Mooladhar, Swadishthan-Sakar Nirakar ka bhed

Mooladhar, Swadishthan-Sakar Nirakar ka bhed 1983-01-30

Location
Talk duration
79'
Category
Public Program
Spoken Language
English, Hindi

Current language: Hindi, list all talks in: Hindi

The post is also available in: English.

30 जनवरी 1983

Public Program

New Delhi (भारत)

Talk Language: English, Hindi | Transcript (Hindi) - Draft

मूलाधार, स्वाधिष्ठान - साकार निराकार का भेद ३०.०१.१९८३

दिल्ली परमात्मा के बारे में अगर कोई भी बात करता है इस आज कल की दुनिया में तो लोग सोचते हैं कि एक मनोरंजन का साधन है। इससे सिर्फ मनोरंजन हो सकता है । परमात्मा के नाम की कोई चीज़ तो हो ही नहीं सकती है सिर्फ मनोरंजन मात्र के लिए ठीक है। अब बूढ़े हो गये हमारे दादा-दादी तो ठीक है, मंदिर में जाकर के बैठते हैं और अपना समय बिताने का एक अच्छा तरीका है, घर में बैठ कर बहु को सताने से अच्छा है कि मंदिरो में बैठे। इससे ज़्यादा मंदिर का कोई अर्थ अपने यहाँ आजकल के जमाने में नहीं लगाये। ये जो मंदिर में भगवान बैठे हैं इनका भी उपयोग यही लोग समझते हैं कि इनको जा कर अपना दुखड़ा बतायें, ये तकलीफ है, वो तकलीफ है और वो सब ठीक हो जाना चाहिए। लेकिन ये मंदिर क्या हैं? इसके अन्दर बैठे भगवान क्या हैं? उनका हमारा क्या संबंध है और उनसे कैसे जोड़ना चाहिए संबंध? आदि चीज़ों के बारे में अभी भी बहुत काफी गुप्त हैं। अब ये बातें अनादि काल से होती आयीं हैं। आपको मालूम है कि इंद्र तक को आत्मसाक्षात्कार देना पड़ा, जो अनादि है । करते -करते ये बातें जब छठी सदी में, सबसे बड़े हिंदू धर्म के प्रवर्तक, आदि शंकराचार्य संसार में आयें तब उन्होंने खुली तौर से बातचीत शुरू कर दी। नहीं तो अपने यहाँ एक भक्तिमार्ग था और एक वेदों का तरीका था, जैसे कि गायत्री मंत्र आदि। जब जब कभी भक्ति में लोग बिल्कुल बेकार चले जाते थे तो चित्त खींचने के लिए ऐसे लोग आते थे कि जो कहते थे कि, 'छोड़िये मत' और अपना चित्त हटा कर के और निराकार में ले जाते थे क्योंकि साकार में तो कुछ बचा ही नहीं था और जब निराकार में बहुत बहकते थे तो उनसे कहते थे कि बाबा निराकार में कुछ फायदा नहीं होता है तो चलो साकार में चलें। लेकिन वो इधर से उधर, जैसे कोई पेंड्युलम चलता है वैसे था उनका हाल और इसीलिये इन दोनो चीज़ों से आदमी ये समझ गया कि इसमें भक्ति भी है और निराकार भी। ॐ कार भी है और कृष्ण भी है। उसके बगैर हिसाब-किताब बन नहीं सकता। सहजयोग में आप दोनों के दर्शन पाओगे। ब्रह्म के भी दर्शन पाते हैं। और इन सब देवताओं के भी दर्शन पाते हैं। ब्रह्म की शक्ति जो है ये परमात्मा के प्रेम की शक्ति है जो चारों तरफ विचरण करती है। और जितने भी जीवित कार्य इस संसार के हैं जैसे कि उनको सफल बनाना आदि । जितने भी जीवित कार्य है वो करती है। हमारे अन्दर भी वो कार्य करती है, जिसे हम पैरासिम्पथेटिक नर्वस सिस्टम कहते हैं। उसमें वो विचरण कर के और सधक करती है। ये तो ब्रह्म की शक्ति है और इस शक्ति को जानने के लिए हमारे अन्दर जो यंत्रणा परमात्मा ने की है, जो व्यवस्था परमात्मा ने की है वो बहुत कमाल की है और इस यंत्रणा को करने के लिए उन्होंने हमारे उत्क्रान्ति में हमारे शरीर ही के अन्दर अलग-अलग देवतायें बिठाये हैं। सबसे पहले तो श्रीगणेश बना है। श्रीगणेश पवित्रता हैं। सारे संसार को पहले पवित्रता से भर दिया। निराकार में गये तो वो पवित्रता से भर दिये और साकार में गये तो वो श्रीगणेश का है। जैसे ये अब आप देख रहें हैं जो जल रही है, इसका प्रकाश चारों तरफ है लेकिन इसकी ज्योत भी है और प्रकाश भी है। इसी प्रकार जो सबसे पहले चीज़़ बनी है वो श्रीगणेश बना है। जिनका प्रकाश चारों तरफ फैला हुआ है। अब किसीने अगर श्री गणेश जी को पकड़ लिया तो भी गलत हो गया और प्रकाश को पकड़ लिया तो वो भी गलत हो गया। क्योंकि जैसे मैंने पहले मर्तबा बताया था कि पहले तो उन्होंने बात की कि कौनसे कौनसे फूल हैं और फूल के अन्दर शहद है। तो लोग फूलों को चिपक गये कि 'फूलों को खोजो, फूलों को खोजो' बकना शुरू हो गया सब का। मतलब जबानी जमा करते थे शब्द जालम। बस बातें करना शुरू कर दी। तो उन्होंने कहा कि भाई, देखो ये फूल खोजने वाले जो हैं वो सब पगला गये हैं। फूलों की पूजा, फूलों के पीछे दौड़ना। और शहद की बात ही नहीं

करते। तो फिर उन्होंने कहा कि चलो भाई, शहद की बात शुरू करें। सब कितने बड़े-बड़े हो गये हैं वो हमारी भलाई के लिए ही एक में से निकाल के दूसरे में, दूसरे में से निकाल के इसमें ऐसा करके किसी तरह से अकल डाल दी । कभी निराकार की बात करो अलख निरंजन की बात हुई। वो बातें उन्होंने शुरू कर दी। पर वो भी बातचीत हो गयी। शहद की भी बात करो, प्रभु की भी बात करो, तो मधु पाईयेगा कैसे ? तो क्या होना चाहिए? आपको मधुकर होना चाहिए। आपको स्वयं बदलना पड़ेगा। आपमें आत्मसाक्षात्कार होना चाहिए। ये सब धर्मों में कहा गया है। जो कि अदल-बदल करने से थोड़ा दिमाग आदमी का ठनकता है। सोचता है कि चलो ये गलत चीज़ थी दूसरी चीज़ पकड़ लें। लेकिन सबने एक ही बात कही चाहे कितना भी अदलो-बदलो लेकिन एक चीज़ है कि आपका आत्मसाक्षात्कार होना चाहिए। किसने नहीं कहा ! इसामसीह ने कहा, कि में तो बिल्कुल ही मानी हुई चीज़ है कि द्विज, जिसका दूसरा जनम तुम्हारा फिर से जनम होना चाहिए। हिंदु धर्म होता है वही ब्राह्मण होता है, वही ब्रह्म को जानता है, यही साफ-साफ कहा हआ है। ठीक है कि उसके तौर-तरिके गलत लगाने से तो नहीं, पर सही बात में तो यही कहा गया है। नानक साहब ने कहा कि, अपने में खोजो। अपने को पहचाने बगैर आप परमात्मा को नहीं जान सकते। 'आत्मा को पाओ' उन्होंने यही कहा। अब सबने यही रट लगा के रखी है कि भाई, आत्मा को पाओ, दूसरी जनम करो । ईसामसीह ने कही वही बात । मोहम्मद साहब ने कहा है कि आपको 'फील' होना पड़ेगा। सबने जब एक ही बात कही है तो उधर ध्यान देना चाहिए कि सबने इसका अंतिम लक्ष्य एक ही बताया कि कितने भी चक्कर काटो लेकिन पहुँचना वहाँ। और उसका दिमागी जमा-खर्च बना रखा है सबने। उससे नहीं मिलने वाला। आदि शंकराचार्य जी ने भी यही कहा कि बाबा, दिमागी जमा-खर्च मत करो । अब सहजयोग में तो हम ये मानते हैं कि बुद्धदेव, जिन्होंने निराकार की बात की थी जिन्होंने ईश्वर की बात ही नहीं करी क्योंकि उन्होंने सोचा कि ईश्वर की बात करो तो यूँ ऊपर टंग जाती है। ये फिर अपनी सोचते नहीं है। ईश्वर की बात करो तो समझ लो कि सब अपने को ईश्वर समझने लग जाते हैं। बहत से लोग, जो सोचते हैं कि हम बिल्कुल निराकार हो गये। बहुत से लोग सोचते हैं कि हम ईश्वर हो गये। इन्सान का दिमाग ऐसा है कि किसीसे चिपका तो वही हो जाये। और जो असल में जो अंतस में है, आत्मा वो नहीं होता। तो इस तरह से जब चलने लगता है, इन्सान का स्वभाव अगर इससे चिपक उससे चिपक जाए, तो बुद्ध ने भी क्या कहा कि ईश्वर की बात ही नहीं करो तो अच्छा है। नहीं तो ये ईश्वर को जेब में जाए, डाल लेते हैं। और जब जरूरत है तो जेब से निकाला, 'ईश्वर, देख ये मेरा काम करना पड़ेगा!' अब वो कौन सा ईश्वर है भगवान जाने! जब अपने एक जनम में उन्होंने ईश्वर की बात नहीं की और उन्होंने कहा कि बस, चलो निराकार हो जाओ, छोड़ दो, बस आत्मसाक्षात्कार हो जाओ , उसका अब एक तमाशा बुद्धओं ने बना डाला। तो वही आदि शंकराचार्य करके फिर इस संसार में आयें। उन्होंने कहा भी कि, 'भाई, अब माँ की सेवा करो । इसके सिवाय कोई इलाज नहीं है। माँ की सेवा से ही पाओगे।' क्योंकि बोलना तो था कहीं आधे ही रह गया हो पिछली बार, पता नहीं । जितनी उन्होंने ईश्वर की बात शुरू कर दी, उनको भी लोगों ने सता दिया। यहाँ तक कि उनकी माँ मर गयी तो उनसे कहने लगे कि, 'तुम जला नहीं सकते।' तो केले के पत्ते से उन्होंने जलाया अपनी माँ को। इस तरह एक से एक अकलमंदी लोगों ने उनको सताया। अब तो दुनिया बदली नजर आती है कि मेरे साथ ऐसी ज़्यादती कोई नहीं की। एक दो जरूर बिगड़ते हैं। लेकिन इतनी ज़्यादती किसी ने नहीं की कि मुझे मारने को दौड़े। ऐसा नहीं है। क्योंकि यही उन सब महानुभावों का उपकार मैं मानती हूँ, जिन्होंने आपको अदल-बदल कराके समझा दिया कि ये नहीं, ये नहीं , ये नहीं। ये नहीं, ये नहीं तो फिर क्या? जब नहीं, नहीं करने पे आ जाएंगे तब बराबर आप चीज़ को पकड़ लेंगे। इसीलिये उन्होंने आपको बताया कि पहले साकार से निराकार, निराकार से साकार चले जायें। जब आदमी थक जाएगा इससे लड़ते-लड़ते तब वो रूक जाएगा और सोचेगा कि इन सब में है क्या? तो निराकार में आपसे मैंने बताया कि सारी ये ब्रह्मशक्ति के चारों तरफ फैली हुई है और साकार में आप और आपके अंदर हर उत्थान के समय पर एक एक देवता बिठाये हुये हैं। जब आप कार्बन बन के इस संसार में आयें तब श्रीगणेश

बिठाये गये। कार्बन की भी चार वेलेन्सी होती है, बीचोबीच बैठे रहते हैं । कार्बन के बगैर प्राण-संसार में प्राण ही नहीं बनता। ये पहली चीज़ कार्बन बनायी गयी। और श्रीगणेश पहले इन्होंने यही बात कही । इसीलिये कहते हैं कि श्रीगणेश भूमी तत्त्व से बने हैं। और ये पहले बिठाये थे जो पवित्रता के लक्षण है। कौनसे भी धर्म में ये नहीं कहा है कि तुम अपवित्र रहने से धार्मिक हो जाओगे। आज कल के गुरुओं की बात छोड़ दीजिए। इनसे तो भगवान ही बचायें ! सब उल्टी बाते समझाते हैं। कोई से भी धर्म में ऐसा नहीं बताया है कि गन्दे कर्म कर के आप परमात्मा को पाईये। लेकिन हम लोग जो हैं कभी इस चीज़ को देखें कि सब धर्म में एक ही बात कही गयी है और सब ने माना कि पवित्रता जीवन का सबसे बड़ा स्थिर भाव है। उसको पकड़ना चाहिए। तब के लिए मानना पड़ता है कि श्रीगणेश को परमात्मा ने सबसे पहले स्थापित किया। वो क्यों कर रहे हैं? ये उसका, आप समझ सकते हैं, जिसे कि हमारे यहाँ कहा | जाता है कि इंडिकेशन, उसका इंडिकेशन है और उसके प्रतीक रूप, उसका प्रतीक प्रतीक, गणेश जी जो आयें, वो पवित्रता के प्रतीक स्वरूप हैं। इनोसेन्स! अबोधिता! भोलापन! जो शंकर जी का भोलापन है वो उन्होंने अपने बेटे में खूब डाला। और भोला जो आदमी होता है वो सबसे ज़्यादा शक्तिशाली, सबसे शक्तिशाली भगवान जो है वो श्रीगणेश माने जाते हैं। माने सबसे ज़्यादा शक्तिशाली इन्सान वो होता है जो सबसे भोला होता है। और आज कल तो लोग मानते भी नहीं कि भोलापन कोई चीज़ भी होती है । तो पहले चक्र पे उन्होंने श्रीगणेश जी को बिठाया। अब नानक साहब ने या कबीर दास ने सबने ही ये माना है कि अपने अन्दर कुंडलिनी नाम की शक्ति होती है। और गुरू ग्रंथसाहब में भी नामदेव आदि लोगों के बहुत से अंदाजे हैं, ये लोग तो विठ्ठल को माना करते थे। तो ये समझ लेना चाहिए कि उन सब लोगों ने परमात्मा को दो स्वरूप में देखा था, साकार और निराकार। किसीने निराकार की ज्यादा बात की और किसीने साकार की, जैसा समय था। तो पहले चक्र पे श्रीगणेश को बिठा दिया। जिसका मतलब, अपना जो पहला चक्र जो है वो पवित्रता का चक्र है। अगर आप समझना चाहे निराकार से तो आप समझ लीजिए पवित्रता और अगर साकार से समझना चाहे तो श्रीगणेश। इस चक्र से ऊपर कुंडलिनी का स्थान है ये समझने की बात है, ये बहुत बड़ी बात है। इसके ऊपर में कुंडलिनी रहती है नीचे में नहीं रहती है, इस चक्र में। क्योंकि पवित्रता- श्रीगणेश जो हैं ये अपनी माँ-कुंडलिनी, जो गौरी है, जो कन्या स्वरूपिणी पवित्र है उसको सम्भालते हैं। उनकी लज्जा- रक्षा करते हैं । और नीचे बैठे हये सबको देखते रहते हैं। और जो कुछ हम करते हैं उसका सारा इन्फर्मेशन, उसकी सारी मालूमात अपने कुंडलिनी तक पहुँचा देते हैं। जो कि ऐसी बैठी हुई हैं कि जैसे कोई टेपरिकार्डर हो और वो सब चीज़ टेप करता हो । अब ये कुंडलिनी क्या चीज़ है? ये आदिइच्छा हैं। परमात्मा की आदिइच्छा! परमात्मा की सर्वप्रथम इच्छा ये हुई कि 'मैंने सृष्टि बनायी और ये सृष्टि मुझे जानें। ये मुझे पहचानें। मुझसे एकाकार हो।' ये उनकी आदिइच्छा है। और वही इच्छा जो थी जिसे हम लोग आदिशक्ति के नाम से जानते हैं| जिसे कि अंग्रेजी लोग होली घोस्ट कहते हैं और जिसे कि वेदों में भी कहा गया है और जिसे नानक साहब ने भी दैवी माँ कहकर बतलाया है। ये जो प्रथम इच्छा थी यही साकार रूप होकर उन्होंने सृष्टि की रचना की और श्रीगणेश को बना कर बिठा दिया, जो गौरी स्वरूपा, हमारे अन्दर कुंडलिनी, जिसको कि वर्जिन, जिसको कहते हैं%3B कन्या स्वरूपिणी हैं, अत्यंत पवित्र| और एक ही शुद्ध इच्छा है मनुष्य के अन्दर बाकी सब विकृति। एक ही शुद्ध इच्छा है। बाकी सब अशुद्ध है। माने एक ही वर्जिन इच्छा है। वर्जिन माने, जिसने, जैसे वर्जिन लैण्ड का मतलब जिसने अभी इस्तमाल ही नहीं किया। जिस जमीन को अभी तक हमने खोदा भी नहीं उसे वर्जिन लैण्ड कहते हैं। तो ये जो कन्या स्वरूपिणी, अत्यंत पवित्र इच्छा हमारे अन्दर है वो एक ही है और वो ये कि हम उस परमात्मा को जानें जिसने हमें बनाया है। आत्मसाक्षात्कार हो कर हम उस परमात्मा को जान लें, ये शुद्ध इच्छा हमारे अन्दर, कुंडलिनी स्वरूपिणी बैठी है। क्योंकि वो अभी तक कार्यान्वित नहीं हुई है इसीलिये

इस कुंडलिनी की अवस्था को सुप्तावस्था कहते हैं। माने सोई हुई है। जिस वख्त ये कार्यान्वित हो जाएगी तब कह सकते हैं कि इसका उत्थान हो गया या इसका अंकुर खुल गया। जैसे कि बी के अन्दर का अंकुर। अब बहुत सारे लोगों ने बड़ी ज़्यादती करी। और उल्टी बातें शुरू कर दी। ये छठी शताब्दी के बाद ही हमारे देश में बहुत गन्दे लोग पैदा हये हैं। और जिनको हम तांत्रिकों के नाम से जानते हैं। एक माँ के हृदय के कारण हम पूरी तरह से किसी को बूरा नहीं कह सकते। थोड़ा सा हिस्सा खींच ही जाता है। और इसीलिये कि उससे ये है कि जब वो शायद ही इस सबसे सर्वप्रथम चक्र जिससे कि हमारी सब उत्सर्जन या जो भी होती है, excretion होता है, उसकी ओर नज़र कर रहे थे तो उन्होंने सिर्फ गणेशजी की सूँड देखी होगी और सोच लिया हो कि कुंडलिनी इस मूलाधार चक्र में है। पर कुंडलिनी तो मूलाधार में बैठी है। वो मूलाधार में है और ये मूलाधार चक्र है। ये अंतर है। और यही चक्र बाहर है। बाकी सब चक्र जो है रीढ़ के हड्डी के अंदर या तो मस्तिष्क में, इस हड्डिओं के खोखले में है। और यही एक चक्र बाहर है और ये चक्र जो है ये हमारे अंदर जिसे हम पेल्विक प्लेक्सेस कहते हैं उसको चलायमान होता है। और इससे ये जान लेना चाहिए कि कुंडलिनी के भेदन में से छ: चक्र आते हैं सात नहीं आते। ये बहुत जरूरी बात है। इसका मतलब ये है कि जो उत्सर्ग की क्रियायें हैं, माने जिसमें सेक्स आदि जितना भी आता है, उत्सर्ग होता है, ये सब हमारे उत्थान में कार्यभूत नहीं होते। इनका कोई भी असर नहीं आता। किंतु धर्म का आता है। अधर्म से कियी हुई बाते जो भी हैं वो गलत बैठती हैं। धर्म से उत्सर्जित किई हुई बाते गलत नहीं बैठती। और इसीलिये ये चक्र जो है हमारी पवित्रता को देखता है । और गणेश जी जो हैं वो एक अनंत के बालक हैं, क्योंकि वो अबोध, इनोसन्ट हैं इसीलिये उनको इसका घिनौनापन, या गंदगी और इसकी जो बुराईयाँ हैं वो छूती नहीं, अछूती हैं। वो साक्षात ॐ कार हैं। हीरा किसी जगह भी फैंक दीजिये वो | हीरा ही बना रहेगा। वह साक्षात ॐ कार स्वरूप हैं। उसको कोई छू नहीं सकता। और इसीलिये वो वहाँ बैठे हुए हैं। पूर्णतया अपने अंदर बसी हुई जो पवित्रता है उसमें समाये हैं । मनुष्य सोचता है कि, 'माँ, आप ऐसा कहते हैं पर इस दुनिया में इतने अपवित्र लोग हैं उनको कुछ नहीं होता, उनको कोई बीमारी नहीं होती। उनको कोई तकलीफ नहीं होती। और बड़ी शैतानी करते रहते हैं और बड़े सुखी हैं ।' ये बात नहीं। हर एक चक्र का अपना-अपना दोष होता है। अब ये चक्र इतना महत्त्वपूर्ण है। जिस आदमी का ये चक्र खराब हो जाता है उसको दूसरे किसी भी चक्र के खराब हो जाने से मलायटिस जैसी गंदी गंदी बीमारी हो सकती हैं। बहत सी कैन्सर की बीमारियाँ भी इसी चक्र के खराब होने से हो सकती है। आपकी शिकायतें भी इससे हो सकती है। बुद्धि की खराबियाँ इसी से आ सकती हैं और नाना प्रकार के विकार इस चक्र के खराब होने से होते हैं । इसीलिये जो लोग कहते हैं कि आदमी की अपवित्रता से कोई फर्क नहीं पड़ता, वो दोनों का कनेक्शन ही नहीं बना, वो जोड़ ही नहीं पाते कि इस वजह से हैं। ये तो जब आप पार हो जाएंगे, जब आप संत जन हो जाएंगे, जब आप में चैतन्य लहरियाँ बहना शुरू हो जाएंगी तब ये निराकार आप से बोलेगा, हाथों में बोलेगा कि देखो, इस आदमी में क्या खराबी है और इसे क्या ठीक करना चाहिए। और आपको आश्चर्य होगा कि जो चक्र ये दिखायेगा वही खराबी उस आदमी में होगी। मोहम्मद साहब ने कहा है कि, जब उत्थान का समय आयेगा, याने ये आज का समय उस समय आपके हाथ बोलेंगे। आपके हाथों पे आप चक्रों को जान कर बता सकेंगे कि इस आदमी में कौन सा दोष है। ये यहाँ पर, यहाँ पर मूलाधार का स्थान है। परमात्मा की असीम कृपा से आप ये योगभूमी में बैठे हैं। बड़े-बड़े संत यहाँ हो गये। उनके चरण इस भूमी को छू चुके हैं। ये बड़ी भारी योग भूमी है। इसका वर्णन कितना भी करे सो कम है। कल मैंने न जाने अपने को कितनी बार रोका कि इसका वर्णन में कैसे करूँ !

सारे विश्व की कुंडलिनी यहाँ पर बैठी हुई है, महाराष्ट्र में । साढ़ेतीन पीठ हैं। सब लोग कहते हैं कि साढ़े तीन पीठ हैं। अरे साढ़े तीन पीठ हैं माने क्या ? सारे विश्व के ही कुंडलिनी के साढ़े तीन पीठ महाराष्ट्र में हैं। अष्टविनायक महाराष्ट्र में हैं। आठों तरफ से घेर लिया। पवित्रता के इंतजामात कर लिये हैं । अष्टविनायक और साढ़े तीन पीठ। अठाईस देवी के स्थान बनाये हैं। सब पृथ्वी ने इंतजाम यहाँ किये हये हैं। जो कुंडलिनी में हैं । सारे प्रकार इस देश में जितना है कहीं भी नहीं । हालांकि इंग्लैंड में भी मैंने देखा कि जमीन के अंदर से ऐसे पत्थर आ गये जिनमें से वाइब्रेशन्स आते हैं। स्टोनहेंज कहते हैं उसको। लेकिन उनको कुछ भी समझ में नहीं आता । इनके यहाँ कोई ऐसे पीर हुये नहीं। कोई ऐसे महात्मा, संत हये नहीं जो ये सब कहे। मक्का में भी जो शिव है, मक्का में भी जो पत्थर है उसका भी वर्णन अपने पुराणों में है उसका नाम मक्केश्वर शिव है। आप देख लीजिये पंजा साहब को उन्होंने जो निकाला था वो भी वही चीज़ है। उस जगह से, उस जगह में चैतन्य आता है। अब ये देखिये, अभी हम यहाँ बैठे हये हैं। ये यहाँ पर चौबीस पच्चीस बिछाईये, ये यहाँ कितने भी सालों पड़ी रहें किसी भी संत को आप बिठाईये तो वो समझ जाएंगे कि इस पर कोई संत बहुता है। आपको पिछली मर्तबा मैंने बताया था कि मैं काश्मीर गयी थी। यहाँ नहीं कहीं और । तो खटाक मुझे लगा यहाँ कोई बड़ी चैतन्यमय चीज़ है। तो हमने ड्राइवर से कहा कि, 'भाई, गाड़ी रोको यहाँ । पता करो कि यहाँ कोई मंदिर तो नहीं है।' उसने कहा, 'हाँ, माताजी, यहाँ कहाँ मंदिर है? ये तो बिल्कुल आप जंगल में घूम रहे हैं।' तो मैंने कहा, 'हो सकता है चार-पाँच मील की दरम्यान कोई न कोई चीज़ होनी चाहिए। अच्छा, मैंने कहा कि उसी रास्ते से चलते रहो ।' तो चलते - साधु बैठे थे। जो चीज़ छू जाती है उसी में चैतन्य गये, चलते गये। एक जगह पहुँचे तो कहने लगे कि, 'ये तो सारी मुसलमानों की बस्ती है। यहाँ पर क्या मिलने वाला?' मैंने कहा, 'यहाँ पूछो तो सही। तो उन्होंने बताया कि यहाँ हजरत इकबाल हैं। एक बाल महम्मद साहब का रखा हुआ है और मैं पाँच मिनट में उसको पकड़ गयी। अब उनको आप कुछ भी कहिये। भला-बुरा कहिये। आपका जो मनचाहे कह सकते हैं। वो भी अपने ही हैं। बिल्कुल अपने। ये समझ लेना चाहिए उनमें और नानक साहब में कोई फर्क नहीं है। चाहे हिंदु- मुसलमान लड़ें, चाहे कुछ करें, गर्दन काटे, उससे फर्क नहीं पड़ने वाला। जो बात सही है, सत्य मैं आपको बता रही हूँ। हम लोग आपस में बेकार ही में लड़ रहे हैं। ये सब बेकार चीज़ है। लड़ने की कोई बात ही नहीं । आज हजारों मुसलमान सहजयोग में आ रहे हैं। क्योंकि उनके आगे ही खड़े हो गये कि अब नहीं चाहिये मुसलमान। और इतना बदल उनमें आ गया कि बाबा, सहजयोग से अच्छा हो गया है, गणेश जी की पूजा कर रहे हैं। और आपको गणेशजी सिखायेंगे कि कैसे गणेशजी का क्या मतलब है। तो सहजयोग में आप समझ सकते हैं कि जो कुछ वास्तविकता है, वो हमारे अंदर है, यथार्थ हमारे अंदर है। इसे समझ लें और दिमागी जमा-खर्च इकट्ठा कर के, लड़ाई-झगड़ा मत करो बाबा। सब एक ही परमात्मा के अंग-प्रत्यंग हो आप। इस विराट के आप अंग-प्रत्यंग हो। और मोहम्मद साहब ने भी बता दिया कि कान में उँगली डाल कर के जब कहते हैं 'अल्लाह हो अकबर', ये तो मंत्र सहजयोग में हम भी कहते हैं क्योंकि ये उँगलियाँ जो हैं विशुद्धि चक्र की हैं। और कान में उँगली डाल कर आप क्या कह रहे हैं 'अल्लाह-हो-अकबर', माने क्या? अल्लाह जो है, परमात्मा जो है, विराट हैं। अकबर माने विराट! अरे भाषा बदल जाने से मतलब थोड़ी बदल जाता है! और इस तरह से आप समझियेगा कि जो चीज़ें प्रस्थापित, अनेक वर्षों से हुई है, अनादि से हुई हैं वो आज पूर्ण रूप से, सत्य रूप से जब तक प्रकाशित नहीं होंगी तो आपके बच्चे भाग खड़े होंगे और कहेंगे कि 'ऐसे भगवान से बचाओ! हमें नहीं चाहिए।' ये सब दिमागी जमा-खर्च है। आप लोग यूँही कुछ धंधा नहीं तो दिमागी जमा-खर्च जमाओ। इसको आप सिद्ध कर सकते हैं। सो, कुंडलिनी का जागरण जब होता है तो पूरी की पूरी कुंडलिनी नहीं उसका कुछ हिस्सा उठता है बहुत से डोरियाँ

बाँध कर के, जैसे समझ लीजिये ऐसी ये कुंडलिनी है, उसकी कुछ ही डोरियाँ सुषुम्ना नाड़ी से बंधी हैं । मध्यभाग , जो बीच में है। और इस नाड़ी से उठते वक्त जो कुछ भी उस में शक्ति भरी जाती है या शक्ति लगती है वो गणेशजी की है । माने आपकी पवित्रता बहुत जरूरी चीज़ होती है। अगर आदमी कोई पवित्र हो तो एक क्षण में वहाँ से वहाँ पहुँच कर कहाँ से कहाँ चला जाता है। एक साहब को मैं जानती हूँ, बहुत बड़े आदमी हैं वो, वो दो मिनट के अन्दर में पार हो गये। दो मिनट के अन्दर में! मैं हैरान हो गयी कि उनकी कुंडलिनी कैसे जाग्रत हो गयी धड़ाम से! अत्यंत पवित्र आदमी हैं वो, इसमें कोई शंका नहीं। उनकी तंदरुस्ती वैसे भी अच्छी रहती थी। उनकी कोई रूकावटें और नहीं थी। कोई कॉम्प्लिकेशन नहीं था। एकदम उनकी कुंडलिनी खुल कर के चारों तरफ फैल गयी और उनके हाथ से झरझर, झरझर बहने लगी। ऐसे अनेक लोग हैं। अपने देहातों में, मतलब यहाँ तो मैंने इधर काम नहीं किया देहातों में इतना, लेकिन महाराष्ट्र में देहातों में हज़ारों लोग पार हये हैं, हज़ारों लोग और उनके हाथ से झर-झर-झर कुंडलिनी, चैतन्य लहरियाँ बहने लग गयी। और उनकी सारी गंदी आदतें अपने आप छूट गयी। क्योंकि उनके अन्दर बसा हुआ जो धर्म है वो जागृत हो गयी। अब ये दिन नहीं है कि हम आप से कहें कि ये न करो, वो न करो। और बाह्य को आदमी ज़्यादा पकड़ेगा। अन्दर को नहीं पकड़ता। कुछ न कुछ ऐसा बना दिया बाह्य का कि उसको पकड़ लेंगे। हर एक धर्म में ये देखा मैंने कि बाह्य की चीज़ पकड़ता है, अन्दर की चीज़ जो है उसको नहीं पकड़ता। अब जैसे मुसलमान धर्म में शराब पीना मना है। शराब जरूर पिएंगे और नमाज पाँच मर्तबा जरूर करेंगे। से धर्मों में एकदम से शराब पीना मना है और सही बात है! इस वजह से मना किया गया था कि ये चीज़ चेतना के विरोध में जाती है। जो चीज़़ चेतना के विरोध में जाती है वो चीज़़ को नहीं लेना चाहिए क्योंकि चेतना में ही परमात्मा को पाना बहुत चाहिए । मगर किसीसे कहिए कि शराब मत पीजिए तो आधे लोग उठ के चले जाते हैं। इसीलिये मैं कहती हूैँ कि नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। बैठे रहो, बैठे रहो। पार होने के बाद अपने आप धर्म जागृत हो जाएगा, सब चीज़ छूट जाएगी मेरे बच्चों की। क्यों उनको अभी से भगाऊं? सब चीज़ छूट छाट जाती है क्योंकि ये जो धर्म हैं हमारे अन्दर, जो ये बीचोबीच बना है । इस जगह दस गुरु है। दस गुरुओ के तत्त्व हैं। वो तत्व-सार वैसे भी हैं और साकार स्वरूप भी। और ये सारे गुरु हमारे अन्दर जागृत हो जाते हैं और इनकी जागृति की वजह से और धर्म हमारे अन्दर जागृत होने से हम अधर्म का काम कर ही नहीं सकते| कर ही नहीं सकते। पचता ही नहीं, हज़म ही नहीं होगा। परेशान हो जाएंगे आप, कोई भी अधर्म की बात होगी तो आप भाग जाएंगे वहाँ से कि बाबा रे बाबा, यहाँ से भाग जाओ।| और ये चीज़ अपने आप घटित हो जाती है। थोड़ी सी, ज़रा सी मेहनत करनी पड़ती है अपने को जमाने की। लेकिन अपने आप घटित हो जाने से मनुष्य का धर्म जागृत हो जाता है। किसी को कहना नहीं पड़ता कि, 'बेटे तु ये नहीं कर।' क्योंकि ये कहने में आजकल के जमाने में कोई सुनने भी नहीं वाला और एक आफ़त खड़ी हो जाएगी। सबको दादा-पोता कहके कि 'भाई, बैठ जाओ, कोई बात नहीं, ठीक है। शराब पीते हो ना, ठीक है! और भी धंधे हैं, कोई बात नहीं बैठ जाओ| जो भी करते हो कोई हर्ज नहीं बेटे, सब लोग बैठो। पहले पार हो जाओ। फिर बाद में देखते हैं।' तो कोई भी बुरा नहीं मानेगा। लेकिन पहले ही शुरू कर दे कि, 'भाई, शराब पीना मना है और फलाना मना है। सिगरेट नहीं पिओ।' तो लोग बिगड़ेंगे। अब मुसलमान लोगों का ये कहना है कि उनको सिगरेट मना नहीं है। तब सिगरेट थी ही नहीं तो मना क्या करते ? फिर नानक साहब बन कर के आये और कहा, 'भाई, सिगरेट मत पिओ क्योंकि सिगरेट भी निकाली इन्होंने ।' अब कल आप लोग अगर गांजा-वांजा पिते हैं तो लोग कहेंगे कि, 'साहब, नानक साहब ने तो नहीं कहा था कि गांजा मत पिओ। तो अभी हम लोग पी सकते हैं गांजा।' तो इस तरह से जो भगेड लोग होते हैं उनसे तो भगवान ही बचायें। याने कबीर दासजी, जो इतने पहँचे हुए थे वो नहीं सोचते होंगे कि लोग कितने गँवार हैं! बिहार में उन्होंने सारा अपना

जीवन बिताया। वहाँ इतना उत्थान का कार्य किया और उन्होंने कुंडलिनी को 'सुरति' कहा हुआ है। हर जगह 'सुरति कुंडलिनी को कहा हुआ है। बिहार में, आपको आश्चर्य होगा कि तम्बाकू को वो सुरति कहते हैं। अकल है या नहीं लोगों के पास एक से एक बढ़िया हैं और क्या कबीरदास जी सोचते होंगे कि, 'किस बेवकूफों से पाला पड़ा कि जिस कुंडलिनी की मैंने बात करी और किसको ये लोग आज कल सुरति कहते हैं। और हमारे महाराष्ट्र में भी श्रीकृष्ण, जो कि विशुद्धि चक्र पे वास करते हैं। उनका जो मंदिर विठ्ठल का बना हुआ है, जहाँ साक्षात कहते हैं कि विठ्ठल विराजित थे, उस जगह में एक महीने के लिये लोग, साथ में टुकुर-टुकुर बजाते, चलते हैं विठ्ठल-विठ्ठल' करते हुए और मुँह में तम्बाकू दबायें और जिससे कि नफरत है बिल्कुल, श्रीकृष्ण को नफरत है, नफरत है बिलकुल। अब वो कैन्सर जब होने लग जाए तब तो वो अपने आप छूट जाती है। और आश्चर्य उससे भी बढ़ के मुझे तब होता है, मैं बचपन से सोचती थी कि इन्सान की खोपड़ी कैसे बैठी है। जब ये देखता है कि कोई शराब खाने में जाकर, वहाँ से लौट रहा है और खूब चढ़ाया हुआ भूत है, तो फिर उसी शराब खाने में क्यों जाता है जब वो होश में है? लेकिन ये आश्चर्य की सब चीजें तो मनुष्य ही में है। परमात्मा का मुझे कोई आश्चर्य नहीं रहता। क्योंकि वो बिल्कुल जो कहते हैं वही करते हैं और जो हैं सो हैं। पर मनुष्य करता एक है, बोलता एक है और कहता दूसरा है। इसकी वजह ये है कि इन सब चक्रों का समग्रता है, चक्रों में जो समग्रता, इंटिग्रेशन चाहिए वो नहीं है। एक चक्र दूसरों से अलग है। धर्म, धर्म के बारे में एखाद आदमी से कहें तो भाषण देने के लिए आ जायेंगे। अभी एक साहब मुझे मिले थे, सोलापूर में । भाषण हुआ, तो कहने लगे, 'माताजी, एक साहब आये थे , बड़े बाबाजी तो वो हमसे कहने लगे कि भाई, अपने देश में इतनी गरीबी है कि लोग भालु भी खाते हैं।' मैंने कहा कि, 'ऐसा तो मैंने कहीं देखा नहीं कि भालु-वालु खाते होंगे।' 'और ये है, वो है। और तुम अमीर लोग कुछ पैसा नहीं देते हो। हमको कुछ पैसा दो तो हम इनका भला करें।' उन्होंने अपना हिसाब बनाया। और कहने लगे कि वो जाते वख्त इंपोर्टेड गाड़ी में गये। कुछ समझ में नहीं आया। तो मैंने कहा, 'यही तो खासियत है। तुम लोग पैसा भी ऐसे आदमी को दोगे जो ऐसे किस्से सुनायेगा तुम्हारे सामने कि आहाहा.. जैसे कि बड़े परमात्मा बन बैठे। और उसको कुछ है परवाह? वो तो अपने रूपये बनाने के लिए आया है।' अरे, इस देश में ऐसे-ऐसे महादुष्ट है। एक साहब ने तो छ: हजार कोट रूपया कमाया हुआ है। छ: हजार कोटि! ये धंधे! तो हम लोग उसको किसलिये दिये थे। बेवकूफ लोग होंगे तभी तो ना! लेकिन इतने बेवकूफ एकसाथ पैदा हो जाए तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दो-चार हो तो ठीक है। और इसी प्रकार के लोग, लोगों को भाते हैं। जब तक आपके अंदर सहजयोग जागृत नहीं होगा तब तक आप कैसे जानियेगा कि कौन असल और कौन नकल। किस में असलियत है और किस में नकलियत ! जब तक हाथ में चैतन्य लहरियाँ नहीं बहेंगी तब तक आप कैसे कहेंगे कि कौन सच्चा और कौन झूठा! आपकी अपनी ही शक्ति अभी तक जागृत नहीं है। आपके अन्दर अभी अपना ही दीपक नहीं है । इस अंधेरे में आप किस चीज़ से लड़खड़ा रहे हैं आप जानते ही नहीं। इसीलिये आत्मा का साक्षात्कार सबसे पहले होना चाहिए। फिर सब बातें होंगी। पहले उसका साक्षात्कार ले लो। इस अंधेरे से पहले जागो। फिर सब अंधेरे अपने अन्दर के दिखायी देंगे। अपने अन्दर की ठोकरें दिखायी देंगी। अपने अन्दर की गलतियाँ दिखायी देंगी। और तुम्हारा आत्मा ही तुम्हारा गुरु है। वो ही गुरु, जिसको कि अनंत काल से गुरुओं ने पाला-पोसा, बड़ा किया, जिसकी बात की थी, वही गुरु तुम्हारे अन्दर है। वही तुमको सिखायेगा कि, 'देखिये, ये आप नहीं हैं। ये कुछ और चीज़ है। इसको छोड़ो, उसको छोड़ो। | उस आत्मा को जागृत करना चाहिए, किसी भी धर्म को आप अभी मानते हैं, ये तो मानना सिर्फ एक दिमागी जमा-खर्च है। आत्मा के धन को फिर आप मानिये। वही असल धर्म है। बाकी सारे धर्म एक प्रकार से झुठला गये, गये। उसकी झुठला शुरूआत सच्चाई की थी। बड़े-बड़़े महान लोग संसार में आयें। जैसे कि एक पेड़ पर अनेक फूल अनेक बार खिलते हैं । बाद में आप लोगों ने उनको तोड़-ताड़ के अपना, मेरा बना कर के उनका सारा सत्व ही खत्म कर दिया। इसीलिये उनका कोई

दोष नहीं और धर्म का भी कोई दोष नहीं। ये तो आप लोगों की हरकतें हैं। जिससे ये सब खराब हो जा रहा है। अब आपको जगाने का एक ही तरीका मैंने सोचा है कि पहले आपका आत्मा ही जगा दें, फिर उसके बाद दूसरी बातचीत। कैसा भी हो, कैसा भी आदमी, कुछ भी हो। 'चलिये, आईये, पहले पार हो जाईये । पहले पार हो जाईये ।' पार होने के बाद फिर हम देखेंगे। पुनर्जन्म के बगैर आदमी समझ ही नहीं सकता इस बात को। सारी बात जो है जबानी जमा-खर्च हो जाती है और धर्म भी एक जबानी जमा-खर्च होता है। जब ये धर्म जागृत हो जाता है तो ये जो लोग यहाँ बैठे हुये विदेशी हैं, इन्होंने जितने भी धंधे किये हैं , इसे हम लोगों के, कितनी भी कोशिश करने से भी हम लोग तो कर ही नहीं सकते, क्योंकि ये लोग तो धर्म को सोचते हैं कि, ये गलत चीज़ है, इसको वो मानते ही नहीं इसलिये उसे छोड़ना ही नहीं पड़ा। इनके फ्रॉइड साहब एक गुरु थे, उन्होंने ऐसे ही सिखाया। माँ, बहन मानना पाप है, ऐसे ही इनको सिखाया गया और ये उसको ही सत्य मान के उस पे चले हुये लोग हैं बिचारे! और ये सब को छोड़-छाड़ कर के कमल के जैसे ऊपर खिल उठे| एकदम बदल गये। इनकी जिंदगी बदल गयी। इतने खूबसूरत हो गये हैं ये। लेकिन हिंदुस्तानी बड़ी मुश्किल से छोड़ता है। उससे चिपक जाता है। क्योंकि अनादि काल से ये चीज़ चली आयी है। अच्छी चीज़़ चिपकी रह जाये , ये बहुत सुंदर होता है, लेकिन बूरी चीजें ज़्यादा चिपक जाती हैं। इससे छूटती कम है। पर धीरे धीरे छोड़ना ही पड़ता है क्योंकि गर आपने नहीं छोड़ा तो आपके वाइब्रेशन्स छूट जाएंगे। आप स्थापित नहीं हो सकते। अब आपके अन्दर एक और तीसरा चक्र है , जो कि वास्तव में दूसरा माना जाता है। इसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं। ये चक्र जो है ये आपको ब्रह्मदेव की शक्ति देता है। जिसकी वजह से मनुष्य विचार करता है। आगे की सोचता है। कोई चीज़ | बनाता है। जैसे कि एक आपने फर्निचर बना लिया। एक पेड़ टूट गया। तुमने सोचा, चलो, फर्निचर बना लें। तो पहले मेरे ख्याल से बहुत बूढ़े लोगों के लिये बनाये होंगे फर्निचर जो जमीन पर नहीं बैठ सकते थे, करते- करते जवानों ने कहा कि हम फर्निचर बनवाये। करते-करते फर्निचर बैठ गया सर पे, अब वे जमीन पे नहीं बैठ सकते। कुर्सी ले के चलना पड़ता है। ये जो शक्ति है इसे मनुष्य क्रिएट करता है। सर्जन करता है। और इस सर्जन शक्ति को हम जब बहुत ज़्यादा इस्तमाल करते हैं, जरूरत से ज़्यादा तब एक ही शक्ति को इस्तमाल करने की वजह से और जितने भी चक्र हैं उनसे हमारा संबंध टूट जाता है। एकाकी जीवन जिसका होता है उसके साथ ऐसी ज़्यादती होती है। और जब ये संबंध उस संपूर्णता से टूट जाता है तब हम अपने तरीके से चलने लग जाते हैं। ऑन माय ओन ! और इसी को हम कह सकते हैं कि इन्सान जो है वो कैन्सर की बीमारी | का शिकार हो सकता है। उसको शरीर का कैन्सर नहीं होगा तो मन का भी हो सकता है। जितने भी अहंकारी लोग होते हैं उनको मन का कैन्सर होता है। वो सोचते हैं कि 'मुझसे बढ़ कर दुनिया में कोई नहीं।' और वो जिसको छूते हैं वो भी यही सोचने लगता है। वो किसी के घर में पाँव रखें तो बच्चे भी सोचने लग जाएंगे। उनकी ऐसी कृपा होगी कि जहाँ उन्होंने बात की तो घोड़े, बैल सब उनके जैसे हो जाएंगे। जो अहंकारी मनुष्य होता है वो अहंकार करने लग जाता है। उसको देखते- देखते सब लोग अहंकार करने लग जाते हैं। अब हिटलर इसका एक उदाहरण है जो अहंकार में इतना भर गया। इसने सोचा कि, 'मैं कोई विशेष जीव हँ।' और वो जिसको भी छूता था वो भी ये ही सोचता था। यहाँ तक कि उन लोगों को मार डाला था। हालत खराब कर दी। किसी के समझ में ही नहीं आया । इतने लाखों लोगों को उसने बेवकूफ बनाया और सब बेवकूफों की तरह उसकी बातें सुनने लग गये। और छोटे-छोटे बच्चों को और औरतों को गैस चैम्बर में मार दिया। उनकी अकल ही नहीं । तो 'मैं बहुत अकलमंद हूँ' ऐसे समझ के जो आदमी चलते हैं उनके लिये हिटलर हैं सामने, दूसरे खोमिनी साहब हैं, ईडयामीन हैं, ऐसे बहुत सारे हैं आपको देखने के लिए। और अहंकार जिस आदमी में होता है, जो कि यहाँ पर दिखाया गया है। आप देखिए, ऊपर में, पीले रंग में जो कि अहंकार है। ये स्वाधिष्ठान चक्र के चलने से होता है। और उसकी शक्ति जो है,

उसको ये राइट साइड की सरस्वती की शक्ति जो है उससे मिलता है। अब जिस आदमी के पास सरस्वती की शक्ति आ गयी वो अपने को दुनिया में सबसे होशियार समझता है। और इतना इस्तमाल करता है कि उस इस्तमाल के, जैसे बाय प्रॉडक्ट की तरह से हमारे अन्दर यह अहंकार तैय्यार हो जाता है। जैसे कि एक फैक्टरी खूब चलायी, जिसमें धुआँ होता है उस तरह से हमारे अन्दर अहंकार होता है। और अहंकार का लक्षण क्या है? आपको आश्चर्य होगा बेवकूफी। जो अहंकारी मनुष्य होता है वो अत्यंत बेवकूफ होता है। जिसकी बातें, जिसको कहते हैं एकदम स्टुपिड जैसी होती है। इडिओटिक। बड़ा इडियट होता है। कोई आदमी आपसे कहे, 'मैं फर्स्ट आया| फस्स्ट से फर्स्ट आ गया । और मैं फलाना हूँ। और मैं यहाँ का राजा हूँ।' और ये मंत्रियों से कहना कि भैय्या मैं गरीब हूँ, मुझे माफ करो।' तुम यहाँ क्यों आ गये ? हमारे यहाँ आपने पढ़ा होगा कि नारदजी को एक बार अहंकार हो गया। और उन्होंने कितनी बेवकूफी की। और मायानगरी में चले गये और वहाँ बेवकूफ जैसे बंदर बन के और वो दुनिया भर की चीज़ें करने लगे। ऐसे बेवकूफ लोगों को देख सब दुनिया हँसती है पीठ पिछे। आप देख लीजिये ऐसे अहंकारी लोगों की पीठ पीछे आप तारीफ सुनिये। तो लोग एक | बड़ा जोक बना के हँसते हैं कि, 'साहब ये बेवकूफ जो हैं अहंकारी हैं। ये अपने को समझते तो अफलातून हैं। लेकिन है ये अहंकारी' और ये अहंकार जो हैं मनुष्य को बेवकूफी की ओर ले जाता है। और वो बेवकूफ होते जाता है और उसको समझता ही नहीं कि वो बेवकूफ है। अंत में उसका हृदय भी जो है एकदम दब जाता है। उसका हृदय एकदम बंद हो जाता है। क्योंकि अहंकार जो है, यहाँ से हृदय चक्र, ब्रह्म चक्र, यहाँ से जो ब्रह्मरंध्र हैं, ये हृदय का पीठ और उसको वो ढ़क लेता है। और जब अहंकार उसको ढ़क लेता है तो हमारा हृदय एकदम ऐसा, और जब ऐसा हृदय हो जाता है मनुष्य का तो वो इस कदर दुष्ट प्रकृति का हो जाता है कि आश्चर्य होता है कि ये कैसे हो गया! अब परदेश में आप जाईये। पता नहीं हमारे हिंदुस्तानी वहाँ जा कर कैसे रहते हैं। मेरा तो वनवास ही हुआ। लंडन शहर में कहते हैं कि हर हप्ते में दो इन्सान मारे जाते हैं। और वो कौन है, छोटे बच्चे और उनको मारने वाले उनके माँ-बाप हैं। सोचिये, यहाँ कोई सुन भी सकता है ऐसी बात! ये अहंकारी लोगों ने कार्य किया। इनका अहंकार है कि उनको कोई , किसी के प्रति भावना नहीं, न बच्चों के प्रति, न माँ के प्रति, न बाप के प्रति । इस तरह के अहंकार में जब आदमी डूब जाता है तब उनकी बेवकूफियाँ प्रतीत होती हैं उनके भाव से। अपने यहाँ एक से एक राजा- महाराजा हो गये। बड़े-बड़़े लोग हो गये, लेकिन कितने नम्र। शिवाजी महाराज का किस्सा है। ऐसे अपने यहाँ हो गये शिवाजी महाराज जैसे लोग। अब तो ऐसा लगता है कि वो जमाना ही कुछ और था। उनके यहाँ गर रामदास स्वामी आयें, उनके जो गुरु थे, तो उन्होंने आ कर के और बाहर से आवाज लगायी। तो शिवाजी गये। उनके पैर छुोे। उनके पैर पे अपना सर का ताज़ उतार के रख दिया और कहा कि, 'गुरु महाराज कैसी कृपा हुई!' तो वे कहने लगे कि, 'मैं तो भिक्षा लेने आया।' तो अन्दर जा के चिठ्ठी लिखी । उसमें लिखा कि, 'गुरु महाराज, हमारा जितना भी राज्य है, वो आपके चरणों में है। और ला कर के एक क्षण में दे दिया। 'ये आप ही का स्वराज्य है। सारा का सारा।' आज कल कोई राजा- महाराजा तो संत -साधुओं को तो दरवाजे के बाहर ही खड़ा करते हैं। कोई कहेगा कि, 'भाई, अंदर भी आओ।? एक अगर कोई काम करवाना हो, सरकारी नौकर से, किसी के पास जाईये तो वो दफ्तर में आपको बिठा के रखेगा. प्यून के साथ में घंटो तक। अरे भाई, एक छोटासा हमारा काम ही है। क्या करियेगा आप? आप सरकारी अफसर हैं यहाँ। हमारा एक इसका काम है, सहजयोग का। हम तो कुछ पैसा नहीं लेते। आप हमसे इतना सा ले लीजिये।' तो वो कहेंगे, 'चलिये आप, बैठिये वहाँ।' कोई पूछेगा भी नहीं । और यहाँ तो वो साक्षात राजा थे, वो जा कर के उन्होंने अपने सारे राज्य को प्रदान कर दिया। और राज्य को प्रदान कर के और उन्होंने कहा कि, 'अब मैं सब कुछ त्याग चुका हूँ।' तो उन्होंने कहा

कि, 'भाई, हम तो साधु आदमी हैं, हम क्या राज्य करेंगे। राज्य तो तुम्ही को करना है सब पर। लेकिन इतनी बात है कि तुमने हमें प्रदान कर दिया है तो प्रतीक रूप से, जो ये हम छाटी पहनते हैं इसका तुम झंडा बना दो।' वही झंडा बना लिया । अब मैं देखती हूँ कि वो झंडा राजकारण में लोग लगा रहे हैं। अरे भाई, वो झंडा तो सन्यासियों का लक्षण है। उसको काहे को छूते हो आप लोग? छोड़ दो। उसको तो छोड़ो कम से कम ! इस प्रकार हम लोग सब चीज़ में गड़बड़ी कर रहे हैं। किसी का दिमाग कहीं नहीं चल रहा है। और हम लोग जब इस बेवकूफी में बहते जाते हैं, इस अहंकार में तो ये समझ में ही नहीं आता कि हम कहाँ बह रहे हैं लेकिन अब जो देश में बहुत ज़्यादा बढ़ गया है। और इन्होंने अॅटम बॉम्ब और दुनिया भर के बॉम्ब बना कर के अपने विध्वंस की पूरी व्यवस्था कर दी । है। कोई समझता भी नहीं कि, बाप रे बाप! कौनसे राक्षस हमने इकटठ्ठे कर रखें हैं। और ये हमको खत्म कर देगे। अगर अमेरिका ने एक बटन दबा दिया तो रशिया खत्म हो गया और रशिया ने दबाया तो ये खतम हो गया। जब मुकाबले पे आ जाता है मामला तब लोगों के खोपड़ी में बात आती है कि भाई, ये क्या हमने ऐसा ोॅडव्हान्समेंट कर दिया। क्योंकि हृदय तो रहा नहीं। आत्मा जिस चीज़ में नहीं रहती है, उसका यही हाल होने वाला है। कोई भी चीज़ बगैर आत्मा के आप करिये, चाहे आपका राजकारण हो, चाहे आपका कुछ भी। आत्मा के बगैर कियी हुई सब चीज़ जा के नश्वर ही होगी। और नष्ट होगी और नाशकारी होगी, कभी भी। अब आप लोग भी डेवलपिंग हो गये। मतलब आज- कल आप लोग डेवलपिंग हो रहे हैं, कल आप लोग डेवलप हो जाएंगे तो वही नमुना हो जाएगा कि आपके बच्चे इतने नीचे घिर जाएंगे कि आप परेशान हो जाएंगे और बिवि निभायेगी हजबंड का रोल और फिर हो जाएगा झगड़ा और फिर डाइवर्स होंगे और फिर जा कर रहिये ऑर्फनेज और अनाथ आश्रमों में और फिर शराब पीयेगा। बस, यही सब, और कोई धंधा नहीं रहेगा। यही सब का इंतजाम आप लोग सब कर रहे हैं तो आप सबको मुझे बता देना चाहिये कि ये बहुत भयानक है इससे बचना चाहिये। बहुत भयानक है और इससे बचने के लिए आप पहले आत्मा को प्राप्त करिये । फिर चाहे आप अपने को डेवलपिंग करिये या चाहे कुछ करिये लेकिन पहले आप अपने आत्मा को पा लीजिए वरना आप यही सत्यानाशी में फँस जाएंगे । इसलिये जो गलत रस्ता है उसपे मत जाईये, कोई भी वजह हो। अब एक जर्नलिस्ट साहब थे, वो आ गये और बैठ गये और लग गये मुझसे लड़ने। मैंने कहा कि, 'भैय्या, आप क्यों मुझसे लड़ रहे हो? मैंने क्या बिगाड़ा है आपका?' तो कहने लगे कि, 'नहीं माताजी, बात ये है कि आप तो कह रहे हैं कि अब सब ठीक हो जाएगा।' तो मैंने कहा कि, 'हाँ, ये तो बिल्कुल हो जाएगा, अगर आत्मा हो जाये तो सब ठीक होने वाला है।' तो फिर कहने लगे कि, 'हम अखबार में क्या जागृत है और अगर धर्म जागृत लिखेंगे?' अखबार में तो आप ऐसी बाते छापते हैं कि जब कोई खराबी हो। एरोप्लेन कहीं गिर गया , कहीं पचासों लोग मर गये, पचासो लोगों की हालत, आना-जानी सब छापते हैं तो हम अब और क्या छापें । सारी दूनिया ही इसमें घूम रही है। तो मैंने कहा कि, 'भाई, कभी-कभी आप मनुष्य भी तो होते होंगे, इन्सान भी तो होते होंगे या हमेशा ही जर्नलिस्ट ही रहे ? और जब आप इन्सान होकर सोचने लगेंगे तो समझोगे कि क्या चल रहा है आस- पास, आपके भाई-बहनों के साथ क्या हो रहा है और तुम्हारे मानव की क्या दशा हो रही है इसको खोजो तुम और इधर तुम आओ।' तो कहने लगे कि, 'माँ, ये तो बात है, मेरे घर में ही बड़ी दुर्दशा है। और तुम्हारे समाज में और भी दुर्दशा है, तुम्हारे देश में और भी दुर्दशा है और सारे संसार में दर्दशा है उसको बस ठीक करना है तो अपने आत्मा को पाना है। सबसे कहना है कि अपने आत्मा को पाओ। आत्मा को पाते ही परमात्मा की जो शक्ति हम लोगों से अगोचर है, अलख, निरंजन है वो हमारे अंदर से बहना शुरू हो जाएगी। हम उसके प्रेम और आनंद में बहने लग जाते हैं। बस उसको पाओ। उसको पाये बगैर कुछ भी सुलझने नहीं वाला है। आज अगर ये सारे चक्रों के बारे में बताऊंगी तो मुश्किल हो जाएगी लेकिन आज मैंने ये स्वाधिष्ठान और मूलाधार के बारे में थोड़ासा बताया हुआ है। अब ये गुरु तत्त्व की बात करनी है। अपने अंदर ये गुरु तत्त्व को जागृत कर लेना, ये हमारा प्रथम कर्तव्य है। उस गुरु

तत्त्व को जागृत करके और आप अपने ही को प्राप्त करते हैं। आज संसार ऐसे कगार पर खड़ा है कि विध्वंस बाहर से तो है ही लेकिन अंदर से भी बहत है। हर तरह की बीमारियाँ आज सामने आने लगी है, इन बीमारियों का कोई भी इलाज नहीं है । ये जो विध्वंस हमारे अंदर से हो रहा है उधर हमारा कोई भी ध्यान नहीं है। हमारे बाल-बच्चे सारे, जो कुछ भी हमारे अपने हैं वो सब सारे खत्म हो रहे हैं। उनको सबको जोड़ने का एक ही तरीका है कि जो सर्वव्यापी परमात्मा की ब्रह्मशक्ति है उसको प्राप्त करें, परमात्मा के साम्राज्य में जायें, उसमें रम जायें, और ये सिर्फ आत्मसाक्षात्कार से ही घटित हो सकता है। जो कि आप बेच नहीं सकते, खरीद नहीं सकते। ये तो बिल्कुल गलत बात है कि यहाँ के लोग कहते हैं कि बगैर पैसे के कैसे काम हो सकता है। अभी आप ये जो इन्सान बने हुए हैं इस बात का कितना पैसा चढ़ाया है आपने भगवान को? जितने भी मूल्यवान और जरूरी चीजें हैं, जीवन के लिये वो सब मुफ्त हैं, इसीलिये हम जीवित हैं। लेकिन जिस तरह से हम लोग हैं, कभी-कभी तो लगता है कि जीवित रहने का भी हमको अधिकार नहीं हैं। लेकिन परमात्मा ने सब मुफ्त ही दे दिया है। उनकी परम करुणा, बड़ा ही अपरंपार है उनका प्यार ! सारे संसार में गहराई है इसीलिये हम लोग, आप चल रहे हैं। सिर्फ उस प्यार को हमारे अंदर बसा कर, उसका प्रकाश सारे संसार में फैलाना है। कुण्डलिनी के बारे में और हमारे प्रोग्राम दस दिन तक हैं। आप लोग जरूर वहाँ उपस्थित हों और मैं बताने वाली हूँ कि कुण्डलिनी चीज़ क्या है? उसका कितना हमारे साथ सनातन सम्बन्ध हैं। और सनातन धर्म की जो विशेषतायें हैं उनको उभारना अत्यंत आवश्यक है और अगर आप सोचते हैं कि एक तरफा चलने से आप कामयाब होगे तो फिर ये गलत बात है। सब चीज़ परमात्मा की बनाई हुई है और परमात्मा ने ही इन बनी हुई चीज़ों को ठीक रखने के लिये अपने ही स्वरूपों को इस संसार में भेजा हुआ है, उस चीज़ को आप लोग भी मान्य कर लीजिये। अब उसकी मान्यता को ले करके और आत्मसाक्षात्कार को आपको प्राप्त करना है। आत्मसाक्षात्कार के बाद आपको इस में स्थापित भी होना पड़ेगा। ये नहीं कि आपने आत्मसाक्षात्कार कर लिया और आप बैठ गये कि, 'हाँ माँ, मैं तो पार हो गया हँ।' ये पहली चीज़ है कि योग होना और फिर योग की कुशलता प्राप्त करना। और इसकी कुशलता सीखने पर आप प्रवीण हो जाएंगे, आप एकदम इसके मास्टर हो जाएंगे। वो कैसे और क्या इसके लिए आपको यहाँ पर इस मोहल्ले में ही एक सेंटर है, जहाँ आप ये सब जान सकते हैं, समझ सकते हैं और उसमें प्रवेश हो सकते हैं। बहुत आसान है, इसमें छोटे-छोटे बच्चे तक इसमें निष्णात् हो गये हैं। और आज मैं देखती हूँ कि अनेक पहुँचे हुए पुरुष पैदा हो गये हैं, लेकिन आप जानते नहीं हैं कि वे पहुँचे हुए पुरुष हैं। उनको समझने के लिये भी जरुरी है कि आप अपने आत्मा को जान लें, जिसकी वजह से आप उनको भी समझ सकेंगे। सब के लिए अति आवश्यक है कि वो परमात्मा को जानने से पहले अपने आत्मा को जान ले। और आत्मा को जानते ही आप परमात्मा को जान पाएंगे, उससे पहले नहीं जान जाएंगे। इसलिये पहले आप अपने आत्मा को पायें और यही एक इच्छा शुरुआत में रखें। उसी के साथ-साथ परमात्मा क्या चीज़ है ये भी आप समझ जाएंगे। परमात्मा का आप सब को अनन्त आशीर्वाद !

New Delhi (India)

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