Public Program 1990-12-05
5 दिसम्बर 1990
Public Program
पुणे (भारत)
Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - VERIFIED
1990-12-05 Public Program, Hindi Pune India
सत्य को खोजने वाले आप सभी साधकों को हमारा प्रणाम! सत्य के बारे में हमें ये जान लेना चाहिए कि सत्य है सो अपनी जगह है। उसे हम बदल नहीं सकते, उसकी हम धारणा नहीं कर सकते, उसकी हम हम व्यवस्था नहीं कर सकते। सबसे तो दुःख की बात ये है कि इस मानव चेतना से हम उस सत्य को जान नहीं सकते। इसीलिए हम देखते हैं कि दुनियाँ में भेद-अभेद है। इसीलिए लोग अन्धेपन से आपस में लड़-झगड़ रहे हैं। अनेक तरह की नयी-नयी गतिविधियाँ उत्पन्न हो रही हैं। और नये-नये विचार, नयी-नयी प्रणालियां और नये-नये प्रश्न आज हमारे सामने खड़े हैं। ये हमारे भारतवासियों का ही प्रश्न नहीं है, ये सारे दुनियाँ का प्रश्न है। सारी दुनियाँ में एक तरह की बड़ी आशंका मनुष्य के मस्तिष्क में घूम रही है और वो आशंका ये है कि हम कहाँ जा रहे हैं? और हमें क्या पाना है? जब मैं आपसे आज सारी बातें कहुँगी, तो मैं आपसे ये विनती करना चाहती हूँ, कि आप एक वैज्ञानिक ढंग से, एक साइंटिफिक (scientific) ढंग से अपना दिमाग खुला रखें। जिस आदमी ने अपना दिमाग बंद कर लिया वो साइंटिस्ट हो ही नहीं सकता। और जो कुछ भी हम बात बता रहे हैं इसे एक धारणा, एक हाइपोथीसिज़ (hypothesis) समझ कर के आप सुनिए। और अगर ये बात सिद्ध हो जाए तो इसे आपको एक ईमानदारी के साथ मानना चाहिए। जो लोग भारतवर्ष में रहते हैं वो ये सोचते हैं कि हमारे देश में सबसे बुरी हालत है, क्योंकि वो अभी बाहर गये नहीं। उन्होंने दुनिया देखी नहीं, इसलिए यहाँ की आफतें उन्हें लगती हैं कि ऐसी हैं कि वो खत्म ही नहीं होंगी। लेकिन अगर आप जो प्रगल्भ देश हैं, जिन्होंने साइंस (science) में बहुत प्रगति कर ली है। उन देशों में जाइए तो आपको आश्चर्य होगा कि वहाँ किस तरह के प्रश्न खड़े हैं और किस आशंका से वो भयभीत हैं।
अमेरिका में, जिसे कि हम बहुत प्रगल्भ देश समझते हैं, उस देश में ६५ फीसदी लोग मानसिक नर्वसनैस से परेशान हैं। आपको बहुत ही कम अमेरिकन ऐसे मिलेंगे जो बात करते वक्त आँख न मिचकाएं या नाक ना सिकोड़ें, बहुत मुश्किल है। और वहाँ पर ३० फीसदी लोगों को ऐसी बीमारियाँ हो गई हैं कि उसका कोई इलाज नहीं है। और कम से कम ४५ फीसदी लोग किसी न किसी मादक पदार्थ के सेवन से त्रस्त हैं। उनकी जो समस्याएं हैं वो आप तभी समझ सकते हैं जब उनसे त्रस्त लोग आपसे मिलें और बातचीत करें। भौतिक दृष्टियां और साइंस से भी इन देशों ने बहुत प्रगति कर ली है। और जो सबसे प्रगतिशील तीन देश है स्वीडन, और नॉर्वे जैसे, इन देशों के लोग, स्विटज़रलैण्ड में, आपस में एक कम्पटीशन (competition) हो रहा है कि कौन सबसे ज़्यादा आत्महत्या करेगा। तो ये लोग जिन्होंने भौतिक इतनी उन्नति कर ली है ये क्यों आत्महत्या कर रहे हैं और क्यों इतने दुःखी हैं? क्या बात है? सोचना चाहिए। हमारे यहाँ तो बहुत ही कम लोग आत्महत्या करते हैं, माने नहीं के बराबर। इसकी वजह क्या है?
दूसरे आप अगर अमेरिका चले जाएं तो आप कोई जेवर पहन कर नहीं जा सकते। रास्ते में कोई भी आके आपसे जेवर छीन लेगा, पैसे छीन लेगा और देखते-देखते आप लोगों को मार डालेगा। मैं लॉस एन्जलिस में थी, और जिन डा.वरलिकर के साथ मोटर में चल रही थी। उन्होंने मुझसे कहा, ‘माँ, आप बिल्कुल दरवाजा बन्द कर लें खूब अच्छे से और खिड़की चढ़ा लें, और गर्दन नीचे झुका लें।’ मैंने कहा, ‘क्यों भई? क्या बात है?’ कहने लगे कि इस रास्ते पर, पिछले हफ्ते ग्यारह आदमी मारे गये। मैंने कहा ‘किसलिए?’ तो उन्होंने अमेरिकन इंग्लिश में कहा (for the heck of it) याने अपने ऐसे ही शौकिया। उठाई बन्दूक और मार दिया, ठन से। मनुष्य के जीवन का कोई भी महत्त्व उन देशों में नहीं है। जो लोग इस देश में रहते हैं, मैं ये नहीं कहती, कि वो सुखी लोग हैं, नहीं बहुत दुःखी हैं। गरीबी है, भ्रष्टाचार है।
यहाँ मैं पूना में आई तो जो देखो वो यही कहता है कि वो तो पैसा खाता है, वो भी पैसा खाता है। मैंने कहा कि, भाई, यहाँ कोई खाना भी खाता है कि पैसा ही खाता है। सब लोग यहाँ पैसा ही खा रहे हैं। मैंने कहा ये होगा कैसे यहाँ? वहाँ लोग पैसा नहीं खाते, लेकिन अपनी जान लेने पे आमादा हैं, अपने ही को नष्ट कर रहे हैं। अन्दर से ही खराब कर रहे हैं। ऐसे तरीके ढूँढ निकालते हैं कि जिससे वो नष्ट हो जाएं। ऐसी प्रणालियाँ बनाते हैं जिससे वो नष्ट हो जाएं। इसका कारण ये है कि साइंस बहुत एकांगी चीज़ है, एक तरफा चीज़ है। साइंस में प्यार, कविता, घर-गृहस्थी, बाल-बच्चे, समाज इसका कोई भी विचार नहीं बन सकता। वो लोग कहते हैं कि हम लोग तो यंत्रवत् हो गये। बिल्कुल यंत्र हो गये, बिल्कुल माइंडलैस (mindless)। और हमें जीने में मजा क्या आयेगा, हमें तो कुछ भी समझ में नहीं आता। कि हम तो जैसे कोई गन्ने को आप मशीन से निकालें, उस तरह ठूंठ जैसे हम बिल्कुल शुष्क हो गये। हमारी जिन्दगी में अब रखा ही क्या है? जैसे कि एक पेड़ बहुत ऊँचा बड़ जाए और अपने स्रोत पे उसकी जड़े ना पहुँचे। तो उसका जो हाल हो जाता है वही इन बड़े-बड़े देशों का हो गया है। जब वहाँ मैं देखती हूँ तो एक ही बात मेरे समझ में आती है कि इस देश में अध्यात्म की नींव नहीं है, जड़ नहीं है। बगैर अध्यात्म के अगर आप साइंन्स करेंगे तो आपका भी वही हाल हो जाएगा। इसलिए हमें मानना चाहिए, कि किसी मायने में हो सकता है उनमें रियासत हो, लेकिन हम लोग भी बहुत रईस हैं। खासकर इस महाराष्ट्र में जहाँ सन्त साधुओं ने कितना कार्य किया है। हम लोगों के रोज मर्रा के बोलने में ही हम उनका उल्लेख करते हैं। इस महाराष्ट्र में ये सम्पदा इतनी हमारे पास है। उस सम्पदा को पूरी तरह से समझ करके, उसका पूरी तरह से आकलन करके, अवलोकन करके और हमें चाहिए कि हम उसकी चरम सीमा पे पहुँच जाएं। और उसमें प्राविण्य प्राप्त करें जिसे एक्सीलेंस ( excellence) कहते हैं। अगर हमने ये सम्पदा अपने हमारी यहाँ बना ली फिर उसके बाद आप कोई सी भी प्रगति करे, आप डांवा-डोल नहीं हो सकते। आपमें गड़बड़ नहीं आ सकती, आप गलत काम नहीं कर सकते। इस सम्पदा को खो करके और आप साइंस (science) के सिर्फ बूते पर खड़े रहिएगा तो जान लीजिए कि आपने अपनी जड़े अपने हाथ से उखाड़ के फेंक दीं। उन लोगों का ठीक है कि उनके पास ये सम्पदा थी ही नहीं। और ये तो हमारा धरोहर है, हमारा हैरीटेज (heritage) है। जो ये हमारी सम्पदा है इस सम्पदा का मतलब यह नहीं कि हम किसी भी धर्म-धर्मान्धता की बात करें, बिलकुल भी नहीं। हम सारे धर्मान्धता के विरोध में हैं क्योंकि जब आपको आध्यात्त्म का लाभ हो जाता है तो आप स्वयं प्रकाशित हो जाते हैं। उस प्रकाश में आप देख सकते हैं कि ये धर्मान्धता है या ये अंधश्रद्धा है।
यहाँ हमारे भारतवर्ष में विशेषकर इस महाराष्ट्र में, सारे संत-साधुओं ने एक महत्वपूर्ण कार्य किया कि समाज में जो अंधश्रद्धा थी उसे मात करने की कोशिश की है, हर जगह। श्री ( अष्पष्ट..) सरस्वती इतने बड़े हो गये कि रास्ते में अगर कोई आदमी एक पत्थर पे सिंदूर लगाकर के और उसमें पैसा लेता था तो उठा कर के उसे फेंक देते थे। और उस आदमी को पीट-पीट के ठीक कर देते थे, उनको अधिकार था। क्योंकि उनकी अंधी श्रद्धा नहीं थी, वो देखी हुई श्रद्धा, जिसमें दृष्टि आ गयी। जो जानता है उसकी श्रद्धा, उसका अर्थ है। जो स्वयं ही अन्धे हैं, इधर शराब पियेंगे, उधर लोगों को पत्थर मारेंगे और फिर कहेंगे कि हम अंधश्रद्धा निर्मूलन करेंगे। कैसे कर सकते हैं? असम्भव। ये तो ऐसा ही हुआ अनाधिकार चेष्टा, जिसे कहना चाहिए । अब कम से कम २० साल से हमने इस अंधश्रद्धा पर इतना ही नहीं, जातीयता पर चोट की है, अनेक जातियाँ हैं। हमारे महाराष्ट्र में तो इतनी गड़बड़ है इस चीज की, कि अपनी जातियों में ही विवाह करना है। और अगर किसी ने जाति से बाहर विवाह किया, अभी तक इस वर्तमान काल में तक, बस उनका सब कुछ बन्द हो जाता है। ऐसा पिछड़ा हुआ अभी भी हमारा समाज है कि जिसमें इतनी गलत-गलत धारणाएं हैं। मैं तो ये ही कहती हूँ मराठी में कहने का ये ( (29.18....मराठी)
और उसी पे सारा ध्यान कि हमारी जाति क्या? तुम्हारी जाति क्या? जाति कोई परमात्मा ने बनाई हुई चीज़ है क्या? बिलकुल भी नहीं हाँ, ये जरूर कहा है कि, ‘या देवी सर्वभूतेषु जाति रूपेण संस्थिता’ जाति का मतलब है आपकी तबियत, इसका मतलब है आपकी एप्टीट्यूड। आप किस चीज़ को खोज रहे हैं? जिस चीज़ को आप खोज रहे हैं वो आपकी जाति है। इस पर मैंने पहले बतलाया कि श्रीराम का वर्णन करने के लिए, उन्होंने खोज निकाला तो कौन? एक मछुआरा, एक (अष्पष्ट)। जो मच्छी पकड़ता था और डकैत था। उसकी कोई जाति देखी नहीं उन्होंने। श्रीकृष्ण का वर्णन जिसने लिखा, उस गीता को लिखने वाले वाल्मीकि, ये कौन थे, आप सब जानते ही हैं। और गीता को लिखने वाले व्यास, इनके बारे में बताना ही नहीं है। व्यास एक मछुआरिन के अवैधानिक पुत्र थे। ढूँढ के उनको निकाला इन्होंने, इसलिए कि जाति-पाति का जो ये जो ढोंग है ये खत्म हो जाए। भिलनी के बेर खाये झूठे, दासीपुत्र विदुर के घर जागर के साग खाये। ये किसलिए किया? कि दिखाने के लिए कि ये जाति-पाति जन्म से नहीं कर्म से होती है। पर कोई सुने ही नहीं, उसका दिमाग ही बन्द हो जाए, तो उसे क्या कहे। लेकिन सहजयोग में जब आत्मसाक्षात्कार होता है तो ये सब ढकोसलेबाजी एकदम गिर जाती है। सारी जात अपने आप छूट जाती है, सारी अंधश्रद्धाएं गिर जाती हैं।
हिन्दुस्तान में ही अंधश्रद्धा ऐसे नहीं है, विलायत में कुछ कम है। इंग्लैण्ड में ऐसी अंधश्रद्धाऐ हैं कि आप समझ नहीं पाएंगे, अजीब-अजीब सी। लेकिन इसको समझने के लिए आपकी चेतना जो है वो सूक्ष्म होनी चाहिए। आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होना चाहिए। जब तक आपकी वो चेतना उस उच्च स्तर में नहीं जाती है तब तक आप केवल सत्य बता ही नहीं सकते, जिसे कैवल्य कहते हैं। एब्सोल्यूटेनेस्स (absoluteness) आपके अंदर आनी पड़ेगी कि आप जानेंगे उससे, कि ये क्या चीज़ है। सहजयोग में जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तब आपके हाथ से ठण्डी–ठण्डी लहरें बहती हैं। आदि शंकराचार्य ने इसे सलीलं-सलीलं, ऐसे बड़े सुन्दर शब्द में वर्णित किया है। और बाईबल में भी इसे ‘कूल ब्रीज आफ द होली घोस्ट’ कहा है। किसी भी धर्मग्रन्थों में एक बात लिखी है कि आप अपना आत्मसाक्षात्कार लीजिए। वो क्या सब लोग झूठे थे या निर्बु्ध थे, जो ऐसा लिख के गये कि आप अपना आत्मसाक्षात्कार लीजिए। और उनकी जीवनी देखिये, क्या वो पैसा खाते थे या किसी को पत्थर मारते थे। उन्होंने कोई गलत काम जिन्दगी में किया ही नहीं। ऐसे लोग कोई न कोई विशेष होने चाहिए। उनको आप सन्त कहें या सूफी कहें। और सहजयोग का वर्णन तो कुरान में बहुत साफ तरीके से दिया है कि जब कयामा माने जब आपके रेजरेक्शन (resurrection) का समय आयेगा, माने आपके उत्थान का समय आयेगा, तब आपके हाथ बोलेंगे। सहजयोग में आपके हाथ बोलते हैं, यानि आपके हाथ के ये जो पांच छेह और सात चक्र हैं। इसमें ऐसी हरकत होने लगती है कि आप समझ लेते हैं कि कौन से चक्र में दोष है। ये मानना चाहिए, कि हमारे यहाँ तीन तरह की प्रणालियाँ थीं पहले। एक तो वेद, दूसरी भक्ति और तीसरी जो बहुत गुप्त रूप की थी वो थी नाथ पंथियों की। महाराष्ट्र के लोग नाथ पंथियों को जानते हैं। जानते माने किताब पढ़ते रहते हैं, उसको रट कर के रख दिया। उसके अन्दर क्या सार है उसे नहीं देखा। उसका सार नहीं समझते कि इसके अन्दर सार क्या है?
नाथ पंथियों का ये कार्य था कि एक गुरू के एक शिष्य को ही जागृति देनी है, उससे ज़्यादा नहीं। और कुण्डलिनी के बारे में किसी से खास बात न करें। हालांकि संस्कृत भाषा में आदि शंकराचार्य ने और उनसे भी पहले मार्केण्डेय ने काफी वर्णन कुण्डलिनी का किया है कि कुण्डलिनी के ही शक्ति से आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन श्री ज्ञानेश्वर जी के समय में उनके जो गुरू श्री निवृत्तिनाथ थे उन्होंने उनसे ये विनती की कि ये परम्परा तो ठीक है कि एक गुरू और एक शिष्य जिसे मैं मानता हूँ। लेकिंन अगर आप मुझे इजाजत दें तो मैं आपसे एक बड़ी नम्र विनती करना चाहता हूँ। निवृत्तीनाथ जानते थे कि ज्ञानदेव कौन हैं, कितनी बड़ी हस्ती है। और उनकी माँ भी अपनी आत्महत्या से पहले अपने लड़के को समझा गई थी, कि बेटे इसकी बात जरुर सुनना। हाँ-हाँ कहने लगे बताओ, कौन सी बात, तुमने तो आज तक कुछ माँगा ही नहीं। कहने लगे कि आप ये बात मान जाइये कि कम से कम इस गुप्त विद्या को मैं दुनिया को बताऊँ, कम से कम। मैं ये कार्य करुंगा नहीं, लेकिंन ये जो ज्ञान है इसे मैं दुनिया को बताना चाहता हूँ। तो ज्ञानेश्वरी में छटे अध्याय में उन्होंने कुण्डलिनी के जागरण का बहुत सुन्दर वर्णन किया। काव्यमय होने की वजह से आप जैसे चाहें उसका कुछ भी अर्थ लगा लें। लेकिन छठा अध्याय ये निषिद्ध माना गया। सब धर्ममार्तण्ड, जिन्होंने हर सन्तों को सताया और छला, उन्होंने कहा कि बिलकुल बेकार है। इसको तो देखना ही नहीं चाहिए क्योंकि उन्हें कुछ आता ही नहीं था, उन्हें कुण्डलिनी का ज्ञान ही नहीं था। तो ये अच्छा तरीका है कि अगर कोई चीज़ नहीं आये जैसे किसी को क्लासिकल म्यूजिक (शास्त्रीय संगीत classical music) नहीं आता है, तो बैठ के हँसता रहता है, बेवकूफ जैसे। इसी प्रकार उन्होंने कहा, ये निषिद्ध है, छठा अध्याय निषिद्ध है इसको देखने की जरूरत नहीं। अब इतनी बड़ी सम्पदा हमारे देश की जो छठे अध्याय में छिपी थी उसपे उन्होंने पर्दा डाल दिया कि ये चीज़ कोई न पड़े।
आज आपके भाग्य से और मेरे भी भाग्य से, ये दिन आ गया है कि जो वो जो (श्री ज्ञानेश्वर जी) जनसमाज को कहना चाहते थे। उसका साक्षात आप प्राप्त कर सकते हैं उसे आप प्राप्त कर सकते हैं। जिस प्रेम की व्याख्या उन्होंने की थी, जो सत्य स्वयं प्रेम है, जिसे अमृतानुभव में, इतने सुन्दर और सूक्ष्म शब्दों में जिन्होंने वर्णित किया था। जो लोग संत ज्ञानेश्वर पे अंगुली उठाते हैं उनसे मेरा ये कहना है, कि दो लाइन उनके सूक्ष्म विचारों की लिख के दिखाओ।
लियाकत नहीं तुम्हारे अन्दर, दो लाइन जो सूक्ष्म विचार, इतने सुन्दर हैं, इतने मधुर हैं। और इस तरह से आनन्ददायी हैं ऐसे विचार इतने सुन्दर ग्रामीण भाषा में इतनी सुन्दरता से लिखे हुए, ऐसे महान् महात्मा जिन्होंने कि २३ साल की उम्र में ये कार्य किया। उनके उपर अंगुली उठाने वाले भी इस कलयुग में आज तैयार हो गये हैं। आपकी अक्ल कितनी है? आप जानते क्या हैं? अध्यात्म के बारे में आप समझते क्या हैं? जो देखो वो हर संतो पे (अष्पष्ट) । उन दिनों में श्री एकनाथ महारों के घर खाना खाते थे, आज भी महार अलग, मांग अलग ये अलग वो अलग। आज भी ये ही चल रहा है। और लोगों ने ये ही धर्ममार्तण्डों ने इनको इतना सताया उस वक्त। और कितने ही लोगों के बारे में बताऊं मैं, दास गुरू जो कि स्वयं ब्राह्मण थे जाति के, उन्होंने मराठी में कहा है कि (.......मराठी 40:21 ), ‘हमें लोग ब्राह्मण कहते हैं, हमने ब्रह्म को जाना नहीं, हम कहाँ के ब्राह्मण हैं?’ इन लोगों की गाथाएं पढ़े और इसको सुनें तो लगता है कि कोई ऐसी अभिनव बातें ये लोग कर रहे हैं। बहुतों के तो समझ नहीं आती ये भी बात सही है। बहुतों के समझ ही में नहीं आती क्योंकि उसमें जो सूक्ष्मता चाहिए वो आत्मसाक्षात्कार के ही बाद में मिलती है। अब आपने देखा कि ये परदेसी लोग यहाँ आये हैं। ये कोई (..अष्पष्ट भाड़ोत्री) नहीं है कि जैसे चार आदमियों को रुपया देकर कहा, कि चिल्लाओ। ये ऐसे लोग नहीं हैं, ये बहुत पढ़े लिखे, ऊँचे लोग हैं। जैसे लोग रजनीश के पास आते हैं ये उस तरह के लोग नहीं हैं। ये बड़े चुने हुए लोग हैं, और बड़े बढ़िया लोग हैं। और ये कितने आसानी से इतना कठिन श्री शंकराचार्य का ‘सौंदर्य लहरी’ का वर्णन, एक भारतीय नहीं कर सकता। इतनी सुन्दरता से आपके सामने गा रहे थे, जब मैं आईं। इन अंग्रेजों को तो एक अंग्रेजी शब्द सिखाना बहुत मुश्किल है। एक साहब ने पुछा कि कैसे कहा जाये कि दरवाजा बंद करो, कैसे कहा जाये, नौकर से। तो उसको समझाया दरवाजा बंद करो, तो बोल ही नहीं पाए। ‘द’ तो ये बोल ही नहीं सकते और ‘ज’ बोल ही नहीं सकते। उनसे कहा गया कि कहो, “देएर वास् ए बैंकर” (there was a banker) दरवाजा बंद करो। ये तो इन लोगों की इतनी दुर्दशा है इतने मोटे मोटे जीभ इनके जीभ थे। और आज आप देख रहे हैं कि मराठी क्या, संस्कृत, क्या हिन्दी क्या। और ये हिन्दी का गाना तो इन्होने खुद बनाया हुआ है। ये कैसे हो सकता है? ये अपने संगीत को जो कि हम लोग नहीं समझ पाते इतने संकीर्ण, कठिन संगीत को इतने प्रेम से सुनते हैं, ये कैसे हो गया?
कहा जाता है कि भारतीय संगीत जो है ये ओंकार से आया। इनके अन्दर यही ओंकार जागृत हो गया है, निर्विवाद। ये लोग ड्रग्ज लेते थे, बुरी तरह से, सब नहीं, लेकिन काफी। और एक रात में सब छोड़ कर खड़े हो गये। शराब पीते थे, वो छोड़ कर खड़े हो गये। सहजयोग से मनुष्य एक अतिमानव हो जाता है जो कि इस उत्क्रान्ति का, इस एवोलुशन (evolution ) का, चरम लक्ष्य है। उसको पाते ही आप अन्दर एक नई अनुभूति को जानते हैं। जब हम वेद कहते हैं तो वेद शब्द का भी मतलब होता है ‘विद्’। ‘विद्’ का मतलब होता है जो आप अपने सेंट्रल नर्वस सिस्टम (central nervous system )में, अपनी मज्जा संस्था जो है उसपे जानें।
जो बोध आपको सेंट्रल नर्वस सिस्टम (central nervous system )में हो सकता है वो विद है, और जिसे हम बोध कहते हैं। जैसे कि नामदेव साहब ने कहा है, ‘बोधाची भरी न परडी बोधाची’ अर्थात बोध की मैं टोकरी भरूंगा, ये बोध भी वही चीज़ है ये नहीं कि बुद्धि का काम। जहाँ पढ़- पढ़ के पढ़त मुर्ख हो गए। कबीरदास जी ने कहा है ‘पढ़ि-पढ़ि पण्डित मूरख भय ‘ मेरे पहले तो मेरी समझ ही में नहीं आता था कि पढ़-पढ़ के कैसे मुर्ख हो गए। अब समझ में आया, कि असल में इनके पास में वो सत-सत विवेक-बद्धि ही नहीं है सारा-सार विचार ही नहीं है, कि चीज़ अच्छी है कि बुरी है। तो सभी चीज़ खाने लग गए सर में जाने लग गया। इसलिए वो पढ़त मुर्ख हो जाते हैं। ये बुद्धि के परे जो चीज़ हमारे अन्दर है, जिसे कि हम आत्मा कहते हैं ये महान सत्य है कि आप शुद्ध आत्मा हैं। यही महान सत्य है और ये सिद्ध होना चाहिए। और सिद्ध करना मेरे हाथ में नहीं, आपके हाथ में है। अगर कोई हिटलर आ कर मुझसे कहे कि ‘मुझे आप आत्मासाक्षात्कार दीजिए’ तो मैं कहूँगी, भैया अभी सौ कम से कम जन्म और ले। जो साधक जिज्ञासु है, नम्र है और जो चाहता है अपना साक्षात्कार, उसी को हम दे सकते हैं। किसी पे जबरदस्ती हम नहीं कर सकते, ये प्रेम का कार्य है। क्योंकि दूसरा सत्य ये है कि ये सारी सृष्टि एक सूक्ष्म ऐसी महान शक्ति से प्लावित है जिससे सारे जीवन्त कार्य होते हैं। आज हम आप देख रहे हैं कितने सुन्दर फूल लगे हुए हैं। इन फूलों को देख कर हम सोचते भी नहीं कि एक छोटे से बीज से ये इतने सुन्दर पौधे से निकल आये। वो कैसे उस बीज में से क्या उसका नक्शा लिखा हुआ था।
हम सोचते भी नहीं कि आम का पेड़ एक ही ऊँचाई को जाता है और दूसरे पेड़ अपनी-अपनी ऊँचाई पे रहते हैं। मनुष्य भी उसके नाक-मूँह हाथ सब, उसके शरीर के बराबर परिमाण में ही बनता है। हम लोग सोचते ही नहीं कि ये आँख, ये आँख भी देखिये कि कितना बड़ा कैमरा है। ये साइन्स से आप नहीं बना सकते। एक भी जीवन्त कार्य आपने साइन्स से नहीं किया। जैसे जो मरी चीज़ें थीं, उनको फोड़-फाड़ कर के आप जो अगर कुछ बात करते हैं, तो मरी से मरी चीज़ आप बनाइये। एक पेड़ अगर मर गया तो और उससे आपने अगर ये स्टेज बना दिया, तो आपको लगा कि वाह-वाह क्या काम कर दिया। कोई जीवन्त कार्य आज तक किया आपने? ये सिर्फ आत्मासाक्षात्कार के बाद आप हो सकते हैं क्योंकि आपका सम्बन्ध उस ब्रह्म चैतन्य से, उस सूक्ष्म शक्ति से हो जाता है। अब कोई कहे बकरी के तीन टांग तो आप उसको थोड़ी देर समझाएंगे, नहीं भई तीन कैसे चार हैं। तो वो पीछे की टाँग पकड़ लेता है और कहे एक दो तीन। अरे भाई उसको छोड़ो तो सामने की पकड़ लेगा, एक दो तीन। जो इस तरह का आदमी है जिसे निठल्लु कहते हैं हिंदी भाषा में।
47.50(..मराठी..)
ऐसे लोगों से कौन सर धुने। जो जिद्दी लोग हैं वो अपनी जिद पे बने रहे। लेकिन जो साधक- हैं और जो विचारवंत हैं, जिनमें सूक्ष्मता है। वो इसके अधिकारी हैं कि वो आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करें। और सबसे तो बड़ी ये आफत आ गई है, जो मैं समझ पाई हूँ कि सहजयोग में शारीरिक बहुत आराम मिलता है। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक हर तरह का परिवर्तन घटित होता है, ये बात सही है। लेकिन इसका मतलब नहीं कि हम यहाँ सब की बीमारियाँ ठीक करने के लिए बैठे हुए हैं। आज सबेरे से बैठे-बैठे मुझे छ: बज गए। ये बीमार पहुँचा वो बीमार पहुँचा, मैं तंग आ गई, ठीक तो हो गए सब। लेकिन बीमारी उसी आदमी की ठीक होनी चाहिए कि जो बाद में जाके प्रकाश दे। जो लाइट (light) प्रकाश नहीं देने वाली है उसको कौन रिपेयर (repair) करेगा? लेकिन सबसे तो बड़ी ये बात है कि डॉक्टर लोग इस विमंचना में कुछ-कुछ, पड़ गये होंगे कि माताजी जब सब कुछ मुफ्त में ही ठीक करती हैं, तो हमारा क्या हाल होगा? हो सकता है, मैं नहीं, नहीं कहती। लेकिन भई सहजयोग में आते ही कितने हैं? इतनी अक्ल किसके पास है। जितने बेअक्ल हैं वो आपके लिए, और जितने अक्ल वाले हैं वो मुझे दे दो। जिनके पास अक्ल ही नहीं है उनसे थोड़ी ही मैं झूझने वाली हूँ, मुझे नहीं झूझने का। निर्बुद्ध लोगों से कौन भिड़े? लेकिन जिनके पास अक्ल है, जो सूक्ष्म हैं, जो साधक हैं, उनके लिए तो मैं हूँ। उनकी बीमारियाँ भी ठीक हो जाती हैं वो मेरी वजह से नहीं, उनकी ही शक्ति जो कुण्डलिनी है उसके जागरण से हो जाती है। मैं ही क्यों, अब सहजयोगी लोग सबको ठीक करते हैं।
शारीरिक बीमारी ठीक होना कोई विशेष बात तो मैं नहीं सोचती हूँ। क्योंकि बहुत से मैंने पहलवान भी देखे कि आके मेरे पैर छूते हैं कि, माँ हमें शान्ति दो। अभी उनको बॉक्सिंग में प्राइजेस मिले, अब मुझे आके कहते हैं कि माँ मुझे शांति दो। तो मैंने कहा तुम बॉक्सिंग कर के आये, तुम शांति खोज रहे हो। कहने लगे बॉक्सिंग में कहाँ शांति है माँ। तो जान लेना चाहिए कि हम शान्ति की बात करते हैं और प्रेम की बात करते हैं और बात तो बात ही रह जाती है। इसका साक्षात होना चाहिए। और आपको आश्चर्य होगा कि जो आत्मा आपके हृदय में है इसका प्रकाश अभी तक आपके चित्त में नहीं आया। वही स्रोत है शान्ति का और प्रेम का, वही स्रोत है आनन्द का। जो साधु- सन्तों ने बात बताई है वो सिद्ध करने के लिए हम आये हुए हैं। परमात्मा है या नहीं, ये सिद्ध करने के लिए हम आये हुए हैं। जो लोग कहते हैं परमात्मा नहीं है, बिल्कुल अनसाइंटिफिक (unscientific) लोग हैं। क्या उन्होंने पता लगाया, परमात्मा है या नहीं? या इसलिए बहुत से लोग कहते हैं परमात्मा नहीं है कि परमात्मा को एक जगह उठा कर के रख दो, तो हम शराब पी सकते हैं, व्यभिचार, कर सकते हैं। भ्रष्टाचार कर सकते हैं, आप पैसे खा सकते हैं। इसलिए भगवान नहीं, पहले उठा कर के रख दो। अगर भगवान हो तो लोग कहेंगे तुम्हारे घर में भगवान हैं, तुम ये धंदे क्या कर रहे हो? पहले भगवान को हटा लो। और जब जरूरत हो तब भगवान के पैर छू लेंगे, पब्लिक (Public ) के लिए ठीक है भगवान को जेब में रखो। जब जरूरत हुई तो भगवान निकाल लिए और नहीं तो फिर से जेब में। ऐसे ढोंगी और दाम्भिक लोगों के लिए सहजयोग नहीं है। ऐसे लोगों के लिए है जो अपना हित और कल्याण चाहते हैं। क्योंकि इससे बड़ा हित और कोई नहीं है। इससे सभी जो कुछ हमारी गलत धारणाएं हैं सब टूट जाती हैं।
इतना कल्याणकारी परमात्मा ने हमारे लिए पूरा इंतज़ाम कर दिया है। पूरी व्यवस्था कर दी है। इतनी सुन्दर व्यवस्था हमारे अन्दर की हुई है कि क्या कहा जाए? कि कैसा ये हमारा बनाने वाला है। कि जिसने हमारे अन्दर इतने सुचारु रूप से यह चीज़ बना दी। और कुण्डलिनी, आपकी अपनी अलग-अलग माँ, वैयक्तिक अपनी-अपनी वयक्ति की माँ है। जो जागृत हो होकर के इस व्यष्टि को समष्टि में समा देती है। और जिस दिन ये हो जाता है उस दिन आपके अन्दर सामूहिक चेतना जिसे हम कलेक्टिव कॉन्ससियस ( collective consciousness) कहते हैं, जागृत हो जाती है । और तब छोटे बच्चे भी अंगुलियों के सहारे आपको बता सकते हैं कि आपके अंदर कौन सी शिकायत है। चाहे शारीरिक हो, मानसिक हो, सामाजिक हो, घरेलू हो, कोई सी भी शिकायत आपको इस हाथ से बता सकते हैं। ये जो मोहम्मद साहब ने बात कही थी, कि आपके हाथ बोलेंगे, अरे हाथ कैसे बोलेंगे? आपकी अंगुलियां और ये पांच छह और सात चक्र हैं, इसको आपको पाना है क्योंकि ये आपके हित के लिए, आपके बच्चों केहित के लिए, आपके शहर के हित के लिए है। समाज के हित के लिए है, और भारतवर्ष के ही नहीं किन्तु सारे संसार के हित के लिए ये चीज़ है, लेकिन समझदारी बहुत जरुरी है।
अब सबसे तो कमाल मुझे ये लगता है सबके अनुभव देखते-देखते कि ये पूना नगरी है, इसको पुण्टपट्टनम कहा जाता है। तो मैंने सोचा यही पुण्टपट्टनम में ही घर बनाओ और यहाँ रहो। पर जिस दिन से हमने यहाँ पैर रखा है, न जाने कहाँ से सब तरह के भूत खड़े हो गए। और बेकार ही में परेशान करे दे रहे हैं। न जाने इस पुण्यनगरी में कितने तरह के भूत बस गए हैं। लेकिन मैं जानती हूँ कि सबका एक-एक दिन बस्ता उठने वाला है। एक तो बड़ा भारी चला ही गया यहाँ से। और भी चले जाएंगे, इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। लेकिन इस पुण्यभूमि में अजीब–अजीब तरह के लोग दिखाई देते हैं। आप पूना रहने वाले हैं तो आपसे कहने में कोई हर्ज नहीं है। एक तो मैंने लोग देखे, वो कहते हैं कि, ‘हम भगवान पर विश्वास ही नहीं करते।’ मैं कहती हूँ कमाल है, आप भगवान में विश्वास ही नहीं करते, क्यों?’ अच्छा नहीं करें, दूसरों को क्यों आप कहते हो, भगवान में विश्वास मत करो। आपने कौन सी विशेष बात की है। आपने क्या विशेष पाया है? आप शराब पीते हैं, आप सारे दुनियां भर के बुरे धंदे करते हैं और ऊपर से कहते हैं कि भगवान नहीं हैं। अगर आप कहें भगवान नहीं हैं, तो आप कोई ऐसे उज्ज्वल चरित्र के मनुष्य हैं। जितने भी उज्ज्वल चरित्र के मनुष्य इस दुनियां में हुए हैं, महात्मा गांधी थे उन्होंने कभी नहीं कहा, वो नहीं नहीं हैं। किसी साधु-सन्त ने नहीं कहा, आप कौन बड़े खास पवित्र आत्मा आये हुए हैं, जो इस तरह से कह रहे हैं कि भगवान नहीं है। आपको क्या अधिकार है कि आप कहें, भगवान नहीं है। पहले तो इसको आप पता लगाइये कि भगवान है भी कि नहीं है। ये अपने को बुद्धिवादी कहते हैं पर ये बुद्धि की पहुँच है कहाँ? इस बुद्धि की तो कुछ पहुँच दिखाई नहीं देती है। इस बुद्धि से क्या विशेष कार्य आपने कर लिया? क्या विशेष चीज़ आपने पा ली?
साइंटिस्ट में हम जिनको मानते हैं, आइनस्टाइन हैं। उन्होंने यही कहा कि, ‘मैं थियरी ऑफ रिलेटीविटी (theory of relativity) को खोज रहा था, खोज रहा था और फिर मैं थक गया, जा कर के अपने बगीचे में मैं लेट गया। उस वक्त मेरे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं? तो साबुन के बुलबुले निकालते-निकालते एकदम न जाने कहाँ से, न जाने (from some unknown) साफ-साफ उन्होंने कहा। क्योकि नम्र थे वो, ये थियरी ऑफ रिलेटीविटी मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। जब इतने बड़े-बड़े साइंटिस्ट लोग ऐसी बातें करते हैं तो ये टूटपुंजे लोग जिनकी कहीं गिनती नहीं, ये कहते हैं, ‘भगवान नहीं है। चलो एक बात ये भी गयी, लेकिन दूसरे हैं, वो पाश्चिमात्य हो गए। माने औरतों के बाल कटा दो, स्लीवलेस sleeveless पहन लो, चश्मे लगाओ और लड़कों के भी कपड़े बिलकुल पाश्चिमात्य लोगों जैसे पहनाओ। और उस तरह के गाने गाओ, वैसे डांस dance करो, ये करो। वो सोचते हैं हमारी प्रगति हो गई है। अरे भाई, उन देशों में ठीक है जहाँ बहुत ज़्यादा कपड़े बनते हैं, वहाँ की मशीने चलती रहती हैं।, हर समय कपड़े बनते हैं। तो हर साल कपड़े बदलते रहते हैं, अरे आपके देश में कहाँ इतने कपड़े हैं। फिर वो आउट ऑफ़ डेट (out of date) हो जाता है, फिर आप क्या करिएगा? यहाँ लोगों के पास कपड़े नहीं हैं, और आपको ये नखरे कहाँ से मिलते हैं? और आपको शर्म भी नहीं आती, कि ऐसे लोगों में रहते हुए आप इस तरह के कपड़े पहनकर आप अपना रोब दाब झाड़ रहे हैं। पूना में सबसे ज्यादा बाल कटी औरते हैं। मेरे को बड़ा आश्चर्य होता है। और वो जाना वो वहां, और ब्यूटीपार्लर में जाना और शक्लें सबकी एक जैसी हैं, बाल भी एक जैसे हैं। तो मैंने पूछा अच्छा भाई, सबके बाल एक जैसे क्यों हैं? तो कहने लगे आजकल यही फैशन है। मैंने कहा अच्छा, आजकल यही फैशन बाल यहाँ लाने के, सबके बाल यहाँ। फिर दूसरे फैशन यहाँ से काटने के, कट गया। कल हो जायेगा गंजा होने का, तो वो भी हो जाएगा। आपकी अक्ल है या नहीं? आपके पास दिमाग है या नहीं? या जो चल गयी फैशन उसमें आप डूबे जा रहे हैं, मेमसाहिब बने हुए हैं।
खासकर औरतों पे मुझे बहुत आश्चर्य होता है, औरतों पर। या अब तो वो अन्धश्रद्धा में डूबी हुई हैं, मूर्खता में फँसी हैं। और इस तरह की प्रगति में फँसी हुई हैं, जिसका की कोई अर्थ ही नहीं लगता। अपनी संस्कृति की महानता, उसका वर्णन जितना भी किया जाए उतना कम है। और जिन्होंने इसे सम्भाला, वो इस देश की औरतें हैं जिन्होंने इसे सम्भाला, आदमियों ने नहीं। अपना समाज आज भी बहुत उन्नत है। अपने समाज में आज भी कुटुम्ब व्यवस्था है। आज भी हमारी आपसी रिश्तेदारी, आपसी प्रेम बहुत है। आपको अगर वहां के किस्से मैं सुनाऊं तो आप हैरान हो जाइएगा। क्योंकि मैं आठारह साल से इन लोगों को देख रही हूँ। मुझे तो आश्चर्य होता है। कोई मर जाये तो भी ये लोग शैम्पैन पिएंगे। जिस दिन कोई मर गया तो खास शैम्पैन की बोतल आएगी और उस दिन हम शैम्पैन पिएंगे। और फिर उसको गाड़ के आने के बाद में बड़ा भारी वहां लंच (lunch) होगा, और उसमें सब लोग बड़े ख़ुशी से हसेंगे, नाचेंगे और शैम्पैन पी-पी के झूम जाएंगे। और क्रिसमस (Christmas ) के दिन, जिसमे कि ईसामसीह का जन्म होता है उस दिन तो आप किसी के घर जाइये ही नहीं। कोई आपको नजर ही नहीं आयेगा, सब पलंग पे लोटते हुए, ये उनका क्रिसमस है। ईसामसीह इतने महान आत्मा थे, उसका ये बड़ा मान ये लोग कर रहे हैं। और हम उन लोगों से कम नहीं हैं, बेवकूफियों में। तो धर्म के प्रति जो हमारी एक भावना है वो भी बहुत ही गलित और बहुत ही दिशा भूल कर देती है। अब घर में जाइए तो, क्या सप्ताह चल रहा है, हमारे यहाँ तो बड़ा सप्ताह, सत्यनारायण। अरे भाई, जब नारायण स्वयं सत्य हैं तो उसके सत्य क्यों लगा रहे हों? और तुम अगर इतना रुपया दे दो तो तुम्हारी माँ को स्वर्ग मिल जाएगा। ये क्या मनिआर्डर से भेजने वाले हैं?
एक गाँव में गये, उन्होंने कहा कि माताजी, पैसे नहीं लेती हैं। उसने मुझे पच्चीस पैसे दे दिये। अच्छा अगर माँ को यदि पसन्द हो तो मैं एक रुपया दे देता हूँ। दिमाग में भरा है, कि आप भगवान को पैसा दे सकते हैं। भगवान क्या बैंक जानते हैं कि पैसा जानते हैं। उनको मालूम है क्या पैसा क्या चीज़ है। इतनी हमारे यहाँ अक्षर शून्यता है, इस कदर हमारे यहाँ अज्ञान है। धर्म में ये है कि भई गए वहां, पंडरी पे गए, तम्बाकू खाते हुए पंडरी पहुँचते हैं। अरे ये विशुद्धि चक्र में श्रीकृष्ण का स्थान है, अगर आप तम्बाकू खाएंगे तो श्रीकृष्ण को तो बिल्कुल वो पसन्द नहीं है। वहाँ जाकर आपकी खोपड़ी वो फोड़ देंगे, वहां बड़वे लोग। और उसके बाद कहेंगे कि वाह-वाह, क्या इनकी स्थिति हो गई, पागलों जैसे घूम रहे हैं। कहे नहीं इनको (अष्पष्ट..) ‘उन्मनी’ लग गयी है। ‘उन्मनी’ (ध्यान) का अर्थ जानते भी हो कि नहीं जानते हो? पागल जैसे घूम रहे हैं, रस्ते में भीख मांग रहे हैं, ये ‘उन्मनी’ लग गयी है। और ये लोग भीख मांगते हैं जो हरे रामा, हरे कृष्ण करते फिर रहे हैं ये भी भीख मांगते हैं। अरे जो कुबेर हैं उसके शिष्य होकर, उसका नाम लेकर भीख मांगते हो, शर्म नहीं आती तुमको। ये श्रीकृष्ण का स्थान है, मान हो रहा है। समझ में नहीं आता है, मुझे तो रामदास स्वामी कि जैसी गालियाँ भी नहीं आती। उन के जैसे मेरे पास शब्द भी नहीं है। लेकिन उन्होंने इस तरह से इन चीज़ों को , इतना उस पर आघात किया है और तब से करते आ रहे हैं। पर उसका कोई असर नहीं। कोई भी बाबाजी आ गया, कोई भी गुरुजी आ गया, बैठ गए उसके साथ। अंगारा लगाने लग गए, शहर में तक। शहर में ऐसे भी लोग हैं कि जो पेट में तकलीफ, गुरु का स्थान तो पेट में है फिर आपको तकलीफ क्यों? इस पर कोई सोचता भी नहीं और फिर मेरे पास आएंगे तो कहेंगे कि माँ हम तो इतने भगवान के मंदिर बनाये। हमने इतना ये किया तो भी देखिये हम इतने कैसे। मैं कहती हूँ कि सब गलत काम कर दिया आपने, अभी आपका तो कनैक्शन ही नहीं हुआ। इसका अगर कनैक्शन ही नहीं हुआ, इसमें अगर मैं बोलू तो आपको सुनाई देगा। टेलीफोन का कनैक्शन कर लो फिर टेलीफोन करो। एक सीधी सी बात है कि हमारा उनसे सम्बन्ध ही नहीं हुआ। और हम चाहते हैं कि हम जो परमात्मा से कहते हैं वो सुने, और फौरन दे दे। जैसे कोई हमारी जेब में रखा है भगवान। लेकिन जब सम्बन्ध हो जाता है, जब आपका परमात्मा से सम्बन्ध हो जाता है तब आप जान सकते हैं कि आपमें क्या दोष हैं, और औरो में क्या दोष हैं।
पर आप तब दोष इस तरह नहीं कहते कि ये पागल हैं, या ये बड़े मुंह जोर हैं, या बदतुमीज हैं, ये नहीं कहते आप। आप क्या कहते हैं कि इनका आज्ञा चक्र पकड़ा है। और खुद आप आकर मुझे कहेंगे कि माँ मेरा आज्ञा चक्र पकड़ा है मुझे ठीक करो। खुद आकर आप मुझे कहेंगे, क्योंकि आप अपने बारे में जानने लगते हैं। यही अपने बारे में जानना ही सेल्फ नॉलेज (self knowledge) है, यही आत्मप्रकाश है। पर इसके साथ ही साथ आप औरों के बारे में भी जानते हैं। कितना ये महान प्रचण्ड कार्य है। आश्चर्य तो ये है कि इस भारत वर्ष में जहाँ पर कि कुण्डलिनी के बारे में नानक साहब ने, और कबीर दास जी ने बहुत कुछ कहा-वो सब कुछ कहा है। वर्लभाचार्य ने वैष्णव धर्म में कहा है वो सब कुछ मटिया मेट हो गया। और ऐसी जगह मैं पहुँची, जिसे कहते हैं रशिआ, जहाँ पर कि कुण्डलिनी का तो नाम छोडो भगवान का भी कोई नाम नहीं लेता, न कोई जाति न पाति, न धर्म न कुछ, न कुछ। और आप हैरान होंगे कि सोलह हज़ार, चौदह हज़ार से कम लोग नहीं आते। और वहाँ चार सौ डाक्टर सहजयोग कर रहे हैं। आप पता कर लीजिए, मैं झूट बोल रही हूँ तो। और दो सौ साइंटिस्ट्स (scientists) बैठे कहने लगे, माँ सायेंस ( science) नहीं बताना, बहत हो गया। वो पराकोटी को चले गये, उन्होंने लांघ ली सारी मर्यादाएं। और अब कहते हैं कि इस दहलीज़ से हमें हटाओ, इस थ्रेशहोल्ड से हमें हटाईये। और हमें ले चलिए वहाँ, जहाँ पर अध्यात्म का प्यार और अध्यात्म की मिठास हो। ये सब कुछ है जब ये आपके कल्याण के लिए, जब आपके ये हित के लिए और आप देख लीजिये इन लोगों को इतना तेज है। और जब इसको पाते ही, आपको कोई शारीरिक व्याधि, मानसिक व्याधि कोई तरह की व्याधि नहीं हो सकती। जब आपके बच्चे और आपकी गृहस्थी ठीक हो सकती है और सारा संसार जिससे ठीक हो सकता है। और जिसके लिए आपको कुछ प्रयत्न करना नहीं है, आपको कुछ पैसा देना नहीं है। तब फिर आप इसे क्यों नहीं प्राप्त करना चाहते? इस मनुष्य की बुद्धि को समझना बहुत मुश्किल है। वही रसिआ के लोग, बस एक बार पाया और जम गए। अब उधर देखना नहीं अब हमको यही चाहिए, अब हमें शान्ति मिल गई, सकून मिल गया। इस शान्ति में हमें बैठना है हमें कोई चीज़ नहीं चाहिए।
इस कुण्डलिनी का जागरण क्या में थोड़ी ही पहली मर्तबा कर रही हैूँ? औरों ने भी किया लेकिन तब में और अब में एक ही फर्क है, कि ये जागरण पहले एक दो ही लोगों का होता था। क्योंकि इस जीवन के वृक्ष में एक दो ही फूल लगते थे, आज हजारों फूल लगे हुए हैं। और हजारों फूल फल हो सकते हैं, ऐसा समा है। और इसके बारे में पहले से ही (..अष्पष्ट) भविष्यवाणियाँ हैं कि ऐसा समा आ गया कि जहाँ हजारों लोग इस चीज़ को प्राप्त करेंगे। तो क्यों न इसे प्राप्त किया जाये? किसलिए? इसमें पीछे हटना, मेरे ख्याल से समय को चूकना है। बहुत महत्त्वपूर्ण आन्दोलन हमारे अन्दर में ही घटित होने वाला है। और उसके बाद देखिये, कि क्या मजा आता है और आप क्या हो जाते हैं। कितने शक्तिशाली, कितने प्रभावी और उतने ही स्नेहमय, उतने ही प्रेममय। जितनी शंकाएं वो सब एक साथ सब गिर जाती हैं। आप बहुत बड़ी चीज़ हैं। ये लोग जो परदेश से आये हैं ये तो सोचते हैं कि महाराष्ट्र में पैदा हुआ आदमी माने कोई तो भी बड़ा ही पुण्यात्मा होगा। वाकई में ये सोचते हैं आपको अभी ये पता नहीं।
अभी हम देहात में गये थे तो उन्होंने पैर नहीं छूए बस, बाकी तो इतना मान किया वहां के देहातियों का, कुछ पूछे नहीं। जैसे कि वे महान पुण्यात्मा हैं। अब मैं तो देखती रही, कि अपने देशवासियों की बुराई इनसे क्या करना। तो मैंने कहा कि ऐसा तुमको क्यों लगता है? कहने लगे, माँ, ये तो महाराष्ट्र है। यहाँ तो सारे विश्व की कुण्डलिनी है। इस देश में जन्म लेने के लिए तो इन्होंने बड़े ही पुण्य किये होंगे। (मराठी...पूर्व जन्म आम्ही बहुत पुण्य केले ) इन्होंने बहुत ही पुण्य किये होंगे जो इन्होंने इस पुण्य भूमि में जन्म लिया है। लेकिन हम लोगों ने इतने पुण्य नहीं किये इसलिए तो गन्दे देशों में हमने जन्म लिया।
तो ये मैं कहूँगी कि हम लोगों को भी अपनी पूरी पहचान नहीं है, अपने को जानना है। कभी-कभी मैं एक किस्सा सुनाती हूँ कि एक टेलीविजन का डब्बा आप देहात में ले जायें, उन्होंने कभी देखा ही नहीं। और कहो कि इसमें सब तरह के गाने और सब तरह के चित्र आएंगे, वो कहेंगे वाह-वाह। डब्बा,तो लोग मानेंगे ही नहीं। एक ये डब्बा है इसमें क्या आने वाला है, क्यों बेकार की बात कर रहे हो। इसी तरह से तो हम अपने बारे में सोचते हैं, कि हाँ हम एक इन्सान है। बस, और क्या है। लेकिन जब उसका कनैक्शन लग जाता है तो आप देखते हैं कि क्या कमाल चीज़ बनाई है। अरे जब मनुष्य इतने कमाल की चीज़ बनाता है तो उसने कितनी कमाल की चीज़ आपको बनाया होगा। अपने को जाना ही नहीं, अपने को पहचानो। और अपनी शक्ति को जानो। लेकिन सहजयोग में मेरे लेक्चर (lecture) में तो हजारों लोग आ जाते हैं पता नहीं क्यों, लेकिन उसके बाद पनपते नहीं है।
ईसामसीह ने जो कहा है कि कुछ बीज हैं वो तो पत्थर में ही पड़े रहे, वैसे हैं कुछ, बुद्धिवादी। और कुछ बीज जो हैं वो ऐसे दलदल में फस गए कि पनप के खत्म। वो दलदल में फसे हैं, थोड़ा सा अंकुरित हो गये, उसके बाद ख़तम। अब सोचिये जो बीज थोड़ा सा अंकुरित हो जाये वो किस काम का। और उसके बाद, कुछ बीज ऐसे हैं कि वो जो अंकुरित हैं और उनसे वृक्ष तैयार हुए। और ऐसे भी सहजयोग में लोग हैं, कुछ मॉडर्न (modern) लोग कि जो गुरु-शापिंग करते हैं। चलो आज माताजी के यहाँ तो चलो, यहाँचलें गए आज यहाँ चलें गए, फिर फिर वहां फलाना है वहां फिर वहां चलें गए। फिर वहां ठिकाना है वहां चलें गए। अरे भाई जहाँ फिर वहां आपको थोड़ा सा पानी मिल गया वहां फिर कुँआ खोदते हो। कि हर जगह खोदते रहोगे, अपने लिए तो गड्ढ़े बनाओगे? और गुरु इसलिए भी लोगों को अच्छे लगते हैं, क्योंकि गुरु कुछ कहते नहीं। जैसा भी चलना है चलो। बस पैसे आप मुझे दे दीजिये। गुरु पैसे खाते हैं और क्या? और ये ऐसे समझ लीजिये मैं आपसे साफ़ बता रही हूँ कि माँ हूँ कि जो आदमी भगवन के नाम पे पैसा लेता है। वो आदमी कभी भी किसी हालत में भी कोई भी परमात्मा का कार्य नहीं कर सकता। अब ठीक है इन्होने ये लगाया वो लगाया और ये लेके आये, इनका ट्रैवेलिंग हुआ, ये ठीक है। उसके लिए पैसा लग सकता है, उसके लिए पैसा इक्कठा करना। मुझसे कोई मतलब नहीं, मैं कुछ देखती नहीं, उसका आप हिसाब किताब जानिए। लेकिन यदि कोई कहे कि पैसे लेकर कुण्डलिनी जागृत करें तो ये तो ऐसा ही हुआ, कि आप पैसे गाड़ दीजिए तो आपके खेत हरा-भरा हो जाएगा। ये माँ, ये पृथ्वी, ये आपको इतना देती है, ये क्या लेती है आपसे? जो कुछ आप डालियेगा वो पनप आयेगा। ऐसा ही प्रेम सर्वशक्तिमान प्रभु का चारों तरफ है। इन लोगों के झांसें में मत आना, इन लोगों की बातों में मत आना कि कुछ आप परमात्मा नहीं है पहली बात। और दूसरी बात ये है कि जो लोग परमात्मा के नाम पे पैसा खाते हैं और जो ढोंगी लोग हैं, उन के पास मत जाना।
तीसरी चीज़ जो हमारे अन्दर अन्धता से बहुत सी चीज़ आ गई, उसका भी पड़ताला होना चाहिए, कि ये ठीक है या नहीं। लेकिन इसके लिए हमारे अन्दर एक दैवी शक्ति जागृत होनी चाहिए, जिससे हम समझें कि ये ठीक है या नहीं। भेद अभेद समझने के लिए, एक हंस और एक बगुला दोनों सफेद हैं। लेकिन जो हंस होता है उसको नीर-क्षीर विवेक होता है। इसी तरह जब तक आपके पास नीर-क्षीर विवेक नहीं आ जाता है, आप कुछ भी करें, माफ। ये भी नहीं नहीं सोचना, मैंने ये पाप किये हैं। बहुत से लोग मेरे लेक्चर्स सुन के ये सोचते हैं कि भई मैंने ये गलती कर ली। कोई नहीं, आप इंसान हैं इंसान नहीं गलती करेंगा तो भगवान करेंगे। बिलकुल ये नहीं सोचने का ये नहीं सोचने का कि मैंने ये गलती करी, मैं बड़ा पापी हूँ। जो लोग आपसे कहते हैं आप पापी हैं, वो महा पापी हैं। किसी की बात सुनने की जरूरत नहीं है। अरे भई आप मानव हैं मानव गलती करता है। अगर आप ऐसे ही होते, तो आप जेल में होते, यहाँ कैसे होते। तो अपने प्रति एक श्रद्धा, अपने प्रति एक आदर और एक आत्मसम्मान लेकर के आप बैठिये। और दृढ़ निश्चय रखें, पूरी तरह से कि आप सब पार हो सकते हैं। अभी ये नहीं सोचना कि हम ऐसे ख़राब हैं, हम वैसे ख़राब हैं, कभी सोचना नहीं। माँ के लिए तो सारे ही बच्चे एक जैसे होते हैं। उसके लिए कोई ख़राब दिखाई देता है क्या? आप माँ के सामने बैठे हैं, हाँ अगर कोई गुरु हो तो दूसरी बात है वो चाहे जरूर डंडे मारे। लेकिन माँ है, ये तो सारा प्रेम का कार्य है और बड़े ही सुचारू रूप से हो जाता है। और जिस तरह से चकोर चन्द्रमा के कण वो धीरे-धीरे खींच लेता है इसी प्रकार ये सुक्ष्म ज्ञान आपके अन्दर स्थित हो जाता है। आपको फिर सवाल रह नहीं जाता, शंका रह ही नहीं जाती। पहले तो निर्विचार समाधि स्थपित होगी होगी और उसके बाद निर्विकल्प समाधि। हमारे देश की जितनी भी बातें हैं, उस में का जितना भी सार और सत्य है वो आप सहजयोग में पाइयेगा। पर जितनी झूठी बातें हैं वो आप छोड़ दीजिएगा।
बहुत से लोग चाह रहे हैं कि मुझे सवाल पूछें। मैं उनसे विनती करूंगी कि आज आप कृपया अपने सवालात लिख कर के मुझे कल दीजियेगा। और उसके बाद में मैं उसको जवाब दूँगी। मैं सवाल का जवाब देने में बहुत होशियार हूँ। वजह ये है कि इतना मैंने सफर किया है हर तीसरे दिन तो मैं तो सफर करती हूँ। और इतने लोगों से मिली हूँ कि मैं जानती हूँ कि ये सवाल क्या है और ये पूछ क्या रहे हैं। तो उसमें तो मैं बहुत ही ज्यादा होशियार हूँ लेकिन मैंने अगर आपका सवाल का जवाब दे दिया, इसका मतलब ये नहीं कि आप साक्षात्कार को प्राप्त कर लिया, बिलकुल भी नहीं। उसकी कोई गारंटी नहीं, वो तो आप पे निर्भर है आपको अगर पाना है तो आप पाइयेगा। और नहीं पाइयेगा तो उसको कोई जैसे एक बीज का अंकुर है उसको कोई आप खींच थोड़ी न सकते हैं। जीवंत क्रिया है, जो जीवंत क्रिया है वो अपने आप अकस्मात सहज होती है और इसीलिए उस सहजता के नाते मैं आपसे कहूँगी कि आप सहज में रहें।
अब बताइये पहले ज़माने में लोग हिमालय में जाते थे, सर के बल खड़े होते थे। और न जाने क्या गर्दन कटाते थे कि क्या-क्या करते थे। लेकिन वो पार नहीं होते थे, अब उससे हम क्या करें। लेकिन हो सकता है कि हमने ये जो चीज़ ढूंढ के निकाली है, कुछ मेहनत तो करी थी लेकिन ये एक माँ के प्यार से जानी हुई चीज़ है। जिसको अंदर से ये हमेशा भावना रही बचपन से ही कि किस तरह से ऐसी कोई वयवस्था मैं ढूंढ निकालू। क्योकि मैं तो स्वयं ऐसी हूँ ही, स्वयं प्रकाशित, कि जिससे सब लोग प्रकाश को प्राप्त करें। आमास Amass सामूहितकता से हो जाये, हजारों लोग पार हो जाये। और वो ढूंढ निकालने के बाद मैंने ये कार्य किया है। और ये कार्य बड़ा आनंददायी है। हमें कोई इलेक्शन लड़ना नहीं है, कोई वोट लेना नहीं है, कुछ नहीं करने का है। लेकिन ये जो मज़ा आ रहा है वो चाहते हैं आप लोग भी उठाये। इतना ही नहीं लेकिन ये हमारा काम है, ये हमें करना है, ये हमारा मिशन है। इसीलिए हम संसार में आये हैं और इसे हम कर रहे हैं। तो आपसे ये विनती है कि ये दस मिनट का कार्य है, जिसमें आपको जाग्रति हो जाएगी। और ये जाग्रति होने के बाद फिर एक साब आने वाले थे। अभी तक आये नहीं थे पर जाग्रति के बाद करना चाहिए, वो आये हुए हैं यहाँ पर। हमने किसी को पैसा हैसा नहीं दिया, उनकी जाग्रति हो गयी। वो बहुत बड़े गायक हैं, बड़े मशहूर गायक हैं। इतना ही नहीं उनके साथ भी बहुत बड़ी गायिका आयी हैं, उनकी भी जाग्रति हो गयी। इसीलिए वो स्वयं आये हैं कि आपके सामने में गाना सुनाये। और जब तक जाग्रति नहीं होती तब तक हम इस पर किसी पे जोर जबरदस्ती तो कर नहीं सकते। और इसमें कोई भी बचा नहीं मुसलमान, हिन्दू, क्रिस्चन सब लोग एक जात हो गए। जो ज्ञानेश्वर जी ने पसायदान का वर्णन किया है वही सहज योग है।
कल थोड़ी बात मराठी में करेंगे और थोड़ी बात हिंदी में। पूना के जो हिंदी वाले लोग हैं उनका ये कहना है कि मराठी लोग जो हैं ये दो तरह के हैं। एक तो लापरवाह और दूसरे जो हैं वो बस, वो सोचते हैं वो बहुत जानते हैं। और इसलिए सहजयोग नार्थ इंडिया में बहुत जोरों में फैल रहा है और अभी-अभी शुरू करने पर और लोग बहुत अच्छे से गहराई में उतर रहे हैं। तो महाराष्ट्र में इतने साल काम करने पर भी उससे आधा भी काम नहीं हुआ है, ये बात सही है। ये बहुत आश्चर्य की बात है। जिसके मुँह में हर समय संतों की वाड़ी है। वो महाराष्ट्र, उस महाराष्ट्र में लोगों में अपने कल्याण का विचार न हो, ये में समझ नहीं पाती। मैं स्वयं महाराष्ट्र में पैदा हुई हूँ। मेरे बाप दादे हजारों वर्ष से महाराष्ट्र में पैदा हुए हैं। और सभी बड़े भक्त लोग थे, तो समझ में नहीं आता ये भक्ति ये कैसी के बस बैठ कर के .....(अष्पष्ट) रहे हैं। तो मुझे पूर्ण महाराष्ट्र की जमीन में, इसके पुण्य स्वाभाव में बहुत विश्वाश है। इतना ही नहीं, सब सहज योगी वो कही से भी आए। परदेश से आए, नार्थ आए, सब कहते हैं कि इस जमीन में, इस आकाश में, चैतन्य भरा पड़ा है। लेकिन जैसे समुद्र के किनारे कोई प्यासा बैठा रहे, ऐसे यहाँ के लोग क्यों प्यासे बैठे रहते हैं। और जब ये बात हुई तो एक तरह से तकलीफ भी हुई कि क्या उन संतों ने बेकार मेहनत कर दी इन लोगों के लिए। इतनी मेहनत की इन संतों ने कितनी तकलीफें उठाई, कितना मार खाया। अरे उस ज्ञानेश्वर जी के पैर में चप्पल भी नहीं थी, जूते भी नहीं थे। अब उनकी पालकी लेके घूमते हैं, ये कोई बात हुई। जिनके पैर गर्मी में जलते थे, झुलसते थे, उनको सहलाने वाला कोई नहीं था। और हम लोग ऐसे फालतू चीज़ों में अपनी जिंदगी बर्बाद करने वाले हैं क्या? और बड़े समारोह के साथ हम इस कदर गलत चीज़ें करते हैं।
1:20:56 (मराठी...)
1:30:46 आपसे ये एक अर्ज है, आप ये सोचते हैं कि मैंने ये गलती की, मैंने वो गलती की है। और इस तरह से मैंने ये अपना जीवन पापी जीवन बना लिया। तो मुझे आपसे ये कहना है कि मेहरबानी से इस चीज़ को भूल जाइये। अपना जो कुछ भी गत है, पिछला है, जो कुछ हो चुका, उसे आप भूल जाइये। अपने को पूरी तरह से माफ करिये। क्या आप ही तो गलती कर सकते हैं, परमात्मा नहीं कर सकते। इसलिए आप कृपया इस चीज़ को भूल जाइये, कृपया भूल जाइये। क्योंकि जो आदमी इस तरह से रखता है कि मुझे ये गलती हुई, ये गलती हुई। उसका ये चक्र लेफ्ट साइड में पकड़ जाता है, ये यहाँ। और इसके कारण अन्जाइना की बीमारी होती है, अभी तीन अन्जाइना के पेशेंट्स ठीक कर के आ रही हूँ। अन्जाइना जैसा भयंकर रोग हो जाता है। और सब लोग तो कोई ह्यूस्टन (Houston) तो नहीं जाने वाले, ह्यूस्टन से कितने बच कर आते हैं। तो पहले ही क्यों न अपने को ठीक कर लें। इसके अलावा आपको और भी जैसी स्पोंडेलाएटिस वगेरा इस तरह की बीमारियां हो सकती हैं। तो पहले तो चीज़ ये है कि बिलकुल साफ़ आप कह दीजिये कि मैंने कोई गलती नहीं की, न मैं दोषी हूँ बिलकुल। वैसे भी माँ के सामने तो कोई दोष होता ही नहीं है। क्योंकि माँ अपने प्यार से सारे ही दोष धो ही सकती है, उसमें इतनी तो शक्ति होती ही है। कि आपके सारे दोष वो अपने प्यार से धो डालेगी। तो कम से कम उसी में विश्वाश करके आप ये जान लीजिये कि मैंने कुछ भी दोष नहीं किया। दूसरी बात ये है कि आप सबको एक साथ क्षमा कर दें।
1:32:33(मराठी...)
आप एक साथ सबको क्षमा कर दें, ये न गिने कि किसको क्षमा करना है। आखिर क्षमा करें या न करें, आप करते क्या हैं? कुछ भी नहीं करते, तो एक मिथ्या बात है उसके पीछे लग कर के आपने अपना दिमाग ख़राब कर लिया। और जो आदमी आपको तकलीफ देना चाहता है उसी के हाथो में आप खेल रहे हैं। तो इसका मतलब साफ़ जाहिर है कि आप किसी एक जूठी बात के लिए अपने को बेकार में तकलीफ दे रहे हैं। इसलिए कृपया सबको एक साथ में क्षमा कर दें, सबको एक साथ।
तीसरी बात ये है कि आप जान ले कि आप सब इस योग के, इस सम्बन्ध के पात्र हैं। सब को मिल सकता है, पूर्ण आत्मविश्वाश रखें। पूर्ण आत्मविश्वाश के साथ ही हो सकता है अगर कोई कहे मुझे कैसे होगा, मुझे कैसे होगा, तो नहीं होने वाला है। पूर्ण आत्मविश्वाश रखें।
1:34:16 (मराठी...)
और सबसे आखिरी बात जो सबसे महत्त्वपूर्ण है वो समझ लेना चाहिए कि इसकी जबरदस्ती आप पर किसी तरह से नहीं हो सकती। इसलिए जो लोग इसको प्राप्त नहीं करना चाहते, वो कृपया यहाँ से मैदान से चले जाये। और दूसरों को बैठ कर देखने के लिए यहाँ कोई तमाशा नहीं है। और बहुत से तमाशे हैं, वहां चलें जाये, यहाँ तो कोई तमाशा हो नहीं रहा है। इसलिए कृपया इस बात को ध्यान में रखें कि इस प्रकार की हरकत कोई न करे। और जो चाहते हैं उनको जरूर मिलेगा, और वो प्राप्त करेंगे। इसमें कोई शंका नहीं है, क्योंकि कुण्डलिनी ये शुद्ध इच्छा है, कुण्डलिनी ये शुद्ध इच्छा है, बांकी सारी इच्छाएं अशुद्ध हैं। क्योंकि वो प्राप्त होने पर भी हमें उसका आनंद नहीं आता है। ये तो इकोनॉमिक्स का साइंस है कि “इन जनरल दे आर नॉट साशिएबल” (in general they are not satiable ) तो आप इसको ये समझ लें कि अगर हम इसे माँगेंगें तो हमें जरूर मिल जायेगा। अच्छा अब आप सब लोग जो कुर्सी पे बैठे हैं, अपने चप्पल जूते उतार लें।
1:36:56 (मराठी...)
इस तरह से हाथ मेरी और करें और मन में एक ही इच्छा रखें कि ये योग हमें प्राप्त होना चाहिए। हम ये आत्मसाक्षात्कार चाहते हैं क्योंकि ये हमारे हित के लिए, हमारे कल्याण के लिए है। और हमारे उत्क्रांति के लिए है, इसलिए ये हाथ हमारे ओर इस तरह से फैलाये। आँख बंद कर लें।
1:39:34 (मराठी...)
टोपी निकाल लें और राइट हैंड मेरी ओर करें। टोपी इसलिए निकलनी है कि ये ब्रह्मरन्द्र है ये छिदा कि नहीं ये देखना है। अब अपना सर झुका लें, और लेफ्ट हैंड से आप देखें कि सर में से, सर के ऊपर न, सर से दूर रख के देखें कुछ ठंडी-ठंडी हवा सर से आ रही है क्या?
1:40:19 (मराठी...)
अब लेफ्ट हैंड मेरी ओर करें औऱ फिर से सर को झुका लें। औऱ अब देखें, राइट हैंड से देखें कि आपके सर में से ठंडी हवा आ रही है क्या? कुछ-कुछ लोगों को बहुत दूर तक आती है किसी को नजदीक आती है सो कृपया देखें, इसके अंदर ठंडी-ठंडी हवा आ रही है या नहीं।
1:41:33 (मराठी...)
किसी-किसी को ठंडा भी आ सकता है, कोई हर्ज नहीं। वो ठंडा जो आ रहा है उसकी जगह गरम आ रहा है लेकिन गरम थोड़ी देर में ठंडा हो जायेगा। देखिये ठंडक आ रही है सर से। अब लेफ्ट हैंड हमारी तरफ, राइट हैंड से देखिये।
1:42:07 (मराठी..)
अब फिर से आप राइट हैंड मेरी ओर करें, औऱ गर्दन जुका कर के देखें, आपके सर से फिर से ठंडी हवा आ रही है या नहीं। सर से दूर, गरम भी आ रही है तो कोई हर्ज नहीं। अब आप दोनों हाथ आकाश की ओर करके सर पीछे करें। और एक सवाल पूछिए तीन बार, कोई सा भी एक सवाल। श्री माताजी क्या ये ब्रह्म चैतन्य है? Mother is this the cool breeze of the Holy Ghost?
1:43:24 (मराठी...)
मेरी ओर देखिये विचार न करते हुए, ये निर्विचारिता, निर्विचार समाधी का पहला लक्षण है। जिन-जिन लोगों के हाथ ऐसे करिये। हाथ में या सर से या दोनों जगह से ठंडी हवा आयी हो, दोनों हाथ ऊपर करें।
1:44:12 (मराठी...)
या गरम हवा भी, वो दोनों हाथ ऊपर करें।
1:44:29 (मराठी...)
हे पुण्यपटनम नमस्कार!
1:44:36 (मराठी...)
ये तो सब संत साधु हो गए, अब सबको नमस्कार कर रहे हैं। सब लोग पार हो गए, बहुत कुछ कम लोग, जो नहीं हुए। अधिकतर लोग पार हो गए, सब पार हो गए।
सबको अनंत आशीर्वाद है! अनंत आशीर्वाद है।
देखिये लेकिन कल आप आइयेगा और भी लोगों को बताना कि आपको क्या अनुभव आया। और यहाँ ले आइयेगा, और यही चीज़ सबको देने की है। और उनको भी ये प्राप्त करा दीजिये, उसके बाद इसमें जमना होगा।
1:45:08 (मराठी...)
दर्शन आपको अपना लेना है मेरा नहीं, इसलिए कृप्या मेरे पैर पे आने की कोशिश न करें। और अभी तो कुछ हुआ ही नहीं। उसको आप पूरी तरह से प्राप्त करें। और पूरी तरह से जिद्द करें कि मैं क्यों न पाऊँ। जब मैं इसका हकदार है तो मैं इसे क्यों न पाऊँ ।
1:46:15 (मराठी...)