Public Program

Public Program 1983-05-05

Location
Talk duration
47'
Category
Public Program
Spoken Language
Hindi

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5 मई 1983

Public Program

मुंबई (भारत)

Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - Draft

सार्वजनिक भाषण मुंबई, ४ मई १९८३

परमात्मा को खोजने वाले सभी साधकों को मेरा प्रणाम ! मनुष्य यह नहीं जानता है कि वह अपनी सारी इच्छाओं में सिर्फ परमात्मा को ही खोजता है। अगर वह किसी संसार की वस्तु मात्र के पीछे दौड़ता है, वह भी उस परमात्मा ही को खोजता है, हालांकि रास्ता गलत है। अगर वह बड़ी कीर्ति और मान-सम्पदा पाने के लिए संसार में कार्य करता है, तो भी वह परमात्मा को ही खोजता है। और जब वह कोई शक्तिशाली व्यक्ति बनकर संसार में विचरण करता है, तब भी वह परमात्मा को ही खोजता है। लेकिन परमात्मा को खोजने का रास्ता ज़रा उल्टा बन पड़ा। जैसे कि वस्तुमात्र जो है, उसको जब हम खोजते हैं-पैसा और सम्पत्ति, सम्पदा-इसकी ओर जब हम दौड़ते हैं तो व्यवहार में देखा जाता है कि ऐसे मनुष्य सुखी नहीं होते। उन पैसों की विवंचनायें, अधिक पैसा होने के कारण बुरी आदतें लग जाना, बच्चों का व्यर्थ जाना आदि 'अनेक' अनर्थ हो जाते हैं। जिससे मनुष्य सोचता है कि 'ये पैसा मैंने किसलिये कमाया? यह मैंने वस्तुमात्र किसलिये ली?' जिस वक्त यहाँ से जाना होता है तो मनुष्य हाथ फैलाकर चला जाता है। लेकिन यही वस्तु, जब आप परमात्मा को पा लेते हैं, जब आप आत्मा पा लेते हैं और जब आप का चित्त आत्मा पर स्थिर हो जाता है, तब यही खोज एक बड़ा सुन्दर स्वरूप धारण कर लेती है। परमात्मा के प्रकाश में वस्तुमात्र की एक नयी दिशा दिखाई देने लग जाती है। मनुष्य की सोौंदर्य दृष्टि एक गहनता से हर चीज़ को देखती है। जैसे कि आज यहाँ बड़ा सुन्दर वातावरण है, और सब तरफ से वृक्ष हैं। ये सब आप देख रहे हैं। जब आपने परमात्मा को पाया नहीं, तब आप यह सोचते हैं। कि, 'अगर ऐसे वृक्ष मैं भी लगा लूं तो कैसा रहेगा ? मेरे घर में ऐसे वृक्ष होने चाहिए। मेरे पास ऐसा आंगन होना चाहिए। ऐसे प्रांगण में, मैं ही बैठू और मैं ही उठूं।' फिर वह मिलने के बाद वह दूसरी बात सोचने लगते हैं कि यह चीज़ लें, वह चीज़ लें । इस तरह से जो यह पाया हुआ है इसका भी आनन्द नहीं उठाते। आज यह हुआ कि हमने एक मोटर खरीद ली, उसके बाद मोटर के लिए भी हाय तोबा करके वह किसी तरह से प्राप्त की। उसके बाद हमें चाहिए कि अब एक बड़ा मकान बना लें और वह भी बनाने के बाद में हाय तोबा हुई तो फिर और चाहें और कुछ कर लें। इस तरह से चीज़ आपने पाई थी। वास्तविक, जिसके लिए आपने इतनी परेशानी उठाई थी, उसका आनन्द तो इतना भी आपने प्राप्त नहीं किया और लगे दूसरी जगह दौड़ने। जब तक वह मिली नहीं तब तक हवस रही%;B और जैसे ही वह चीज़ मिल गयी, वो खत्म हो गयी। लेकिन परमात्मा को पाने के बाद में ये सारी जो सृष्टि है, ये बनाने में परमात्मा ने जो कुछ भी आनन्द की सृष्टि की हुई है, उस कलाकार ने जो कुछ इसमें रचा हुआ है, बारीक-सारीक सब कुछ, वो सारा का सारा आनन्द अन्दर झरने लग जाता है। जो चीज़ आज ऐसी लगती है कि मिलनी चाहिए-और मिलने पर फिर व्यर्थ हो जाती है, वही चीज़ अपने अर्थ में खड़ी हो जाती है। अगर और कोई वस्तुमात्र आपने ली, उसका आनन्द ही जब आप उठा नहीं सकते हैं, तो उसको पाने की इच्छा करना भी तो बेकार ही है। जब उस चीज़ का आनन्द एक क्षण भी नहीं आप उठा सकते तो उस चीज़ के लिए इतनी ज़्यादा आफ़त मचाने की क्या जरूरत है? वस्तुमात्र में भी-कोई वस्तु को आपने, समझ लीजिये चाहा कि मैं इसे खरीद लूं। आपका मन किया कि इसे हम खरीद लें, कोई अच्छी सी चीज़ दिखाई दी। जैसे औरतों को है कि कोई जेवर खरीद लें। अब खरीदने के बाद उसका सर दर्द हो गया। इसको बीमा कराओ कि इसे चोर न ले जायें, तो इसे पहनो मत, तो बैंक में रखो, अब यह परेशानी एक बनी रही । और इसका आनन्द तो उठा ही नहीं सके। और जब भी पहने, तो जो देखे वह ही जल जाए इससे। माने उसकी आनन्द की जो स्थिति है वह तो एकदम खत्म हो चुकी और बचा उसका जो कुछ भी नीरसता का अनुभव है, वह गढ़ता है और दु:खदायी होता है। उसी की जगह जब आप परमात्मा को प्राप्त करते हैं और आप कोई चीज़ खरीदते हैं तो यही सोचते हैं कि इसको मैं

किसे दें। ये किसके लिए सुखदायी होगी। इसका शौक किसको आया। क्योंकि अपने तो सब शौक पूरे हो गये। शौक एक ही बच जाता है कि किसे क्या दूँ। फिर खयाल बनता है कि देखो, उस दिन उन्होंने कहा था कि हमारे पास ये चीज़ नहीं है। तो आपने वह चीज़ उन्हें ले जाकर दे दी। इसलिये नहीं कि आप कोई बड़ा उपकार करते हैं। दे दी, बस! जैसे पेड़ है, कोई उपकार करता थोड़े ही है, अपने को कहता है उसमें फल आ गये, वह फल दे देता है। इसी प्रकार आपने जाकर के वह चीज़ किसी को दे दी। अब देखिये उसमें आपके प्रेम की जो भावना आ गयी, आपने अपनी आत्मा से जो चीज़ उनको दे दी, उनका खयाल करके। 'छोटी सी' भी चीज़। जैसे शबरी के बेर। श्रीरामचन्द्रजी ने इतने प्रेम से खाये । और उसके बाद उसकी इतनी प्रशंसा की, सीता जी को भी । तो लक्ष्मण जी नाराज हो रहे थे | सीता जी ने कहा , 'देवरजी आप जरा चख कर तो देखिये। ऐसे बेर मैंने जिन्दगी में नहीं खाये।' तो भाभी पर विश्वास करके उन्होंने एक बेर खाया, कहने लगे ये तो स्वर्गीय है। उस शबरी के बेर में इतना आनन्द इसलिये आया कि नितान्त प्रेम से उसने वह बेर अपने दाँत से तोड़ के, देख कर के, बिल्कुल 'अबोध' तरीके से उसने परमात्मा के चरणों में रखा। उसी प्रकार हो जाता है। तो जो वस्तुमात्र से जो तकलीफें होती हैं वह खत्म हो जाती हैं। सारी दृष्टि ही बदल जाती है। और समझ लीजिये अगर किसी और की वस्तु है तब तो बहुत ही अच्छा है। माने उसका सरदर्द तो है नहीं, मज़ा आप उठा रहे हैं। जैसे समझ लीजिए एक बड़ा बढ़िया कालीन किसी के यहाँ बिछा हुआ है। अपना है नहीं भगवान की कृपा से, दूसरे का है। उस वक्त आप अगर उस कालीन की ओर देखते है तो आप ये नहीं सोचते कि इसने कहाँ से खरीदा, कौन से बाजार से। उस वक्त एक तान हो कर उसे देखते हैं, और अगर आपको परमात्मा का साक्षात्कार हो चुका है, तो आपके अन्दर कोई विचार ही नहीं आएगा उसके बारे में। आप कोई विचार ही नहीं करेंगे कि ये कितने पैसे का खरीदा, कुछ नहीं । जो उसमें आनन्द है, पूरा का पूरा, तो जिस कलाकार ने उसे बनाया है, उसका पूरा का पूरा आप आनन्द उठा रहे हैं और जिसका है वह सरदर्द लिए बैठा है कि इस पर कोई चल न जाए नहीं तो खराब हो जाएगा। और अपनी नज़र से तो आप उसका पूरा का पूरा आनन्द, स्वाद ले रहे हैं क्योंकि आपका उसके साथ कोई सम्बन्ध ही बना नहीं है, आप दूर ही से उसे देख रहे हैं। और दूर ही के दर्शन सुन्दर होते हैं। जब आप दूर हटकर उस चीज़ को देखते हैं, तभी पूरी की पूरी चीज़ आपके अन्दर उतर सकती है। बहुत से लोगों का यह कहना कि, 'माँ, इस देश में परमात्मा की बात बहुत की जाती है, लेकिन यहाँ लोग गरीब क्यों हैं?' अमीरी की वजह से इन देशों का जो हाल हुआ है कि इसलिए मैं कहती हैँ, भगवान, करे थोड़े दिन और हम लोग गरीब बने रहें। न तो बच्चों का पता है न घर का पता है न बीवी पता है न पति का पता है, न कोई प्रेम का पता है। जब जिन देशों में बच्चों को लेकर के मार दिया जाता है, पैदा होते ही । इतनी दुष्टता वहाँ पर होती है, इतनी महादष्टता वहाँ लोग करते हैं कि जिसकी कोई इन्तहा नहीं। कोई सोच भी नहीं सकता कि इस मर्यादा-रहित दष्टता के आप भागीदार हैं। अभी एक साहब से वार्तालाप हुआ, तो उन्होंने कहा कि, परदेस में लोग कम से कम ईमानदार हैं। मैंने कहा, ईमानदार तो औरंगजेब भी था। अपनी टोपियाँ सिल-सिल कर के बेचता था और सरकार से उसने एक पैसा नहीं लिया। लेकिन लेता तो अच्छा रहता कुछ। कम से कम इतने ब्राह्मणों को मारता न। हिटलर भी बड़ा ईमानदार आदमी था। एक पैसा जो था वह अपने सरकारी खजाने से नहीं निकालता था। लेकिन उसकी ईमानदारी का क्या फायदा? इतनी दुष्टता उसमें आ गयी, मानो इन्सान में अगर कोई चीज़ बहुत ज़्यादा आ जाती है, तो वह दूसरी तरफ़ एक दूसरा ही आकार ले लेती है। अगर वह ईमानदारी को, उसने सोचा कि देश जो है मेरा बहुत बड़ा है तो उसमें ईमानदारी से रहना है, तब ये गुण बड़ा अच्छा है। पर उसके कारण अगर आपके अन्दर कोई गन्दी बात घुस जाये तो अच्छा है कि आप खुद सन्तुलित रहें। अब बहुत से लोग अपने को बड़े सत्ताधीश समझते हैं। सत्ता के लिए दौड़ते हैं। सत्ता के लिए दौड़-दौड़ कर कोई सुखी नहीं हुआ। एक तो यह कि किस वक्त उतर जायें, पता नही। किस वक्त इन को शह मिले और किस वक्त उतर जायें सत्ता से, किसी को पता नहीं। आज ताज है और कल कॉँटे लग जायें। इस सत्ता का कोई ठिकाना नहीं और उस सत्ता से आप कुछ

अपना भी और दूसरों का भी खास लाभ नहीं कर सकते। पर जो परमात्मा की सत्ता पर बैठा है, जिसमें परमात्मा की सत्ता है, जिसके अन्दर परमात्मा बोलता है, जिसके अन्दर परमात्मा की शक्ति बहती है, वो आदमी असल में बादशाह है, सत्ताधीश है। बादशाहत है उसके पास | वह रिश्वत काहे को लेने चला ? बादशाह कोई रिश्वत लेता है क्या ? वह क्यों बेईमानी करने चला? बादशाह है। उस को अगर आप ज़मीन पर सुला दीजिये तो भी बादशाह है, उसको महलों में रखें तो भी बादशाह है। उसको भूखा रहना पड़े तो भी वह बादशाह है, वह कोई चीज़ की माँग नहीं करता । वो ही बादशाहत में होता है, जिसको किसी भी चीज़ की माँग नहीं है, किसी चीज़ की जरूरत नहीं है । वह ही असल बादशाह है, बाकी ये तो नकली है बादशाह। जो कि बादशाहत थोड़ी बहुत मिलने के बाद 'यह चाहिए, वह चाहिए, वह चाहिए' माने आपकी बादशाहत क्या है? अन्दर की, जिसके अन्दर बादशाहत जागृत हो गयी, वो हर हालत में रह सकता है। हर परिस्थिति में रह सकता है, हर दशा में रह सकता है और कोई दुनिया की चीज़ नहीं जो उसे झुका दे। हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इस भारतवर्ष में तो अनेक हो ही गये और बाहर भी बहुत से हो गये। क्योंकि वो अपनी बादशाहत में सन्तुष्ट हैं, उसकी सत्ता जो है 'स्थायी' सत्ता है। इस तरह की क्षण-भंगुर नहीं कि जो क्षण में यहाँ पर तो बड़े बने बैठे हैं और उसके बाद पड़ गये जमीन पर। जैसे ध्रुव का तारा टिक गया है, ऐसे ही परमात्मा को पाया हुआ मनुष्य टिका रहता है। उसको भय नाम की चीज़ मालूम नहीं, उसको लालसा नाम की चीज़ मालूम नहीं। ऐसा मनुष्य जब इस देश में तैयार होगा तो हम लोगों को कोई भी ऊपर से कायदे कानून लादने की जरूरत नहीं पड़ेगी, अपने आप वह मस्ती में रहेगा। वह बेकायदा चलेगा ही नहीं। क्योंकि कायदे भी कहाँ से आये हैं ? कायदे भी परमात्मा ही के सृजन किये हुए अपने अन्दर आये हुए हैं। उसका जितना भी विपर्यास हुआ, जो मनुष्यों ने कर दिया है, वह भी बदल जाएगा। पर उस मानव को तैयार करना होगा जिसने परमात्मा को पाया है। ऐसे मानव जब तक तैयार नहीं होंगे वे लड़खड़ाते ही रहेंगे। पहले जबकि उनको किसी भी बड़े भारी चुनाव में जाना पड़ता है, तो चुनाव में आकर कहेंगे कि, 'साहब हम तो गरीबों के लिए ये करेंगे, वो करेंगे, ऐसा करेंगे, दुनियाभर के सारे आश्वासन होंगे। और जब वह सत्ताधीश हो जाएंगे तो, 'साहब हमको यह चाहिये, हमको यह चाहिए। और हम तो सबसे बड़े गरीब हो गये।' क्योंकि गरीबों के लिए करने की कोई जरूरत ही दिखाई नहीं देती है। उनसे भी ज़्यादा गरीब ये हो जाने की वजह से वह सब अपने लिए ही सरदर्द। लेकिन जिसने परमात्मा को एक बार पा लिया, वो कोई चीज़ की माँग नहीं करता। वह कभी माँगता ही नहीं है, वह कोई भिखारी कभी नहीं हो सकता। मैंने कहा, 'वह बादशाह हो जाता है।' ये बादशाहत अपने अन्दर हमको स्थापित करनी है। अब कोई लोग कहते हैं कि, 'साहब, हिन्दुस्तान में इतनी चोरी-चकारी और ये सब चलीं। इसका इलाज क्या है?' इसका इलाज बहुत सीधा है! आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करें। क्योंकि अभी अन्धेरे में हैं, अज्ञान में हैं, इसलिए ऐसी । रद्दी चीज़ों के पीछे भागते हैं। इसमें रखा क्या है? यह तो सब यही छोड़ के जाने का है। एक छोटीसी चीज़ जो रोज देख रहे हैं वह ही भूल जाते हैं। किसी के मय्यत पे चले गये, वहाँ से आए और उसके बाद लगे रिश्वत लेने। 'अरे, अभी मय्यत देखकर आ रहे हो, रिश्वत क्या ले रहे हो ? अभी देखा नहीं वह चला गया वैसे के वैसे ! उसी तरह से आप भी जाने वाले हैं।' लेकिन यह कहने से नहीं होने वाला, यह सिर्फ आत्मसाक्षात्कार होने के बाद में घटित होता है। उसके बाद में आदमी छनता है और उस के अन्दर की यह जो छोटी-छोटी क्षुद्र बातें फट से निकल जाती हैं । अब उसके बाद कुछ लोग ऐसे हैं कि जो सोचते हैं कि हमारे बच्चों के लिए यह करना चाहिए, हमारी बीवी, हमारा बच्चा, हमारा यह, हमारा वह। इस ममत्व के चक्कर के सबने थपड़ खाए हुए हैं, कोई एक ने नहीं खाए। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो ऐसे आदमी को अच्छा थपेड़ देते हैं। लोग रोज देखते हैं, रोजमर्रा देखते हैं। आपको तो मालूम है वाल्मिकी की कथा, मुझे फिर से बताने की जरूरत नहीं। पर जो तथ्य है उससे आप बहुत ज़्यादा हैं। क्योंकि बच्चे बहुत ज़्यादा बेशर्मी से भौतिक हो गए हैं। सब देश में ही लोग इस तरह से हो गए हैं। वो बात ही पैसे की करते हैं । वह बोलते ही हैं कि हमारी कीमत इन लोगों का चित्त इस बेकार की ...। सबने अपनी कीमत लगा ली है। ऐसी हालत में इतने हजार रुपये, हमारी कीमत.. चीज़ से कैसे हटाना चाहिए? उसका हटाने का भी वही मार्ग है, जैसे मैंने कहा कि आत्मा के प्रकाश में ही मनुष्य देख सकता

है कि कितनी क्षुद्र वस्तु है। जैसे समझ लीजिए अन्धेरे में कोई चीज़ चमक रही है, तो उन्होंने सोचा कि, 'साहब बढ़िया कोई चीज़ चमक रही है, कोई हीरा-वीरा होगा।' लगे उसके पीछे दौड़ने! और वो हीरा इधर से उधर भाग रहा है। उसके बाद में प्रकाश आ गया, देखा यह तो जुगनू था, जुगनू के पीछे हम लोग परेशान रहे। ये तो जुगनू था । इस के लिये क्यों इतनी परेशानी उठानी! इसलिये ये प्रकाश हमारे अन्दर आना जरूरी है। अब बहुत से लोग कहते हैं कि हम बहुत धर्मात्मा हैं। ऐसे भी बहुत से लोग हैं, वह कहते हैं कि, 'हम तो बड़े धर्मात्मा हैं। हम बड़े धार्मिक कार्य करते हैं, हमने इतने हॉस्पिटल बना दिये, हमने इतने स्कूल बना दिये, ये बना दिये, वो बना दिये।' ऐसे भी कामों से आज तक किसी ने तृप्ति तो पायी मैंने देखी नहीं। किसी को मैंने तृप्त देखा नहीं, शान्त देखा नहीं । इससे प्रेममय देखा नहीं, उसके अन्दर कोई सौन्दर्य भी देखा नहीं। क्योंकि ये जो आप काम कर रहे हैं, परमात्मा से सम्बन्ध किये बगैर, योग के बगैर, आपके अन्दर एक संस्था तैयार हो रही है, जिसे हम 'अहंकार' कहते हैं। अहंकार नाम है उसका । वो अहंकार हमारे अन्दर जमते जाता है और कभी- कभी तो वो अहंकार ऐसा हो जाता है कि मानो जैसा कोई बड़ा भारी सर पर एक अहंकार का 'जहाज़' बना हुआ है। इस अहंकार के सहारे हम चलते रहते हैं और इस अहंकार से हम बड़े सुखी होते हैं। कि कोई अगर हम से कहे कि 'भई, आप बड़े धर्मात्मा हैं, इन्होंने बड़़ी संसार की सेवा करी और इन्होंने ये दिया और वो किया।' लेकिन इसमें कोई सत्य तो है नहीं । क्योंकि सेवा भी किसकी करने की है ? जब परमात्मा का आशीर्वाद मिल जाता है तो चराचर सारी सृष्टि में फैली हुई परमेश्वरी शक्ति पर आप का हाथ आ जाता है। आप यहीं बैठे-बैठे सबकी सेवा कर रहे हैं, अगर सेवा उसका नाम हो तो! लेकिन जब वही आपके अन्दर से बह रही हो और जब आप उनसे ही एकाकार हो गये तो आप किस किसकी सेवा कर रहे हैं? अगर ये हाथ मेरा दुख रहा है तो इस हाथ को अगर मैं रगड़ रही हूँ तो क्या मैं इसकी सेवा कर रही हूँ? इस तरह का झूठा अहंकार मनुष्य के मन में फिर जागृत नहीं होता। और अहंकार मनुष्य को महामूर्ख बना देता है। ये 'पहली देन' है अहंकार की, कि अहंकार से मनुष्य महामूर्ख, जिसको अंग्रेजी में स्टुपिड कहते हैं, वो हो जाता है । और उसके एक-एक अनुभव मैं देखती हूँ तो मुझे आश्चर्य लगता है कि इनका कब अहंकार उतरेगा और ये देखेंगे अपने को शीशे में। जैसे नारद जी ने एक बार देखा था अपने को तालाब में, कि कितने बड़े अहंकार से आप 'बिलकुल' अन्धकार में पड़े हुए हैं। अब इससे आगे कुछ लोग इस तरह के हैं कि जो कहते हैं कि 'हम बड़े भक्ति करते हैं और हम खूब भगवान को मानते हैं।' ज़्यादातर लोग भगवान के पास इसलिये जाते हैं, 'मुझे पास करा दो, मुझे नौकरी दे दो, मुझे ये कर दो।' ये ऐसे कहने से कुछ भी नहीं होने वाला। क्योंकि कृष्ण ने कहा है कि 'योगक्षेमं वहाम्यहं' पहले योग को प्राप्त करो और फिर क्षेम वो बना देते हैं। जैसे इनके पास मिलने के लिए सुदामा जी गये थे। पहले उनसे योग घटित हुआ। ये कहानी बड़ी मार्मिक है। जब उन का योग श्रीकृष्ण से घटित हुआ, 'उसके बाद' उन का क्षेम हुआ। जब तक उनका योग घटित नहीं हुआ था तब तक उनका क्षेम नहीं हुआ था। इसलिये जब तक आपका योग घटित नहीं होगा आपका क्षेम हो ही नहीं सकता है। कभी-कभी तातकालीय न्याय से हो भी जाए-थोड़ा बहुत इधर-उधर, तो भी वह मानना नहीं चाहिए कि आपने पाया है। पर बिल्कुल पूरी तरह से आपका क्षेम तभी घटित हो सकता है जब आप योग को प्राप्त करें। और 'इस योग को प्राप्त करना ही आपकी एक ही शुद्ध इच्छा है। बाकी जितनी भी आपकी इच्छायें हैं, मैंने बता दिया, वे सब बेकार हैं, और उनको प्राप्त करने से आप कभी भी सुखी भी नहीं हो सकते, आनन्द की तो बात छोड़ ही दीजिए। और एक तरह के लोग दुनिया में होते हैं, कि जो सोचते हैं कि, 'बड़ा हमने त्याग कर दिया। हम तो बड़ा कष्ट सहन करेंगे।' जैसे बहुत से लोग होते हैं, सोचते हैं भगवान के लिए उपवास करो। भगवान के लिए अपने शरीर पर छुरी चलाओ। भगवान के लिए जितनी भी घृणित चीजें हैं, उन्हें अपने शरीर पर करो । ऐसे पागल लोगों को भी बताना चाहिए कि ये शरीर परमात्मा ने बड़ी मेहनत से बनाया है। एक छोटे से अमीबा से आपको इन्सान बनाया है बड़ी मेहनत करके; किसी वजह से ।

और आप को पाना क्या है? किसलिये बनाया परमात्मा ने ? आपने तो अपने को कुछ भी नहीं बनाया। जो बनाया है उसी की जीवन्त शक्ति ने बनाया है। वह क्यों बनाया है आपको? कि आप एक दिन परमात्मा के साम्राज्य में आयें, उसमें पदार्पण करें, आपका स्वागत हो। इसलिये उन्होंने आपको ये सुन्दर स्वरूप दिया हुआ है। इसलिये नहीं दिया है कि आप इधर-उधर भटकते रहें। लेकिन उधर दृष्टि हमारी नहीं है नं ! हम लोग यही सोचते हैं कि अगर माताजी के आत्मसाक्षात्कार की तरफ़ हम मुड़े तो भई फिर क्या होगा! हम सन्यासी हो जाएंगे। 'सहजयोग तो सन्यास के महाविरोध में है। 'महाविरोध'! अगर कोई सन्यासी आ जाए तो हम उससे कहते हैं कि जाकर कपड़े बदल कर आओ| सहजयोग सामान्य लोगों के लिए, जो गृहस्थी में रहते हैं, उनके लिए है। गृहस्थी बड़ा भारी महायज्ञ है, उस महायज्ञ में जो गुज़रा है वही सहजयोग में आता है, सन्यासियों में हमारा विश्वास बिल्कुल नहीं है। क्योंकि ये कपड़े पहनकर के आप किसको जता रहे हैं? जो सन्यासी होता है वह तो सन्यासी है अन्दर से, वह क्या बाह्य में अपने ऊपर में कुछ बोर्ड लगा कर नहीं घूमता है कि 'मैं सन्यासी हूँ'। ये झूठे नाम के बोर्ड लगाने की क्या जरूरत है? और गलतफ़हमी में अपने को रखना, अपने ही को आप धोका कर रहे हैं। तो दूसरों को करेंगे ही । जिसने अपने ही को धोखा दिया है वह दूसरों को भी धोखा ही देगा। इस प्रकार के भी विचार के कुछ लोग होते हैं कि जो अपने शरीर को दुःख देना और दुनियाभर के दुःख सहना और तो परेशानी उठाना-इसका बड़ा अच्छा उदाहरण है यहूदी लोग। अपने यहाँ भी ऐसे बहुत सारे हैं जो उपवास, तपास और दुनिया भर की आफ़तें करके, सिवाए बीमारी के और कुछ नहीं उठाते। पर ज्यू (यहदी) लोगों ने ये कहा कि हम ईसा मसीह को नहीं मानते हैं क्योंकि यह कहता है कि, 'मैं तुम्हारे सारे पापों को खींच लूँगा अपने अन्दर।' और सही बात है । जब उनकी जागृति हो जाती है हमारे आज्ञा चक्र पर, तो वह खींच लेते हैं। लेकिन हम ईसा मसीह को नहीं मानेंगे क्योंकि वह ज्यू थे। इसलिये ज्यू लोग उनको नहीं मान सकते। और चाहे कोई माने तो माने । और इसलिए उन्होंने कहा, कि हम तो ये विश्वास करते हैं कि मनुष्य को खूब कष्ट सहन करना चाहिए। खूब कष्ट भोगना चाहिए। वह इतना दुःख उठाये। दु:ख उठाने से ही परमात्मा मिलता है। यह उनका अपना विचार था। यानी यहाँ तक कि कोई सन्त है, उसको कोई दु:ख दे रहा है तो वे कहते हैं कि ठीक ही है, तुमको परमात्मा अच्छे से मिल जाएगा। जितना दुःख हो, झेलो। जैसे ज्ञानेश्वर जी को हमने काफ़ी सताया। रामदास स्वामी को हमने कभी माना नहीं। तुकाराम की तो हालत ही खराब कर दी। और भी जितने भी -नानक साहब हैं, कबीरदास हैं, सबको परेशान किया और यही कहकर कि, 'तुम तो संत हो, तुम तो गुस्सा ही नहीं हो सकते। हम संत नहीं हैं। माने ये कि जैसे सारे गुस्से का ठेका हमने ले रखा है और सारा सहने का ठेका आपने ले रखा है!' और ऐसे जो ज्यू लोग थे, देखिये , उन पर कितनी बड़ी आफ़त आ गयी। भगवान ने एक हिटलर भेज दिया उनके लिए-जाओ इनको सहना है, सहने दो। अब वह उल्टे बैठ गए हैं, वह सब दुनिया को कष्ट देंगे। तो इस तरह की विक्षिप्त कल्पनायें अगर दिमाग में हों, तो भी मनुष्य कभी भी सुख नहीं पा सकता। इस तरह की बड़ी ही ज़्यादा तीव्र भावनायें किसी के प्रति कभी भी नहीं बनानी चाहिए। क्योंकि सभी परमात्मा की संतान हैं। किसी से भी द्वेष बनाना नहीं चाहिए। कोई भी आप प्रश्न उठाइये । जैसे कि कोई कहेगा कि आज हिन्दू धर्म है, तो उसको कोई हाथ भी नहीं लगा सकता, अगर वह धर्म है, तो। पर वह राजनीति नहीं है, वह धर्म है। और धर्म को कोई छू ही नहीं सकता क्योंकि धर्म शाश्वत है। धर्म को कौन सकता है? आना-जाना और मरना-जीना तो चलता छू रहता है, लेकिन धर्म नष्ट नहीं हो सकता। अगर आप ही धर्मच्युत हो जायें तो धर्म नष्ट हो जाएगा और नहीं तो आपका धर्म कोई नहीं तोड़ सकता। किसी की मजाल नहीं कि आपका धर्म तोड़े। पर धर्म को पहले अपने अन्दर जागृत करना चाहिए । जब तक आपके अन्दर धर्म जागृत नहीं होगा, जो कि आप देख रहे हैं (बोर्ड पर) गोल बना हुआ है, इसके अन्दर आपके दस धर्म हैं, ये धर्म जब आपके अन्दर जागृत हो जाएंगे तो जो धर्म आप नष्ट कर रहे हैं रोज, रोज किसी न किसी वजह से- क्योंकि आपकी बहुत सारी इच्छायें हैं, आपमें लालसायें हैं, वासनायें हैं, बहुत सी आदतें पड़ गयी हैं, इसकी वजह से जो आपके अन्दर का धर्म रोज नष्ट हो रहा है वह जागृत होते ही आप धार्मिक हो जाएंगे। क्योंकि आप दूसरा काम कर ही नहीं सकते। जैसे मैं कभी भी नहीं कहती हूं कि आप शराब मत पीओ। मैं नहीं कहती हैँ, क्योंकि कहने से आधे लोग उठ जायेंगे,

फायदा क्या? मैं कहती हैँ : अच्छा पार हो जाओ। माँ के तरीके उल्टे होते हैं न! चलो भई , पहले पार हो जाओ । फिर मैं कहूँगी : अच्छा अब पी कर देखो शराब, पी नहीं सकते, उलटी हो जायेगी। धर्म जब जागृत हो गया अन्दर तो वह फेंक देगा आपकी शराब को। आप पी नहीं सकते। एक साहब ने कोशिश की। उनका तो निकल आया। उन्होंने कहा, भगवान खून बचाए रखे मैं तो जाऊं।' और उनको इतनी बदबू आने लग गयी जो कभी उनको शराब में बदबू नहीं आती थी , वो उनको बदबू आने लग गयी। कहने लगे, 'अजीब से सड़े से बुत जैसी उसमें बदबू आ रही थी। अब मैंने कहा, इसे सात साल से चढ़ाते रहे पेट में, उसकी नहीं आयी? कहने लगे पता नहीं मेरी जीभ मरी हुई थी। धर्म इस तरह इतने ज़ोर से आपके अन्दर जागृत हो जाता है कि फिर पाप और पुण्य जो है जैसे नीर व क्षीर विवेक हो जाता है, उस तरह से अलग-अलग हो जाता है और आप जान जाते हैं कि ये मेरे लिए रास नहीं आएगा , यह मेरे माफ़िक नहीं आने वाला। ये मुझे सूट ही नहीं कर सकता, इसकी एलर्जी है मुझको। आप एलर्जिक ही हो जाते हैं। और इसलिये पहले सहजयोग में बताया ही नहीं जाता है कि तुम ये नहीं करो, वो नहीं करो। वह अपने आप करने लग जाते हैं। क्योंकि आपके अन्दर आपका जो 'परम गुरू आत्मा है', शिव स्वरूप आत्मा जागृत हो करके वही आपको समझा देता है कि भई , देखो ये चीज़़ चलने वाली नहीं है अब हम से। क्योंकि आप अब आत्मा हो गये इसलिये अब त्मा बोलेगा । और बाकी जो चीज़ है गौण हो जाती है, और हो जाता है, मुख्य 'आत्मा'। इस प्रकार हमारी आज तक की संसार की गतिविधियाँ रहीं और मनुष्य इस प्रकार बढ़ता रहा। लेकिन आज समाँ दूसरा है। जैसे कि पहले एक बीज से अंकुर निकला, अंकुर निकलने के बाद पेड़े का तना बना, उसमें से पत्तियाँ, शाखायें सब निकलीं लेकिन ये 'सब' जिस लिए हुआ है, वो है इसका 'फल'। तो आज मैं देख रही हूँ मेरे आगे अनेक फूल बैठे हुए हैं। इन फूलों का फल बनाने का काम यही मैं करती हूँ और कुछ नहीं। और आप सब वह फल हो सकते हैं। तो 'सारे' ही धर्मों ने इसको पुष्ट किया है। सारे ही जितने प्रवर्तक हो गये सब ने इसको पुष्ट किया है । जितने दुनिया के महात्मा हो गये इन्होंने इसे पुष्ट किया है। जितने सन्त, साधु, द्रष्टा हो गये उन्होंने इसे संजोया है और पनपा है। और जितने भी इस संसार के अवतरण हुए हैं, सबने इसमें कार्य किया है। ये कोई एक का कार्य नहीं कि, 'हम साहब फलाँ के पुजारी हैं, हम इनको मानते, उनको नहीं मानते।' ये तो ऐसे हो गया : मैं इस आँख को मानता हूँ, इस आँख को नहीं मानता। ये सारे के सारे आपके शरीर के अन्दर बसे हैं, और इन सबका समग्र जो प्रयत्न है, उस प्रयत्न का फल आपका आत्मसाक्षात्कार है। और वह समाँ आज आ हुए गया है कि इन सब के फलस्वरूप जो इच्छायें थीं इन सब महानुभावों की, वो पूर्ति हों। वह आज का समय है। और यह काम पता नहीं क्यों, मुझे मिला! हालांकि ये काम और कोई कर भी नहीं सकता। ये तो माँ ही कर सकती है। जब पहाड़ों जैसी कुण्डलिनियाँ उठानी पड़ती हैं तब पता चलता है, पसीने छूट जाते हैं। और इसलिए एक माँ पर ये काम आ बैठा है। मैं कोई आपकी गुरू-शुरू नहीं हूँ। न ही मुझे आप से कुछ लेना-देना है। सिर्फ जो मेरा काम है वह मुझे करना है। और आप अगर चाहें तो मैं कर सकती हैँ, पर आप न चाहें तो जबरदस्ती यह काम हो नहीं सकता। अगर आप की इच्छा हो तभी हो सकता है। अगर आपके अन्दर यह शुद्ध इच्छा नहीं हो और यह इच्छा जागृत नहीं हो तो मैं इसे नहीं कर सकती। अब बहुत से लेग तो मुझ से मारा-मारी करने पर आ जाते हैं। लड़ाई करते हैं, झगड़ा करते हैं। ऐसे कैसे हो सकता है। और कुण्डलिनी ऐसे कैसे जागृत हो सकती है। पर होती है तो फिर क्या करें। अगर होती है तो उसे मैं क्या करूं। ऐसे कैसे?' मैंने कहा, 'होती जरूर है। इसमें कोई शंका नहीं।' अब अगर इस तरह से आप मुझसे लड़ाई करने पर आमादा रहें कि कैसे होती है, तो मैं आपसे क्या कहूँ? होती है, और जरूर होनी चाहिए । और ये कार्य करने का समय, ये आज की शुभ बेला आयी हुई है। इसे कृतयुग कहते हैं। और इस कृतयुग में कार्य होगा, जिसमें, जितने भी बड़े-बड़े अवतार, महानुभाव द्रष्टा और मुनि, तीर्थंकर आदि जितने लोग हो गये, उन सबके आपको आशीर्वाद हैं । और उनके आशीर्वाद स्वरूप आप यह समग्र आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। इसमें कैसे होता है, क्या होता है, ये आप स्वयं जानें और देखें, बजाए इसके कि अपनी बुद्धि के दायरे में रहें।

क्योंकि अभी तक धर्म भी एक बुद्धि के ही दायरे में है, हर एक चीज़ बुद्धि के दायरे में है। मैं देखती हूँ इतनी बड़ी-बड़ी किताबें लोगों ने लिख मारीं। लेकिन वह कुछ समझते ही नहीं। फायदा क्या हुआ? पसायदान, अभी कोई बता रहा था, उस पर इतनी बड़ी किताब किसी ने लिखी है। मैंने कहा, उनकी तो खोपड़ी खराब हो गयी। वो सारा सहजयोग उन्होंने लिखा है, और क्या लिखा है? सारे सहजयोग का वर्णन है और उसी की उन्होंने भविष्यवाणी की है। अगर आप ठीक से प़ें तो आपकी समझ में आ जाएगा कि सारा सहजयोग बता गये हैं। अब उस पर क्या आप इतनी बड़ी-बड़ी किताबें लिख रहे हैं? उसमें लिखने का क्या है? वह तो पाने का होता है। और जो यथार्थ है, वह पाया जाता है, उसके बारे में बातचीत नहीं की जाती। बहरहाल मुझे आशा है आज आपमें बहुत से लोग यहाँ पार हुए बैठे हैं। आप ही जैसे दिखाई देते हैं, आप ही के जैसे। हो सकता है शुरू में बहुत से सहजयोगी उस दशा में न पाए जायें जैसे कि बड़े योगीजन होते हैं। लेकिन उनकी जागृति हो गयी है। और वह योग की तरफ़ वर्द्धमान हो रहे हैं। वो बढ़ रहे हैं। उनको देखकर के आप इसमें से पलायन मत करिये। बहुत से लोग होते हैं कि, 'साहब, मैं गया था, वहाँ एक साहब थे, वह कुछ ऐसा-वैसा कर रहे थे।' तो इसका मतलब है आपने उनको देखा और अपने में पलायन कर गये। माने , आप चाहते कुछ है नहीं। आप अपने बारे में सोचिये। जो यहाँ लोग आए हैं, उनमे से हो सकता है, कुछ लोग ऐसे हों कि उनकी जागृती भी न हो। पर बराबर आप अगर नकारात्मक आदमी होंगे तो उसी के पास जाके धमकेंगे और उसी की वजह से आप भाग भी खड़े होंगे । इसलिये यह जानना चाहिए कि सहजयोग को प्राप्त करने के लिए सिर्फ आप में शुद्ध इच्छा होनी चाहिए। और कोई चीज़ की जरूरत नहीं। अगर आपके अन्दर शुद्ध इच्छा हो, जो स्वयं साक्षात् कुण्डलिनी है, वही शुद्ध इच्छा है। और जब यह शुद्ध इच्छा की शक्ति जागृत हो जाती है, तभी कुण्डलिनी का जागरण होता है। यह शुद्ध इच्छा आप सबके अन्दर है। लेकिन अभी जागृत नहीं है। इसको जागृत करना और सहस्रार में इसका छेदन कराना, यही कार्य करना आज का सहजयोग है। पर इसमें बहुत कुछ आ जाता है। क्योंकि जब आप एक फल को देखते हैं, तो उसमें सभी कुछ दिया हुआ, इस पेड़ का, सारा कुछ उसके अन्दर निहित होता है। अगर आप उसका एक बीज उठा कर देखें तो उसके अन्दर उतने सारे पेड़ बने हुए रहते हैं जो उसमें से निकलने वाले हैं । इस प्रकार सहजयोग अत्यन्त गहन और प्रगाढ़ है, किन्तु अत्यन्त विशाल है । इसमें सभी जितना कुछ परमात्मा का कार्य हुआ है संसार में, वह सारा का सारा निहित है। आशा है कि आप लोग अपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करेंगे। एक और आज के दिन की विशेष बात यह है कि सहस्रार को खोलने का कार्य, जो कि महत्वपूर्ण था, मेरे लिए वही मुख्य कार्य था। मैंने अनेक लोगों की कुण्डलिनीयों को सूक्ष्म रूप से जाना था। और यह सोचती थी कि मनुष्य के क्या क्या दोष हैं और उन दोषों का अगर मैं सामूहिक तरह से इस कार्य को करना चाहती हूँ, जो कि समय है, सामूहिक का, तो किस प्रकार सारे जो कुछ भी इनके मेलमिलाप हैं, उसको किस तरह से छेड़ा जाए कि एक ही झटके में सब लोग पार हो जायें। और इस पर मैंने बहुत गहन विचार किया था। और उसमें जो कुछ मुझे समझ में आया उस हिसाब से ५ मई के दिन सहस्रार खोला गया, उस हिसाब से। और आज की रात, पूरी रात, मैं समुद्र के किनारे अकेले जागी थी और जागते वक्त पूरे समय में सोच रही थी कि किस तरह से इस सहस्रार का आवरण दूर होगा। और जैसे ही मौका मिला, सवेरे के समय ये सहस्रार खोला गया। आज का दिन इसलिये भी बहुत शुभ है। और दूसरी आज की और भी बड़ी शुभ बात है कि गौरी जी का सप्तमी का दिन है, और उस वक्त भी ऐसा ही था। क्योंकि गौरी जो है, वह कुण्डलिनी है। और वही जो कन्या मानी जाती है, कुमारी है। वह इसलिये कुमारी है कि अभी প

उसका योग शिव से नहीं हुआ है। इस लिए वह कुमारी है। और इस शुभ मुहूर्त पर, जब कि वह गौरी स्थान पर है, यह कार्य घटित हुआ। और जब यह कार्य घटित हुआ, उसके बाद मैंने सहजयोग का कार्य करना शुरू किया। और आप जानते हैं आज हज़ारों में लोग पार हो रहे हैं। आज अगर मैं किसी देहात में बोलती होती तो इससे सात गुना लोग बैठे होते। और बैठते ही हैं। शहरों में आना तो समय बर्बाद करना है। क्योंकि लोग वैसे ही पार नहीं होते। होने के बाद मेरा सर चाट जाते हैं। और वह भी मेरा, परेशान कर देते हैं और कोई जमते नहीं। अगर आप सौ आदमियों को पार कराइये , उसमें पचास आदमी तो सर चाटने के लिए आते हैं और पचास आदमी जो बच जाते हैं, उसमें से पच्चीस फ़ीसदी आदमी ऐसे होते हैं कि जो गहनता से सहजयोग को लेते हैं, क्योंकि वह स्तर नहीं है लोगों के, वह शक्ति नहीं है उनके अन्दर, वह के बहुत नज़दीक पृथ्वी माता से सीधे-सरल परमात्मा सूझ-बूझ नहीं है। और अगर गाँव के लोग जो होते हैं, जो बहत नजदीक रहते हैं, उनकी जो शक्ति है वह इतनी गहन है और इस कदर वह आंकलन करते हैं कि आश्चर्य होता है। और एक में से ही उनमें इतना बदल आ जाता है। और ऐसा जैसे कि प्रकाश फैल जाए, एकदम आग जैसे लग जाए। इस तरह रात कोई भी गाँव में मैं जाती हूँ तो छ: सात हज़ार से आदमी कम नहीं आते। और अपने यहाँ बम्बई में आज कम से कम इतने वर्षों से कार्य कर रहे हैं तो भी मैं कहती हूँ बहुत लोग आए हैं। नहीं तो मैंने यहाँ तो एक से शुरू किया था। तो उस हिसाब तो काफ़ी लोग आए हैं। पर आपको जान लेना चाहिए कि सहजयोग जैसे मराठी में कहा गया है कि 'येरागबाळ्याचे काम नोहे।' वीरों का काम है। जिनमें ये वीरश्री हो, वही सहजयोग में आ सकते हैं। नहीं तो आधे लोग आते हैं कि, 'माँ, हमारी बीमारी ठीक कर दो। या उसके बाद आते हैं मेरा सर चाटने के लिए। उसके लिए सहजयोग नहीं है | सहजयोग है अपनी आत्मा को पाने के लिए । उसे आप पहले प्राप्त करें, आपकी तन्दुरुस्ती ठीक हो जाएगी, पर आप दूसरों की भी तन्दुरुस्ती ठीक कर सकते हैं। सबसे बड़ी तो बात यह है कि एक दीप जब जल जाता है तो अनेक दीपों को जला सकता है। इसी प्रकार आप भी अनेकों को जागृत कर सकते हैं। सहजयोग एक जीवन्त प्रणाली है। यह मरी हुई प्रणाली नहीं जिसके लिए आप अपना मेम्बरशिप बना लें या पाँच रुपया दे दें, चार आना, मेम्बर हो जायें, ऐसा नहीं है। 'आपको' कुछ होना पड़ता है। आपको बदलना पड़ता है। आपमें कुछ फ़र्क आना पड़ता है। और वह आने के बाद आप को स्थायी होना पड़ता है और वृक्ष की तरह खड़ा होना पड़ता है। ऐसे जो लोग होंगे वही सहजयोग के योग्य होते हैं। आजकल बातें तो लोग बहुत करते हैं कि समाज में ये सुधारणा होनी चाहिए और यह अपने देश में होना चाहिए। लेकिन सहजयोग में जब आप आएंगे नहीं तब तक आपके देश में न कोई सुधारणा हो सकती है न आप किसी की मदद कर सकते हैं, जैसे मैंने आपको समझाया । सहजयोग एक प्रेम की शक्ति है, परमात्मा के प्रेम की शक्ति। और वह प्रेम की शक्ति आपके अन्दर बहना शुरू हो जाती है, जो सर्वव्यापी शक्ति है। उस शक्ति को किस तरह से चलाना है, अपने अन्दर स्थायी कैसे करना है, उसका उपयोग कैसे करना है, ये सारी बातें आपको सीख लेनी चाहिए। और इस सीखने में आपको कोई समय नहीं लगता। अगर आपके अन्दर सद-इच्छा है तो सब चीज़ हो सकती है। अर्थात् आप जानते हैं कि इसके लिए पैसा-वैसा कुछ नहीं दे सकते। हमारी कोई संस्था नहीं है। हमारे यहाँ कोई सदस्यता नहीं है। कुछ भी नहीं है। यह सबको पाने की चीज़ है। और सब जब पा लें, आप अगर सभी पा लें, तो मेरे खयाल से आधे बम्बई का तो उद्धार हो गया| आने के बाद सिर्फ जमना चाहिए। इसकी बड़ी आवश्यकता है। बहुत गहन है, और है भी एक लीलामय। बड़ा ही मज़ेदार है । बहुत ही लीलामय चीज़ है। अगर आप इसमें आ जायें, इतना माधुर्य इसके अन्दर है। कृष्ण ने सारा माधुर्य इसमें भरा हुआ है। और सब तरह की इतनी सुन्दर इसकी रचना है कि

उसको जानने पर मनुष्य सोचता है कि, 'क्या मैं इतना सुन्दर हूँ अन्दर से? क्या मैं इतना विनोदी हूँ? क्या मैं इतना धार्मिक हूँ?' धर्म और विनोद तो हम समझ भी नहीं सकते। लेकिन धर्म जहाँ हमें हँसाये और आनन्द विभोर कर दे, वही धर्म असली है। परमात्मा आप सबको आत्मसाक्षात्कार दें। और सुबुद्धि दें कि इसमें आप जमें और आगे बढ़े। बहुत से लोग इसमें बढ़ गये हैं, बम्बई शहर में। बहुत लोग हैं। ज़्यादा से ज़्यादा लोग अब हो गये हैं, मेरा कहना है। यहाँ सब तो आए नहीं हैं। जो भी हैं आए हुए हैं। लेकिन और इसके अलावा बहुत से लोग हैं जो यह कार्य अनेक केन्द्रों में कर रहे हैं, मुफ़्त में कर रहे हैं। आप उनसे मीलिये और अपनी प्रगति करिये। परमात्मा आप सबको आशीर्वाद दे।

Mumbai (India)

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