The Power of Brahma

The Power of Brahma 1981-03-11

Lieu
Durée du discours
50'
Catégorie
Programme public
Langues parlées
Anglais, Hindi
Audio
Vidéo

Langue actuelle: Hindi. Discours disponibles en : Hindi

Le discours est également disponible en : Anglais, Allemand, Bulgare, Italien, Russe, Ukrainien, Chinois (simplifié), Chinois (traditionnel)

11 मार्च 1981

Public Program

New Delhi (भारत)

Talk Language: English, Hindi | Transcript (Hindi) - Draft | Translation (English to Hindi) - Draft

"The Power of Brahma", Public Program, Delhi (India), 11 March 1981.

[English to Hindi translation]

मैंने तुमसे पिछले दिन कहा था कि ये वाइब्रेशन्स ब्रह्म की शक्ति हैं और यह पृथ्वी, ये तारे जो घूमते हैं, वह एक जीवंत शक्ति है। यह वह शक्ति है जो हमें जीवंत ऊर्जा प्रदान कर रही है। यह जीवंत शक्ति है और इसे समझना आसान नहीं है कि जीवंत शक्ति क्या है और मृत शक्ति क्या है?

जीवंत शक्ति को समझना बहुत सरल है। कोई प्राणी, जैसे कि एक छोटा सा कीड़ा, एक जीवंत शक्ति है। वह अपनी इच्छा से अपने को मोड़ सकता है। वह अपने को खतरे से बचा सकता है। वह भले ही छोटा हो, लेकिन क्योंकि वह जीवित है, वह अपने को बचा सकता है। परंतु कोई भी मृत वस्तु स्वयं नहीं हिल सकती। न ही वह समझ सकती है, न ही स्वयं को बचा सकती है।

तो, "स्व" का तत्व, जिस पर जहां तक यह निर्भर है उसमें रहता ही नहीं है। अब, चूंकि हम जीवंत शक्ति हैं, हमें यह पता लगाना चाहिए, "क्या हम जीवंत शक्ति बनने जा रहे हैं, या मृत शक्ति?"

अब, जब हम संसार में जीते हैं, हम अपने आराम के बारे में सोचने लगते हैं; जब हम प्रसन्न होते हैं, जब हम शांत होते हैं, जब हम इन सब चीजों के बारे में सोचते हैं, आप देखिए, हम मृत वस्तुओं के बारे में सोच रहे होते हैं।

परंतु जब हम एक स्थान, एक घर या एक आश्रम के बारे में इस दृष्टिकोण से सोचते हैं, कि वहां हम कोई जीवंत कार्य करने जा रहे हैं, तब हम उस स्थान को जीवंत बना रहे होते हैं। उन मृत वस्तुओं से उस वातावरण को जीवंत शक्ति उत्सर्जन करने योग्य बनाने का प्रयास होना चाहिए।

यह एक बहुत ही सूक्ष्म बात है, जो बहुत कम लोग समझ पाते हैं। उदाहरण के लिए, अब अगर कोई मेरे पास श्री गणेश जी की एक तस्वीर लाता है और पूछता है, "क्या मुझे इस श्री गणेश जी की तस्वीर की पूजा करनी चाहिए या नहीं?" तो सबसे पहले हमें देखना चाहिए कि इससे वाइब्रेशन्स आ रहे हैं या नहीं।

मान लो, आप कहीं घर लेते हैं, तो आपको देखना चाहिए कि क्या यह घर हमें वाइब्रेशन्स दे रहा है? यह मुख्य कारण है, हम अन्य चीजों को देखते हैं, हम यह भी देखते हैं कि क्या यह दूसरों के आने के लिए उचित है या नहीं, परंतु हम वाइब्रेशन्स के दृष्टिकोण से घर को नहीं देखते। जो भी कार्य हम करें, हमें उसकी वाइब्रेशन्स अवश्य जांचनी चाहिए।

[अस्पष्ट – फिलहाल अब, वाइब्रेटरी जागरूकता के संदर्भ में सोचें, जिसका अर्थ है जागरूकता जो जीवंत चीजों पर कार्यान्वित है।]

जैसे कि, जड़ के सिरे पर एक कोशिका एक जीवित चीज़ है। वास्तव में यह स्वयं नहीं सोचती, यह स्वयं जीवंत शक्ति द्वारा निर्देशित होती है। तो, यह जानती है कि जीवंत शक्ति के साथ कैसे चलना है, इसके साथ कैसे समायोजित होना है और इससे कैसे एकरूप होना है।

परंतु, हम मनुष्यों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्राप्त है। अब, एक बार जब आप साक्षात्कार प्राप्त कर लेते हैं, तो आपको यह जीवंत शक्ति मिल जाती है। यह जो आपको मिली है, वही जीवंत शक्ति है। इसलिए आपको अब आपको सीखना होगा कि इस जीवंत शक्ति का उपयोग कैसे करें, अपने शरीर, मन, अहंकार, सुपरईगो और हर चीज़ को एक प्रकाशित स्थिति में बनाए रखने के लिए, जीवंत शक्ति की योजना को समझना आवश्यक है।

यह आपको अधिकतर समस्याओं का समाधान देती है। उदाहरण के लिए, यहाँ इस देश में, विशेष रूप से दिल्ली में, मैं देखती हूँ कि आपकी बाईं नाभि पर पकड़ती है। दाएँ स्वाधिष्ठान को पकड़ो और फिर तुम पकड़ते हो।

मैंने तुमसे पिछले दिन कहा था कि ये वाइब्रेशन्स ब्रह्म की शक्ति हैं और यह पृथ्वी, ये तारे जो घूमते हैं, वह एक जीवंत शक्ति है। यह वह शक्ति है जो हमें जीवंत ऊर्जा प्रदान कर रही है। यह जीवंत शक्ति है और इसे समझना आसान नहीं है कि जीवंत शक्ति क्या है और मृत शक्ति क्या है?

जीवंत शक्ति को समझना बहुत सरल है। कोई प्राणी, जैसे कि एक छोटा सा कीड़ा, एक जीवंत शक्ति है। वह अपनी इच्छा से अपने को मोड़ सकता है। वह अपने को खतरे से बचा सकता है। वह भले ही छोटा हो, लेकिन क्योंकि वह जीवित है, वह अपने को बचा सकता है। परंतु कोई भी मृत वस्तु स्वयं नहीं हिल सकती। न ही वह समझ सकती है, न ही स्वयं को बचा सकती है। तो, "स्व" का तत्व, जिस पर जहां तक यह निर्भर है उसमें रहता ही नहीं है।

अब, चूंकि हम जीवंत शक्ति हैं, हमें यह पता लगाना चाहिए, "क्या हम जीवंत शक्ति बनने जा रहे हैं, या मृत शक्ति?" अब, जब हम संसार में जीते हैं, हम अपने आराम के बारे में सोचने लगते हैं; जब हम प्रसन्न होते हैं, जब हम शांत होते हैं, जब हम इन सब चीजों के बारे में सोचते हैं, आप देखिए, हम मृत वस्तुओं के बारे में सोच रहे होते हैं।

परंतु जब हम एक स्थान, एक घर या एक आश्रम के बारे में इस दृष्टिकोण से सोचते हैं, कि वहां हम कोई जीवंत कार्य करने जा रहे हैं, तब हम उस स्थान को जीवंत बना रहे होते हैं। उन मृत वस्तुओं से उस वातावरण को जीवंत शक्ति उत्सर्जन करने योग्य बनाने का प्रयास होना चाहिए। यह एक बहुत ही सूक्ष्म बात है, जो बहुत कम लोग समझ पाते हैं।

उदाहरण के लिए, अब अगर कोई मेरे पास श्री गणेश जी की एक तस्वीर लाता है और पूछता है, "क्या मुझे इस श्री गणेश जी की तस्वीर की पूजा करनी चाहिए या नहीं?" तो सबसे पहले हमें देखना चाहिए कि इससे वाइब्रेशन्स आ रहे हैं या नहीं। मान लो, आप कहीं घर लेते हैं, तो आपको देखना चाहिए कि क्या यह घर हमें वाइब्रेशन्स दे रहा है?

यह मुख्य कारण है, हम अन्य चीजों को देखते हैं, हम यह भी देखते हैं कि क्या यह दूसरों के आने के लिए उचित है या नहीं, परंतु हम वाइब्रेशन्स के दृष्टिकोण से घर को नहीं देखते। जो भी कार्य हम करें, हमें उसकी वाइब्रेशन्स अवश्य जांचनी चाहिए।

[अस्पष्ट – फिलहाल अब, वाइब्रेटरी जागरूकता के संदर्भ में सोचें, जिसका अर्थ है जागरूकता जो जीवंत चीजों पर कार्यान्वित है।] जैसे कि, जड़ के सिरे पर एक कोशिका एक जीवित चीज़ है। वास्तव में यह स्वयं नहीं सोचती, यह स्वयं जीवंत शक्ति द्वारा निर्देशित होती है। तो, यह जानती है कि जीवंत शक्ति के साथ कैसे चलना है, इसके साथ कैसे समायोजित होना है और इससे कैसे एकरूप होना है।

परंतु, हम मनुष्यों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्राप्त है। अब, एक बार जब आप साक्षात्कार प्राप्त कर लेते हैं, तो आपको यह जीवंत शक्ति मिल जाती है। यह जो आपको मिली है, वही जीवंत शक्ति है। इसलिए आपको अब आपको सीखना होगा कि इस जीवंत शक्ति का उपयोग कैसे करें, अपने शरीर, मन, अहंकार, सुपरईगो और हर चीज़ को एक प्रकाशित स्थिति में बनाए रखने के लिए, जीवंत शक्ति की योजना को समझना आवश्यक है।

यह आपको अधिकतर समस्याओं का समाधान देती है। उदाहरण के लिए, यहाँ इस देश में, विशेष रूप से दिल्ली में, मैं देखती हूँ कि आपकी बाईं नाभि पर पकड़ती है। दाएँ स्वाधिष्ठान को पकड़ो और फिर तुम पकड़ते हो हृदय पर और अपके आज्ञा पर भी। ये चार चक्र हैं जो हमारे अस्तित्व से जुड़े हैं।

तो चलो बाईं ओर से प्रयास करें, क्या होता है? बाईं ओर समस्या बाएँ स्वाधिष्ठान से शुरू होती है, क्योंकि यही पहला चक्र है जो हमारे भीतर नकारात्मकता का उत्सर्जन करता है। अब, यह बायाँ स्वाधिष्ठान वास्तव में केवल श्री गणेश के नियंत्रण में होता है, क्योंकि श्री गणेश ही जीवन की शुरुआत हैं और गणेश जीवन और मृत्यु के बीच का संबंध हैं। तो गणेश वह हैं जो संतुलन, "विवेक", समझ प्रदान करते हैं जिससे आप जान पाते हैं कि चीजों के साथ कितनी दूर जाना है।

अब, बायाँ स्वाधिष्ठान पकड़ने लगता है, आप और लोगों के पास जाने लगते हैं जो आपको वादा करते हैं, जैसे "मैं तुम्हें यह और वह दूँगा,” यह होगा, वह होगा तुम्हारे साथ।" लेकिन यह बाईं ओर की चीज़ हमारी अपनी गलत इच्छाओं से भी आ सकती है। उदाहरण के लिए, हम किसी बहुत ही गलत चीज़ की इच्छा कर सकते हैं; हम सोच सकते हैं कि हमें इस प्रकार की मृत वस्तु चाहिए या उस प्रकार की मृत वस्तु चाहिए या कोई विशेष वस्तु जो वह रखना चाहता है, वह रखना चाहता है, वह रखना चाहता है, (अस्पष्ट)।

उसे फ्रिज के लिए जाना ही चाहिए, क्योंकि वह एक फ्रिज चाहता है, और उसे इसे पाना ही चाहिए। वह फ्रिज क्यों चाहता है? क्योंकि वह सोचता है कि यह उसे अधिक आराम देगा। लेकिन जब वह फ्रिज लाता है, तो उसे पता चलता है कि ऐसा नहीं है। तो, सभी मृत वस्तुओं को देखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उनसे बहुत अधिक निर्भरता ना हो। अगर आपके पास है, तो अच्छा है। अगर नहीं है, तो भी अच्छा है। आप न्यूनतम से न्यूनतम में रह सकते हैं या अधिकतम से अधिकतम में रह सकते हैं।

लेकिन जब हम अपनी मृत संपत्तियों का विस्तार करने लगते हैं, तो यह बहुत बुरा होता है। तब हमारा ध्यान मृत चीजों की ओर चला जाता है। यही कारण है कि हम अपने अवचेतन में प्रवेश करते हैं और फिर सामूहिक अवचेतन में चले जाते हैं। फिर यह बाईं नाभि में ऊपर की ओर बढ़ता है, और बाईं नाभि में, हम इन मृत चीजों के प्रति उन्मत्त हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, घड़ी, समय। समय एक मृत वस्तु है, यह कोई जीवित वस्तु नहीं है। इसका जीवित चीज़ से कोई संबंध नहीं है।

उदाहरण के लिए, आप यह नहीं कह सकते कि फूल ठीक किस समय फल बन जाएगा। तो यह घड़ी या समय जीवित शक्ति से कोई संबंध नहीं रखता। यह मानव मन की रचना है, जैसे कि घड़ी; विशेष रूप से समय भी मानव निर्मित है। उदाहरण के लिए, आज यहाँ समय कुछ और है, लेकिन इंग्लैंड में यह अलग है। इसलिए यदि आप कहते हैं कि आप भारत में 4 बजे उठते हैं, तो इंग्लैंड में भी वही समय होगा, यह सही नहीं है।

इसलिए, समय का महत्व नहीं है। आप कब आते हैं, कब जाते हैं, कितनी बार आप करते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि यह एक जीवित शक्ति है; इसकी कोई समय सीमा या स्थान सीमा नहीं है। यह जिस प्रकार से गति करता है, जैसे कार्य करता है, आप इसे गिन नहीं सकते, क्योंकि यह एक जीवित शक्ति है।

जब हम यह समझ जाते हैं कि यह एक जीवित शक्ति है जो कि सहज है, जो हमारी मृत धारणाओं की परवाह नहीं करती, तब हम मृत चीजों से बाहर आ जाते हैं। पहले हम पत्थर थे, फिर हम अमीबा बने, फिर धीरे-धीरे हम मनुष्य बन गए। तो, हमारा ध्यान हमेशा मृत चीजों की ओर रहता है। हमें क्या प्राप्त करना चाहिए, हमारे पास क्या होना चाहिए, हमारी आवश्यकताएँ शरीर की क्या हैं, जोकि मरणशील है।

हम आत्मा की आवश्यकताओं को नहीं देखते। आत्मा की आवश्यकताओं को देखने से ही, आप बाईं ओर की प्रवृत्तियों को ही दूर कर सकते हैं। ऐसा स्वयं की दृष्टि आत्म दर्शन कराती है जिससे आप जानते हैं कि आपको स्पंदन प्राप्त हो रहे हैं। यदि आपकी आत्मा प्रसन्न है, तो आपको स्पंदन प्राप्त होते हैं, और यदि अप्रसन्न हैं तो आपको स्पंदन नहीं आते। हृदय पर और आपके आज्ञा पर भी। ये चार चक्र हैं जो हमारे अस्तित्व से जुड़े हैं। तो चलो बाईं ओर से प्रयास करें, क्या होता है? बाईं ओर समस्या बाएँ स्वाधिष्ठान से शुरू होती है, क्योंकि यही पहला चक्र है जो हमारे भीतर नकारात्मकता का उत्सर्जन करता है।

अब, यह बायाँ स्वाधिष्ठान वास्तव में केवल श्री गणेश के नियंत्रण में होता है, क्योंकि श्री गणेश ही जीवन की शुरुआत हैं और गणेश जीवन और मृत्यु के बीच का संबंध हैं। तो गणेश वह हैं जो संतुलन, "विवेक", समझ प्रदान करते हैं जिससे आप जान पाते हैं कि चीजों के साथ कितनी दूर जाना है।

अब, बायाँ स्वाधिष्ठान पकड़ने लगता है, आप और लोगों के पास जाने लगते हैं जो आपको वादा करते हैं, जैसे "मैं तुम्हें यह और वह दूँगा,” यह होगा, वह होगा तुम्हारे साथ।" लेकिन यह बाईं ओर की चीज़ हमारी अपनी गलत इच्छाओं से भी आ सकती है। उदाहरण के लिए, हम किसी बहुत ही गलत चीज़ की इच्छा कर सकते हैं; हम सोच सकते हैं कि हमें इस प्रकार की मृत वस्तु चाहिए या उस प्रकार की मृत वस्तु चाहिए या कोई विशेष वस्तु जो वह रखना चाहता है, वह रखना चाहता है, वह रखना चाहता है, (अस्पष्ट) उसे फ्रिज के लिए जाना ही चाहिए, क्योंकि वह एक फ्रिज चाहता है, और उसे इसे पाना ही चाहिए।

वह फ्रिज क्यों चाहता है? क्योंकि वह सोचता है कि यह उसे अधिक आराम देगा। लेकिन जब वह फ्रिज लाता है, तो उसे पता चलता है कि ऐसा नहीं है। तो, सभी मृत वस्तुओं को देखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उनसे बहुत अधिक निर्भरता ना हो। अगर आपके पास है, तो अच्छा है। अगर नहीं है, तो भी अच्छा है। आप न्यूनतम से न्यूनतम में रह सकते हैं या अधिकतम से अधिकतम में रह सकते हैं।

लेकिन जब हम अपनी मृत संपत्तियों का विस्तार करने लगते हैं, तो यह बहुत बुरा होता है। तब हमारा ध्यान मृत चीजों की ओर चला जाता है। यही कारण है कि हम अपने अवचेतन में प्रवेश करते हैं और फिर सामूहिक अवचेतन में चले जाते हैं। फिर यह बाईं नाभि में ऊपर की ओर बढ़ता है, और बाईं नाभि में, हम इन मृत चीजों के प्रति उन्मत्त हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, घड़ी, समय।

समय एक मृत वस्तु है, यह कोई जीवित वस्तु नहीं है। इसका जीवित चीज़ से कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए, आप यह नहीं कह सकते कि फूल ठीक किस समय फल बन जाएगा। तो यह घड़ी या समय जीवित शक्ति से कोई संबंध नहीं रखता। यह मानव मन की रचना है, जैसे कि घड़ी; विशेष रूप से समय भी मानव निर्मित है।

उदाहरण के लिए, आज यहाँ समय कुछ और है, लेकिन इंग्लैंड में यह अलग है। इसलिए यदि आप कहते हैं कि आप भारत में 4 बजे उठते हैं, तो इंग्लैंड में भी वही समय होगा, यह सही नहीं है। इसलिए, समय का महत्व नहीं है। आप कब आते हैं, कब जाते हैं, कितनी बार आप करते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है।

क्योंकि यह एक जीवित शक्ति है; इसकी कोई समय सीमा या स्थान सीमा नहीं है। यह जिस प्रकार से गति करता है, जैसे कार्य करता है, आप इसे गिन नहीं सकते, क्योंकि यह एक जीवित शक्ति है। जब हम यह समझ जाते हैं कि यह एक जीवित शक्ति है जो कि सहज है, जो हमारी मृत धारणाओं की परवाह नहीं करती, तब हम मृत चीजों से बाहर आ जाते हैं।

पहले हम पत्थर थे, फिर हम अमीबा बने, फिर धीरे-धीरे हम मनुष्य बन गए। तो, हमारा ध्यान हमेशा मृत चीजों की ओर रहता है। हमें क्या प्राप्त करना चाहिए, हमारे पास क्या होना चाहिए, हमारी आवश्यकताएँ शरीर की क्या हैं, जोकि मरणशील है। हम आत्मा की आवश्यकताओं को नहीं देखते। आत्मा की आवश्यकताओं को देखने से ही, आप बाईं ओर की प्रवृत्तियों को ही दूर कर सकते हैं।

ऐसा स्वयं की दृष्टि आत्म दर्शन कराती है जिससे आप जानते हैं कि आपको स्पंदन प्राप्त हो रहे हैं। यदि आपकी आत्मा प्रसन्न है, तो आपको स्पंदन प्राप्त होते हैं, और यदि अप्रसन्न हैं तो आपको स्पंदन नहीं आते। एक सामान्य सी बात है! यदि आपके बाईं ओर कोई रोग या समस्या है, तो संतुलन बनाए रखने के लिए आप आपका ध्यान भविष्य की ओर जाता है।

लेकिन फिर लोग भविष्य में ही फंस जाते हैं। आप देखिए अगर मैं कहूँ कि आप भविष्य की ओर देखें। जैसे मृत वस्तु मृत होती है, जो एक भ्रम है, जो जीवित नहीं है, उसी प्रकार भविष्य भी जीवित नहीं है, वह भी अस्तित्व में नहीं है। तो दोनों बातें एक जैसी हैं। चाहे आप बाईं ओर जाएं या दाईं ओर, चाहे आप अवचेतन में जाएं या अति-चेतन में, दोनों एक ही बात है।

तो, अतीत में जाने का कोई लाभ नहीं, लेकिन यदि आप अतीत में बहुत अधिक हैं, तो बेहतर होगा कि भविष्य के बारे में सोचें, ताकि आप थोड़े विपरीत स्थिति में पहुँच सकें। लेकिन, यह आप मनुष्यों के लिए कठिन है। अब, एक और समस्या शुरू होती है, हम दोषी महसूस करने लगते हैं, तब बायां विशुद्धि पकड़ता है।

बायां विशुद्धि पकड़ता है क्योंकि हम जो भी हैं, अपने बारे में दोषी महसूस करने लगते हैं। और कि जिसे कहना चाहिये कि "मुझे यह नहीं करना चाहिए था", "मुझे वह नहीं करना चाहिए था"। फिर आप कहते हैं, "मैं बहुत दुखी हूँ, मैं बहुत दोषी हूँ"। इसलिए आप फ़िर और किसी चीज की मांग नहीं करते, यह एक और बकवास है।

इस तरह से जब आप ऐसा करने लगते हैं तो क्या होता है कि आप फिर से मृत हो जाते हैं। क्योंकि जीवित शक्ति कभी निंदा नहीं करेगी। नहीं, कभी नहीं। यह स्वयं प्रगति करती जाती है। यह देखती है कि किस ओर जाना है, इधर या उधर। यह स्वयं को कभी दोषी नहीं ठहराएगी, न ही किसी पर आक्रमण करेगी। इसमें केंद्र में रहने की बुद्धिमत्ता होती है।

इस प्रकार लोगों को चाहिए कि वे अपनी बाईं ओर पर काबू पाएँ, अपना ध्यान मृत वस्तुओं, जो वहां हैं, उनसे से हटाएँ। बीच से देखना आवश्यक है। जब आप बाईं ओर होते हैं, तो जो आप देखना चाहते हैं, वह नहीं देख पाते।

लेकिन अंततः इस सबसे बचने के लिए, आप हर समय स्वयं को दोषी ठहराने लगते हैं; और सदा दुखी अनुभव करते हैं। परंतु इस तरह से आप अंततः अपनी बाईं ओर को अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में पहुंचा देते हैं, जो इन सभी बाईं ओर की आसक्तियों की इतिश्री है। इसलिए अंततः, आप सोचने लगते हैं कि आप किसी काम के नहीं हैं, आप निष्फल हैं, आपको यह करना चाहिए था, वह करना चाहिए था।

अब, इस समय इस पर विजयी होने के लिए, आपको अपनी आशीषों पर आश्रित होना होगा। अपनी आशीषें एक-एक करके गिनें। आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ है। हजारों वर्षों में कितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ? आपको अपने स्पंदन मिले हैं। इतनी शताब्दियों में कितने लोगों को यह प्राप्त हुआ?

जैन ग्रंथों में लिखा है कि कुल मिलाकर 26 कश्यप (साक्षात्कार प्राप्त आत्माएँ) हुए। तो, बुद्ध के बाद भी, कितनों को आत्मसाक्षात्कार मिला? आपको भगवान का भी धन्यवादी होना चाहिए कि इतने सारे साक्षात्कारी लोग हैं, वे एक ही बात कहते हैं। और आपको स्वयं का भी धन्यवाद करना चाहिए, कि आपको सब कुछ ज्ञात हो सकता है।

लेकिन जब आप बाईं ओर पकड़ने लगते हैं, आप भूत में चले जाते हैं और आप सोचने लगते हैं, सोचते हैं और आप कहने लगते हैं, "हे भगवान? मैं कितना निष्फल हूँ, मैं किसी काम का नहीं हूँ। मैं इतना निष्फल हूँ कि मैं अभी भी पकड़ रहा हूँ।" जैसा कि आप जानते हैं, जिन लोगों में बाईं ओर पकड़ होती है, एक सामान्य सी बात है! यदि आपके बाईं ओर कोई रोग या समस्या है, तो संतुलन बनाए रखने के लिए आप आपका ध्यान भविष्य की ओर जाता है। लेकिन फिर लोग भविष्य में ही फंस जाते हैं। आप देखिए, अगर मैं कहूँ कि आप भविष्य की ओर देखें। जैसे मृत वस्तु मृत होती है, जो एक भ्रम है, जो जीवित नहीं है, उसी प्रकार भविष्य भी जीवित नहीं है, वह भी अस्तित्व में नहीं है।

तो दोनों बातें एक जैसी हैं। चाहे आप बाईं ओर जाएं या दाईं ओर, चाहे आप अवचेतन में जाएं या अति-चेतन में, दोनों एक ही बात है। तो, अतीत में जाने का कोई लाभ नहीं, लेकिन यदि आप अतीत में बहुत अधिक हैं, तो बेहतर होगा कि भविष्य के बारे में सोचें, ताकि आप थोड़े विपरीत स्थिति में पहुँच सकें। लेकिन, यह आप मनुष्यों के लिए कठिन है। अब एक और समस्या शुरू होती है, हम दोषी महसूस करने लगते हैं, तब बायां विशुद्धि पकड़ता है। बायां विशुद्धि पकड़ता है क्योंकि हम जो भी हैं, अपने बारे में दोषी महसूस करने लगते हैं, और कि जिसे कहना चाहिये कि "मुझे यह नहीं करना चाहिए था", "मुझे वह नहीं करना चाहिए था"। फिर आप कहते हैं, "मैं बहुत दुखी हूँ, मैं बहुत दोषी हूँ"। इसलिए आप फ़िर और किसी चीज की मांग नही करते, यह एक और बकवास है।

इस तरह से जब आप ऐसा करने लगते हैं तो क्या होता है कि आप फिर से मृत हो जाते हैं। क्योंकि जीवित शक्ति कभी निंदा नहीं करेगी। नहीं, कभी नहीं। यह स्वयं प्रगति करती जाती है। यह देखती है कि किस ओर जाना है, इधर या उधर। यह स्वयं को कभी दोषी नहीं ठहराएगी, न ही किसी पर आक्रमण करेगी। इसमें केंद्र में रहने की बुद्धिमत्ता होती है।

इस प्रकार लोगों को चाहिए कि वे अपनी बाईं ओर पर काबू पाएँ, अपना ध्यान मृत वस्तुओं, जो वहां हैं, उनसे से हटाएँ। बीच से देखना आवश्यक है। जब आप बाईं ओर होते हैं, तो जो आप देखना चाहते हैं, वह नहीं देख पाते। लेकिन अंततः इस सबसे बचने के लिए, आप हर समय स्वयं को दोषी ठहराने लगते हैं; और सदा दुखी अनुभव करते हैं। परंतु इस तरह से आप अंततः अपनी बाईं ओर को अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में पहुंचा देते हैं, जो इन सभी बाईं ओर की आसक्तियों की इतिश्री है।

इसलिए अंततः, आप सोचने लगते हैं कि आप किसी काम के नहीं हैं, आप निष्फल हैं, आपको यह करना चाहिए था, वह करना चाहिए था। अब, इस समय इस पर विजयी होने के लिए, आपको अपनी आशीषों पर आश्रित होना होगा। अपनी आशीषें एक-एक करके गिनें। आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ है। हजारों वर्षों में कितने लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ? आपको अपने स्पंदन मिले हैं। इतनी शताब्दियों में कितने लोगों को यह प्राप्त हुआ? जैन ग्रंथों में लिखा है कि कुल मिलाकर 26 कश्यप (साक्षात्कार प्राप्त आत्माएँ) हुए। तो, बुद्ध के बाद भी, कितनों को आत्मसाक्षात्कार मिला? आपको भगवान का भी धन्यवादी होना चाहिए कि इतने सारे साक्षात्कारी लोग हैं, वे एक ही बात कहते हैं। और आपको स्वयं का भी धन्यवाद करना चाहिए, कि आपको सब कुछ ज्ञात हो सकता है। लेकिन जब आप बाईं ओर पकड़ने लगते हैं, आप भूत में चले जाते हैं और आप सोचने लगते हैं, सोचते हैं और आप कहने लगते हैं, "हे भगवान? मैं कितना निष्फल हूँ, मैं किसी काम का नहीं हूँ। मैं इतना निष्फल हूँ कि मैं अभी भी पकड़ रहा हूँ।" जैसा कि आप जानते हैं, जिन लोगों में बाईं ओर पकड़ होती है, वे हमेशा शिकायत करते हैं, हमेशा असंतुष्ट रहते हैं क्योंकि वे, बेचारे दुःख झेलते हैं। अब इसका संतुलित करने के लिए, अगर मैं आपसे कहूँ कि आप दूसरी ओर जाएँ, तो यह बहुत ही खतरनाक खेल है। उदाहरण के लिए, हमारे जीवन में कई प्रकार की शर्तें होती हैं। देखिए, पहली बात यह है कि हमारी इच्छा यह होनी चाहिए कि हम उत्कृष्ट सहज योगी बनें, मास्टर गुरु बनें और कुछ महान ये या वो बनें। हमारे बहुत से शिष्य हों, जो हमारे चरण स्पर्श करें, और हमें महान गुरु कहा जाए आदि।

तो, सहज योग में कुछ चीजें निषिद्ध हैं, कि कोई भी सहज योगी किसी के भी चरण नहीं छूए, और न ही कोई सहज योगी किसी को अपने चरण छूने दे। यह सभी सहज योगियों के लिए एक बड़ा बंधन है कि कोई भी एक-दूसरे के चरण न छुए, और न ही कोई आपके चरण छुए, चाहे आपकी योग्यता कुछ भी हो। जो चरण छुएगा, वह अपनी स्पंदनाएँ खो देगा, और जो सम्मान स्वीकार करेगा, वह भी पकड़ में आ जाएगा; वे हृदय पर पकड़ लेंगे। तो, इस प्रकार की शर्तें, जो सहज योग में हैं उन्हें हटाया जाना चाहिए। हम सब साथ बढ़ रहे हैं। हम सब एक ही व्यक्तित्व का अंग हैं। सभी समान हैं, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। जो भी थोड़ा सा भी इस तरह सोचता है, इस तरह और अधिक नीचे जाएगा।

यह बाईं ओर की शर्तें हैं, जहां लोग अत्यधिक लड़खड़ाते हैं। इसलिए, ऐसी इच्छाओं को सहज योग में त्याग देना चाहिए। आपकी इच्छाएँ सहज योग में व्यापक होनी चाहिए, कि हम सभी को जितने अधिक लोग संभव हो, आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करें। हमें अधिक से अधिक लोगों को बचाने का प्रयास करना चाहिए, जहां तक संभव हो। हमें स्वयं को जितना कर सकें सुधारना चाहिए, और हम अभी कुछ भी नहीं हैं। लेकिन हम सुधर सकते हैं और यदि आप इन दोनों बातों को हर समय लागू करें, तो यह हो सकेगा। जैसे जब आपको महसूस हो कि आपको कहना चाहिए, "नहीं, यह कैसे हो सकता है?" ज्यादातर बाईं ओर के लोग वास्तव में अत्यधिक तिरस्कृत किए गए होते हैं। अब, विचार बाईं ओर से भी आ सकते हैं। अब जब आप दाईं ओर आते हैं जैसे, यदि आपके सिर में कुछ भूत हैं, तो वे आपको यह विचार दे सकते हैं कि, "ओह, तुम बेकार हो, किसी काम के नहीं हो।" अब, अपनी दाहिनी साइड को उठाईये और बाईं ओर नीचे करें।

अब हम ऐसा क्यों करते हैं? क्योंकि दायां पक्ष देने वाला पक्ष है और इसी कारण यहाँ आपको कृपा मिलती है, और बाईं ओर को नीचे करते हैं। ऐसे लोग जो बाईं ओर से पीड़ित होते हैं, उन्हें यह आज़माना चाहिए। एक और बात यह है कि, सबसे पहले आपको ऐसे अवधारणा या विचार आते हैं कि "तुम किसी काम के नहीं हो" वगैरह। बेहतर होगा कि खुद को जूते से मारें। जाओ और परमात्मा की स्तुति गाओ और कहो कि मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे चारों ओर सब कुछ है। तो, तुम्हारे पास सब कुछ होता है।

अब, दूसरी बात दाईं ओर के बारे में है। दाईं ओर, ज्यादातर आप स्वाधिष्ठान पर पकड़ते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आप सोचते हैं। यह एक और प्रकार की सोच है जो आपको दाएँ स्वाधिष्ठान पर पकड़ देती है। इसमें हम सोचते हैं, चाहे यह बाईं ओर से आए या दाईं ओर से, यह सबसे पहले आपके लीवर की समस्या बनती है। और सबसे बुरा तब होता है जब दोनों पक्ष शामिल होते हैं। ऐसे कुछ भूत होते हैं जो आपको यह विचार देते हैं कि, "ओह! तुम किसी काम के नहीं हो," वगैरह। और फिर आप यह सोचने लगते हैं कि, "ओह! मैं कितना महान हूँ।" और ऐसी लड़खड़ाहट शुरू हो जाती है और भ्रम पैदा होने लगता है। तो, एक बात समझ लेनी चाहिए कि सहज योग में आपको उस तीव्र धार को विकसित करना होगा, वह केंद्रीय बिंदु जिससे आप न तो दाएँ हटें और न ही बाएँ। यह इतनी सूक्ष्म चीज है कि यदि आप बाएँ पक्ष में हैं, पर आप हमेशा बाएँ नहीं रहेंगे। आप कल दाएँ पक्ष में आ सकते हैं। वास्तव में, कल आप ही एक दाएँ पक्ष की समस्या लेकर आ सकते हैं। तो, आपको संतुलन बनाना सीखना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे आप साइकिल चलाना सीखते हैं, तो आप इधर या उधर गिर सकते हैं।

अब, आप साइकिल कब चलाना सीखते हैं? यदि कोई मुझसे पूछे, तो मैं कहूँगी, "जब आप सीखते हैं।" मेरा मतलब है, जब आप बिना गिरे साइकिल चलाते हैं, तो आप सीख जाते हैं। इसलिए, सहज योग में संतुलन बनाने के लिए, आपको खुद पर ध्यान देना होगा। अब, यह कहाँ जाता है, बाईं ओर? ठीक है तो दाईं ओर आओ; अब केंद्र में आइए, आप बस खुद को अलग कर लें, खुद को हर समय अलग रखें, न तो खुद की आलोचना करें और न ही किसी और पर आक्रमण करें या उनकी आलोचना करें। लेकिन इस बिंदु का उपयोग केवल स्वयं का अवलोकन और मार्गदर्शन करने के लिए करें; मार्गदर्शन अलग चीज़ है और खो जाना अलग। अब यही बात है। जब कोई निर्जीव चीज़ खो जाती है, मान लीजिए कि यहाँ एक निर्जीव चीज़ है। मान लीजिए कि यह मृत है, मैं उसे फेंक दूँ, तो वह वहीं गिरेगी जहाँ मैंने उसे फेंका है। लेकिन अगर वह चीज़ जीवित हो तो? यदि मैं उसे फैंकती हूँ, तो वह जहां मैंने फैंका है वहाँ नहीं गिरेगी। जीवित शक्ति जानती है कि खुद को कैसे मार्गदर्शित करना है; किसी का अनुसरण नहीं करती। उसी तरह यदि आप जीवित शक्ति हैं, तो आप सीख जाएँगे कि खुद को कैसे मार्गदर्शित करना है। यदि आपने इसे सीख लिया, तो आपने सहज योग में महारत हासिल कर ली।

अपने को दोष देने का कोई फ़ायदा नहीं, न ही खुद को बड़ा या छोटा मानने का। लेकिन, अब देखें कि घोड़ा कहाँ जा रहा है, आप घोड़े के ऊपर बैठे हैं; अब आप घोड़ा नहीं हैं। साक्षात्कार से पहले, आप ही घोड़ा थे। जहाँ भी घोड़ा आपको ले जाता, आप वहीं जाते। अगर उसे घास दिखती, तो वह उसे खाने लगता। क्या आप भी घास खाएँगे? अगर घोड़ा किसी को लात मारना चाहे, तो आप घोड़े को लात मारेंगे। अब घोड़े नहीं, घोड़े पर सवार हैं। अब आप घुड़सवार हैं और आपको जानना चाहिए कि आपको किस प्रकार इन चीजों द्वारा मूर्ख बनाया गया है। ये सब पुरानी इच्छाएँ हैं, जो आपके द्वारा ही प्रकट की गई हैं। और यह आक्रामकता, यह आपके कर्म भी पूर्वकालिक होना ही दर्शाते हैं, क्योंकि ऐसा करके आप कुछ यह या वो प्राप्त करेंगे। और जब कई लोग कहेंगे, "माँ, हम इतना सहज योग कर रहे हैं, फिर भी हमने कुछ हासिल नहीं किया।" अब हृदय। अगर लोगों का हृदय पकड़ रहा है, तो ऐसे लोग कभी आगे नहीं बढ़ सकते। जबकि हृदय ही प्रकाश का स्रोत है, हृदय ही ब्रह्म शक्ति का स्रोत है। हृदय आत्मा का निवास है। अगर आपका हृदय प्रकाशित नहीं हुआ, जबकि हृदय ही जीवित शक्ति है, तो आप कैसे आगे बढ़ सकते हैं?

तो पहले अपने हृदय को शुद्ध करें। मैं कहूँगी कि कई लोगों में अलग-अलग प्रकार की शक्तियाँ होती हैं। कुछ लोग केवल दूसरों के कहे पे चलते हैं; किसी ने कह दिया, पीछे चल पड़े। बस हो गया। यदि कुछ ऐसे लोग हैं जो सब कुछ खुल कर बता देते हैं, तो वो गलत हैं। आप उनकी नहीं सुनते। ऐसा ही है। आपको समझना चाहिए कि क्या चुनना है। सहज योग को यही आपको सिखाना चाहिए। आपको उस हद तक परिपक्व होना चाहिए, ताकि आप जान सकें कि कहाँ क्या करना है। यही लक्ष्य है। तब आप कुछ माँगते नहीं। तब कुछ माँगते नहीं; किसी समस्या का निराकरण हो, आप बस उसे स्वयं करते हैं।

आपने पहली बार अपने मित्र से कहा, "मुझे पता होना चाहिए कि मैं क्या कर रहा हूँ।" मुझे पता होना चाहिए कि क्या सही है। मुझे पता होना चाहिए कि इसे कैसे करना है। मुझे पता होना चाहिए। "मैं" अब कोई स्थिति नहीं है, हो ही नहीं सकती; न अहंकार बचा है, न प्रतिअहंकार ही है, अब केवल आत्मा है। और आप पाते हैं कि कितने ही साक्षात्कारी बच्चे हैं? वे बहुत सारे हैं। न अब अहंकार है, न प्रतिअहंकार है, अब केवल आत्मा है जोकि आपका मार्गदर्शन करती है। और अब आपके कोई प्रश्न नहीं हैं; वे जानते हैं कि कौन बेवकूफ है, कौन मूर्ख है, कौन मूर्खतापूर्ण बात करता है; वे जानते हैं कौन पकड़ा हुआ है।

वे साक्षात्कारी आत्माएँ हैं। वे इतने गहन हैं कि उनके कोई प्रश्न ही नहीं हैं। वे जानते हैं कि कौन मूर्खतापूर्ण प्रश्न कर रहा है, कौन मूर्ख है, कौन नासमझी की बातें कर रहा है। वे जानते हैं कि कौन पकड़ा हुआ है, वे जानते हैं कि किसे चुप कराना चाहिए, किससे बहस करनी चाहिए। वो आपको जानते हैं। वे पकड़े हुए लोगों से सहानुभूति नहीं रखते। नहीं, वे बस देखते हैं। यदि कोई आता है, तो वे बस कहेंगे, “उसके पास क्या है, यह व्यक्ति पकड़ा हुआ है।" बस इतना ही। कोई यदि आता है, आने दो वह ठीक है। बस इतना ही। यदि कोई आता है, आप देखिए, आनंद लीजिए – बस हो गया। उनकी निरन्तरता बनी रहती है। वे किसी से द्वेष नहीं रखते, किसी चीज़ की चिंता नहीं करते, बस बैठे रहते हैं। यदि कोई बुरी ऊर्जा लेकर आता है, तो हम बस कहते हैं, "उसे जाने दो।" बेहतर होगा कि वह ठीक हो जाए, बस इतना ही। व्यक्ति के बारे में किसी भी दुर्भावना के बिना। एक बार जब आप पहाड़ की चोटी पर पहुँच जाते हैं, तो आपको नीचे की ट्रैफ़िक की चिंता नहीं होती। लेकिन आप अभी चोटी पर नहीं पहुँचे हैं, इसलिए आप चिंता करते हैं, और सोचते हैं कि मैं यहां से चढ़ और गिर रहा हूं। लेकिन यह पूरी बात सिर्फ एक मानसिक भ्रम है। यह एक विचार है; आप पहाड़ी की चोटी पर हैं, लेकिन आपका उत्थान नहीं हुआ है। उदगम नहीं है।

[Hindi transcription]

आपको बिराजन चाहिये, बिराजिये! आसन पर बिठा दिया। आसन पर बैठ के वो भीख माँग रहे हैं। आसन के बगैर सब रो रहे हैं। आसन पर बैठ के सब पागलपन कर रहे हैं। क्या किया जाये, अरे भई आसन पे विराजो! आप राजा साहब हैं, बेठिए। और अपनी पांचों उंगलियों को आप ऑर्डर कीजिए।

जनाब! अब आप बैठिए, चलिये, बहुत हो गया। अब यह ठीक है, अब वो ठीक है; अब वो बहुत समझ लिया आपने, जब आप अपने को इस तरह से कमांड मैं कर लेंगे, जब आप अपने को पूरी तरह से कंट्रोल कर लेंगे तभी तो न आप सच्चे सहज योगी हैं। नहीं तो आप कहेंगे बैठे बैठे हमारे लिए ऐसे जैसे और लोग कहते हैं,”चलो भई माता जी क्या करूँ, कितना मन को रोकता हूँ, फ़िर अंदर जाता है।“ फ़िर मन क्या है? मन एक लिविंग फोर्स है, जाएगा ही, जाने दो, एक लिविंग फोर्स है, उसी जगह जाएगा जहां उसे जाना है। सारे, जरूरी है, हमारे गुण जाग्रत करने के लिए और जब जागर्त हो जाएँगे बहुत से चीजें हम छोड़ते चले जाएँगे, छोड़ते, छोड़ते चले जाएँगे। छोड़ दो उनको, छोड़े बगैर नहीं होगा। और ईंन सब चीजों में आपको एक ही ध्यान में रखना है कि हमारा हृदय स्वच्छ हो, स्वच्छ हो। जो स्वच्छ हृदय के लोग होते हैं, उनको प्रॉबलम कम होती है। इसका मतलब यही है कि आपकी गंदगी साफ हो, स्वच्छ का मतलब है समर्पण सहज योग में अगर समर्पण में कमी हो जाएगी या फ़िर में विशेष हूँ, ऐसा समझ लिया जाये तो उस आदमी में दोष होंगे। उसके लिए कोई पढ़े लिखे नहीं चाहिये, उसके लिए कोई विशेष रूप से लोग नहीं चाहिये। मुझे अगर यह नहीं हुआ, मुझे कोई अनुभूति नहीं हुई; मतलब दोष आपका है कि सहज योग का है?

लोग तो इस तरह से कभी कभी मुझ से बात करते हैं कि जैसे कि मैने ठेका ही ले रखा हो। कहते कि हमारे लिए आप ने कुछ नहीं किया, मेरा तो दिमाग खराब हो गया। मेरी माँ! हम तो आपके पास पच्चीस साल से आ रहे हैं। अभी तक ये पच्चीस, पच्चीस। लेकिन तुम्हारा कुछ होने नहीं वाला, मैं करूँ क्या? तो इसलिए अगर नहीं हो रहा है, तो मतलब आपके अंदर ही कुछ गड़बड़ है। लेकिन जैसे ही आप अपने को हटाना शुरू कर देते हैं, आपको अपने दोष मिल जाएँगे। और जैसे ही दिखाई देंगे आपको; राजेश यह देखो राजा साहब हैं। बैठे हैं सिंहासन पर, उनको दिखाई दिया भई मेरे कोई प्रजा जन हैं और वो गड़बड़ कर रहे हैं, चुप रहिये; ऐसा नहीं चलने वाला।

ये नहीं, ऐसा करो, वैसा करो अपने को पूरी तरह से संभालना आदमी को आना चाहिये; बेशक वे शक्तशाली हैं, तो उनसे बातचित करनी पड़ेगी। यह होगा स्वभाव। छोटी सी बात बातचीत में भी बात बनती है। हमें आपसे बात करना है, हम देखते हैं। उनको ख्याल ही नहीं रहता कि किससे बात कर रहे हैं; करने में भी ऐसी बात करते हैं कि बड़ा आश्चर्य होता है। इसका अंदाज नहीं रह गया है कि हमें क्या कहना चाहिये, क्या नहीं कहना चाहिए। हमारी जुबान पे काबू होना चाहिये; वो काबू भी तभी होगा जब आप अपने से हटे हुए देखेंगे कि यह जो जुबान है ना, वो ठीक है। यह भी लोग यही आप नहीं करते।, में करूँ तो क्या करूँ? नया अंदाज है, और फ़िर आप किसको ऑर्डर दे रहे हैं। चलिये अब आप, हमेशा की तरह चलिये, पार आदमी होता है वो हमेशा प्रसन्न चित्त रहता है, हमेशा प्रसन्न। चलिए, आपको चलना है, चलिये आप, वहाँ बैठिए। बच्चे तक [अस्पष्ट] यह निर्मला अब जाने वाली नहीं है, ये अब यहीं बैठी है, Third Person में बात करते हैं।

सहज योगियों को भी इस तरह से बातचीत करनी चाहिये। धीरे धीरे अपने को अपने से हटा लेना चाहिये। अपनी जो इच्छाएं हैं, अपने जो आइडियाज हैं, बचे हुई कुछ इच्छाएँ हैं या और कोई आइडियाज जो हैं हमारे, कब तक कहेंगे आप, यह करना चाहिये, वो करना चाहिये, यह सब छोड़ कर के हमें यह सोचना चाहिये कि सहज योग के लिए हमें क्या करना है। क्या करें सहज योग के लिए।

अभी भी हिंदुस्तान में यह चीज बहुत कम है, परदेस में बहुत ज्यादा है। वो लोग कभी यह नहीं मेरे से आकर कहते कि मेरे बाप के नाना का दादा का सगा भाई ठीक नहीं होता। इसको माता जी आप ठीक कर दीजिए। बहुत हो गया, इसलिए कभी भी अपने मैटीरियल चीजों की एक बार भी उन्होंने नहीं कहा। कभी भी नहीं, या nothing यह मेटेरियलिस्टिक प्रॉबलम है, या कुछ कभी भी नहीं। वे निश्चिंत प्रतीत होते हैं। हालांकि ... ... ...उनकी आँखों में भी देखिये, इतनी एकाग्रता; एक एक शब्द हिन्दी में भी बोलेंगे तो पूरे ध्यान से सुनेंगे। कुछ सुनाई नहीं देता, अरे! उनके इसमें कैसे वायब्रेशन्स निकल रहे हैं, हाथ में कैसे वायब्रेशन्स आ रहे हैं। कौन से वायबरेशन्स ठीक करने हैं, क्या चीज की खराबी है? [अस्पष्ट] सारा जीवन देखिये उन्होंने सहज योग के लिए दे दिया; और कोई चीज नहीं दे सकते। अब चलो यह भी कर लेंगे, वो भी कर लेंगे; सारा जीवन सहज योग को दे देने से ही आप पनपते हैं। यह भी बात आपसे कहना है। इसमें आपको कुछ लेना देना तो है नहीं। कोई आपकी कमी नहीं हो जाती। सब जीवन ही सहज योग को देना चाहिये, एक एक क्षण क्षण सहज योग को देना चाहिये। सहज का मतलब यह है कि सपोनटेनियस काम करना; सपोनटेनियस- कभी भी, कोई सा भी। सहजयोग जीवंत परमानांद शक्ति है। और तब आपको सोचना भी नहीं [अस्पष्ट] क्योंकि आप लोग अभी भी भोग नहीं सकते, भोगने वाले तो सिर्फ पर्मात्मा है; आप कोई चीज़ का भोग नहीं सकते हैं, आपको गलत फहमी है कि आप चीज़ को भोग रहे हैं; आप भोग ही नहीं सकते। भोक्ता भी पर्मात्मा है और वही रचियता है और वही [अस्पष्ट ‘रचना भी’]

आप अब आपके कोई प्रश्न हों तो पूछिए।

[साधक कुछ प्रश्न पूछते हैं]

श्री माताजी: मैंने उनसे कहा कि आनंद क्या है। [अस्पष्ट] आप केवल भगवान का ही आनंद ले सकते हैं, और वही सबसे महान चीज़ है जो आपने कभी देखी है, जो भगवान ने आपके लिए रचा है। [अस्पष्ट: आप इसके बारे में क्या कहने वाले हैं] उन्होंने आपको मानवीय चेतना दी है जिससे आप जान सकते हैं कि उन्होंने कितना किया है, आपके लिए कितना परिश्रम किया है, आपको इस स्तर तक कैसे लाया है, जो उन्होंने आपको दिया है, आप उसे दूसरों को दे सकते हैं, दूसरों को खुश कर सकते हैं। अगर आप इस तरह से लेंगे, तो आप तुरंत उस ज्ञान को जान लेंगे। बैठिए।

[अस्पष्ट: लगता है कोई साधक प्रश्न कर रहा है।]

श्री माता जी: बाएँ हृदय से दाएँ, लेफ्ट हार्ट क्यों हो रहा है? क्योंकि परमात्मा के पास तो समय ही नहीं है [अस्पष्ट], उनको तो धन्यवाद!

सहजयोगी: माँ! डिप्रेशन का सवाल

गिल्ट न होने पर भी क्यों आता है?

श्री माताजी: गिल्ट के बिना..?

सहजयोगी: दोषी महसूस किए बिना।

श्री माताजी: देखो, पहले उसने मुझसे सवाल पूछा, "दोषी महसूस किए बिना डिप्रेशन क्यों होता है?" अगर कोई बाधित हो जाए, तो आपको लगता है कि बाधा आ गई है, लेकिन किसी तरह आप संतुलन में नहीं आ पाते। जो अलगाव की बात करते हैं, आपको कुछ समय के लिए अलगाव की जरूरत है; आप भाइयों को सहज योग में भाग लेने की अनुमति देते हैं। सहज योग का नहीं सुनते आप बड़े शौक से ? [अस्पष्ट], फ़िर किसकी सुनते हैं?

[अस्पष्ट:"सहज योगियों से कुछ वार्तालाप"]

[अस्पष्ट:"सहज योगियों से कुछ वार्तालाप"]

बड़ा आश्चर्य क्योंकि ग्रंथ साहब में सारे रियलाइज्ड सोल [अस्पष्ट: की चीज लिखी हुई है] यहाँ रोना तो है ही है। इसमें तो कोई संशय नहीं है; यहाँ डिप्रेशन जरूर होता होगा, इसलिए सब बेवकूफों जैसे उनको पढ़ रहे हैं, कुछ करते नहीं [अस्पष्ट]। वैसे तो गुरुद्वारे में, ग्रंथ साहब में कोई भी ऐसा नहीं है जो खास चीज नानक साहब में है, पर उन्होंने सारे रियालाइज्ड सोलज को ही, कबीर क्या, जहां भी उनको मिले चाहे कबीर हों, चाहे नागदे हों, कोई भी हों; सब को उन्होंने सारे रियलाइज्ड सोलज को मिला कर ग्रंथ साहब बनाया है। लेकिन वो जो पढ़ने वाले हैं वो ही डिप्रेसीव होयेंगे, उसको क्या किया जाये? सारा जिनका दिमाग खराब है सारे; भगवान बचाए! क्योंकि..[अस्पष्ट] और दूसरी चीज ऐसी जगह है वो जहां वो रियालाइज्ड सोल नहीं जानते, कुछ नहीं, बेवकूफ जैसे पढ़ रहे हैं। सारा सभी कुछ कहा है नानक साहब ने; उन्होंने तो कहा है खोजो अंदर क्या है, खोजो, ये सब पढ़ रहे हैं खोजो, खोजो, खोजों। [अस्पष्ट] इससे तो डिप्रेशन होना ही है, ऐसे लोगों के बीच में जाओगे तो। ऐसे लोगओं के बीच में रहोगे तो नहीं पार होओगे। इसे पा लिया, ऐसे में साथ रहने से आनंद समझे ना! क्या पूछो? [अस्पष्ट वार्तालाप] अच्छा पूछिए, भाई पूछिए!

[अस्पष्ट वार्तालाप]

क्यों, कहाँ जा रहे हो?

साधक: [अस्पष्ट]

श्री माताजी: "आँह"

साधक: [अस्पष्ट]

श्री माताजी: क्या तुम यहीं हो?

साधक: [अस्पष्ट]

श्री माताजी: तुम जाओ।

तुम स्टाफ में आना चाहते हो।

साधक: स्टाफ! [अस्पष्ट] ... ... तुम घर आ सकते हो।

श्री माताजी: क्या तुम यहीं हो?

साधक: [अस्पष्ट]

श्री माताजी: हाँ, मैं घर आऊँगी।

साधक: "आँह!"

मैं स्टाफ के बाद थोड़ा देर से आऊँगी।

साधक: मैं आपको घर लाऊँगा।

श्री माताजी: "आँह!"

साधक: मैं आपको घर लाऊँगा।

दूसरे साधक: [अस्पष्ट]

ब्रह्मा जी, ब्रह्मा जी!

[अस्पष्ट वार्तालाप]

श्री माता जी: सब सवेरे मिलेंगे।

सहज योगी: माता जी खाना खा के आएँगे!

श्री माता जी: अच्छा।

यह जो हमारी लेफ्ट साइड से ज्यादा [अस्पष्ट] है, समझे न आप। लेफ्ट साइड को अंदर करिए, राइट साइड को बाहर। रात में ज्यादा बाहर नहीं घूमना चाहिये। दूसरी बात यह है कि जैसे मृत आत्माओं की बातें सुनना, यह सब नहीं [अस्पष्ट....] गहराई तक देखो, बड़ा अच्छा है। डराने वाली चीजें, वगैहरा, बहुत शक्तिशाली हैं, बचना चाहिये इससे। बड़ा आश्चर्य है, इसमें तो रियलाइज्ड सोलज के द्वारा सारा सीन ऐसे दिखा और उसमें लिखा है पौज़ेशन कैसा होता है, डिप्रेशन कैसा होता है, क्या करता है। क्या है, डिप्रेशन इससे भी आता है कि व्यक्ति बाधाग्रस्त हो जाता है। यह सब से बुरा है। [उसके लिए हमारे पास सहज योग में 'अश्रव्य ......'] है, 'बाहर' नहीं। ‘सहज’ इसके लिए सहज योग में [अस्पष्ट] है, न कि 'सहज से कहीं और'। इस तरह से लेफ्ट साइड में अपने हाथ रखिए और राइट साइड बाहर की ओर रखिए। सब कुछ लिखा हुआ है, तो आपको सेंटर में आना चाहिये; उस वजह से आपका [अस्पष्ट] Correction mode में जो सहज योग में लिखा है [अस्पष्ट] यह रोज़ करना चाहिए, पैरों को धोना रोज़ करना चाहिए; यह केवल स्नान से भी अधिक महत्वपूर्ण है। यह बहुत अधिक महत्वपूर्ण है, जैसे कि यह एक स्नान है, रोज़ आपको इसे करना ही है।

[अस्पष्ट वार्तालाप]

श्री माता जी: ठीक है!

सहज योगी: माँ! ऐसे ही एक पूछना है।

श्री माता जी: क्या?

सहज योगी: आपसे एक सवाल पूछना है।

श्री माता जी: क्या?

फ़ायदा हो सकता है तो अलग-अलग...

श्री माता जी: हाँ, करना चाहिये।

तो अलग-अलग चक्रों के लिए आसन करने के लिए बता दें।

श्री माता जी: देखिये सहज योग जो है वो अंदर से बाहर आता है, बाहर से अंदर नहीं।

समझे ना।

सहज योगी: अच्छा!

श्री माता जी: आप अपने पहले चक्रों को ठीक करिए, फ़िर अपने mind पर आइए। पहले अपने mind को देखिये; जब तक अपने शारीरिक तरह से अपने चक्रों को ठीक नहीं कर लिया तो वो ठीक नहीं हो पाएगा। तो फ़िर जो जीवंत है, उसको सोचिए ना! अंदर से जो साथ चढ़ता है इसी से सब शक्ति चारों तरफ फैलती है; अब बाहर का आपने वात अच्छा नहीं कर लिया तो क्या फ़ायदा, अंदर से अगर [अस्पष्ट: कीड़ा चढ़ा तो कीड़ा कैसे] इसलिए आसन को मैं इससे ज़्यादा नहीं बताती। सब, क्या आसन है, नहीं तो सब लोग आसन ही लगा लेते; मैंने देखा कि किसी को एक आसन बताया है वही वो कर रहा है, अरे मैंने कहा तुम्हारा [अस्पष्ट: अब हो गया], अब काहे को कर रहे हो। इसलिए आसन को मैं बहुत ज्यादा जोर नहीं देती। असल में हमारे अंदर tendency है कि हमें कुछ करना जरूर चाहिए। अगर हम कहते हैं आप रोज सर के बल खड़े रहिये तो सर फोड़ने से अच्छा आप लोग बस सत्य पे बस खड़े जरूर रहिये। कुछ न कुछ मनुष्य को ये ऐसा कि कुछ करना चाहिये। कुछ नहीं होना तो पंखे में लटक जाओ। हम लोग शांति से पाँच मिनिट नहीं बैठ सकते, यह दुर्दशा है। अब अगर में आसन बताऊँगी तो थोड़ी दिन में देखना सब मेरे सामने सब कला बाजी कर रहे होंगे। इसलिए बैटर है बाबा मेडिटेट करलो, हमें कोई आसन कि जरूरत नहीं। इस तरह कहें आसन करने से बस क्या होता है, नहीं तो मैंने देखा है लोगों को, मैंने उनको बर्हस्तिका बताया तो ध्यान टूटता है। लोगों को [अस्पष्ट: ध्यान करते] उनको देखा, मैंने कहा भई ये ध्यान हो रहा है या ये सब हो रहा है। थोड़ा आता है अगर तो भी ध्यान [अस्पष्ट] आता है; तो यह सब है, यहाँ तो यहाँ तक कि बंधन, बंधन भी देने का करिश्मा होता है जब आप ध्यान में बैठें तो आप अपना माईंड सेट रख सकें, यह तो सब बाह्य ही हैं, बंधन; आप बोल रहे हैं, लोग अपने चले। [अस्पष्ट] पहले माईंड ठीक कर लीजिए; आप कम्प्लेनिंग अगर हैं तो आपका माईंड ठीक होना चाहिए। अगर आप ऐगरेसिव हैं, आपका माईंड ठीक होना चाहिए। माईंड को पहले ठीक करिए, माईंड तो पहले, माईंड से सब चीज आती है, माईंड का आप काबू करिए। वो तो वाकई अगर आपका हाथ टूट गया या पैर टूट गया है, वो तो आप ठीक करा लेंगे। पर अभी तो वो भी कुंडलिनी ठीक कर देगी। इसलिए आसन को अपने सेंटर में ज्यादा नहीं रखना चाहिये, पहले ईश्वर का ध्यान, पहले ईश्वर को पा लेना; ईश्वर की शक्ति को छोड़ देना, कुछ आपको अजीब सा नहीं लगता है यह आसन-वासन लेके। अजीब सा नहीं लगता।

जैसे एक साहब, तो कहने लगे कि मेरा प्लेन छूट गया, [अस्पष्ट] अब वो आये, और हमारे यहाँ सोये ड्राइंग रूम में। कहने लगे, में तो बड़ा भारी योगी हूँ। मैंने कहा अच्छा, अब क्या करें, कहे कि मैं तो तख्त पे सोता हूँ। मैंने कहा कि तख्त-वख्त तो नहीं हमारे यहाँ, ये दीवान सा है, इस पर सो जाइए आप, आराम से सो जाइए। कहे कि मैं तो ऐसी वैसी चीज पर नहीं सोता, तो मैंने कहा कि जमीन पर सो जाइए, आपकी जैसी इच्छा वैसे कीजिए। उन्होंने कहा कि चार बजे उठा देना। उन्हें कहा भैया उठा देंगे, मेरी बीबी चार बजे उठती हैं, उठा देंगे आपको, सोइए आप तो।

अब आप दूसरों के लिए न्यूसेंस जब आप करते हैं [अस्पष्ट], [अस्पष्ट] किसी के यहाँ आप जाइए [अस्पष्ट] क्या हुआ? कि देखा कि चार तो क्या पाँच बज रहे हैं! मैंने कहा हुआ क्या? साहब कहने लगे कि जैसे ही मैं अंदर गया तो देखा कि ऐसे पड़े हुए हैं! [अस्पष्ट] कि क्या करूँ? मैंने कहा कि छोड़िए, अच्छा हुआ कि नहीं पूछा.. [अस्पष्ट] [अस्पष्ट] कहने लगे कि तो फिर क्या करने का, इसका क्या इलाज; मैंने कहा यही करिए और क्या, कहने लगे कि मैंने ऐसे छोड़ के देखा तो ऐसे बैठे बैठे बैठे बैठे [अस्पष्ट], समझ नहीं आये कि कुछ और बात है। पहले भी इसी [अस्पष्ट] [अस्पष्ट] ऐसी चीज नहीं न होनी चाहिये जो दूसरा देखे और [अस्पष्ट] [अस्पष्ट: ऐसा तमाशा], यह सब तामझाम करने की जरूरत नहीं [..अस्पष्ट] जैसे अपना सहज योग में कुंडलिनी ऊपर चढ़ के [अस्पष्ट]

अब देखिये एक साहब वो आसन करते थे, उनका छुड़ाते छुड़ाते बीस साल लग गये। जब भी प्रोग्राम में आते थे, कलाबाजी वो उनकी चालू हो जाती थी। जब भी उनको कहो हाथ ऊपर करो तो वो पैर ऐसे ऊपर करें। [अस्पष्ट] सहज योग जो है, एक शानदार चीज है। कहाँ कहाँ आप ये सब ढूंढ के ले आये, [अस्पष्ट] कोई से आसन की जरूरत नहीं, कौनसे आपके चक्र पकड़े हैं इसे आप समझिए।

सहज योगी: [अस्पष्ट]

श्री माता जी: हैं!

सहज योगी: कैसे नींद आएगी श्री माता जी! [अस्पष्ट]

श्री माता जी: हैं! [अस्पष्ट] मानो नींद आएगी, [अस्पष्ट] तो सुभावन मन की है, मन का, मन का, मन का छोड़ के मन का, मन का होय। मन का, मन का बैठा हुआ है। यहाँ से ढूंढ के लाये, वहाँ से ढूंढ के लाये, ये करो, वो करो; भई काहे को, क्यों कर रहे हो। आराम से आनंद उठाओ। मैंने पहले ही कहा कि तुमको भोगना परमात्मा के आग को है, और [ऑडियो ब्रेक]

जब मनुष्य का ये है कि उसको लेक्चर पूछा, ध्यान ही नहीं है तो वो फिर ठीक नहीं रहता। मैंने तो कुछ कुछ करा भी रही थी, वो मानते ही नहीं थे शुरुआत में। नहीं तो चुप चाप श्वास नीचे ले जाओ, ऊपर ले जाओ [अस्पष्ट]। जब तक उनके ऊपर कुछ आफत नहीं बन आएगी [अस्पष्ट]। आप अंदर आइए, बिराजिए! [अस्पष्ट]। यह कोई दावत है, आप दावत में हैं यह समझ लीजिए। जो दावत में से आके आसन करे तो लोग क्या कहेंगे? मजा करने के लिए है, आप मजे करिये। काहे के लिए आफत मचाये हैं, यह समझ में नहीं आती बात, वो आफत मचाने से ही [अस्पष्ट]। जिसके यह बात समझ मैं आ जाये, वो पार हो जाये। [अस्पष्ट]। [अस्पष्ट: वो लैंग साहब,.. ..] वह तो कुछ भी नहीं करने सकते, उन्होंने सारा रामायण पढ़ डाला, भागवत पढ़ डाला। कोई भी चीज उन्होंने तो छोड़ी नहीं, सब आफ़त कर चुके, सब कुछ कर चुके आप। कहा इस जन्म में क्या, उससे पूर्व जन्म मैं क्या, उससे पूर्व जन्म मैं क्या। अब उसका फल लेने का समय आया तो काहे को आसन कर रहे हैं। आप किसी को खाने को फल दे रहे हैं और वो [अस्पष्ट]।

योगी: श्री माता जी सुबह ध्यान में बैठने से पहले नहाने का?

श्री माता जी: नहीं जरूरी। नहाने कि जरूरत नहीं है, अगर आपके अपने शरीर की [अस्पष्ट: स्तिथि सही] हो तो बैठिए। नहीं हो सही तो नहा ही लीजिए, [अस्पष्ट]। नहाना धोना तो सब [अस्पष्ट], मन को नहलाईए। सबसे पहले तो मन साफ होना चाहिये। जो आदमी मन साफ कर रहा है, [अस्पष्ट] उससे पहले वो गंदगी भी, [अस्पष्ट]। एक बार [अस्पष्ट] कुछ कहा तो जुकाम हो जाएगा, मैंने कहा आप नहाईये। कहा अच्छा चलो, तीन नाम ले लीजिए, उनको विश्वास नहीं हुआ, जरा तीन नाम लिए नहीं, नाक में बदन में जरा भी बदबू नहीं [अस्पष्ट]। नहाने की क्या जरूरत, तीन दिन नहीं नहाते, तुम लोग नहीं नहाते [अस्पष्ट]।

सहज योगी: [अस्पष्ट]

श्री माता जी: हाँ!

सहज योगी: लोग एक एक महिना नहीं नहाते, वहाँ तो उनको कोई प्रॉब्लम नहीं होती।

श्री माता जी: हैं!

सहज योगी: जो लोग भी [अस्पष्ट वार्तालाप]।श्री माता जी: वो लोग कोई साफ सुथरे थोड़े ही ना हैं [अस्पष्ट], लोगों को तो रोज नहाना चाहिये। जिसको नहाना चाहिये वो वही लोग हैं। और अपने जैसे [अस्पष्ट]। मतलब नहाना धोना उसकी कोई भी जरूरत नहीं है, यह सारा एक्सट्रीम केस बता रही हूँ, लेकिन उनको तो रोज नहाना चाहिये, एक्सट्रीम [अस्पष्ट]। बहुत ही गंदे हैं, बहुत ही गंदे हैं, [अस्पष्ट], उनको पूछिए वो उनको थोड़े ही गंदे हैं, [अस्पष्ट: वो तो सोच रहे कि अच्छे हैं]। उनको वायब्रेशन्स आना होगा तो होगा, हमको नहीं होगा तो होगा। बहुत गंदे लोग हैं, बहुत बास आती है, मैं तो उनको छ: छ: वक्त बार हाथ धुलवाती हूँ। वो वाशरूम जाते हैं, उसके बाद हाथ ही नहीं धोते; क्या, बहुत गंदे हैं ये लोग। सब क्या ये लोग [अस्पष्ट], ईंन लोगों को बहुत करी; हम लोगों को कलेक्टिव में घर की गंदगी हो कूड़े में डालो, बाहर से साफ होना चाहिए। खुद नहायेंगे, दूसरा बच्चा है उसके [अस्पष्ट]। वहाँ बहुत सर्दी है, उनमें बहुत ज्यादा है। बाहर को ज्यादा साफ रखेंगे और अंदर कम साफ रखेंगे। जो भी चीज है... गंदी। नहाने धोने से शरीर में जरा स्फूर्ति आती है, लेकिन जरूरी नहीं कि आप नहायें नहीं तो आप ध्यान ही नहीं करेंगे। यही चीज मैं कहती हूँ [अस्पष्ट]। जब यह आ जाता है, नहा लिए तो नहा लिए, एक दिन नहीं नहाये तो क्या? कोई चीज आपसे ऊपर नहीं, सब चीज आपसे नीचे है। नहाए तो ठीक है [अस्पष्ट], उनका सुना तुमने किस्सा?

New Delhi (India)

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