What To Do After Self-realisation and Sahasrara Chakra, Delhi

What To Do After Self-realisation and Sahasrara Chakra, Delhi 1981-02-10

Location
Talk duration
78'
Category
Public Program
Spoken Language
Hindi

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10 फ़रवरी 1981

Public Program

New Delhi (भारत)

Talk Language: Hindi | Transcript (Hindi) - Reviewed | Translation (English to Hindi) - Draft

"1981-0210 स्वयं-उपलब्धि के बाद क्या करें, सहस्रार चक्र [हिंदी] नई दिल्ली (भारत)"

"स्वयं-प्राप्ति के बाद क्या करें, सहस्रार चक्र [हिंदी] नई दिल्ली (भारत)"

सहजयोग में प्रगति नई दिल्ली, १० फरवरी १९८१

यहाँ कुछ दिनों से अपना जो कार्यक्रम होता रहा है उसमें मैंने आपसे बताया था कि कुण्डलिनी और उसके साथ और भी क्या-क्या हमारे अन्दर स्थित है। जो भी मैं बात कह रही हूँ ये आप लोगों को मान लेनी नहीं चाहिए लेकिन इसका धिक्कार भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये अन्तरज्ञान आपको अभी नहीं है। और अगर मैं कहती हूैँ कि मुझे है, तो उसे खुले दिमाग से देखना चाहिए, सोचना चाहिए और पाना चाहिए। दिमाग जरूर अपना खुला रखें । पहली तो बात ये है कि सहजयोग कोई दकान नहीं है। इसमें किसी प्रकार का भी वैसा काम नहीं होता है जैसे और आश्रमों में या और गुरुओं के यहाँ पर होता है कि आप इतना रुपया दीजिए और सदस्य हो जाइए। यहाँ पर आप ही को खोजना पड़ता है, आप ही को पाना पड़ता है और आप ही को आत्मसात करना पड़ता है।

जैसे कि गंगाजी बह रही हैं। आप गंगाजी में जायें, इसका आदर करें, उसमें नहाएं- धोएं और घर चले आएं। अगर आपको गंगा जी को धन्यवाद देना हो तो दें, न दें तो गंगाजी कोई आपसे नाराज नहीं होती। एक बार इस बात को अगर मनुष्य समझ ले, कि यहाँ कुछ भी देना नहीं है सिर्फ लेना ही है, तो सहजयोग की ओर देखने की जो दृष्टि है उसमें एक तरह की गहनता आ जाएगी। जब लेना होता है, जैसे कि प्याला है, उसमें तभी आप डाल सकते हैं जब उसमें गहराई हो। और जब लेने की वृत्ति होती है तब मनुष्य उसे पा सकता है। दूसरी बात ये है कि आप लोग अनेक जगह जा चुके हैं क्योंकि आप परमात्मा को खोज रहे हैं। आप साधक हैं। साधक होना भी एक श्रेणी है, एक कैटगरी है। सब लोग साधक नहीं होते। हमारे ही घर में हम तो किसी से नहीं कहते कि आप सहजयोग करो या सहजयोग में आओ । किसी से भी नहीं कहते। सिवा हमारे और हमारे नाती- पोतियों के कोई भी सहजयोगी नहीं है । लेकिन जो नहीं है वो नहीं है, जो हैं सो हैं। अगर कोई खोज रहा है, उसके लिए सहजयोग है, जो साधक है उसके लिए सहजयोग है। हरेक आदमी के लिए नहीं। आप तो जानते हैं कि दिल्ली में सालों से हम रह रहे हैं और हमारे पति भी यहाँ रह चुके हैं। लेकिन हमने अभी तक किसी भी हमारे पति के दोस्त या उनके पहचान वाले या रिश्तेदार से बातचीत भी नहीं करी और बहुत लोग हैरान हैं कि ‘हमको मालूम नहीं था कि यही माताजी निर्मलादेवी हैं जिनको हम दूसरी तरह से जानते हैं। तो सहजयोग जो चीज़ है, इससे आपको लाभ उठाना है। पहली बात। इस बात को अगर पहले आप समझ लें कि आपको कुछ पाना है। परमात्मा को भी आप कुछ नहीं दे सकते और सहजयोग को भी आप कुछ नहीं दे सकते। उनसे लेना ही मात्र है। लेकिन माँ की दृष्टि से मुझे ये कहना है कि अगर लेना है तो उसके प्रति नम्रता रखें । अपने में गहनता रखें और इसे स्वीकार करें । माँ जो होती है वो समझ के बताती है। ये नहीं कि आपकी हर समय परीक्षा लँ और आपको मैं परेशान करूँ और फिर देखें कि आप इस योग्य हैं या नहीं, या पात्र हैं या नहीं। दूसरी ये भी बात है कि माँ बच्चों को जानती अच्छे से है। जानती है कि इनमें क्या दोष है, क्या बात है, किस वजह से रुक गये। उसको इसकी मालूमात गहरी होती है बहत और वो समझती है कि किस तरह से बच्चे को भी ठीक किया जाए। कहीं डाँटना पड़ता है, तो डाँट भी देगी। जहाँ दुलार से समझाना पड़ता है, समझा भी देती है। और ये सिर्फ माँ का ही काम है और कोई कर भी नहीं सकता। मुश्किल काम है और किसी के लिए करना। क्योंकि ये सारा काम प्यार का है। आज मनुष्य विप्लव में और इतनी आफ़त में है; इतने दुःख में और आतंक में बैठा हुआ है। इस क़दर उस पर परेशानियाँ छाई हुई हैं कि इस वक्त और भी किसी तरह की परीक्षा इन पर दी जाए, ऐसा समय नहीं है। और ये माँ ही समझ सकती है कि बच्चे कितनी आफ़तें उठा रहे हैं, उनको कितनी परेशानियाँ हैं और किस तरह से उनका भार उठाना चाहिए और उनके अन्दर किस तरह से प्रभु का अस्तित्व जागृत करना चाहिए। ये माँ ही कर सकती है। कुण्डलिनी के बारे में जो कहा गया है कि ‘कुण्डलिनी आपके अन्दर स्थित आपकी माँ है, जो हजारों वर्षों से आपके जन्म होते ही आप में प्रवेश करती है और वो आपका साथ छोड़ती नहीं , जब तक आप पार न हो जाएं, वो प्रतीक रूप आपकी माँ ही है।’ यानी ये कि समझ लीजिए ‘प्रतीक रूप आपकी महा- माँ’ की एक छाया है, छवि है। एक प्रश्न यह जो किया था किसी ने कि, ‘माँ, आपने कहा था कि पूरी रचना हमारी करने के बाद, पिण्ड की पूरी रचना करने के बाद भी वो वैसी की वैसी ही बनी रहती है, इसको किसी तरह से समझाया जाए।’ वो आज मैं बात आपको समझाऊँगी कि किस तरह से होता है। कुण्डलिनी शक्ति हमारी जो महाकाली की इच्छा शक्ति है उसका शुद्ध स्वरूप है। यह पूरी उसकी शुद्ध इच्छा ही है। मतलब ये कि एक ही इच्छा मनुष्य को होती है संसार में जब वो आता है। उसका शुद्ध स्वरूप है कि परमात्मा से मिलन हो और दूसरी उसे इच्छा नहीं होती। ये उसका शुद्ध स्वरूप है। और जब तो इच्छा कुण्डलिनी स्वरूप होकर के बैठती है तो वो मनुष्य का पूरा पिण्ड बनाती है-पर अभी इच्छा ही है। इसलिए पूरा बनाने पर भी वो इच्छा ही बनी रहती है क्योंकि उसकी जो इच्छा है वो जागृत नहीं है। इसलिए इच्छा पूरी की पूरी वैसी ही बनी रहती है और वो अपनी इच्छा छाया की तरह आपको संभालती रहती है कि देखो , इस रास्ते पर गए हो तो यहाँ वो इच्छा पूरी नहीं होगी जो सम्पूर्ण शुद्ध आपके अन्दर से इच्छा है वो पूरी नहीं होगी। उस इच्छा को पूरी किए बगैर आप कभी सुख भी नहीं पा सकते। सारा आपका पिण्ड जो है वो इसलिए बनाया गया कि वो इच्छा पूर्ण हो जिससे आप परमात्मा को पायें। पर महाकाली शक्ति को जब आप इस्तेमाल करने लगते हैं तो आपकी महाकाली की शक्ति में जो उसका कार्य है वो बाहर की ओर होने लग जाता है। माने, आपकी इच्छायें जो हैं वो बाहर की ओर जाने लग जाती हैं। आप ये सोचते हैं कि मैं ये चीज़ पा लँ, वह चीज पा लूँ। जब आपका चित्त बाहर जाता है उसका भी एक कारण है जिसके कारण आपका चित्त बाहर जाता है। जो मैने कहा था कि वो जरा विस्तारपूर्वक बताना होगा। जब, क्योंकि आपका चित्त बाहर की ओर जाने लगता है और जैसे-जैसे आप बड़े होने लग जाते हैं और भी वो बाहर की ओर जाने लग जाता है। इसकी वजह से जो शुद्ध इच्छा आपके अन्दर है जिसको कि शुद्ध विद्या कहते हैं और शुद्ध आपके अन्दर जो अन्तरतम इच्छा है वो एक ही है कि, ‘परमात्मा से योग घटित हो।’ वो कार्यान्वित नहीं हो पाती। सिर्फ़ आप ये ही सोचते रहते हैं कि हम इसे पायें, उसे पायें, उसे पायें। इसलिए वो जैसी की तैसी बनी रहती है। इसलिए इसे अवशिष्ट ऊर्जा कहते हैं। अब ये जो आपकी शुद्ध इच्छा है ये ही आपको खींच कर इधर से उधर ले जाती है और आप दर-दर के ठोकरे खाते हैं, कर्मकाण्ड करते हैं, इधर ढूँढते हैं, किताबें पढ़ते हैं और आप अपने अन्दर धारणा सी बना लेते हैं कि परमेश्वर का पाना ये होता है, परमेश्वर का पाना ये होता है। जब तक आप उसे पाते नहीं आप इच्छा को सोचते हैं कि हमें इस चीज़ से पूरा हो जाएगा। किसी चीज़ से पूरा हो जाएगा। सो नहीं होता। पर बहुत बार ऐसा भी होता है कि महाकाली शक्ति जो है जब हमारी बहुत बार और जगह दौड़ने लग जाती है तब कभी-कभी कोई गुरु लोग भी या ऐसे लोग कि जो बहुत पहुँचे हुए लोग हैं वो भी इस मामले में ये बता देते हैं कि ये इच्छा किस तरह से पूर्ण हो जाती है। लेकिन बहुत से अगुरु भी इस संसार में हैं। बहुत से दुष्ट लोगों ने भी गुरु रूप धारण कर लिया है। और इसी वजह से वो आपकी इस इच्छा को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। माने कुण्डलिनी को तो कोई छू नहीं सकता, किन्तु आपकी जो महाकाली की जो शक्ति है उसको मंत्रमुग्ध कर देते हैं। वो मंत्रमुग्ध होने के कारण आपकी जो वास्तविक इच्छा परमात्मा से योग पाने की है वो छूट करके आप सोचते हैं कि ये जो हैं अगुरु जिसने हमको मंत्रमुग्ध किया है, ये ही उस इच्छा को पूरा कर देगा। इसको पूर्ण कर देगा । और इसलिए आप उस चीज़ से चिपक जाते हैं और इसलिए आप उस चीज़ से चिपक जाते हैं। और जब आप मंत्रमुग्ध की तरह उससे चिपक जाते हैं तब आपके ध्यान में ही नहीं आता है कि आपकी वास्तविक इच्छा पूरी नहीं हुई है और आप गलत रास्ते पर चल रहे हैं। जब तक आप बहुत ठोकरे नहीं खाते हैं, जब तक आपका सारा पैसा नहीं लुट जाता, जब तक आप पूरी तरह से बर्बाद नही हो जाते, आपके ध्यान में ये बात नहीं आती। बहुत बार लोगों ने मुझे कहा कि माँ, आप किसी भी गुरु के बारे में कुछ भी मत कहिए । "मैंने कहा कि ऐसा ही हुआ कि कोई मेरे बच्चों की गर्दनें काटे और मैं न कहूँ कि ये गर्दन काट रहे हैं। ये कहे बगैर कैसे होगा, आप ही बताइये, आप माँ-बाप भी हैं। आप बताइये कि अगर आप जानते हैं कि कोई आदमी आपकी ये इच्छा हमेशा के लिए मंत्रमुग्ध कर देगा और आपको विचलित कर देगा, आपकी कुण्डलिनी को एकदम से ही वो जकड़ देगा या उसको ऐसा कर देगा कि वो फ्रिज हो जाए एकदम। तो क्या कोई माँ ऐसी होगी जो नहीं बताएगी? इस मामले में बहुतों ने मुझे डराया भी, धमकाया भी। कहा कि आपको कोई गोली झाड़ देगा। मैंने कहा झाड़ने वाला अभी पैदा नहीं हुआ। मुझे देखने का है। ऐसा आसान नहीं है मेरे ऊपर गोली झाड़ना। वो तो ईसा मसीह ने एक नाटक खेला था इसलिए उस पर चढ़ गए, नहीं तो ऐसा वो सबको मार डालते कि सबको पता चल जाता। लेकिन वो एक नाटक खेलने का था, इसलिए उस वक्त ये काम हुआ। अब, हमको ये सोचना चाहिए कि जब हमारी ये शुद्ध इच्छा है कि परमात्मा से योग होना है, तो कुण्डलिनी जागृत करने के लिए क्या करना चाहिए? ऐसा बहत बार लोगों ने कहा है। हालांकि हर लेक्चर में मैं कहती हैँ कि ये जीवन्त क्रिया है, इसके लिए आप कुछ नहीं कर सकते। ‘आप’ नहीं कर सकते इसका मतलब नहीं कि मैं नहीं कर सकती। इसका मतलब यह नहीं कि सहजयोगी नहीं कर सकते। अधिकारी होना चाहिए। जैसे एक डॉक्टर है जो कि ऑपरेशन करना जानता है, वो ही ऑपरेशन कर सकता है। पर कोई दूसरा आदमी अगर इस तरह का काम करे तो लोग कहेंगे कि ‘ये खूनी है’ और इतना ही नहीं वो खून ही कर डालेगा, क्योंकि उसको मालूमात ही नहीं उस चीज़ की। जिसको इसकी जानकारी नहीं है, जो इस बारे में समझता नहीं है उसको कुण्डलिनी में पड़ना नहीं चाहिए । जब आप सहजयोग में पार हो जाते हैं उसके बाद इसके नियम शुरू हो जाते हैं, जो परमात्मा के दरबार के नियम है-जैसे आप हिन्दुस्तान में आए तो आपको हिन्दुस्तान सरकार के नियम पालने पड़ते है। उसी प्रकार जब आप परमात्मा के साम्राज्य में आए तो उसके नियम आपको पालने पड़ते हैं। और अगर आप वो नियम न पालें तो आपके वाइब्रेशन हाथ से छूट जाएंगे | बार-बार वो वाइब्रेशन छूट जाएंगे, बार- बार आप पहले जैसे होते रहेंगे, जब तक आप पूरी तरह से इसको अपने ऊपर पूरा प्रभुत्व न पा जाए। जब तक आपने अपनी आत्मा को पूरी तरह से नहीं पाया, आप पाइएगा वाइब्रेशन आपके छूटते जाएंगे । क्योंकि ये वाइब्रेशन आपकी आत्मा से आ रहे हैं। आत्मा जो है उसको सत् चित आनन्द कहते हैं। माने वो सत्य है। सत्य का मतलब ये है कि वो ही एक सत्य है, बाकी सब असत्य है। बाकी सब ब्रह्म है। ब्रह्म जो है वो भी उन्हीं की शक्ति है और जो कुछ उनके अलावा है-आत्मा, ब्रह्म इसके अलावा जो कुछ भी है वो असत्य है। असत्य माने ये है कि एक आदमी है समझ लीजिए सोचता है कि ‘हमने बहुत बड़ा काम किया’, ‘आपने क्या काम किया?’ उनसे पूछिए, तो बतायेगा कि, ‘साहब, मैंने मकान बनाया, घर बनाया और बच्चों की शादियाँ कर दी’ या कोई बड़ा भारी उसको तमगा मिल गया। ‘मैंने हवाई जहाज बना दिया और कोई चीज़ बना दी, मैं बड़ा भारी प्रधानमंत्री हो गया। ये सब भी एक मिथ्याचरण है। मिथ्या बात है। क्योंकि ये शाश्वत नहीं है, सनातन नहीं है, शाश्वत नहीं है। ये कोई आदमी, आज बड़े-बड़े अफ़सर हो जाते हैं। हम भी अफ़सरी काफ़ी देख चुके हैं और जैसे ही अफ़सरी खत्म हो गयी तो कोई पूछता भी नहीं। बड़ा आश्चर्य है अगर आपका तबादला हो गया तो कोई नहीं पूछता। आपने मकान बना लिया, आपने देखे हैं कितने बड़े-बड़े खण्डहर पड़े हुए हैं। और न कोई जानता है कि ये है क्या बला? कहाँ से आई, क्या हुआ? बड़े-बड़े ऐसी चीजें खत्म हो चुकी हैं। | एक बार मैं गयी थी आपके आगरा के किले में। तो रात बहुत बीत गयी वहाँ और कुछ खास हमें दिखाने का इन्तजाम था, तो बहुत रात हो गयी । और वो कहने लगे, ‘जब भीड़ जाएगी तब आपको ठीक से दिखायेंगे।’ बहत कुछ चीजें दिखाईं। जब लोग लौट रहे थे, तो मैंने देखा कि बिल्कुल सब दूर अंधेरा है। सब जितनी भी उस वक्त में चहल -पहल रही होगी। रानियों ने क्या-क्या काम किये होंगे और परेशान किया होगा अपने नौकरों को कि, ‘ये मरे कपड़े नहीं ठीक हैं।’ राजाओं ने परेशान किया होगा। बड़े-बड़़े वहाँ पर दावतें हुई होंगी। उसके लिए झगड़े हुए होंगे। पता नहीं क्या-क्या किया होगा इन लोगों ने उस जमाने में। सब एकदम फ़िजुल। कुछ नहीं सुनाई दे रहा था। अब वो आवाज खत्म हो चुकी थी वहाँ। कुछ नहीं था। एकदम अंधेरा चारों तरफ़ छाया हुआ। और जब हम बाहर आ रहे थे बिल्कुल बाहर आये तो रोशनी थी नहीं खास। एक साहब के पास जरा सी टॉर्च थी, उससे सभी लोग देखकर बाहर आ रहे थे। बाहर आते वक्त देखा कि एक चिराग की रोशनी जल रही थी। उस चिराग की रोशनी में हम बाहर आए, तो पूछा कि, ‘भाई चिराग यहाँ किसने जलाया ?’ कहने लगे कि, ‘यहाँ पर एक मज़ार है, एक पीर की मज़ार है और ये पीर बहुत पुराने है। ‘कितने पुराने?’ कहने लगे कि, ‘जब ये किला भी नहीं बना था, उससे पुराने।’ ‘अच्छा तब से इस पर दिया जलता रहता है। सब लोग यहाँ टेकने जाते हैं। भी ये सनातन है। पीर होना, जाना सनातन है। ये शाश्वत है। बाकी सब असत्य है, सब गुम हो गया है, खत्म हो गया, हो गया, लीन हो गया। आज कोई आकाश में उछल रहा है, कल देखा तो वो गर्द में पड़ा हुआ है। आप रोज़मर्रा ही शून्य देखते हैं अपने ही आँखों के सामने आपने देखा है कितनी बार ऐसे होता हुआ। इतना पचास साल में इस भारतवर्ष में हुआ है, कभी नहीं हुआ था। सबसे ज़्यादा उथल- पुथल इसी पचाल साल में हुई है। इससे आप समझ सकते हैं कि ये सनातन नहीं है। ये कोई-सी भी चीज़ सनातन नहीं, जिसके पीछे आप दौड़ रहे हैं। "दौड़-धूप कर रहे हैं। आज बड़े भारी आदमी बन कर घूम रहे हैं; आपका ठिकाना नहीं। कल अआप रास्ते के भिखारी बने होंगे। जो चीज़ सनातन है उसे पाना चाहिए। जब आदमी साक्षात्कार पा लेता है, तो वह खोता नहीं। जब उसका जन्म होता है तो साक्षात्कार के साथ वो दूसरी चीज़ मोक्ष, मोक्ष लेकर वो आता है। वो करुणा में फिर से जन्म लेता है। सिर्फ करुणा में जन्म लेता है। लेकिन वो मोक्ष अपने साथ लेकर के आता है। उस सनातन को पाना चाहिए। और जब हम इस बात को जान लेते हैं कि हमें सनातन को पाना चाहिए, तब हमारा जो व्यवहार है, सहजयोग के प्रति, बदल जाता है। जो लोग पार हो गये हैं उनको पता होना चाहिए कि हमें स्थित होना पड़ता है। मैंने कल बताया था कि पार होने के बाद क्या करना चाहिए । ‘स्थित’ होने के लिए उसके नियम हैं। जैसे आप जानते हैं अगर हवाईजहाज़ है, इसको पहले जब आप परीक्षण करते हैं तो उड़ाते हैं, देखते हैं कि इसका संतुलन कैसा है। ये ठीक से चल रहा है या नहीं चल रहा है। उसको बार- बार ग्राऊंडिंग कराते हैं, फिर उसको उड़ाते हैं, फिर देखते हैं। सी प्रकार जब आपकी कुण्डलिनी जागृत भी हो गई और आप पार भी हो गए और माना कि आप पार हो गए और आपके अन्दर से वाइब्रेशन शुरु होने लगे। तो फिर आपको जरूरी है कि आप देखने को जरा सा देखें और समझें क्या है। अब, सबसे जो बड़ी गलती हम लोग करते हैं, पार होने के बाद, पहली गलती ये है, कि हम इस के बारे में सोचना शुरु कर देते हैं। तो उसमें कभी-कभी शंकायें भी बहुत लोगों को आती है । कहते हैं, ‘भाई, कैसे हो सकता है, माँ ने हमको सम्मोहित भी कर दिया होगा तो क्या पता? हो सकता है कि गड़बड़ ही हो गया होगा! हम कैसे ऐसे हो सकते हैं? हमने तो सुना था इसमें बड़ी-बड़ी दिक्कतें होती हैं, हम ऐसे आसानी से कैसे पार हो गए ? ठण्डी हवा आ गयी तो क्या समझना चाहिए कि क्या बड़े भारी हम पार हो गए? ये कैसे हुआ? पहली गलती ये है कि इसके बारे में आप सोच नहीं सकते। सोचने से आपके वाइब्रेशन खट से खत्म हो जाएंगे | आपको अगर हम हीरा दें और आपको कहें ये आपके पास हीरा है, आप उस पर क्या करेंगे ? आप जौहरी के पास जाकर पूछेंगे कि, ‘भाई ये हीरा क्या है ?’ कम से कम इतना तो आप करेंगे। क्या घर में बैठे-बैठे सोचकर हीरे को कोई फेंक देगा ? जब रोज़मर्रा के जीवन में हम लोग इस तरह से अपना ध्यान लगाते हैं, तब जो हमारे परम की बात है, उसमें ये ध्यान रखना चाहिए कि अगर हमने परम पाया है तो आखिर ये कैसे जानें कि ये परम है या नहीं? और इसमें शंका करने की कौनसी बात है? बहुत से गुरु लोग हैं, आपसे कहेंगे कि इसमें आप नाच सकते हैं, कूद सकते हैं। ऐसा होता है कुण्डलिनी में, वैसा होता है, ये होता है। ये सब चीजें आप वैसे भी कर सकते हैं। माने नाचना कोई मुश्किल काम नहीं, कूदना कोई मुश्किल नहीं, मेंढक जैसे चलना भी कोई मुश्किल नहीं है। और आजकल एक गुरुजी हैं वो उड़ना सिखा रहे हैं, तो लोग अपने फोम में बैठकर ऐसे उड़ते हैं, सोच रहे हैं कि वो हवा में उड़ रहे हैं। ऐसा सोचना भी मुश्किल नहीं है। घोड़े पर भी लोग कूद करके बैठ जाते हैं। जरा कोशिश करने से आ जाता है वो भी। ये भी कोई मुश्किल नहीं है। वो भी आप कोशिश करें तो कर सकते हैं । और आप एक तार पर भी चल सकते हैं, सर्कस में जैसे चलते हैं। या आप कलाबाज़ी कर सकते हैं । ये भी आपने करते देखा है और कर सकते हैं। अगर आप कोशिश करें तो सब धन्धे आप कर सकते हैं। सिर्फ आप क्या नहीं कर सकते ? कि ये एक त्रिकोणाकार अस्थि में अगर आप स्पन्दन देखें तो मानना चाहिए कि कुण्डलिनी है। स्पन्दन आप नहीं कर सकते कहीं भी। फिर उसका उठता हुआ स्पन्दन आप देख सकते हैं। सब में नहीं, क्योंकि कोई अगर बढ़िया लोग हों तो उनमे तो जरा भी पता नहीं चलता, खट से कुण्डलिनी उठ जाती है। पर बहुत से लेगों में इसका स्पन्दन दिखाई देता है। उसका अनहत् पर बजना सुनाई देता है। तो कबीरदास जी ने बहुत अच्छा कहा है कि, शून्य शिखर पर अनहत् बाजि रे। शून्य शिखर पर, यहाँ सहस्रार पर अनहत् का बजना आप सुन सकते हैं। ‘शून्य शिखर पर अनहत् बाजि रे।’ तो उसको आप देख सकते हैं, बज रहा है क्या? कोई गुरु हैं, कहते हैं हम नाच रहे हैं, भगवान का नाम लेकर के ‘नाचि रे-नाचि रे’..... भाई , ये क्या तरीका है? सीधा हिसाब बताइये कि नाचना, गाना, ये आनन्द में मनुष्य करता है, लेकिन वो करना परमात्मा को पाना नहीं है। वो हो सकता है कि मनुष्य पाकर के गा रहा हो या नाच रहा हो। लेकिन पाया तो नहीं अभी तक। पाना तो कुण्डलिनी के ही जागृति से होता है। उसके बगैर हो नहीं सकता। और कुण्डलिनी सहज ही | में जागृत होती है। माने ये कि सहज है, याने ये जीवन्त क्रिया है। आपकी उत्क्रान्ति प्रक्रिया है। और आप आज उस उत्क्रान्ति प्रक्रिया के अन्तर्गत ऊपर उठ जाते हैं। आपकी उत्क्रान्ति जो है, वो चल रही है। अभी आप इन्सान हैं। इन्सान से आप अतिमानव हो जाते हैं। जब इस तरह से बात आपने समझ ली कि जो काम हम ऐसे कर सकते हैं वो परमात्मा क्यों करेंगे, वो तो हम कर ही सकते हैं। वो तो अब वो काम करेंगे कि जो हम नहीं कर सकते। तब फिर इसमें सोचने की बात क्या है? हाथ में ठण्डी-ठण्डी हवा आनी शुरू हो गयी। इसके बारे में भी सब शास्त्रों में लिखा हुआ है। कोई नयी बात नहीं है। चैतन्य की लहरियाँ, ये ब्रह्म की शक्ति है। लेकिन इस पर आप सोच करके क्या करने वाले हैं? आप सोच करके भी कौनसा प्रकाश डालने वाले हैं? क्योंकि आपकी बुद्धि तो सीमित है, और मैं तो असीम की बात कर रही हूँ। अगर आप समझ लीजिए यहाँ से, चन्द्रमा में चले गए तो वहाँ जाकर के देखना ही है न कि आप सोचकर बैठे कि भाई, चन्द्रमा पर जायें तो ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। उससे फ़ायदा क्या? आप जाइये और देखिये । जो चीज़ है उसका साक्षात करना चाहिए । अब, जब आपके अन्दर में ये शुरु हो गया, तब दूसरा बड़ा भारी नियम सहजयोग का है। पहला नियम ये कि इसके बारे में आप सोच नहीं सकते ये सोच-विचार के परे हैं, निर्विचार में है, असीम की बात है। दूसरी जो बात इसकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि, ‘सहजयोग की क्रिया आज महायोग बन गई है।’ पहले एक ही दो फूल आते थे पेड़ पर । एक ही फूल । वो ज़माना और था। उस ज़माने में इतना ज़्यादा कोई ज्ञान देता भी नहीं था । कहीं किताबों में भी लिखा नहीं है, किसी को कोई बताता भी नहीं था । समझ लीजिए, कबीरदास जी ने भी कहा है तो उन्होंने सिर्फ अपना ही वर्णन किया है कि भाई मेरे ‘शून्य शिखर पर अनहत् बाजि रे’ और मेरे ऐसे-ऐसे ‘इड़ा पिंगला सुषुम्ना नाड़ी’ वरगैरा है। पर इतना गहराई से बताया नहीं, क्योंकि उन्होंने ये काम किया नहीं था, उसके बारे में निवेदन किया था , उसके बारे में भविष्यवाणी की थी कि ये मेरा काम है। विशेष कर ज्ञानेश्वरजी ने साफ़ कहा था कि महायोग होने वाला है। विलियम ब्लैक नाम के एक बड़े भारी कवि ने बहुत सहजयोग के बारे में बताया है जो ये घटना घटने वाली है। तो, जो चीज़ घटने वाली है, होने वाली है उस के बारे में उन्होंने कहा था। और आज जब वो घट गई तो उसके बारे में अगर हम बता रहे हैं तो बहुत से लोग ये भी सोचते हैं कि ये तो कहीं लिखा नहीं गया किताबों में। ये बहुत गलत धारणा है। क्योंकि समझ लीजिए कोई कहे कि आप चन्द्रमा पर गये। किसी ने लिखा था कि चन्द्रमा पे कैसे जाया जाएगा? जिस वक्त आप उसको करें तभी तो आप लिखेंगे। इसलिए इस तरह की धारणारें लेकर के मनुष्य अपने को रोक लेता है। -दो आदमियों का नहीं है। पर जो महत्वपूर्ण, जो बड़ा, वो ये है, उसको समझना चाहिए कि आज का सहजयोग एक- यह सामूहिक चेतना का कार्य है। इसको लोग समझ नहीं पाते। यह पॉइंट क्या है, इसको समझना चाहिए । जैसे हम कहें आप भाई – बहन हैं और अपने एक-दूसरे को भाई – बहन समझें। यह तो ऊपरी बात कहनी हुई। जब यह हैं ही नहीं, तो कैसे समझेंगे। लेकिन पार होने पर ये पता होता है कि एक ही माँ ने हमको जन्म दिया है। अब जैसे जो लोग पार हैं, अगर हम अपने हाथ में फूँकें तो आपको भी फूँक आएगी । अगर हम कोई सुगन्ध, ये लोग इत्र वगैरेह लगायें तो आपको सुगन्ध आएगी चाहे आप यहाँ हों चाहे इंग्लैण्ड में हों। पर सहजयोग में पूरी तरह से हमसे जुड़े हों तो। आधे अधूरे लोगों को नहीं होता। लोग कहते हैं, ‘माँ, अचानक कभी एकदम से खुशबू आने लग जाती है। क्योंकि सब एक ही अंग के प्रत्यंग हैं। ये जब तक आप समझ नहीं लेंगे पूरी तरह से, तब तक आपको मुश्किल रहेगी। अब बहुत से लोगों को मैं देखती हूैँ कि, ‘मैं घर में ले जाऊँगा माँ और वहाँ मैं करूँगा।’ बहत से लोग तो यहाँ आने पर भी सोचते हैं कि हम बड़े भारी अफ़सर हैं। हम यहाँ कैसे? बहुत से लोग यहाँ इसलिये नहीं आते हैं कि हम बड़े भारी अफ़सर हैं। पर जहाँ लोग सम्मोहित करते हैं और गन्दे काम करते हैं, वहाँ सब मोटरे लेकर पहुँच जाते हैं। तब कोई शर्म नहीं। घोड़े का नम्बर पूछना हो तो वहाँ पहुँच जायेंगे सब, मोटरें लेकर। लेकिन ऐसी जगह जहाँ परम का कार्य हो रहा है, वहाँ मैं देखती हूँ कि लोगों को शर्म आती है आते हुए। या तो कुछ लोग डरते भी हैं। डरने की कोई बात नहीं। अपनी माँ है। हम तो सबकी माया जानते हैं, किसी भी तरह का मामला हो, हम ठीक कर सकते हैं। तो डरने की कौनसी बात है? इसलिए माँ का स्वरूप है न हमारा। उसको ऐसा समझना चाहिए कि प्रेम स्वरूप है और उसमें डरने की कोई बात नहीं है। ये सामूहिक कार्य को मनुष्य समझ नहीं पाता है, कभी भी। जब तक वो पार नहीं होता। यानि ये कि जब दूसरा आदमी है वो, कोई रह ही नहीं जाता है। ‘दूसरा है कौन ? ये इस तरह से महसूस होता है कि आपके हाथ से ठण्डी-ठण्डी हवा तो चलनी शुरू हुई, और आप जैसे ही दूसरे आदमी के पास में जाएंगे तो शुरु-शुरु में ऐसा लगेगा कि एक उँगली ज़रा हरकत कर रही है, पता नहीं क्या ? आप उनसे पूछिये कि आपको बहुत जुकाम होता है, आपको कोई शिकायत है, ऐसी तकलीफ़ है ? कहने लगे, ‘हाँ भाई, क्या बतायें, तुमको कैसे पता ?’ कहने लगे, ‘मेरी ये उँगली पता नहीं क्यों काट सा रही थी? ये सबजेक्टिव नॉलेज है, सबजेक्टिव नॉलेज माने आत्मा का ज्ञान। सबजेक्टिव ऐसा अगर शब्द इस्तेमाल करें तो इसका मतलब होता है कि दिमागी जमा-खर्च। मतलब एक आदमी है-‘साहब मैं इसे जानता हूँ, मैं उसे जानता हूँ।’ ये शुद्ध सत्य विद्या है, आत्मा शुद्ध सत्य है। ये अॅबसल्यूट नॉलेज है। लो , एक आदमी एक बात कहेगा वही दस आदमी कहेंगे, अगर वो सहजयोगी है तो। दस छोटे बच्चे अगर साक्षात्कारी आत्मायें हैं, ये प्रयोग लोग कर चुके हैं, उनकी आँख आप बाँध कर रखिये और किसी आदमी को सामने बैठा दीजिये। ‘बताइये’, कहने लगे, ‘इनके वाइब्रेशन्स, कहाँ पकड़ आ रही है।’ सबके सब उसके लिए बतायेंगे, ये उँगली में पकड़ आ रही है। इसमें जलन हो रहा है। माने ये कि उसके नाभि चक्र की तकलीफ़ है या उसका लीवर खराब है, वो थोड़ा सीखना पड़ता है। आप यहाँ बैठे हैं, किसी भी आदमी के बारे में, कहीं पर है, उसके बारे में भी जान सकते हैं कि इस आदमी को क्या शिकायत है। बैठे-बैठे। ये सामूहिक चेतना में आप जानते हैं। आप कोई मृत आदमी के लिए भी जान सकते हैं। आप कहीं पर जायें और कहें कि यह जागरूक स्थान है, आप जान सकते हैं कि जागृत है या नहीं। जागृत होगा तो उसमें वाइब्रेशन आयेंगे। जागृत नहीं होगा तो नहीं आयेंगे । जो सच्ची बात है, जो सत्य है वह आत्मा बताता है। इसलिये उसे ‘सत्य स्वरूप’ कहते हैं। और क्योंकि जब आत्मा हमारे अन्दर जागृत हो जाता है, तो हमारा जो चित्त है, माने हमारा अटेंशन है, वो जहाँ भी जाता है, वो काम करता है अब ये चीज़ भी मनुष्य के समझ में नहीं आती। माने कि यहाँ बैठे-बैठे किसी सहजयोगी का चित्त अगर गया कहीं पर, तो वो आदमी ठीक हो सकता है। हमारे एक रिश्तेदार हैं। उनकी माँ बहुत बीमार रहती थीं बिचारी। और बहुत ही बूढ़ी हो गयी हैं। तो वो हम से बताते हैं कि, ‘अब हम आप से नहीं बतायेंगे क्योंकि बहुत बूढ़ी हो गयी हैं, अब उन्हें छुट्टी कराइये आप। जब भी हम बताते हैं वह ठीक हो जाती हैं। ये हमारा अनुभव है कि जब भी हम बताते है ठीक हो जाते हैं। अस्सी साल की हो गयी हैं अब भी फिर वैसे ही हाल हो जाता है। फिर बीमार पड़ जाती हैं फिर आपको बताते हैं, वो ठीक हो जाती हैं।’ मतलब चित्त जो है, वो जागरूक हो जाता है। जहाँ भी आपका चित्त जाएगा वो कार्यान्वित होता है। जहाँ भी आप चित्त डालें। लेकिन इसके लिये पहले अपनी आत्मा में स्थिरता आनी चाहिए । कनेक्शन ठीक न हो तो मैं थोड़ी देर बात करूँगी, सुनाई देगा, बाकी बात गुल हो जाएगी। यही बात है, इस वजह से आप वाइब्रेशन भी खो देते हैं, आपका जरा कनेक्शन ढीला हो गया। पहले अपना कनेक्शन ठीक करना पड़ेगा । योग पूरा आना चाहिए। समझ लीजिए इसका लेकिन सामूहिकता की और भी गहनता अपने को समझनी चाहिए कि सारा एक ही है। हम सब अंग-प्रत्यंग हैं। और जब हम अंग-प्रत्यंग हैं, तो एक आदमी ज़्यादा नहीं बढ़ सकता और एक आदमी कम नहीं हो सकता। कभी-कभी सहजयोगियों में भी ये धारणा आ जाती है कि हम सहजयोग में बड़े भारी बन गए। बहुतों में ये आती है। हम तो बड़े ऊँचे आदमी हैं जब ऐसी भावना आ जाए तो सोचना चाहिए कि बहत ही पतन की ओर हम जा रहे हैं। जिसने ये सोच लिया कि हम ऊँचे हो गये, वो सोचना कि हम पतन की ओर जा रहे हैं। क्योंकि जैसे आदमी सच में ही ऊँचा होता है, वैसे वो नम्र ही होता जाता है। उसकी आवाज़ बदलती जाती है। उसका स्वभाव बदलता जाता है। उसमें बहुत उसमें प्रेम बहते रहता है। ये पहचान है। अगर कोई सहजयोगी सहजयोग में आने के बाद भी बुलन्द पर आ जाए और कहे, साहब, तुम ये क्या हो, वो क्या?’ तो उसको खुद सोचना चाहिए कि मैं गिरता जा रहा हूँ। लेकिन इसका दूसरा भी अर्थ नहीं लगाना चाहिए, बहुत से लोगों को ये है। मैंने देखा, एक साहब थे, अमरीका में और उन्होंने सहजयोग नाम से केन्द्र चलाए। जब आए तो सबने बताया, ‘माँ, ये तो पता नहीं क्या तमाशा है, हम लोग इस पर हाथ रखते हैं और चक्कर खाकर गिर जाते हैं। ‘तो बड़े चक्कर वाला आदमी है,’ मैंने कहा, ‘अच्छा, मैं तो समझ रही हैूँ।’ फिर मैंने उससे कहा, ‘अच्छा, ज़रा अपनी पुस्तिका दिखाओगे?’ पुस्तिका में उसने लिखा था कि ‘वाइब्रेशन्स – साधारण वाइब्रेशन्स के लिए सौ डॉलर और विशेष वाइब्रेशन्स के लिए २५० डॉलर।’ मैंने कहा, ‘गये काम से ये।’ तो मैंने उनसे कहा कि, ‘ये क्या बदतमीज़ी है आपकी? आपने कितना पैसा दिया था मुझे? कितने डॉलर दिये थे आपने वाइब्रेशन लेने के लिए, जो तुमने ऐसा लिखा?’ तो कहने लगे कि, ‘माँ, ऐसा है कि मैं पैसे कैसे कमाऊँ फिर ? मैं खाऊँ क्या?’ मैंने कहा, ‘भूखे मरो। क्या तुम सहजयोग से पहले कुछ करते थे?’ कहने लगे, ‘हाँ, मैं स्कूल में पढ़ाता था।’ मैंने कहा, ‘स्कूल में पढ़ाओ। जो करते थे सो करो । लेकिन तुम सहजयोग को बेच नहीं सकते हो। तुम वाइब्रेशन बेच नहीं सकते।’ कहने लगा, ‘मेरा केन्द्र है, उसमें लोग आते हैं, खाना खाते हैं। मैंने कहा, ‘ठीक है, खाने का पैसा लो। वाइब्रेशन का क्यों लिखा? लिखो, खाने का इतना पैसा, कमरे का इतना पैसा। उसमें भी आप लाभ नहीं बना सकते। ठीक है, जितना लगा उतना खर्चा लो। उसके दम पर तुम अपने महल नहीं खड़े कर सकते।’ और वाइब्रेशन उसके ऐसे थे कि जैसे जल रहा है। बहुत नाराज़ हो गये मेरे साथ। और नाराज़ होकर के वो चले गये। उन्होंने कहा, ‘ये तो हो ही नहीं सकता ऐसा।’ लेकिन सबसे बड़ी बात उस वक्त ये हुई कि उन्होंने बहुत बकना शुरु कर दिया। जब बहुत बकना शुरु किया तो एक साहब, हमारे सहजयोगी हैं, उठकर खड़े हो कर कहने लगे, ‘ज़्यादा बका तो ऊपर से नीचे फेंक देंगे।’ तो कहने लगे, ‘वाह रे वाह, देखिये ये सहजयोगी हुए हैं। इनमें कोई नम्रता नहीं है।’ मैंने कहा, ‘खबरदार, वैसे- नम्रता, जो सहजयोगियों को कुछ कहा या मुझे कुछ कहा अब ! मैंने सुन लिया बहुत।’ मैंने कहा, ‘ये दिन गये कि सब साधु-सन्तों को तुमने सताया था। अगर किसी ने भी एक शब्द कहा है तो देख लेना उनका ठीक नहीं होगा।’ बहुत लोगों को ये है कि कोई अगर साधु-सन्त है उसको जूते मारो, तो भी साधु-सन्त को कहना चाहिए और दस मारो। ये कुछ नहीं होने वाला। आप अगर एक जूता मारियेगा तो हज़ार आप खाइयेगा। तब वो घबड़ा करके भागे वहाँ से। ये भी बहुत लोगों में है कि ‘आपको गुस्सा कैसे आ गया?’ दूसरी ओर अभी एक साहब मिले। मुझसे बकवास करने लगे। मैंने कहा, ‘चुप रहिए, आप बेवकुफ़ आदमी हैं, बहुत बकवास कर रहे हैं बेकार में।’ कहने लगे, ‘मैंने ये पुराण पढ़ा, मैंने वो पुराण पढ़ा।’ मैंने कहा, ‘आपने कुछ नहीं पढ़ा। बेकार बातें कर रहे हैं। आपको कुछ पता नहीं है। अभी पता हो कि नम्बर दो को चलाते हैं कि नम्बर चार, पता नहीं क्या-क्या होता है।’ तो मैंने कहा कि, ‘देखिये, आप बेवकुफ़ी की बातें मत करिये। दूसरों का जो है उनको समझने दीजिये। आप बीच में बकवास मत करिये, आप चुप रहिए।’ तो कहने लगे, ‘देखिये आपको गुस्सा आ गया। आपकी अगर कुण्डलिनी जागृत है तो आपको गुस्सा नहीं आता !’ मैंने कहा, ‘मेरा गुस्सा मत पूछो तुम। बड़ा जबरदस्त होता है जब आए तो।’ तो फिर जरा सहमे महाशय। लेकिन बात ये है कि इस तरह की धारणा लोग कर लेते हैं। आप कोई बिलबिले आदमी नहीं हो जाते हैं। आप वीरश्रीपूर्ण, आप तेजस्वी लोग हो जाते हैं, आपके हाथ में तो तलवारें देने की बात है। ये थोड़े कि आप उस वक्त में जितना भी कोई चाँटा मारे आप खायेंगे। वो येशू ने कहा कि माफ़ कर दो। वो दूसरी बात थी, उसका अर्थ ही दूसरा था। क्योंकि उस वक्त लोगों का ये ही हाल था कि एक ही चाँटा कोई नहीं खा सकता था। लेकिन पार होने के बाद तत्क्षण आपमें शक्ति आ जाती है। तत्क्षण । तो सामूहिकता को इस तरह से समझना चाहिए कि एक आदमी उठकर के कोई कहे कि मैं विशेष कर रहा हूँ, एक आदमी सोचे कि मुझे करने का है। एक आदमी सोच ले कि मैं माँ के बहुत नज़दीक हूँ, तो इतना वो दूर चला जाएगा। क्योंकि मंथन हो रहा है। बड़े जोर का मंथन हो रहा है। शायद आप इसको महसूस कर रहे हैं कि नहीं कर रहे, पता नहीं। जब हम दही को मथते हैं, तो उसका सब मक्खन ऊपर आ जाता है। फिर हम थोड़ा सा मक्खन उसमें डाल देते हैं यही समझ लीजिए अवतार है, समझ लीजिए, यही समझ लीजिये कि परमात्मा की कृपा है। और उस मक्खन से बाक़ी सारा लिपट जाता है | और सब साथ ही साथ एक ही जैसा चलता है। अब उसमें से कोई सोचे मैं अलग हूँ। एकाध-दो, चार मक्खन के कण इधर- उधर रह जाते हैं तो लोग फेंक देते हैं। उसके पीछे में कौन दौड़ने चला है? ‘सब एक हैं और एक ही दशा में हैं। कोई ये न सोच लें कि मैं ऊँची दशा में हूँ। मैं नीची दशा में हूँ, वो ऊँची दशा में है, कभी नहीं सोचना। इस तरह से सोचने से बड़ा नुकसान हो जाता है। यानी आप सोच लीजिये कि जब हम एक ही अंग हैं । अगर एक उँगली सोच ले कि ‘मैं बड़ी हो जाऊँ’, नाक मेरी सोच ले कि ‘मैं बड़ी हो जाऊँ’। कैसी दिखेगी शक्ल? ये तो दोष है। यही तो कैन्सर होता है। कैन्सर में एक अपने को बड़ा समझकर के बाक़ी सेल्स को खाने लग जाता है। ये हो गया कैन्सर। ऐसा जो इन्सान होता है वो अपने को अनोखा बनाना चाहता है कि सब मेरे ही पास हो जाए, मैं कोई तो भी विशेष हो जाऊँ। मेरा ही कुछ विशेष हो जाये, वो आदमी कैन्सरियस हो गया समाज के लिये | सहजयोग की ऐसी स्थिति है, जैसे कि एक मैं कहानी बताती हूँ कि जैसे एक बहुत सी चिड़ियाँ थीं और उनको एक जाल में फँसा दिया गया। तो चिड़ियों ने आपस में ये सलाह मशवरा किया कि, ‘अगर हम लोग सब मिलकर इस जाल को उठा लें तो जाल हमारे साथ उठ जायेगा, फिर जाकर इस को तुड़वा देंगे, बाद में फड़वा देंगे, किसी तरह से निकाल देंगे।’ तो कहा , ‘हाँ ठीक है।’ सब मिलकर के एक, दो, तीन कहकर के उठें। और सबके सब उठे और जाल को तोड़ दिया उन्होंने । वही चीज़ सहजयोग है। सहजयोग की सामूहिकता लोग समझ नहीं पाते हैं, इसलिए बहुत गड़बड़ होता है। माने, ‘माँ, मैं घर में बैठ करके ध्यान करता हूँ। रोज़ पूजा करता हूँ। मेरे वाइब्रेशन्स बन्द हो गये। होंगे ही! आपको सामूहिकता में आना पड़ेगा। आपको सेंटर पर आना पड़ेगा। एक दिन हफ़्ते में कम से कम सेंटर में आ करके आपको देखना पड़ेगा कि आपके वाइब्रेशन ठीक हैं या नहीं। दूसरों पर मेहनत करनी पड़ेगी। आप दीप इसलिये बनाये गये हैं कि आपको दूसरों को देना होगा। इसलिये नहीं बनाए गए कि आप अपने ही घर बनाते रहिये। फिर वही दीप हो सकता है बिल्कुल बुझ जाएगा। ये दीप सामूहिकता में ही जल सकता है, नहीं तो जल नहीं सकता। ये महायोग का विशेष कारण है कि हम अपने को अलग न समझें| आयें नम्रतापूर्वक, आप ध्यान में आयें, हो सकता है कि सेंटर में एकाध आदमी आपसे कहे भी कि, ‘भाई, ये छोड़ दो, ये नहीं करो।’ ' तो बुरा नहीं मानना है। क्योंकि उन्होंने अनुभव किया है। उन्होंने जाना है, कि ये बात गलत है, इसको छोड़ना चाहिए, इसे निकालना चाहिए। और जो कुछ भी सेंटर में कहा जाये उसे करें क्योंकि सेंटर पर हमारा ध्यान रहता है। कृष्ण ने भी कहा है कि जहाँ दस लोग हमारे नाम पर बैठते हैं वही हम रहते हैं न कि कहीं एक बैठा हुआ वहाँ जगल में और कृष्ण-कृष्ण कह रहा है। उनको समय नहीं है। कबीर ने कहा कि, ‘पाँचों पच्चीसों पकड़ बुलाओ।’ मतलब उनकी भाषा में इतना अधिकार भी देखिये। कितने अधिकार से बातें करते थे । कोई गिला नहीं था उनमें। वो कहते हैं, ‘पाँचो पच्चीसों पकड़ बुलाऊँ, एक ही डोर उड़ाऊँ। ये कबीर जैसे लोग बोल सकते हैं। और आप भी कह सकते हैं इसको बाद में। जब आप पार हो जायें तो आप भी देखेंगे कि जब तक पाँचों पच्चीसों नहीं आयेंगे तब तक सहजयोग मुकम्मल (पूर्ण) नहीं होता है । आती हूँ तभी आते हैं। उनकी हालत कोई ठीक नहीं रहती। से लोग आते हैं, पार हो जाते हैं। उसके बाद जब मैं बहुत सहजयोग में वो बढ़ते नहीं, वृद्धिंगत नहीं होते। आप पेड़ों के बारे में भी ये अनुभव करके देखें, कि अगर कुछ पेड़ मरगिल्ले हो जाएं तो उनको और पेड़ों के साथ आप लगा दीजिए, वो पनप जाते हैं। एक दूसरों को शक्ति देते हैं। मानो, जैसे कोई एक दूसरे को देखकर के बढ़ते हैं। और यही सामूहिकता ही सर्व राष्ट्रों में और सर्व देशों में फैलने वाली है। और उस दिन आप जानियेगा कि आप चाहे यहाँ रहें, चाहे इंग्लैण्ड में, चाहे अमेरिका में, या चाहे किसी भी मुसलमान देशों में या चीनी देशों में, कहीं भी रहें आप सब एक हैं। यही शुरुआत हो गई है, और सहजयोग एक बड़ी संक्रान्ति है। ‘सं’ माने अच्छी और ‘क्रान्ति’ माने आप जानते हैं। ये एक बड़ी भारी क्रान्ति है, जो पवित्र क्रांति है’, जो प्रेम से होती है, जो अन्दर से होती है । उसमें सबसे पहले जानना चाहिये कि हम उस विराट के अंग-प्रत्यंग हैं। हम अलग नहीं । और आप हैरान होइयेगा। इसके कितने फ़ायदे होते हैं। | एक हमारे शिष्य थे, प्रोफ़ेसर साहब, राहरी में। वो ज़रा अपने को अफ़लातून समझते थे, बहुत ज़्यादा। एक बार उन्होने मुझे बताना शुरु किया कि ये साहब जो हैं ये सहजयोग तो अच्छा करते हैं, बहुतों को पार तो किया लेकिन ज़रा गुस्सा इनको ज़्यादा आता है। और इनकी बीवी से इनकी पटती नहीं है । दुनिया भर की मुझे शिकायतें करने लग गये। तो भी मैं थी। चुप मैंने कुछ नहीं कहा। फिर उन्होंने एक ग्रुप बनाया आपस में, और कहने लगे हम लोग अलग से काम करेंगे। तो भी मैं चुप थी। तीसरे मर्तबा जब गये तो देखा कि वो कह रहे थे कि कुछ हर्ज नहीं थोड़ा सा तम्बाकू भी खा लें तो कोई बात नहीं, मैं तो खाता हूँ। माताजी को तो कुछ पता ही नहीं है। मैं तो खाता हूँ। कोई हर्ज नहीं। तो वो सब तम्बाकू खाने वालों ने एक ग्रुप बना लिया। माताजी के, मतलब, हैं तो सहजयोग, लेकिन तम्बाकू खाने वाले सहजयोगी, शराब पीने वाले सहजयोगी, रिश्वत लेने वाले सहजयोगी, झूठ बोलने वाले सहजयोगी। ऐसे ग्रुप बन गये। तो मैंने उनसे कहा, ‘वहाँ पर सिर्फ़ तम्बाकू खाने वालों का था, तम्बाकू बड़ी मुश्किल से छूटती है, बहुत मुश्किल से।’ तो, उसके बाद जनाबेआली से मैंने फ़रमाया कि, ‘देखिये , जरा आप सम्भल के रहिये। बहुत ज़्यादतियाँ आपने कर लीं हैं। जब ये ग्रुप बन जाता है, मैंने तभी कहा, तब विष बहुत ज़ोर करता है। अगर एक ही सेल हो तो कोई बात नहीं । लेकिन अगर दस सेल्स हो गये और सब मैलिग्नंट हो गये तो गया आदमी काम से।’ उसके बाद जब में मोटर से आ रही थी तो मैंने रास्तें में जो वहाँ के संचालक थे उनसे कहा कि, इन पर नज़र रखिये। मुझे डर लगता है कि ये कहीं गड़बड़ में न फँस जायें। और आपको आश्चर्य होगा कि उनको ब्लड कैन्सर हो गया। अब जब ब्लड कैन्सर हो गया तो उनकी हालत ख़राब हो गयी। तो वो साहब बम्बई पहुँचे। और बम्बई में सब सहजयोगियों ने अपनी जान लगा दी। बिल्कुल जान लगा दी उनके लिये| जितने भी डॉक्टर थे सहजयोगी और जो लोग थे उन्होंने अस्पताल में उनको भर्ती करना, उनका सब डाइग्नोसिस करना, उनके लिए दौड़ना, धूपना सब शुरु। अब जो रिश्तेदार उनके चिपके थे वो तो सब छूट गए, वो कोई उनको जानने वाला नहीं। उनके पास तो न इतना रुपया था न पैसा था। सब कुछ सहजयागियों ने तैयार करके-मुझे जो लोग कभी भी ट्रंककॉल नहीं करते थे, वो लन्दन में ट्रंककॉल पर ट्रंककॉल, ‘माँ, वो हमारे एक सहजयोगी हैं, उनको ब्लड कैन्सर कैसे हो गया ? आप ठीक कर दीजिये ।’ मैंने कहा, ‘इन्होंने कभी न चिट्ठी लिखी न कुछ किया। आज ट्रंककॉल लन्दन करना कोई आसान चीज़ नहीं। और जब देखो तब ट्रंककॉल, ‘माँ इनको ठीक हुए कर दो, माँ वो हमारे.........’। माने जैसे इन्हीं के प्राण निकले जा रहे हैं, सबके। बहरहाल वो अब ठीक हो गये, बिल्कुल ठीक हो गये। डॉक्टर ने कह दिया कि दस दिन में खत्म हो जाएंगे लेकिन अब बिल्कुल ठीक हो गये। अब वो समझ गये बात। उनके सगे कौन हैं, वह अब पहचान गये हैं। उससे पहले नहीं । उन लोगों के पीछे में दौड़ते थे, दूसरे रिश्तेदारों के पीछे में, उनको खाना खिलाना, पिलाना। उनसे कभी सहजयोग की बात नहीं करना। और जब सहजयोग में आना तो तम्बाकू वालों का एक ग्रुप बना लेना। लेकिन ऐसा आपका सगा-सोयरा कहीं दुनिया में नहीं मिलेगा। ज़्यादातर सगे ऐसे होते हैं कि आपकी खुशियों पर पानी डालते हैं। और कहते हैं कि ऊपर से दिखायेगे आपके बड़े दोस्त हैं लेकिन चाहेंगे कि आप खुश न हों। देखिए, आपको आश्चर्य होगा कि अगर कोई मर जाता है तो हज़ारों लोग पहुँच जाते हैं रोने के लिए। खुश होते होंगे, शायद घर पर आफ़त आयी, मन में। और जब कुछ प्रमोशन हो जाये, कुछ अच्छाई हो जाये, तो कहने लगे-‘पता है इसका कैसे प्रमोशन हो गया है! इसने बड़ी लल्लोचप्पी की होगी।’ कभी खुश नहीं होते। लेकिन सहजयोग दूसरी चीज़ है। सहजयोग में लोग खुश होते हैं, जब देखते हैं, ‘अरे ये सहजयोगी प्रथम आ गया। इस सहजयोगी के ऐसे हो गया। सहजयोगी के घर में किसी को बच्चा हो गया तो मार तूफ़ान हो जाता है। अभी एक साहब की शादी हुई राहरी में। वो स्वित्झरलैण्ड के थे। वहाँ आकर उन्होंने शादी करी। कहने लगे मेरे सगे भाई-बहन तो यहाँ रहते हैं। मुझे क्या करना है स्वित्झरलैण्ड में शादी कर के। वो स्वित्झरलैण्ड से आये, राहरी-एक गाँव में। वहाँ आकर के उन्होंने शादी करी, अपनी बीवी को भी लाये, और वहाँ उन्होंने शादी करायी। वहीं घोड़े पर गये और सब कुछ किया उन्होंने। कहने लगे, ‘भईया, मेरा वहाँ कोई नहीं रहता। मेरे सगे-सोयरे सब यहाँ पर हैं ।’ और ऐसे आनन्द से सबने उनकी शादी मनाई। और अब उसको बच्चा होने वाला है तो सब सहजयोगी ऐसे खुश हो गये, आपस में पेड़े बाँटने लग गये। और उनके जो रिश्तेदार थे , उनको समझ में ही नहीं आया कि ये कैसे सब हो गया। अब आपके रिश्तेदार सहजयोगी हो जाते हैं। आपके मित्र हो जाते हैं। आपके ‘अपने’ हो जाते हैं, ‘आत्मज’ । | ‘आत्मज’ शब्द बहुत सुन्दर है। शायद कभी इस का मतलब किसी ने नहीं सोचा। ‘आत्मज’ जो आत्मा से पैदा हुए हैं,वो आत्मज होते हैं। कहा जाता है कोई बहुत नज़दीकी आदमी को ‘ये मेरे आत्मज है। जिस का आत्मा से सम्बन्ध हो गया उसका नितान्त सम्बन्ध होता है। मैं और खुद आश्चर्य में पड़ती हैँ कि मेरे जान को लग जाएंगे अगर किसी के इतनी सी तकलीफ हो जाए और बार-बार माफ़ी मांगेगे, ‘माँ तुम माफ़ कर दो। तुम तो माफ़ कर दो। उस पर कुछ नाराज़ हो गई हो। नहीं तो......’। मैंने कहा कि, ‘भई, तुम क्यों माफ़ी माँग रहे हो उसकी ?’ ‘अब वो भूल रहा है माफ़ी माँगना तो हम ही माँग रहे हैं, उसको माफ़ कर दो।’ इतना प्रेम चढ़ता है सब देख -देखकर। इतना मोह लगता है कि, कितनी मोहब्बत, कितना खयाल! कितनी किसी पर कोई परेशानी आ जाए, पैसे की परेशानी आ जाए, कोई तकलीफ़ हो जाए, तो सबके सब से उसको कर लेते हैं, मेरे को पता ही नहीं चलता है। चुपके सब आपस में ऐसे खड़े हो जाते हैं, और सारी दुनिया की दुनिया ऐसे सहजयोगियों की जब खड़ी होगी ‘तब सोचिये क्या होगा?’ अभी तो हम लोग वैमनस्य, द्वेष और हर तरह की प्रतियोगिता और दो पागल रैट रेस के पीछे में दौड़ रहे हैं। ये सब खत्म हो जाएगा। और इतनी सुरक्षा की भावना हमारे अन्दर आ जाएगी कि सब हमारे भाई बहन हैं। पर जो लोग, जन – सामूहिक नहीं होते वो निकलते जाते हैं, सहजयोग से । ये तो ऐसा है, जैसे कि अपकेन्द्रीय बल है वो घूमता है, घूमता है और अगर उसने ज़रा सा छोड़ा कि गया वो स्पर्शरेखा से बाहर। वो रहता नहीं, फिर टिकता नहीं। इसलिये उसे चिपक कर रहना चाहिये। इसके जो नियम हैं, उसको समझना चाहिए, उसको जानना चाहिये । दुसरों से पूछना चाहिये। उसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं। जो कल आये थे वो ज़्यादा जान गये। आज आप आये हैं आप जान जाइये। और जो कल आयेंगे वो आप से जानेंगे। इसमें बुरा मानने की और इसकी कोई बात नहीं। पर जब आदमी सहजयोग में पहले आता है तो वह यही भावना लेकर आता है कि अब हम इसमें आये हैं और ये देखिये, हमें बड़ी शान दिखा रहे हैं। ये दूसरे हो गये। इनकी श्रेणी बदल गयी है, ये दूसरे हैं। ये दिखने में आप जैसे ही हैं लेकिन ये दूसरे हो गये हैं। जैसे समझ लीजिये कि आपके कॉलेज में लड़के पढ़ते हैं| कोई बी. ए. है, कोई प्रथम वर्ष है। फिर कोई एम.ए. में है। एम.ए. लड़का पास होकर प्रोफ़ेसर होकर आ जाता है, तो हम यह थोड़े ही कहते हैं कि कल हमारे ही साथ में पढ़ता था और आज आ गया बड़ा हमारे ऊपर। उसी तरह की चीज़ है-इनकी श्रेणी बदल गयी। आप की भी श्रेणी बदल सकती है। कुछ-कुछ लोगों को मैंने देखा है कि सालों से रगड़ रहे हैं सहजयेग में । कुछ प्रोग्रेस नहीं होता, वो ऐसे ही चलते रहते हैं, डावाँडोल-डावाँडोल। कभी गुरुओं के चक्करों में घुसे। आज ही एक महाशय आये थे, आये होंगे अभी भी। पार हो गये थे, उसके बाद में वो गये; कोई शंकराचार्य के पास गये, कहीं किसी के पास गये, कहीं कुछ गये। बिचारे बिल्कुल पागल हो गये, पागल। मुझे आकर बतलाने लगे कि माँ, मेरे अन्दर पिशाच भर दिये इन्होंने। सबने पिशाच भरें। आए अभी बिचारे; काफ़ी उनको साफ़-सूफ़ किया हमने। पर उससे प्रगति उनका कम हुआ। अगर उसी वक्त जम जाते तो आज कहाँ से कहाँ होते। और बड़ी तकलीफ़ उठाई बिचारों ने। बड़ी परेशानी उठाई। सामूहिकता को आप समझें कि बहुत महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ा आशीर्वाद सामूहिकता में आता है। और जहाँ इस सामूहिकता को तोड़ने की कोशिश की, यानि लोगों की आदत है, क्लब करने की, कोई न कोई बहाना लेकर के। आप सफेद बाल वाले हैं तो मैं भी सफ़ेद बाल वाला हूँ। चलो, हो गये एक। आप लम्बे आदमी हैं तो हम भी लम्बे आदमी हैं, हो गये क्लब। आप सरकारी नौकरी हैं, मैं भी सरकारी नौकर हूँ, चलो हो गए एक। सहजयोग में सब छूट जाता है। आप कौन देश के हैं? परमात्मा के देश के। आप किसके साम्राज्य के हैं? परमात्मा के। परमात्मा ने थोड़ी ऐसी बनाया था कि आप यहाँ के, आप वहाँ के। भई परमात्मा तो हर एक जगह विविधता बनाते ही हैं। ये त्रिगुण के विविध मिश्रण के साथ में उन्होंने ये सारा बनाया और जिस लिये कि जैसे वैविधता से खूबसूरती आती है। आप सोचिये कि सबकी एक जैसी शक्ल हो जाती तो नीरस नहीं हो जाते सब लोग ? कम से कम हिन्दुस्तानी औरतों को इतनी अक्ल है कि साड़ियाँ पहनती हैं अब भी, और अब अलग-अलग तरह की पहनती हैं। पर आदमी तो बोर करते हैं-उनके कपड़ों से। सब एक जैसे। औरतें जो हैं अभी भी अपना मेंटेन किए हैं। अगर एक औरत ने देखा कि दूसरी मेरे जैसी साड़ी पहन कर आयी है तो बदल के आ जाएगी। और साड़ी वाले भी इतने होशियार होते हैं बिचारे। वो जानते हैं उनको आदत पड़ी रहती है। पचासों साड़ियाँ दिखायेंगे। वो थकते नहीं बिचारे। मैं कहती हैँ कौन जीव हैं, ये भी पता नहीं । और कभी उनको पता हो गया कि ये साड़ी मेरे पड़ोस के उसके रिश्तेदार के उसके पास है तो लेंगी नहीं। ये विविधता की भावना सौंदर्य का लक्षण है। इसलिये परमात्मा ने बनाया है। उसने सारी सृष्टि सुन्दर से बनायी, कहीं पहाड़ बनाये, कहीं पर नदियाँ बनायीं, कहीं कुछ बनाया। इसलिये कि आप लोग उसमें मस्त हें, मज़े में रहें। लेकिन आपने तो इसको ये देश बना लिया, उसको वो देश बना लिया, उसने वो देश बना लिया और लड़ रहे हैं आपस में। अजीब हालत है। हमारे जैसे अजनबी को तो बड़ा ही आश्चर्य लगता है, ‘भाई, इसमें लड़ने की कौनसी बात है?’ और फिर घुटते-घुटते हर एक देश में अपनी-अपनी समस्या, अपना अपने ढंग बनता गया। सहजयोग में ये चीज़ टूट जाती है। आपको देखना चाहिए था कि परदेश के आये हुए लोग किस तरह से अपने देहातियों के साथ गले मिल-मिलकर के कूद रहे थे। और वहाँ पर नृत्य सीख रहे थे , कैसे अपने देहाती लोग नृत्य करते हैं। अगर ये पंजाब जाएंगे तो वहाँ जाकर भांगडा करेंगे, उनके साथ कूद-कूदकर। देखने लायक चीज़ है। ये भूल गए कि हम किस देश के हैं। प्रेम, उसका मज़ा, प्रेम का मजा आता है। फिर आदमी यह नहीं सोचता कि कपड़े क्या पनहे हैं, ये कहाँ रह रहा है कि क्या; बस मज़े में । ये सब विचार ही नहीं आता है-कौन बड़ा, कौन छोटा, कौन कितनी पोजिशन में है। कुछ खयाल नहीं आता। ये सब बाह्य की चीजें हैं, सनातन नहीं है। क्योंकि सनातन को पा लिया है। पर सबसे बड़ी बात आपको याद रखनी चाहिए, हर समय, कि हमें सामूहिक होना चाहिए और सामूहिकता में ही सहजयोग के आशीर्वाद हैं। अकेले-अकेले बिल्कुल नहीं। बिल्कुल भी नहीं। आप खो दीजियेगा सब कुछ। मैंने ऐसे बहुत से लोग देखे हैं। लोग ज़्यादातर जो बीमारी ठीक करने आते हैं, वो ज़्यादातर इसी तरह से होते हैं। आये, बीमारी ठीक हो गई, उसके बाद बैठ गये।

एक साहब आये थे हमारे पास, बहुत चिल्ला-चिल्ला कर ‘माँ, मेरा ये जल रहा है , मुझे बचाओ, बचाओ, बचाओ| मैंने कहा, ‘बैठे रहो अभी थोड़ी देर।’ उसके बाद जब पहुँची तो पाँच मिनट में ठीक भी हो गये। उसके बाद एक दिन बाज़ार में मुझे मिले, तो मेरा फोटो वोटो रखा हुआ है अपने मोटर में। कहने लगे मैंने घर में भी फोटो रखा है, मेरे दिल में भी फोटो है। मैंने कहा, ‘बेटे क्या बात है, वाइब्रेशन तो हैं नहीं।’ कहने लगे, ‘हाँ नहीं है ।’ और अब एक कोई नई बीमारी हो रही है। मैंने कहा, ‘ये सब फोटो बेकार गये न तुम्हारे लिये। तुम सहजयोग करने के लिए केन्द्र पर आओ ।’ आप सोचिये, दिल्ली शहर में हमारे पास कोई केन्द्र नहीं। हर तरह के चोरों के पास यहाँ इतने बड़े-बड़े आश्रम बन गये। हमारे पास अभी कोई जगह नहीं। किसी के घर में ही हम कर रहे हैं। कोई बात नहीं। हमारे पास जो धन है, वो सबसे बड़ी चीज़ है। उसके लिये कोई जरूरी नहीं कि अब महल खड़े हों, बड़े वातानुकूलित आश्रम हों। वह तो कभी होंगे ही नहीं हमारे। और अभी तक हमें, कहीं भी हम लोग ज़मीन नहीं खरीद पाये , क्योंकि हमने यह कहा था कि हम काला बाज़ार का पैसा नहीं देंगे। तो आज तक इस दिल्ली शहर में एक आदमी नहीं मिला जिसने कहा है कि, ‘अच्छा माँ हम आपको ऐसी ज़मीन देंगे जिसमें सीधा-सीधा पैसा हो।’ एक आदमी नहीं मिला इस दिल्ली शहर में और उस बड़े भारी बम्बई शहर में आपके! ये हालत है। सरकार से कहा, तो वहाँ भी जो नीचे के लोग हैं वो रिश्वत लेते हैं। उनको क्या मालूम ये सब चीज़, कि ऐसा- ऐसा होता है। लेकिन होता है। और उसके बाद उन्होंने ज़मीन दी भी, मतलब रिश्वत तो हमने दी नहीं, तो उन्होंने हमें सब्ज़ी मंडी के अन्दर जगह दी। बताइये अब! सब्ज़ी मंडी के अन्दर जहाँ बैल बाँधते हैं, वहाँ उन्होंने सहजयोगियों के लिए जगह दी। हमने कहा, ‘भाई, जिसने दी है, उसने कभी देखा भी कि बैलों के साथ क्या सहजयोगी वहाँ बैठने वाले हैं?’ बहरहाल अब कि तो उस बात को लोग समझ गये हमें बहत दौड़ना पड़ा, सालों तक। अब दस वर्ष से कोशिश करने के बाद उन्होंने कहा, हम इस पर सोचेंगे। इसका अर्थ आप सरकारी नौकर जानते हैं। अभी वो सोच ही रहे हैं। तो बहरहाल जब भी जगह होगी, जैसे भी जगह, आप उसको देखें वहाँ करें, जो भी अभी सुब्रमनियम साहब ने अपना घर दिया हुआ है वहीं होता है। और कोई जगह अगर आपको मिल जाये तो ऐसी कोई जगह कर लीजिए। कोई ज़रुरत नहीं कि बहुत बड़ी जगह हो। सर्वसाधारण लोग जहाँ आ सकें। इस तरह से सब अपना ही कार्य है। हमारे बच्चों के लिए हम कर रहे हैं। हमारे सारे मानव जाति के लिये हम कर रहे हैं । इसके लिए बहुत बड़ा आडंबर करने की जरुरत नहीं है। सादगी से ही, सरलता से ही सबको बैठकर करना चाहिए। सहजयोग इतनी आशीर्वाद देने वाली चीज़ है कि सहजयोग में आये हुए log आज बड़े-बड़े मिनिस्टर हो गये हैं। ये भी बात देखिये कितनी आश्चर्य की है। लेकिन मिनिस्टर होने के बाद वो भूल गये कि वो सहजयोगी हैं। जब मिनिस्टरी छूटेगी फिर आयेंगे। जरुर आयेंगे। फिर आप पहचानियेगा कि, ‘ये फलाने मिनिस्टर थे, माताजी।’ अब उनको फुरसत नहीं। इसके लिये बहुत बड़ा आडम्बर फुरसत सहजयोग के लिये जरूर निकालनी पड़ेगी आपको। ये आपका परम कर्तव्य है। जो कहता है, ‘मेरे पास समय नहीं है। कब करुँ?’ वो सहजयोग नहीं कर सकता। रोज शाम को और रोज सबेरे थोड़ा देर निकालना पड़ता है। सहजयोग में अनेक नियम हैं। अपने आचार-व्यवहार, बर्ताव, रहन-सहन, आसन आदि क्या-क्या करने के वरगैरह सबके नियम हैं। मैं सब नहीं बता सकती। एक साहब ने प्रश्न किया कि, ‘माताजी, आपने कहा था उसके आसन बताओ।’ तो मैं सब चक्रों के आसन आज नहीं बता सकती। लेकिन इसके मामले में लोग जानते हैं। कौनसे आसन करने चाहिए, कौनसे चक्र पर कौनसी तकलीफ़ है। आपको कौनसी तकलीफ़ है, वो बता सकते हैं, पता लगा सकते हैं। आपस में आप विचार विमर्श कर सकते हैं और आप उन्नति कर सकते हैं। | लेकिन आपको एक दूसरे से बातचीत करनी होगी और कहना होगा कि, ‘मुझे तकलीफ़ है’। सबमें घुल-मिल जाना चाहिए। अधिकतर लोग क्या है, कि आये वहाँ देखा कि वो साहब थे। वह सब ऐसा कर रहे थे, तो हम वहाँ से भाग खड़े ऐसे लोगों के लिये सहजयोग नहीं है । आपको घुसना पड़ेगा, उसमें रहना पड़ेगा, उन लोगों के साथ बातचीत करनी हुए, पड़ेगी। क्योंकि ये ऐसी कला है कि ये बार-बार माँगने पर मिलती है। कोई सी भी कला, आप जानते हैं, लोग आपकी हालत खराब कर देते हैं तब देते हैं। तो आप का भी परीक्षण होता है कि आप कितने योग्य हैं। यह नहीं कि आप आए और आप छुई-मुई के बुधवा बनकर आपने कह दिया कि ‘साहब वो ऐसे-ऐसे थे। उन्होंने हमसे बदतमीजी की तो हम भाग आये।’ कुछ नहीं। सहजययोग में जमना पड़ता है और उसमें आना पड़ता है। हालांकि कोई आपका अपमान नहीं करता। लेकिन आप में बहुत अहंकार होगा तो बात-बात में आपको ऐसा लगेगा। जैसे एक साहब आये, मुझे कहने लगे, ‘हम तो आये थे आपसे मिलने लेकिन वहाँ एक साहब थे बड़े बदमाश थे।’ हमने कहा, ‘क्या हुआ?’ कहने लगे कि, ‘हम दिन में आये थे आपके पास।’ मैंने कहा कि, ‘कितने बजे?’ ‘३.३० बजे’। मैंने कहा, ‘उस वक्त तो मैं आराम करती हूँ।’ तो कहने लगे, ‘हमने सोचा माँ का दरबार है, कभी भी आ जाओ|’ मैंन कहा, ‘ठीक है, आपके लिये तो माँ का दरबार है, लेकिन आपकी अक्ल का दरबार कहाँ रह गया? जो रात-दिन माँ मेहनत कर रही है क्या उसको थोड़ा आराम नहीं करना चाहिए? अगर उन्होंने कह दिया कि इस वक्त माँ आराम कर रही है, ‘आप नहीं आयें।’ तो आपको खुद सोचना चाहिए कि बात सही है?’ लेकिन जब वो उस जगह खड़े होंगे तो क्या करेंगे ? इस प्रकार लोग बहत बार सहजयोग से बेकार में भागते हैं, और इसकी सबसे बड़ी वजह मैं तो ये ही सोचती हूँ कि अभी वह पात्र नहीं है। जो आदमी पात्र होता है, घुसता चला जाता है। थोडे दिन नाराज़ हो रहे हैं, कुछ हो रहे हैं। चले, घुसते चले जाओ | और गहन उतरता है। जो सॉफ्ट लाइन है, वो हमेशा लेती है, जीवन्त चीज़ । जैसे एक बीज़ है, जब वो अंकुरित होता है, तो उसका जो रुट-कैप होता है, बड़ा छोटा सा होता है, इतना सा। लेकिन बड़ा समझदार, होशियार होता है। वो जाकर चट्टानों से नहीं टकराता है। किसी पत्थरों से नहीं टकराता है, पर पत्थर के किनारे पर थोड़ीसी नर्म जगह मिल जाए, उसमें से घुसता चला जाता है। और जाकर जम जाता है उन पत्थरों पर, इस तरह से जकड़ जाता है कि सारा पेड़ का पेड़ उसीके सहारे खड़ा हो जाता है। यह अक्लमंदी की बात है जब इतना सा एक सेल है, उसको इतनी अक्ल है, तो क्या सहजयोगियों को नहीं होनी चाहिए कि किस तरह से हम गहन उतरे चलें। कुछ न कुछ बहाना बनाकर सहजयोग से भागने से आपकी प्रगति नहीं होगी। आपका ही नुकसान होगा। ये सब बहानेबाज़ियाँ आपको बन्द करनी चाहिये। ये आपके मन का खेल है। इसको आप छोड़िये। ये अहंकार है और कुछ नहीं है । ये बड़ा सूक्ष्म अहंकार है। कोई आपके पैर पर नहीं गिरने वाला। यह तो जरुरी है कि सबसे अच्छी तरह बातचीत की जाए, कहा जाए। पर अगर कोई बिगड़ भी गया उस पर, तो सहजयोग से भागने की क्या जरूरत है अब? जब तक आप केन्द्र पर नहीं आयेंगे तब तक आपका कोई भी काम नहीं बन सकता है। सब से बड़ी बात यह है कि बहुत से लोग यह भी सोचते हैं कि अगर हम सहजयोगी हैं तो हमारे बाप-दादे के दादे के, बहन के बहन के और भाई के भाई के, कोई न कोई रिश्तेदार, कहीं अगर उसको कुछ हो जाये तो बस वो माता जी उसको ठीक करें । एक साहब बहुत बड़े सहजयोगी हैं और हमारे यहाँ ट्रस्टी रह चुके हैं। सालों से ट्रस्टी हैं। उनकी बीवी भी। दोनों को बहुत बीमारी थी। ठीक हो गये। काफ़ी गहरे उतर चुके। सब कुछ हुआ। उनके लड़के का लड़का ऊपर से गिरकर मर गया। सामान्यत: सहजयोग के लोग दुर्घटना से मरते नहीं कभी, अभी तक तो हमने सुना नहीं किसी को मरते और वो तो एक हुए। इस तरह से मर गया। जवान लड़का था। लेकिन उन्होंने कहा कि, ‘ठीक है, ये तो कुछ न कुछ होना था और हो गया। लेकिन दुर्घटना से तो माँ ने मुझे बहुत बार बचाया है। मैंने इतनी बार अपने लड़के से कहा कि माँ के पास चलो। आया नहीं।’ तो मैं क्या उसकी जिम्मेदारी ले सकती हूँ? अगर वो माँ के पास आता, अपने बच्चे को लेकर आता, तो कभी भी ऐसा नहीं होता। उन्होंने वही बात मुझसे कही और इतना उस बच्चे को प्यार करते थे , सब कुछ, लेकिन उन्होंने कहा कि, ‘जब बाप ही नहीं आ रहा तो लड़का क्या आएगा ?’ आपके जितने रिश्तेदार हैं, उनका ठेका हमने नहीं लिया हुआ न आप लीजिए। आप उन से कहिये कि सहजयोग में आप उतरे। सहजयोग को आप पायें। और इसकी रिश्तेदारी आप अगर उठा लें तो सारी दुनिया ही आपकी रिश्तेदार है। पर यह सोचना कि, ‘मेरी बहन बीमार रहती है और मेरे फ़लाने बीमार रहते हैं’ और इस तरह से जो लोग करते हैं उससे कोई लाभ नहीं होता। पहले आपको पार हो जाना चाहिए। पार हो जाने के बाद आपका अधिकार बनता है। उस अधिकार के स्वरूप आप चाहें जो भी माँगें। आप का पूरा अधिकार है। सर आँखों पर हैं आप| अगर समझ लीजिये आप इंग्लैण्ड जायें और इंग्लैण्ड से जाकर आप कहें कि, ‘हमें ये चीज़ चाहिए।’ अरे रहने दीजिये, उस लन्दन में आपके लोग पैर नहीं ठहरने देंगे, जब तक आपके पास सत्ता न हो वहाँ जाने की। जब आपके पास सत्ता नहीं है, तब आपका सहजयोग से कोई भी आशीर्वाद माँगना गलत है। जैसे एक साहब थे, बहुत बीमार थे। इन लोगों ने टेलीफोन किया, ट्रंककॉल किया, ‘माँ उनको ठीक करो।’ वे पार नहीं थे, कुछ नहीं थे। तो मैंने कहा, ‘अच्छा हम कोशिश करते हैं।’ उनके साहबज़ादे पार थे। कोशिश की, मैंने कहा कि, ‘देखो, इसको छोड़ दो ।’ अहंकार इतना था कि वो ठीक ही नहीं हुये। तब आने पर वो ठीक हो गये। थोड़े दिन उनकी जिन्दगी चली। लेकिन जब मरना है तब तो आदमी मरता ही है, वो थोड़े ही न हम रोकने वाले हैं। सिर्फफ़ यह है कि सहजयोग से मनुष्य शान्ति को प्राप्त करता है, मरने से पहले और जो चीज़ बहत आकस्मिक हो जाती है, उससे बच जाता है। इसलिये मैंने कहा कि, ‘दुर्घटना से नहीं मरता है। अचानक कोई चीज़ वो होकर नहीं मरता है। वास्तविक जब मरना है तब मरता है। तो उनको जब मरना था वो मर ही गये बिचारे। वो पार भी नहीं हये थे और बड़ी मुश्किल से उनको किसी तरह से ठीक किया था । वो मर गये तो उनके सब रिश्तेदार कहने लगे कि, ‘माता जी इनको बचाया नहीं।’ मैंने कहा, ‘उनसे एक सवाल पूछो कि आपने माताजी के लिए क्या किया?’ पहला सवाल। लोग ऐसा हक़ सहजयोग से लगाने लगते हैं। क्योंकि ये सहज है । वो सोचते हैं कि माँ ने हमारे लिए क्या किया ? अब भाई आपने क्या किया माँ के लिए ? आपने अपने ही लिए क्या किया ? पहले तो सवाल ये पूछना चाहिए कि हमने अपना ही क्या भला किया है? सहजयोग में हमने ही क्या पाया हुआ है? क्या हमने अपने वाइब्रेशन्स ठीक रखे हैं? या क्या हमने एक आदमी को भी पार कराया है? हुआ महाराष्ट्र में आप आश्चर्य करेंगे, इतने लोग पार होते हैं कि हज़ारों तादाद में। महाराष्ट्र की महत्ता मैं इसलिये नहीं कहना चाहती हूँ कि आप जाकर खुद ही देखिये, मैं तो खुद ही आश्चर्य में हूँ कि इतने हज़ारों लोग कैसे पार हो जाते हैं? और फिर जमते भी बहुत हैं। यह भी बात उन लोगों में है। और इस तरह की बात वहाँ नहीं होती है। अब वहाँ ये नियम बनाया था पहले हमने कि किसी ने अगर ग्यारह आदमियों को पार किया है वो ही मेरे पैर सकता है। वहाँ पैर छूने की लोगों को बीमारी है। अगर किसी से कहो कि पैर नहीं छूना, तो बस उसके लिए फिर आफ़त हो जाती है । छ: हज़ार भी आदमी होंगे तो भी चाहेंगे कि माँ के पैर छूयें। यहाँ किसी से कहो कि पैर छूओ तो वो बिगड़ जाये कि, ‘क्यों पैर छूयें साहब इनके हम ?’ छू लेकिन उनको मैंने अगर कहा कि, ‘आपको पैर छूना है तो आप कम से कम ग्यारह आदमी होने चाहियें । वही लोग छु सकते हैं जिन्होंने ग्यारह आदमी पार किये। तो कुछ लोग खड़े हो गये, कहने लगे, ‘माँ, हमने तो ग्यारह नहीं दस ही किये हैं छू लें पैर ?’ देखिये भोलापन। अब उन्होंने कहा कि, ‘भाई अब इक्कीस बनाओ|’ कम से कम इक्कीस पार किये हों तो माँ के पैर छू सकते हैं, नहीं तो अधिकार नहीं जमता। और ये काम बन गया, इक्कीस वाले बहुत निकल आये। इतने निकले, कि मुझे तो कहना पड़ा, ‘भाईयों, अब जाने दों, अब नम्बर बढ़ाओ |’ ५१ कर दीजिये, तो भी बहुत ऐसे-ऐसे लोग हैं, ‘दस-दस हज़ार’ पार किये हैं। इसलिये शायद उसका नाम ‘महाराष्ट्र’ रखा है। दस-दस हज़ार लोग पार करने वाले वहाँ लोग हैं। निकल आयेंगे। वहाँ तो और यहाँ खुद ही नहीं जमते हैं, दूसरों को क्या करेंगे। जिसको कहना चाहिए बिल्कुल उथल वृत्ति है । अपने तरफ़ भी सेल्फ एस्टीम नहीं है। अपने बारे में भी विचार नहीं है, न दूसरों के बारे में। जानते नहीं हैं हम क्या हैं। हम आत्मा स्वरूप हैं, कितनी बड़ी चीज़ है! हम कितने शक्तिशाली हैं! इस शक्ति को हमें बढ़ाना चाहिए। अपने बारे में कोई विचार ही नहीं है । एक रौनक़ लगा ली, बस हो गया। इससे काम नहीं होता। अपने अन्दर जो हैरौनक करनी पड़ती है और सबके साथ में इसको बाँटना पड़ता है। मराठी में एक कवि हो गये हैं, उन्होंने कहा है, ‘मला पाहिजे जातीचे, येरा गबाळ्याचे काम नोहे’। कहने लगे इसके लिए जिसमें जान हो वो आये। ऐसे वैसे नन्दी- फन्दी लोगों का ये काम नहीं है । ‘येरा गबाळ्याचे’ माने बेवकूफ़ों का ये काम नहीं है । इसलिये आपसे मुझे अनुरोध करना है, बताना है, बहुत -बहुत विनती करके, कि आपको जो भी दिया है उसका संजोना बहुत जरूरी है। इस को और बढ़ना बहुत जरूरी है। आप ही देहली के नींव के पहले पत्थर हैं। और आज सात साल से मैं| यहाँ मेहनत कर रही हूँ दिल्ली में और अभी इन गिन के दो सौ पत्थर भी नहीं जोड़ पायी। ये कठिनाई है। आप सोचिये। और जो आते भी हैं ज़्यादातर दल-बदल और दल बाँधने में नम्बर एक। यह शायद हो सकता है कि राजनीजि का असर हो। चाहे जो भी हो । इतनी राजनीति करते हैं कि जिसकी कोई हद नहीं। इसमें राजनीति नहीं है, कुछ नहीं है। इसमें सिर्फ़ अपने को पाना और परमात्मा को पाना और सारे संसार को एक नई सुन्दर, प्रेमपूर्ण क्रान्ति में बदल देना ही एक काम है। बड़ा भारी काम है। बहत महान काम है। इसमें हज़ारो लोग चाहिये और अगर आप नहीं करियेगा तो ये भी आप जान लें कि ये लास्ट जजमेंट है। जजमेंट कुण्डलिनी से ही होने वाला है। और क्या भगवान आपको तराजू में डाल कर नहीं देखने वाला। कुण्डलिनी को जागृत करके ही आपका जजमेंट होना है। वो लास्ट जजमेंट जो बताया गया है वह शुरू हो गया है। और जो इसमें से रुक जायेंगे उसके लिए कलकी अवतरण में कि आप जानियेगा कि काट-छाँट होगी। कोई आपको भाषण नहीं देगा, कोई बात नहीं करेगा। बस एक टुकड़ा इधर या एक टुकड़ा उधर। यह आप समझ लीजिए और ये चीज़ अपने गाँठ में बाँध लें कि अब जितना भी सन्त-साधुओं ने यहाँ मेहनत की है, जो भी बड़े-बड़े अवतरण यहाँ हो गये, जो भी कार्य परमात्मा के दरबार के लिए हुआ है, वह सब पूरा हो गया है और आप मंच पर हैं। आप मंच पर रहना चाहें तो मंच पर रहें, या नीचे उतर जायें। यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप ही न रहें लेकिन सबको ऊपर खींचे। आप लोग दूसरी तरह के हैं। आपकी श्रेणी और है। आप साधक हैं, और आपको समझ लेना चाहिए कि इसके लिये एकव्रत निश्चय होना चाहिए। आर्मी में इसको कहते हैं कि ‘बाना’ पहन लिया आपने। तभी ये चीज़ कम हो सकती है। और ऐसे वैसे, ऐरे-गैरे नत्थू खैरों से यह काम नहीं हो सकता। आप ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे नहीं है, मैं जानती हूँ। लेकिन अभी आपने अपने को पहचाना नहीं। उसे जान लेने पर आश्चर्य होगा कि क्या यह शक्ति, प्रचण्ड शक्ति, यह ब्रह्म शक्ति माँ ने हमें दी है! और जैसे ही शक्ति बहने लग जाती है, आदमी सोचता है कि, ‘मैं भी इस काबिल हो जाऊँ।’ जब इस प्याले से ये चीज़ छलक रही है तो ये प्याला भी इस योग्य हो जाये कि इस महफ़िल में आ सके। इस तरह से आदमी अपने | आप ही अपना व्यवहार, अपना तरीक़ा ‘सब’ कुछ बदलता जाता है। हूँ। सबसे बड़ी बात तो यह है कि बड़े-बड़े जीव इस संसार में जन्म लेना चाहते हैं। अगर आपका दिल्ली में वातावरण ठीक नहीं हुआ, तो यहाँ सिर्फ राक्षस जन्म लेंगे। या तो बहुत ही पहुँचे हुए लोग जन्म लें, जो डण्डे लेकर आपको मारेंगे। और या तो राक्षस पैदा होंगे और राक्षसों की ही यह नगरी हो जायेगी। इसलिये मुझे बड़ा डर लगता है। कभी-कभी सोचती हूँ कि इनकी समझ में अभी बात आ नहीं रही। आप लोगों की बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि देहली जो है वह दहलीज़ है इस देश की ओर। इस दहलीज़ को लाँघ कर अगर राक्षस आ जायें तो आप लोग कहीं के नहीं रहेंगे। आपको दहलीज़ पर उसी तरह से पहरा देना चाहिये जैसे कि बड़े-बड़़े देवदूत और बड़े-बड़े चिरजींव खड़े हये आपके जीवन को सम्भाल रहे हैं। अपनी आप रक्षा करें और औरों की भी रक्षा करें। अपना कल्याण करें, औरों का भी कल्याण करें, और सारे संसार को मंगलमय बनायें, यही मेरी इच्छा है। इसके बाद मैं मद्रास जा रही हूँ, लेकिन उसके बाद आऊँगी। और उसके बाद भी मेरा प्रोग्राम दिल्ली में रहेगा तीन -चार दिन। आप लोग सब वहाँ आइये, जहाँ भी प्रोग्राम होता है। जहाँ-जहाँ सहजयोगी आते हैं वहाँ-वहाँ कार्य ज़्यादा होता है। सब लोग वहाँ आइये। ये लोग तो आपकी भाषा भी नहीं समझते हैं और जहाँ-जहाँ मैं गई गाँव वगैरा में वहाँ तो हिन्दी या मराठी भाषा बोलती रही। लेकिन ये लोग सब लोग वहाँ आते रहे और हर तरह की आफ़त, आप जानते हैं इन लोगों को तो गाँव में रहने की बिल्कुल आदत नहीं है। वहाँ पर रहकर के ये समझते हैं कि हमारे रहने से माँ के लिए बड़ा आसान हो जाता है। क्योंकि आप ही पथ है। आपके पथ मैं इस्तेमाल करती हूँ। अगर समझ लीजिये इतना बड़ा ये जो आपका बिजली घर है, इसमें अगर चैनल नहीं हुए तो बिजली कैसे प्रवाहित होगी । वह चैनल आप हैं, इसलिये आपको चाहिए कि जहाँ भी मैं करूँ, जब तक मैं हूँ, इसको निश्चय से, धर्म समझ कर आप वहाँ आयें और इस कार्य को आप अपने लिए भी अपनाइये और दूसरों के लिए भी अपनायें। धन्यवाद !

New Delhi (India)

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