायेंगे। (अस्पष्ट) हिन्दुस्थानी ... औरत होती बहुत होशियार है। रक्षा बन्धन का दिन आ गया। उसने थाली में एक राखी रख कर के, ऊपर से ठीक से एक कपड़ा डाल के और दरबार में भेज दिया। 'हाँ, राखी आयी है। बहन से बाँधों।' बहन कौन ? तो कहने लगे कि अलेक्झांडर की बीबी। 'मेरे बहनोई को मैंने बंद कर दिया। ये मैंने क्या गजब कर दिया।' गये भागे भागे जेल, उनके सामने नमस्कार कर दिया। 'मुझे माफ़ कर दीजिये दामाद साहब।' उनको समझ में नहीं आया। वो हैरान हो कुछ गये। कहने लगे, 'ये क्या मेरी समझ में नही आता।' फिर बहत सारे उनके साथ जेवर आदि दे कर के पालखी सहित उनको भेज दिया। और उनके साथ घोड़े, हाथी रवाना किये। वो घर पे आये तो उनकी बीबी मुस्करा रही थी। पूछे कि, 'ये क्या लोग हैं। मुझे समझ में नहीं आता है। मेरे जैसे खूँखार आदमी की क्यों छूट्टी कर दी।' उन्होंने कहा, 'इसलिये आपकी छूट्टी हुई है, क्योंकि मैंने एक उनके पास धागा भेजा।' कहने लगे, 'धागा!' 'हाँ, एक धागा भेजा है। आज के दिन एक धागा भेज दें, तो वो उसकी बहन हो जाती है। 'अच्छा, फिर कितना भी बड़ा दुश्मन हो तो उसे छोड़ना पड़ता है।' 'हाँ, आप तो उनके दामाद हो गये।' कहने लगे, 'भगवान बचायें इन हिन्दुस्थानिओं से जो एक धागे पे दुश्मन को छोड़ते हैं। इनका क्या ठिकाना? ये तो प्रतीक रूप हर चीज़ को पाते हैं। मुझे माफ़ करो।

और वो चले गये। और यहाँ से चंदवरदायी को अपने साथ ले गये। और उन्होंने, 'मैं यहाँ राज्य नहीं करने वाला। ऐसे थे । वो चीज़ अब छूट गयी है। हमारे अन्दर हमारी संवेदना कम हो गयी। हम समझते नहीं है कि हमारी संस्कृति में कितनी छोटी छोटी चीजें हैं। इतनी सुन्दर, इतनी प्यारी! उसको हमने अपनाया नहीं। और अब हम ऐसे रास्ते पे चल पड़े हैं, जिस से बहुत से देश गढ्ढे में गिर गये हैं। हमें तो उस अनंत से प्राप्त करना है। और सहजयोग में उसी अनन्त की प्राप्ति है। और जब उस अनंत की प्राप्ति होती है तो आप उसी में रममाण हो जाते हैं। और आपको आश्चर्य होता है, कि ऐसी एक गवन्मेंट में आप आ गये हैं कि गवन्मेंट के जितने सर्वंट है वो आप ही के सेवा में लगे हैं। यहाँ के जैसे नहीं। इधर के अपने गवन्म्मेंट सर्वट होते हैं कि .... आपको नौकरी करनी पड़े। लेकिन ये गवर्म्मेंट सर्वट ऐसे होते हैं, कि आप ही की सेवा में सुबह से शाम तक लगे रहते हैं। जो आपको चाहिये, जो आपको जरूरत होगी वो दें। तो इस प्रकार हमारा जीवन सौंदर्यमय हो जाता है और सब तरह का अंध:कार हमसे हटता जाता है। और फिर हम एक नये आयाम में जाते हैं। आज ये सब मैंने आपसे कहा, इतनी बातें होती हैं। ये सब मनुष्य प्राप्त करता है। ये सामूहिकता आ जाती है। सारे देशों में दोस्ती हो जाती है। और जो धर्म की, जाति-पाती, डावरी, इस तरह की जितनी गंदी चीज़ें हैं सब खत्म हो जाती हैं। क्योंकि मनुष्य विशाल हो जाता है। तो उस विशालता में उतरने के लिये आपको ये जानना चाहिये, कि पहले अपने आत्मा को, विशालता को प्राप्त करें। उसका प्रकाश चित्त में लायें। कल मैंने आप लोग आये होंगे वहाँ तो बताया था, कि आत्मा क्या होता है और आत्मा का स्वरूप सच्चिदानंद क्या होता है? पर आज मैंने ये बताया कि सहजयोग में आने से क्या क्या लाभ होंगे। अगर आप चाहें तो मुझे थोड़े प्रश्न आप पूछ लें। यदि आप चाहें। फिर उसके बाद हम दस मिनट ध्यान करेंगे। प्रश्न : मैं १९ महिनों से सहजयोग कर रहा हूँ। पर मेरे हाथों पर चैतन्य लहरियों का फुल फ्लो नहीं मिल रहा है। (थायरो टॉक्सिकोसिन तकलीफ़) श्रीमाताजी : अब में अगर बताऊँ इसका इलाज तो आप लोग नाराज तो नहीं होंगे। इसका इलाज है कि कान में उँगली डाल के रोज सोलह मर्तबा 'अल्लाह हो अकबर' कहना। अकबर माने विराट। इस विराट की बात मोहम्मद साहब ने की थी, जो श्रीकृष्ण है । ईसामसीह जी हमेशा ये उंगलियाँ दिखाते हैं। इसमें से ये उंगली जो है ये विशुद्धि चक्र की है, जो श्रीकृष्ण की है । हुआ था, जिसे महाविष्णु कहते हैं, वही ईसामसीह | ये उंगली जो है लक्ष्मी-नारायण की। ये मेरे फादर है। राधा जी का जब पुत्र प्रश्न: माताजी, मेरे हार्ट में होल है। डॉक्टर ने ऑपरेशन के लिये ३१ मार्च को बुलाया है। मेरा पूरा विश्वास है कि इस ऑपरेशन के लिये मुझे ले जाना नहीं पड़ेगा आप की कृपा से। श्रीमाताजी : आप ध्यान करें। डॉक्टर साहब यहाँ पर हैं। दो-तीन डॉक्टर लोग हैं। आपको जिस तरह से बताया है वैसे आप रोज करें। पर उसको समझ के करें। एक मज़ाक, खेल की तरह नहीं । जैसे ये पूजा है, आप अपनी पूजा करें।

प्रश्न: माताजी, क्या योग की क्रिया करते समय मंत्र का जाप नहीं करना चाहिये ? श्रीमाताजी : नहीं बिल्कुल भी नहीं। प्रश्न: पैरों की नस क्यों एकदूसरे पर चढ़ती है? श्रीमाताजी : अब आपकी चढ़ती होगी। सब की थोडी ना है । प्रश्न: श्री माताजी, किसी भी समय हमारी संस्कृति का विश्व में वर्चस्व था, और ये देश जगद्गुरु था। आज ये दिखता नहीं है। ये समय फिर कब आयेगा और कैसे? श्रीमाताजी : आप जरा आँखें खोलिये तो हैरान हो जाईयेगा। जब ये फारेन के लोग आते हैं न, तो आपकी मातृभूमि की धूल उठाते हैं और अपनी सिर पे रखते हैं । प्रश्न: मैंने आपके १० और १२ तारीख के लेक्चर्स सुने, मेरे दाहिने पैर के घूटने में सायटिस की दर्द है तो मैं नीचे बैठ नहीं पाता शायद इसलिये मुझे अभ्यास करते समय कुछ भी आभास नहीं होता। मैं क्या करूँ? श्रीमाताजी : अब लेफ्ट साइड का ये जो घूटना है ये आपकी लेफ्ट नाभि का दर्शन देता है और ये राइट नाभि। अब लेफ्ट नाभि कब पकड़ती है, कि जब आपके गृहलक्ष्मी की स्थिति ठीक नहीं । क्या आप अपनी पत्नी से ठीक बर्ताव नहीं करते हैं या आपकी पत्नी दुःखी है, या आपकी पत्नी बहुत जल्लाद है। माने गृहलक्ष्मी जो है उसका सुख आप नहीं दे पा रहे हैं। और उसे जब सुख नहीं दे रहे हैं तब ये चक्र पकड़ता है। इसको आप ठीक कर लीजिये तब मामला ठीक हो जायेगा। प्रश्न : सफ़ेद दाग याने ल्यूकोडर्मा के बारे में। ये कैसे ठीक करेंगे? श्रीमाताजी : लीवर के कारण। पहले तो ये कि पोस्टमन का तेल बिल्कुल भी नहीं खाना है। हमने देखा है कि जो लोग पोस्टमन का तेल, कितने लोग पोस्टमन का तेल खाते हैं हाथ ऊपर करिये। पोस्टमन का तेल हमेशा आपके लिये तकलीफ़ देगा। उसके अन्दर कोई ऐसी चीज़ होती है कि जिससे हमेशा सफ़ेद दाग आ जाते हैं। इसके अलावा तेल, घी वगैरा ऐसे लोगों को, लीवर वालों को नहीं खाना है। अब लीवर कैसे ठीक करना है ये डॉक्टर साहब आपको बतायेंगे। आपने लीवर को ठीक कर दिया तो धीरे धीरे ये भी ठीक हो जायेगा । पर ये कोई बीमारी नहीं। कोई इसे बीमारी समझता है तो गलत बात है। प्रश्न: श्रीमाताजी, एक सहजयोगी है, कहते हैं कि हृदय से भय नहीं जाता। श्रीमाताजी : आपका सेंटर हार्ट पकड़ता होगा। इसका पता लगाना चाहिये, कि क्या वजह है कि आपका भय नहीं जाता। बुद्धि ..... को नहीं, चक्रों को देखती है कि कौनसा चक्र पकड़ता है। अगर आपका हृदय चक्र सेंटर में पकड़ रहा है तो फोटो की तरफ हाथ कर के तीन बार आप श्वास रोक कर के आप जगदंबा का ध्यान करिये। आपकी माँ जगदंबा है। और शक्तिशालिनी है तो भय किस का !

प्रश्न : श्रीमाताजी, बंधन अगर हाथों से संभव न हो तो मानसिक रूप से लगाया जा सकता है? श्रीमाताजी : लगा सकते हैं, लेकिन हाथ से जो है आसान रहता है। मन से भी हो सकता है, अगर मन आपका इतना सशक्त हो जायें, तो मन से भी हो सकता है। प्रश्न: कोई भाई अपने प्रमोशन में ज्यादा इंटरेस्टेड है वो जानना चाहते हैं कि मेरा प्रमोशन होगा कि नहीं? श्रीमाताजी : बिल्कुल, आपकी हस्तरेषा देख के, मैं जो भविष्य आपका देख रही हूँ कि आप में से कितने लोग इस सुवर्ण युग में उतरेंगे। और परमात्मा के साम्राज्य में अपने अपने स्थान पर बैठेंगे। प्रश्न : श्रीमाताजी, क्या मनुष्य वास्तविक रूप में किसी को क्षमा प्रदान कर पाता है? श्रीमाताजी : बिल्कुल ही कर सकता है। करता क्या? क्षमा करना क्या, नहीं करना क्या, करना क्या है? ये भ्रम है, कि मैं उसे क्षमा नहीं करता। माने क्या करते आप? क्षमा नहीं करते, माने क्या करते ? 'मैं उसे क्षमा नहीं करता, बार बार उस की याद करता, ऐसा खराब आदमी है ये। इसको ऐसा करूँगा। ये होगा, वो होगा।' करते तो कुछ भी नहीं होता सिवाय कुछ नहीं। ऐसा ही है तो दो-चार थप्पड मारिये। तो क्षमा हो जायेगी। करनाधरना तो दूसरों को ड़राने से। प्रश्न: क्या इंसान की सभी इच्छायें कुण्डलिनी जागृत होने के बाद दूर हो सकती हैं? श्रीमाताजी : इच्छायें गौण हो जाती है। कुण्डलिनी जब जागृत हो जाती है, तो बाकी की जो इच्छायें हैं वो गौण हो जाती हैं। वो तो आप आनन्द में आ गये। हर चीज़ आप आनन्द के लिये करते हैं। हर आदमी आनंद की सोचता है। पर जिस वक्त उसकी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तो इतना समाधानी हो जाता है कि उसका मन करता है कि किसको क्या दूं। मैं किस से अपना प्यार जताऊँ? मैं किस के लिये क्या करू? इसी तरह आप बदल जाते हैं। दूसरों की इच्छाओं को देखता है, अपनी नहीं। प्रश्न: गाँवों में क्यों नहीं प्रोग्रॅम किया जाता? श्रीमाताजी : अरे साहब, नोएडा गाँव था, अभी शहर बना। मैं तो गाँव में भी जाती हूँ। इस तरह की बात करना बदुतमीजी है। जो हमें करना है, हम जानते हैं क्या करना है? अगर आपको ऐसा शौक है तो आप जाईये गाँव में। मैं तो गाँव में ही रहती हूँ। ज्यादा तर गाँव में ही, इस तरह के सवाल गाँव के लोग नहीं करेंगे। ये शहरी दिमाग़ है। मेरा जो मन होगा मैं करूँगी। आप मुझे लेक्चर देने वाले कौन ? अधिकार जताने वाले कौन ? पहली बात है। दूसरी ये कि मैं स्वयं ही गाँव में काम करती हूंँ। मैं शहरों में तो बहुत कम काम करती हूँ। इस तरह से प्रश्न पूछना भी एक तरह की बद्तमीजी है ।

Noida (India)

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